Thursday, 23 December 2021

सबका अपना-अपना क्रिसमस

सबका अपना-अपना क्रिसमस

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क्रिसमस ऐसा त्योहार है, जिसकी शुरुआत तो रोम से हुई, लेकिन कालांतर में क्रिश्चियनिटी के प्रसार के साथ यह पूरी दुनिया में फैल गया। खास बात यह रही कि क्रिसमस जहां भी गया, वहीं के रंग में रंग गया। क्रिसमस ने न केवल संबंधित क्षेत्र की लोक परंपराओं को आत्मसात किया, बल्कि कैरल के गीतों में भी लोक का वास हो गया। आइए! हम भी जानते हैं कि क्रिसमस के इसी बहुरंगी को...

दिनेश कुकरेती

क्रिसमस मनाने की परंपरा ईसा के जन्म से बहुत पुरानी है। क्रिसमस एक रोमन त्योहार सैटर्नेलिया का अनुकरण है, जो मध्य दिसंबर से जनवरी तक मनाया जाता था। सैटर्नस रोमन देवता हैं। इस दौरान लोग तरह-तरह के पकवान बनाते थे और मित्र-परिचितों के साथ उपहारों का आदान-प्रदान करते थे। फूलों व हरे वृक्षों से घर सजाए जाते और स्वामी एवं सेवक अपना स्थान बदलते थे। कालांतर में यह त्योहार बरुमेलिया (सर्दियों के बड़े दिन) के रूप में मनाया जाने लगा। तब सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था और मान्यता थी कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ। बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मान इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे। हालांकि, तब ईसाइयों में इस प्रकार के किसी पर्व का सार्वजनिक आयोजन नहीं होता था। कहते हैं कि ईस्वी वर्ष की चौथी सदी में सूर्य उपासना का पर्व क्रिसमस में विलय हुआ। वैसे यह त्योहार ईसा मसीह के जन्मोत्सव के रूप में वर्ष 98 से मनाया जा रहा है। वर्ष 137 में रोम के बिशप ने इसे मनाने की विधिवत घोषणा की और वर्ष 350 में रोम के ही एक अन्य बिशप यूलियस ने इसके लिए 25 दिसंबर का दिन नियत किया। हालांकि, इसके पीछे भी रोचक कहानी है। दरअसल 16 दिसंबर के बाद दिन बड़े होने लगते हैं और 25 दिसंबर को रात-दिन बराबर। इसीलिए प्राचीन रोम में 25 दिसंबर को 'सूरज की विजयÓ के दिन के रूप में मनाया जाता था। धीरे-धीरे पूरा रोम क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में आ गया और इस पर्व को 'स्टेट रिलीजनÓ घोषित कर 'क्राइस्ट द सनÓ का रूप प्रदान कर दिया गया। तभी से क्रिसमस को प्रभु यीशु के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

विश्वास से उल्लास तक 

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25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म हुआ, इस संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसे तथ्य भी मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि ईसा का जन्म सर्दियों में नहीं हुआ था। दरअसल उस जमाने में मैसोपोटामिया के लोग अनेक देवताओं पर विश्वास करते थे, लेकिन उनका प्रधान देवता मार्डुक था। मान्यता थी कि सर्दियों के आगमन पर मार्डुक अव्यवस्था के दानवों से युद्ध करता है। इसी के निमित्त नववर्ष का त्योहार मनाया जाता था। मैसोपोटामिया का राजा मार्डुक के मंदिर में देव प्रतिमा के सामने वफादारी की सौगंध खाता था। परंपराएं राजा को वर्ष के अंत में युद्ध का आमंत्रण देती थीं, ताकि वह मार्डुक की तरफ से युद्ध करता हुआ वापस लौट सके। अपने राजा को जीवित रखने के लिए मैसोपोटामिया के लोग किसी अपराधी का चयन कर उसे राजसी वस्त्र पहनाते और उसे राजा का सम्मान एवं सभी अधिकार दिए जाते। आखिर में वास्तविक राजा को बचाने के लिए उसकी हत्या कर दी जाती। क्रिसमस में भी मुख्य ध्वनि परमात्मा को प्रसन्न करने की ही है।

