मैंने समेटी हैं अनगिनत खुशियां
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दिनेश कुकरेती
मैंने विकास की गोद में प्रकृति को सिमटते देखा है। दून की खुशहाली को सिसकते देखा है। जी हां! तमाम उन गवाहों में मैं भी शामिल हूं, जिसने देहरादून की बदलती सूरत और रंगत को न सिर्फ करीब से देखा, बल्कि महसूस भी किया। मैं 30 मई 1938 को जन्मा और नाम मिला जुगमंदर हॉल। आज मैं 79 वर्ष का हो चुका हूं। वैसे तो मैं शहर का एकमात्र सार्वजनिक प्रेक्षागृह (ऑडिटोरियम) हूं, मगर दुर्भाग्य देखिए कि कई लोग ठीक से मेरा नाम (जुगमंदर हॉल) भी नहीं जानते। ...और इतिहास तो शायद गिने-चुनों को ही पता होगा।
बड़ी बात नहीं कहता, मगर मैं इस शहर की वो इमारत हूं, जिसने गुजरे दौर में इस शहर को एक नई पहचान दी। इसके खुशहाल अतीत को जिया और वर्तमान को ढो रहा हूं। ढो इसलिए रहा हूं, क्योंकि आज का दून वो शहर नहीं रहा, जिसके लिए ये दुनियाभर में जाना जाता था। जिसके लिए ब्रितानी हुकूमत भी इसकी तारीफ करती थी। एक वक्त था, जब कल-कल बहती नहरें इस शहर की पहचान हुआ करती थीं। लोग इसे उत्तर का वेनिस कहा करते थे। लीची और बासमती की खुशबू लोगों के हृदय को महका देती थी। ...और मौसम इतना खुशनुमा कि पूछिए ही मत। जो भी यहां आता, उसका मुरीद हो जाता।
वो वक्त था 70 के दशक का, जो मेरे लिए भी बेहद सुनहरा दौर रहा है। तब उत्तर भारत के रंगमंच की पूरे देश में तूती बोलती थी। उस वक्त दून उत्तर भारत के रंगमंच का 'मक्काÓ हुआ करता था और मैं 'लॉड्र्सÓ। मेरा आंगन हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी से सराबोर रहता था। तब उत्तर भारत का शायद ही कोई थियेटर ऑर्टिस्ट होगा, जो अपनी कला को निखारने के लिए मेरी चौखट पर न पहुंचा हो। मैंने भी हर कला प्रेमी पर अपना सर्वस्व न्योछावर किया और उसे बुलंदियों तक पहुंचाया। मेरे आंगन में गूंजी किलकारियां मुझे आज भी याद करती हैं। संस्कृति और कला को सहेजने में मैंने कोई कसर बाकी नहीं रखी।
मेरी इमारत में चुनी गई हर एक ईंट इस बात की गवाह है। मगर, ये ईंटें उस दौर की भी गवाही देती हैं, जब मेरे अपनों ने ही मुझे बिसरा दिया था। मैंने अपने देश को आजाद होते देखा, अपने राज्य को वजूद में आते देखा और दून को अस्थायी राजधानी बनते भी। बावजूद इसके मेरे अपनों ने ही मेरे वजूद पर ताला जड़ दिया और मुझे धकेल दिया गुमनामी की काल कोठरी में। ठीक उसी तरह जैसे दून की नहरों को विकास के लिए बलि चढ़ा दिया गया और कंक्रीट के जंगल के लिए भुला दी गई बासमती व लीची की खुशबू। हालांकि, मैंने हिम्मत नहीं हारी। हर वक्त मेरा रोम-रोम आजादी के लिए तड़पता था। मेरा आंगन फिर से उन घुंघरुओं की छनक सुनने को बेताब रहता, जिनकी आवाज मेरी धड़कन हुआ करती थी। मैं तो अनंत काल तक कला को तराशने की हसरत रखता हूं, फिर ऐसा क्यों...?
