रा-रा दा तुम हमेशा याद आओगे
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दिनेश कुकरेती
मशहूर रंगकर्मी, हास्य अभिनेता, गढ़वाली गायक और लोक के चितेरे रा-रा दा यानी रामरतन काला से मेरा आत्मीय रिश्ता रहा है। वैसे तो लोक से अनुराग होने के कारण मैं दो-ढाई दशक तक उनके करीब रहा, लेकिन तकरीबन चार साल हमारे साथ-साथ गुजरे। इस अवधि में मैंने रा-रा दा के साथ आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्रामजगतÓ अनुभाग में आकस्मिक कंपीयर के रूप में कार्य किया। कई यादें हैं इस कालखंड की, जिन पर ग्रंथ लिखा जा सकता है। रा-रा दा बेहद सरल एवं सहज इन्सान थे। बिल्कुल जमीन से जुड़े हुए। रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करने वाले, लेकिन दुनिया जहान की सभी चिंताओं से बेफिक्र। किसी चीज का लालच नहीं। हर हाल में खुश। इसलिए उनके साथ मेरी खूब जमती थी। जैसे वो, वैसा ही मैं भी। कोटद्वार शहर में कोई भी सांस्कृतिक आयोजन होता था तो उसमें रा-रा दा का होना अनिवार्य समझा जाता था।
रा-रा दा से मेरा परिचय रेडियो के जरिये हुआ। उस दौर टीवी चुनिंदा लोगों के घरों में हुआ करता था, वह भी ब्लैक एंड व्हाइट। रेडियो हर घर की पहुंच में होने के कारण मनोरंजन का प्रमुख साधन था। खासकर शाम साढ़े सात बजे आकाशवाणी नजीबाबाद से आने वाले 'ग्रामजगतÓ कार्यक्रम और शाम छह बजकर पांच मिनट पर आकाशवाणी लखनऊ से आने वाले 'उत्तरायणÓ कार्यक्रम के सब दीवाने हुआ करते थे। इन कार्यक्रमों में अक्सर एक गढ़वाली गीत बजा करता था, 'मितैं ब्योला बणै द्यावा, ब्योली खुज्ये द्याÓ। यह हास्य गीत गाया था रामरतन काला ने। तब लोग कहते थे कि कालाजी कोटद्वार में ही रहते हैं। गर्व की अनुभूति होती थी यह सुनकर।
धीरे-धीरे शहर में होने वाली सामाजिक गतिविधियों में मेरी भी हिस्सेदारी होने लगी। तभी रा-रा दा से प्रत्यक्ष मुलाकात हुई। फिर तो उनसे अक्सर मिलना-जुलना होने लगा। तब होली के पर्व से पूर्व उत्तराखंड लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक संस्था की ओर से पहाड़ की पारंपरिक होली को बढ़ावा देने के लिए होली उत्सव का आयोजन किया जाता था। मैं भी इसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी किया करता था। शाम के वक्त हम ढोल-मजीरे की थाप पर तीन-चार दिन तक शहरभर में होली गाते थे। इसका समापन झंडाचौक में होता था। रा-रा दा इस आयोजन की खास शान हुआ करते थे। उनका होली (होरी) गाने और होल्य़ार साथियों के साथ थिरकने का अंदाज मन मोह लेता था।
रा-रा दा साइकिल पर चला करते थे, लेकिन शहर के बीच से गुजरते वो साइकिल के साथ पैदल ही होते थे। रास्तेभर मित्र-परिचितों से मेल-मुलाकात करते हुए जाना उनको आनंद देता था। बीती सदी के आखिरी वर्षों में हमने नुक्कड़ नाटक 'कासीरामÓ का पूरे गढ़वाल में मंचन किया। इस नाटक को हमने हिंदी से गढ़वाली में अनुदित किया था। नाटक में बताया गया था कि एक अनपढ़ व्यक्ति का रसूखदार लोग किस-किस तरह से शोषण करते हैं। कोटद्वार में रा-रा दा ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी आत्मीयता देखिए कि एक मंझे हुए रंगकर्मी होने के बावजूद वो हमसे पूछते थे कि अब मुझे क्या करना है।
रा-रा दा और मैंने 'शैलनटÓ नाट्य संस्था में भी साथ-साथ काम किया। इस कालखंड में उनसे बहुत-कुछ सीखने को मिला। तब में 'शैलनटÓ का प्रचार मंत्री हुआ करता था। आकाशवाणी नजीबाबाद के निदेशक रहे स्व. सत्यप्रकाश हिंदवाण ने मुझे 'शैलनटÓ से जोडा़ था। वर्ष 2008 में मैं देहरादून आ गया, सो इसके बाद उनसे मिलना नहीं हो पाया। बड़ी इच्छा थी कि किसी दिन कोटद्वार में उनसे मुलाकात करूंगा। लेकिन, दुर्भाग्य से 20 मई 2021 को रा-रा दा हमसे रूठ गए और मेरी यह इच्छा धरी-की-धरी रह गई। काश! उनसे मुलाकात हो पाई होती...