क्रिसमस का एक रूप 'सैसियाÓ

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पर्शिया और बेबिलोनिया में ऐसा ही एक त्योहार 'सैसियाÓ नाम से मनाया जाता था। शेष सभी रस्मों के साथ इसमें दासों को स्वामी और स्वामियों को दास बनाने की रस्म भी निभाई जाती थी। प्राचीन यूरोपियन दुष्ट आत्माओं में विश्वास रखते थे। जैसे ही सर्दी के छोटे दिनों की लंबी-ठंडी रातें आतीं, उनके मन में भय समा जाता कि सूर्य देवता वापस नहीं लौटेंगें। सूर्य को वापस लाने के लिए इन्हीं दिनों विशेष रीति-रिवाजों का पालन होता और समारोह का आयोजन होता।

प्रकृति का पर्व

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स्कैंडिनेविया में सर्दियों के दौरान महीनों तक सूर्य के दर्शन नहीं होते थे। इसलिए सूर्य की वापसी के लिए 35 दिन के बाद पहाड़ की चोटी पर लोग स्काउट भेज देते। प्रथम रश्मि के आगमन की शुभ सूचना के साथ ही स्काउट वापस लौटते। इसी अवसर पर यूलटाइड नामक त्योहार मनाया जाता। प्रज्ज्वलित अग्नि के आसपास खान-पान का आयोजन चलता। अनेक स्थलों पर लोग वृक्षों की शाखाओं पर सेब लटका देते। इसका अर्थ है कि वसंत और ग्रीष्म अवश्य आएंगे। पहले यूनान में भी इससे मिलता-जुलता त्योहार मनाया जाता था। इसमें लोग देवता क्रोनोस की सहायता करते, ताकि वह ज्यूस और उसकी सहयोगी दुष्टात्माओं से लड़ सके।

66 पुस्तकों का संग्रह है बाइबल

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बाइबल यहूदियों और ईसाइयों का साझा धर्मग्रंथ है, जिसके ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट दो भाग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म से पूर्व के हालात का ब्यौरा है। इसमें 39 पुस्तकें हैं। न्यू टेस्टामेंट में ईसा का जीवन, शिक्षाएं एवं विचार हैं। इसमें 27 पुस्तकें हैं। कहने का मतलब बाइबल एक पुस्तक न होकर 66 पुस्तकों का संग्रह है, जिसे 1600 वर्षों में 40 लेखकों ने लिखा। 


जहां गया, वहीं का हो गया क्रिसमस

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रोम से शुरू हुई इस परंपरा ने आज पूरी दुनिया के उत्सव का स्वरूप ले लिया है। लेकिन, हर जगह इसका स्वरूप स्थानीयता का पुट लिए हुए है। यही वजह है कि हर जगह क्रिसमस के दौरान होने वाले करोल (कैरल) के आयोजन में लोकधुनों की गूंज सुनाई पड़ती है। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं अंचल में कैरल के अधिकांश गीत गढ़वाली-कुमाऊंनी में ही गाए जाते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इस आयोजन में सभी धर्म-जाति के लोग बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं। 

