Friday, 9 March 2018

आस्था का प्रतिबिंब

आस्था का प्रतिबिंब ------------------------ दिनेश कुकरेती किलेनुमा प्राचीर के चारों ओर खुलते प्रवेश द्वार और उनके ऊपर गर्व से तनी मीनारें। पश्चिमी छोर पर विशाल फाटक खुलते ही नजर आता है सफेद सीढ़ीनुमा गोल चबूतरा। इसी चबूतरे पर खड़ा है आस्था का वह प्रतिबिंब, जिसे दूनघाटी 'झंडा साहिबÓ के रूप में सम्मान देती है। सच कहें तो दून की आत्मा है झंडा साहिब। देहरादून के जन्म और विकास की गाथा यहीं से आरंभ होती है। नानक पंथ के सातवें गुरु हर राय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र राम राय महाराज ने इसी स्थान पर झंडा चढ़ाया था। इसमें समाहित है एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत, जो दून में पनपी और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश व दिल्ली तक फैल गई। वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन गुरु रामराय महाराज के कदम दून की धरती पर पड़े। वर्ष 1676 इसी दिन उनकी प्रतिष्ठा में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। यहीं से झंडा मेला की शुरुआत हुई, जो कालांतर में दूनघाटी का वार्षिक समारोह बन गया। यह इन्सान को इन्सान से जोडऩे का ऐसा पर्व है, जिसमें दूनघाटी के संपूर्ण जीवन दर्शन की झलक मिलती है। दरबार साहिब में प्रतिष्ठित झंडा साहिब साधारण ध्वज न होकर ऐसा शक्तिपुंज हैं, जिनसे नेमतें बरसती हैं। झंडेजी के आरोहण के अवसर पर देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों से हजारों संगतें द्रोणनगरी पहुंचती हैं। आरोहण की पहली शाम से ही दरबार साहिब में पांव रखने तक की जगह नहीं बचती। रात्रि में भजन-कीर्तन का दौर चलता है और होने लगता है भोर का इंतजार। सैकड़ों वर्षों का इतिहास समेटे करीब सौ फीट ऊंचे झंडेजी को उतारने और चढ़ाने की प्रक्रिया स्वयं में अद्भुत है। जमीन पर रखे बगैर झंडेजी कब उतरे और कब चढ़ गए, किसी को ठीक से भान भी नहीं होता। यही इस मेले का अद्भुत क्षण है। झंडा मेले में झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की भी अनूठी परंपरा है। चैत्र पंचमी के दिन झंडे की पूजा-अर्चना के बाद पुराने झंडेजी को उतारा जाता है और ध्वज दंड में बंधे पुराने गिलाफ, दुपट्टे आदि हटाए जाते हैं। दरबार साहिब के सेवक दही, घी व गंगाजल से ध्वज दंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद शुरू होती है झंडेजी को गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया। झंडेजी पर पहले सादे (मारकीन के) और फिर शनील के गिलाफ चढ़ते हैं। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है और फिर पवित्र जल छिड़ककर भक्तजनों की ओर से रंगीन रुमाल, दुपट्टे आदि बांधे जाते हैं। परंपरा के अनुसार झंडेजी को दर्शनी गिलाफ के अलावा मारकीन के 41 और शनील के 21 गिलाफ चढ़ाए जाते हैं। जबकि, गिलाफ अर्पित करने वालों की तादाद हजारों में होती है। हालांकि, श्रद्धालुओं को झंडेजी के दर्शनी गिलाफ के ही दर्शन होते हैं। इसके साथ ही दरबार साहिब में समाधि पर मत्था टेकने, उसकी परिक्रमा करने, झंडेजी पर नए वस्त्र चढ़ाने और लंगर में प्रसाद ग्रहण करने का क्रम भी अनवरत चलता रहता है। ----------------------- दून की आन-बान-शान झंडेजी ------------------------ दर्शनी गिलाफ चढऩे के बाद सूर्य की ढलती किरणें जब दरबार की मीनारों और गुंबदों पर पड़ती हैं, तब सज्जादानसीन श्रीमहंत जी के आदेश से झंडेजी के आरोहण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। यही वह घड़ी है, जब झंडेजी कैंचियों के सहारे धीरे-धीरे ऊपर उठते हैं। जैसे ही वह अपने स्थान पर खड़े होकर राजसी ठाठ के साथ खुले आसमान में लहराते हैं श्री गुरु रामराय महाराज की जय-जयकार से द्रोणनगरी गूंज उठती है। यह ऐसा दृश्य होता है, जिसे वहां मौजूद हर व्यक्ति अपने हृदय में बसा लेना चाहता है। इस दौरान सिर पर चढ़ावा लिए दरबार साहिब पहुंच रही संगतें अलौकिक नजारा पेश करती हैं। दरबार साहिब के सम्मान के प्रतीक झंडेजी का जैसे ही आरोहण होता है, संगतों की परिक्रमा का सिलसिला आरंभ हो जाता है। परंपरा का यह ऐसा विलक्षण अनुभव है, जिसकी मिसाल अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। ------------------- बाज भी करता है परिक्रमा -------------------- मान्यता है कि जब झंडेजी अपने स्थान पर विराजमान होते हैं, तभी दूर आकाश में एक बाज आता है और झंडेजी की परिक्रमा कर नजरों से ओझल हो जाता है। यही वह क्षण है, जब आस्था और विश्वास पराकाष्ठा को छू रहे होते हैं। -------------------- मसंदों को पगड़ी-प्रसाद ------------------ झंडेजी के आरोहण के बाद संगत के मसंदों को सज्जादानसीन श्रीमहंत देवेंद्रदास महाराज आशीर्वाद स्वरूप पगड़ी, प्रसाद एवं ताबीज प्रदान करते हैं। यह परंपरा माता पंजाब कौर के जमाने से चली आ रही है। ------------------ दरबार साहिब के श्रीमहंत -------------------- श्रीमहंत औददास (1687-1741) श्रीमहंत हरप्रसाद (1741-1766) श्रीमहंत हरसेवक (1766-1818) श्रीमहंत स्वरूपदास (1818-1842) श्रीमहंत प्रीतमदास (1842-1854) श्रीमहंत नारायणदास (1854-1885) श्रीमहंत प्रयागदास (1885-1896) श्रीमहंत लक्ष्मणदास (1896-1945) श्रीमहंत इंदिरेशचरण दास (1945-2000) श्रीमहंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनसीन) ---------------------- बाबा ऐसे पहुंचे थे दून ----------------- बाबा रामराय महाराज के देहरादून पहुंचने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। पिता के कहे कटु वचन कि 'तुमने मना करने के बाद भी मुगल दरबार में अपने चमत्कार दिखाए, इससे गुरु ग्रंथ साहिब का अपमान हुआ है, इसलिए मैं तुम्हारा मुंह तक नहीं देखना चाहता, तुम्हारा मुख जिस दिशा में है, उसी ओर चले जाओÓ ने बाबा रामराय के जीवन की धारा ही बदल डाली। लाहौर समेत अनेक स्थानों से यात्रा करते हुए बाबा दूनघाटी स्थित कांवली गांव पहुंचे। यहां पास ही आचार्य श्रीचंद्र महाराज के शिष्य बालू हसना से उदासीन मत की दीक्षा लेने के बाद उन्होंने वर्तमान झंडा स्थल पर डेरा डाला। दून में पिछड़े व उपेक्षित लोगों का डेरा होना चाहिए, इसी विचार के साथ वर्ष 1707 में बाबा रामराय ने दरबार साहिब का निर्माण किया।

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