यह सवाल हर वक्त मेरे जेहन में गूंजता रहता था। मगर, मुझे उम्मीद थी कि कभी तो मेरा कोई अपना मेरी सुध लेगा, क्योंकि मैं कोई गुजरा वक्त थोड़े हूं, जो लौट के न आ सकूं। सचमुच इसी उम्मीद ने मुझे टूटने नहीं दिया। कुछ वर्षों बाद नगर निगम ने मुझे फिर से संवारने का बीड़ा उठाया और मैं बेडिय़ों से आजाद हो गया। आज मैं फिर पहले की तरह कला को मुकाम देने का काम कर रहा हूं। अब मेरे आंगन में कबूतरों के पंखों की फडफ़ड़ाहट नहीं, बल्कि रंगमंच के संवाद और लोगों की तालियां गूंजती हैं। आज मैं फिर पहले की तरह हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी में गोते लगाता रहता हूं।
इस परिवार ने दिया दून को विस्तार
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इस शहर की हर सांस में समाया हुआ है लाला भगवान दास का परिवार। यही परिवार मेरा जनक भी है। सही मायने में यही वो परिवार है, जिसने दून को विस्तार दिया। मुझ जैसे तमाम स्मृति चिह्न भगवान दास और उनके परिवार ने दून को दिए। इंदर रोड, चन्दर रोड, मोहिनी रोड, प्रीतम रोड आदि नाम इस परिवार की नेकनीयती के प्रतीक हैं। देहरादून स्पोट््र्स एसोसिएशन जैसी महत्वपूर्ण संस्था भी इसी परिवार की देन है। इसके अलावा डालनवाला में 450 बीघा में फैली टाउनशिप की सौगात भी दून को इसी परिवार ने दी। दून के लिए इस परिवार की सौगातों की सूची यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि म्युनिसिपैलिटी बिल्डिंग, लाला मनसुमरत दास मेमोरियल पवेलियन ग्राउंड, श्रीमती श्योति देवी एंड छिमा देवी वुमन्स हॉस्पिटल, डीएवी पीजी कॉलेज का जुगमंदर दास ब्लॉक, भगवानदास क्वार्टर, श्री दिगंबर जैन धर्मशाला के कुछ भवन भी इस परिवार की सामाजिक प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं।
दिनेश कुकरेती
मैंने विकास की गोद में प्रकृति को सिमटते देखा है। दून की खुशहाली को सिसकते देखा है। जी हां! तमाम उन गवाहों में मैं भी शामिल हूं, जिसने देहरादून की बदलती सूरत और रंगत को न सिर्फ करीब से देखा, बल्कि महसूस भी किया। मैं 30 मई 1938 को जन्मा और नाम मिला जुगमंदर हॉल। आज मैं 79 वर्ष का हो चुका हूं। वैसे तो मैं शहर का एकमात्र सार्वजनिक प्रेक्षागृह (ऑडिटोरियम) हूं, मगर दुर्भाग्य देखिए कि कई लोग ठीक से मेरा नाम (जुगमंदर हॉल) भी नहीं जानते। ...और इतिहास तो शायद गिने-चुनों को ही पता होगा।
बड़ी बात नहीं कहता, मगर मैं इस शहर की वो इमारत हूं, जिसने गुजरे दौर में इस शहर को एक नई पहचान दी। इसके खुशहाल अतीत को जिया और वर्तमान को ढो रहा हूं। ढो इसलिए रहा हूं, क्योंकि आज का दून वो शहर नहीं रहा, जिसके लिए ये दुनियाभर में जाना जाता था। जिसके लिए ब्रितानी हुकूमत भी इसकी तारीफ करती थी। एक वक्त था, जब कल-कल बहती नहरें इस शहर की पहचान हुआ करती थीं। लोग इसे उत्तर का वेनिस कहा करते थे। लीची और बासमती की खुशबू लोगों के हृदय को महका देती थी। ...और मौसम इतना खुशनुमा कि पूछिए ही मत। जो भी यहां आता, उसका मुरीद हो जाता।