देहरादून के ऐतिहासिक चर्च

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सेंट थॉमस चर्च

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178 साल पुराने देहरादून के सेंट थॉमस चर्च के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। व्यस्ततम राजपुर रोड पर दिलाराम बाजार में स्थित यह चर्च लंबे अर्से तक बंद पड़ा रहा। वर्ष 2012 में इसे दोबारा खोला गया। सेंट थॉमस चर्च की सबसे बड़ी खासियत इसका सेना से जुड़ा इतिहास है। वर्ष 1840 में बने इस चर्च की इमारत और लंबे-चौड़े गार्डन की भव्यता देखते ही बनती है। पॉप म्यूजिक के दीवानों की तो यह खास जगह है। यह वही चर्च है, जहां ब्रिटिश संगीतकार, कलाकार एवं अभिनेता सर क्लिफ रिचर्ड का बपतिस्मा हुआ था। सर क्लिफ रिचर्ड का जन्म लखनऊ में हुआ था और बाद में उनका परिवार देहरादून शिफ्ट हो गया। यह चर्च सीएनआइ (चर्च ऑफ नार्थ इंडिया) के अधीन है। इस चर्च को सेना के लिए बनाया गया था और यहां सेना के जवान और सर्वे ऑफ इंडिया से जुड़े लोग प्रार्थना करने आते थे। इसीलिए यह चर्च आर्मी (गैरिसन) चर्च के रूप में जाना जाता था।

मॉरीसन मेमोरियल चर्च

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सीएनआइ द्वारा संचालित राजपुर रोड स्थित मॉरीसन मेमोरियल चर्च 25 अगस्त 1884 को बनकर तैयार हुआ था। अंग्रेजों का बनाया यह दून का सबसे बड़ा एवं खूबसूरत चर्च है। यह उत्तर भारत के सबसे पुराने चर्चों में से एक है। इस चर्च का मूल नाम देहरा प्रेस्बायटेरियन था, जिसे वर्ष 1890 में एपी मिशन ङ्क्षहदुस्तानी चर्च कर दिया गया। इसके बाद यहां के प्रमुख पास्टर रेवरेन जॉन मॉरीसन और उनकी पत्नी के नाम पर इस चर्च को मॉरीसन नाम दिया गया। इस चर्च में पहली बार बपतिस्मा रेवरेन थैंकवैल के सानिध्य में 26 अक्टूबर 1884 को हुआ था। यहां पहले भारतीय पास्टर के रूप में रेवरेन प्रभुदास ने अपनी सेवाएं दी। अब तक  कुल नौ मिशनरी और 22 पास्टर चर्च में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। चर्च के मुख्य हॉल की फर्श टेराजो की बनी है और छत से लगा खूबसूरत बोर्ड बिल्डिंग की शोभा को और अधिक बढ़ाता है। छत के रिज पर कई सारे सजावटी बोर्ड लगे हैं। आंतरिक भाग में उभरा हुआ छत तिकोन चर्च के सौंदर्य में चार चांद लगाता है। 

सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च

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कॉन्वेंट रोड पर स्थित सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च का निर्माण 1856 में आर्च बिशप कार्लि आगरा के विकेरिएट अपोसतोलिक ने शुरू किया था। 1897 से यहां पुरोहितों ने रहना शुरू कर दिया। चार अप्रैल 1905 को आए भूकंप ने चर्च को भारी नुकसान पहुंचाया। इसके बाद 1910 तक यहां एक बड़े कमरे का प्रयोग चर्च के रूप में होता रहा। 1910 में चर्च का नया भवन बनकर तैयार हुआ, जिसका उद्घाटन आगरा के आर्च बिशप और इलाहबाद व लाहौर के बिशप ने किया था। पल्ली पुरोहित फादर लूकस ओएफएम कपुचिन के अनुरोध पर इटली के चित्रकार निनोला सिमीटाटा ने चर्च की दीवारों पर सेंट फ्रांसिस आसिसी के उद्देश्य एवं जीवन की घटनाओं को चित्रित किया। निनोला सिमीटाटा द्वितीय विश्व युद्ध का बंदी था और उसे देहरादून के प्रेमनगर में बंदी बनाकर रखा गया था। फादर लूकस ने इस कार्य के लिए उसे बंदीगृह से छुड़वाया। इस चर्च में कई बार मदर टेरेसा भी आती रही हैं। 

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