परिस्थितियों ने बनाया कलाकार, संस्कृति ने संवारा
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मूलरूप से पौडी़ गढ़वाल जिले के द्वारीखाल ब्लाक की लंगूर पट्टी स्थित ग्राम कुडी़धार निवासी रामरतन काला यानी रा-रा दा का जन्म कोटद्वार क्षेत्र के पदमपुर गांव में 14 जनवरी 1950 को शाकंभरी देवी व महानंद काला के घर हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा कोटद्वार में ही हुई। उन्होंने इंटर तक पढा़ई की। पिता सेना में थे, इसलिए वो भी सेना में जाना चाहते थे, लेकिन परिस्थितियों ने कलाकार बना दिया। रा-रा दा स्वयं कहते थे, 'विद्यालय से ही मुझमें कलाकार के लक्षण पैदा होने लगे थे। मेरे अध्यापक भी मानने लगे थे कि यह लड़का कलाकार है। छात्र जीवन में ही मैं एक स्थापित कलाकार हो गया था। हालांकि, मैंने हास्य-व्यंग्य वाले गीत भी गाए हैं, लेकिन मूलरूप से मैं रंगकर्मी हूं। नाट्य विधा का आदमी हूं।Ó
अक्सर जब उनसे बातचीत होती थी तो वो कहते, आजीविका के लिए वह कहीं नहीं गए। उन्हेंं इस बात का डर रहता था कि घर से बाहर जाने पर कहीं पश्चिमी सभ्यता का रंग चढ़ गया तो उनके भीतर का कलाकार मर जाएगा। इसलिए उन्होंने संघर्ष किया और लोक के होकर ही रह गए। कोटद्वार में रहते हुए भी उनकी नजरें पहाडो़ं की ओर रहती थी। उन्होंने जो कुछ सीखा, जो कुछ किया, वह सब पहाड़ों से और पहाड़ों में। उन्होंने मां, बेटी, बहन व बुजुर्गों से सीखा और उन्हेंं ही लौटाने की कोशिश करते हैं।
रा-रा दा मूलत: किसान थे। इसलिए खेती के वक्त वो सिर्फ खेती पर ही ध्यान देते थे। इस बीच एक-दो जगह उन्होंने दुकान भी खोली। संयोग से दुकान चल पड़ी, लेकिन इधर-उधर जाने के लिए शटर डाउन करना पड़ता। नौकरी की तो वह सूट नहीं हुई। रा-रादा के ही शब्दों में, 'ओ! काला, ओ! फलाणे, ओ! ढिमकेÓ यह मुझे रास नहीं आया। आखिर 'ओ! कालाÓ क्या होता है। ऊपर वाले की कृपा है कि सांस्कृतिक गतिविधियों से पैसा मिलने लगा और धीरे-धीरे ही सही, लेकिन परिवार की गाड़ी चलने लगी।Ó
मुंबई ने दिया मौका, बढ़ते चले गए कदम
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वर्ष 1985 की बात है। पढा़ई पूरी करने के बाद रा-रा दा को लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी एवं उनके दल के साथ मुंबई जाने का मौका मिला। दल में कुल 27 सदस्य थे। वहां प्रवासियों के बीच गढ़वाल से जाने वाली संस्कृति कॢमयों की यह पहला दल था। दल की प्रस्तुतियों को लोगों ने हाथोंहाथ लिया, खासकर रा-रा दा की। इससे पूर्व इस दल के साथ रा-रा दा इलाहाबाद कुंभ में भी प्रस्तुति दे चुके थे। मुंबई के बाद तो यह सिलासिला सा चल पडा़। विभागीय कार्यक्रम भी मिलने लगे। वर्ष 1991 में उन्होंने कौथगेर कला मंच के नाम से 18-20 कलाकारों को साथ लेकर अपना ग्रुप भी बना लिया, जिसे लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी व लोकगायक अनिल बिष्ट लगातार बुलाते रहे।