वो वक्त था 70 के दशक का, जो मेरे लिए भी बेहद सुनहरा दौर रहा है। तब उत्तर भारत के रंगमंच की पूरे देश में तूती बोलती थी। उस वक्त दून उत्तर भारत के रंगमंच का 'मक्काÓ हुआ करता था और मैं 'लॉड्र्सÓ। मेरा आंगन हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी से सराबोर रहता था। तब उत्तर भारत का शायद ही कोई थियेटर ऑर्टिस्ट होगा, जो अपनी कला को निखारने के लिए मेरी चौखट पर न पहुंचा हो। मैंने भी हर कला प्रेमी पर अपना सर्वस्व न्योछावर किया और उसे बुलंदियों तक पहुंचाया। मेरे आंगन में गूंजी किलकारियां मुझे आज भी याद करती हैं। संस्कृति और कला को सहेजने में मैंने कोई कसर बाकी नहीं रखी।
मेरी इमारत में चुनी गई हर एक ईंट इस बात की गवाह है। मगर, ये ईंटें उस दौर की भी गवाही देती हैं, जब मेरे अपनों ने ही मुझे बिसरा दिया था। मैंने अपने देश को आजाद होते देखा, अपने राज्य को वजूद में आते देखा और दून को अस्थायी राजधानी बनते भी। बावजूद इसके मेरे अपनों ने ही मेरे वजूद पर ताला जड़ दिया और मुझे धकेल दिया गुमनामी की काल कोठरी में। ठीक उसी तरह जैसे दून की नहरों को विकास के लिए बलि चढ़ा दिया गया और कंक्रीट के जंगल के लिए भुला दी गई बासमती व लीची की खुशबू। हालांकि, मैंने हिम्मत नहीं हारी। हर वक्त मेरा रोम-रोम आजादी के लिए तड़पता था। मेरा आंगन फिर से उन घुंघरुओं की छनक सुनने को बेताब रहता, जिनकी आवाज मेरी धड़कन हुआ करती थी। मैं तो अनंत काल तक कला को तराशने की हसरत रखता हूं, फिर ऐसा क्यों...?
यह सवाल हर वक्त मेरे जेहन में गूंजता रहता था। मगर, मुझे उम्मीद थी कि कभी तो मेरा कोई अपना मेरी सुध लेगा, क्योंकि मैं कोई गुजरा वक्त थोड़े हूं, जो लौट के न आ सकूं। सचमुच इसी उम्मीद ने मुझे टूटने नहीं दिया। कुछ वर्षों बाद नगर निगम ने मुझे फिर से संवारने का बीड़ा उठाया और मैं बेडिय़ों से आजाद हो गया। आज मैं फिर पहले की तरह कला को मुकाम देने का काम कर रहा हूं। अब मेरे आंगन में कबूतरों के पंखों की फडफ़ड़ाहट नहीं, बल्कि रंगमंच के संवाद और लोगों की तालियां गूंजती हैं। आज मैं फिर पहले की तरह हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी में गोते लगाता रहता हूं।
इस परिवार ने दिया दून को विस्तार
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इस शहर की हर सांस में समाया हुआ है लाला भगवान दास का परिवार। यही परिवार मेरा जनक भी है। सही मायने में यही वो परिवार है, जिसने दून को विस्तार दिया। मुझ जैसे तमाम स्मृति चिह्न भगवान दास और उनके परिवार ने दून को दिए। इंदर रोड, चन्दर रोड, मोहिनी रोड, प्रीतम रोड आदि नाम इस परिवार की नेकनीयती के प्रतीक हैं। देहरादून स्पोट््र्स एसोसिएशन जैसी महत्वपूर्ण संस्था भी इसी परिवार की देन है। इसके अलावा डालनवाला में 450 बीघा में फैली टाउनशिप की सौगात भी दून को इसी परिवार ने दी। दून के लिए इस परिवार की सौगातों की सूची यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि म्युनिसिपैलिटी बिल्डिंग, लाला मनसुमरत दास मेमोरियल पवेलियन ग्राउंड, श्रीमती श्योति देवी एंड छिमा देवी वुमन्स हॉस्पिटल, डीएवी पीजी कॉलेज का जुगमंदर दास ब्लॉक, भगवानदास क्वार्टर, श्री दिगंबर जैन धर्मशाला के कुछ भवन भी इस परिवार की सामाजिक प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं।
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