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दिनेश कुकरेती
शिक्षा महज किताबी ज्ञान हासिल कर अच्छी पद-प्रतिष्ठा पा लेने का नाम नहीं है। विषय विशेषज्ञ बन जाने को भी शिक्षा नहीं माना जा सकता। शिक्षा को डिग्रियों में भी नहीं तौला जा सकता। शिक्षा तो जीवन चलाने की ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य के जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। व्यापक दृष्टि से देखें तो शिक्षा में मनुष्य के वह सभी अनुभव समाहित हैं, जिनका प्रभाव उस पर जन्म से लेकर मृत्यु तक पड़ता है।
शिक्षा शब्द संस्कृत की 'शिक्षÓ धातु से बना है। इसका अर्थ है सीखना या ज्ञान प्राप्त करना। सीखने की प्रक्रिया शिक्षक, छात्र व पाठ्यक्रम के माध्यम से संपादित होती है। इसका अंग्रेजी पर्याय एड्यूकेशन है, जो लैटिन के 'एड्यूकेटमÓ शब्द से बना है। इसमें 'ईÓ का अर्थ है 'अंदर सेÓ और 'ड्यकोÓ का अर्थ है 'बाहर निकालनाÓ। यानी एड्यूकेशन का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का प्रकटीकरण है। इस प्रकार शिक्षा अथवा एड्यूकेशन का अर्थ चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक और अंतर्निहित शक्तियों का व्यवस्थित रूप से विकास करना है।
व्यापक अर्थ में देखें तो शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में निरंतर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। दुनिया के विभिन्न विचारकों ने समय-समय पर शिक्षा को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया। मसलन विवेकानंद मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति को शिक्षा मानते हैं। जबकि, गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के शब्दों में उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती, बल्कि हमारे जीवन को समूचे अस्तित्व के अनुकूल बनाती है। शिक्षा से गांधीजी का अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण प्रकटीकरण से है।
प्लेटो के विचार से बालक की क्षमता के अनुरूप शिक्षा उसके शरीर और आत्मा का विकास करती है, जबकि रूसो ने शिक्षा को विचारशील, संतुलित, उपयोगी एवं प्राकृतिक जीवन के विकास की प्रक्रिया माना है। कमेनियस ने संपूर्ण मानव के विकास को शिक्षा की संज्ञा दी है। जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यक्ति की क्षमताओं का विकास है। जिसके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रख सकता है और संभावनाओं को पूरा कर सकता है। टी रेमांट के अनुसार शिक्षा मानव जीवन के विकास की वह प्रक्रिया है, जो शैशवास्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा बच्चे की अंतर्निहित शक्तियों (योग्यताओं) को बाहर निकालकर उसके व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन करती है। शिक्षा को समझने के दो दृष्टिकोण हैं, संकुचित और व्यापक। संकुचित सबसे प्राचीन दृष्टिकोण है, जो वर्ष 1879 तक अस्तित्व में रहा। इसमें शिक्षा के सैद्धांतिक, ज्ञानात्मक व औपचारिक स्वरूप पर बल दिया गया। लेकिन, इसका फलक विद्यालयी शिक्षा तक ही सीमित था। जबकि, व्यापक दृष्टिकोण बीसवीं सदी में आया। इसमें शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष यानी सर्वांगीण विकास और अनौपचारिक शिक्षा पर बल दिया गया।
शिक्षा का महत्व
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शिक्षा व्यक्ति के प्रत्येक पहलू को विकसित कर उसके चरित्र का निर्माण करती है। साथ ही उसके अंदर राष्ट्रीय एकता, भावनात्मक एकता, सामाजिक कुशलता, राष्ट्रीय अनुशासन जैसी भावनाएं विकसित करती है। ताकि वह राष्ट्रीय हित को केंद्र में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व का पूरे मनोयोग से निर्वहन कर सके।
शिक्षा के कार्य
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व्यक्ति संबंधी
- आंतरिक शक्तियों और संपूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण विकास
- भावी जीवन की तैयारी
- नैतिक उत्थान
- मानवीय गुणों का विकास
- आत्मनिर्भर बनाना
- आवश्यकता की पूर्ति में सक्षम
- जन्मजात प्रकृतियों में सुधार
समाज संबंधी
- सामाजिक नियमों का ज्ञान
- प्राचीन साहित्य का इतिहास
- कुरीतियों के निवारण में सहायक
- सामाजिक भावना का विकास
- सामाजिक उन्नति में सहायक
- धर्मों के विषय में तात्विक ज्ञान
- उदार दृष्टिकोण
राष्ट्र संबंधी
- भावनात्मक एकता
- कुशल नागरिक
- राष्ट्रीय विकास
- राष्ट्रीय एकता
सार्वजनिक हित संबंधी
सार्वजनिक आय संबंधी
- राष्ट्रीय अनुशासन
- अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान
वातावरण संबंधी
- वातावरण से समायोजन
- वातावरण का अनुकूलन
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