रा-रा दा रंगमंच तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने आंचलिक फिल्मों भी अपनी कला की छाप छोडी़। उनकी पहली फिल्म 'कौथीगÓ थी। इसमें उन्होंने चाचा की यादगार भूमिका निभाई। इससे पहले वो संस्कृत धारावाहिक 'शकुंतलाÓ में भी अभिनय कर चुके थे। एलबम के दौर में भी रा-रा दा सबसे पसंदीदा कलाकार बने रहे। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के तकरीबन 15 एलबम के गीतों में उन्होंने अभिनय का लोहा मनवाया। इनमें 'नया जमना का छोरों कन उठि बौल़, तिबरि-डंड्यल्यूं मा रौक एंड रोलÓ, 'तेरो मछोई गाड बौगिगे, ले खाले अब खा माछाÓ, 'समद्यूल़ा का द्वी दिन समल़ौण्या ह्वेगीनाÓ, 'दरौल्य़ा छौं न भंगल्या भंगल्वड़ा धोल्यूं छौं, कैमा न बुल्यां भैजी जननी को मर्यूं छौंÓ, 'कन लडि़क बिगडि़ म्यारु ब्वारी कैरि कीÓ,'तितरी फंसे, चखुली फंसे तू क्वो फंसे कागाÓ, 'सुदी नि बोनूÓ, 'सरू तू मेरीÓ, 'तेरी जग्वाल़Ó, 'स्याणीÓ, 'नौछमी नारेणाÓ, 'सुर्मा सरेलाÓ, 'बसंत ऐ ग्येÓ जैसे सुपरहिट गीत शामिल हैं।
रा-रा दा कैसे डूबकर अभिनय करते थे, इसका प्रमाण अपने दौर में सबसे चॢचत रहा नाटक 'खाडू लापताÓ है। नाटक को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे प्रसिद्ध लेखक ललितमोहन थपलियाल ने यह नाटक उन्हीं को केंद्र में रखकर लिखा हो। आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्राम जगतÓ कार्यक्रम को भी रा-रा दा ने नई ऊंचाइयां दीं। दूरदर्शन देहरादून के 'कल्याणीÓ कार्यक्रम में वो 'मुल्की दाÓ की भूमिका में लंबे अर्से तक दर्शकों का मनोरंजन करते रहे।
रा-रा दा एक बेहतरीन गायक भी थे। उनका गाया गीत 'ब्योलि खुज्ये द्यावा, ब्योला बणै द्याÓ एक दौर में आकाशवाणी नजीबाबाद व लखनऊ से सर्वाधिक प्रसारित होने वाले गीतों में शुमार रहा। इसके अलावा उन्होंने 'कख मिलली नौकरी, कख मिलली चाकरीÓ जैसे कई गीत गाए। वर्ष 2008 में एक कार्यक्रम के दौरान मस्तिष्काघात के कारण रा-रा दा पैरालिसिस के प्रभाव में आ गए। काफी इलाज कराने पर भी वो इस बीमारी से पूरी तरह उबर नहीं पाए, जिससे दोबारा रंगमंच की ओर लौटना संभव न हो सका। हालांकि, वो हमेशा कहते थे, 'अभी मुझे बहुत-कुछ करना हैÓ, लेकिन नियति पर कहां किसी का वश चलता है। आखिरकार उसने रा-रा दा को भी हमसे छीन लिया।
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