I am a writer as well as a journalist. Being born in the Himalayan region, the Himalayas have always loved me. Sometimes I feel that I should cover the Himalayas within myself or I can get absorbed in the Himalayas myself. Whenever I try to write something, countless colors of Himalayas float before my eyes and then they come down on paper on their own.
Thursday, 26 November 2020
हिमालय में पंच केदार दर्शन
Monday, 23 November 2020
'देहरादूनीÓ हो गई अफगानिस्तान से आई बासमती
दोस्त मोहम्मद खान ने मंगवाया था बासमती का बीज
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किस्सा कुछ यूं है। वर्ष 1839 से वर्ष 1842 तक चले तमाम उतार-चढ़ावों वाले ब्रिटिश-अफगान युद्ध में अफगान शासक दोस्त मोहम्मद खान की हार हुई और अंग्रेजों ने उसके पूरे परिवार को देश निकाला दे दिया। तब दोस्त मोहम्मद खान निर्वासित जीवन बिताने के लिए परिवार के साथ मसूरी (देहरादून) आ गया। वैसे तो इस परिवार को यहां की आबोहवा बहुत रास आई, पर यहां के चावल से संतुष्टि नहीं मिली। ऐसे में दोस्त मोहम्मद ने अफगानिस्तान से बासमती धान के बीज मंगवाए और उन्हें देहरादून की हसीन वादियों में बो दिए। मजा देखिए कि इस धान को न केवल दून की मिट्टी रास आई, बल्कि बासमती की जो पैदावार हुई, उसकी गुणवत्ता पहले की बनिस्बत और उम्दा थी। यह चावल जब गांव के किसी एक घर में पकता तो पूरे गांव को खबर हो जाती। इसकी खूशबू पूरे गांव की फिजा को महका देती थी।
खेत से ही उठा ले जाते थे दूर-दूर के व्यापारी
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धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की चर्चा पूरे भारत में होने लगी। व्यापारी देहरादून आते, खड़ी फसल की बोली लगाते और धान पकने पर उसे खेत से ही उठा ले जाते। एक दौर ऐसा भी आया, जब बासमती की खेती से पूरा इलाका महकने लगा। देहरादून के अलावा अब हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर और नैनीताल में भी बासमती की बेशुमार खेती होने लगी। लेकिन, हर जगह इसे देहरादूनी बासमती ही कहा गया। इसे पूरी दुनिया में अपनी खास खुशबू के लिए जाना जाने लगा। लेकिन, समय के साथ शहरीकरण की मार देहरादूनी बासमती पर पड़ी। बाकी रही-सही कसर हाईब्रीड करने के चक्कर में पूरी हो गई। जिससे देहरादूनी बासमती को पहचानना भी मुश्किल हो गया। आज तो देहरादूनी बासमती की शुद्धता की पहचान करना केवल प्रयोगशाला में ही संभव है।
शहरीकरण में गुम हुई बासमती की महक
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एक दौर में 2200 एकड़ में देहरादूनी बासमती की खेती होती थी। लेकिन, कालांतर में खेतों की जगह कंक्रीट के जंगल उगते चले गए। नतीजा, धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की खेती सिमटने लगी। बीज प्रमाणीकरण कंपनियों की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 तक देहरादून जिले में करीब छह हजार एकड़ में देहरादूनी बासमती की पैदावार होती थी। वर्ष 1990 में घटकर यह 200 एकड़ रह गई। वर्ष 2010 आते-आते यह केवल 55 एकड़ और वर्ष 2019 में मात्र 11 एकड़ के आसपास सिमट गई। जबकि एक दौर में देहरादून के सेवला, माजरा और मोथरावाला इलाकों में जब बयार चलती थी तो बासमती के खेतों से उठती महक हवा में घुल जाती। दूर से ही पता चल जाता कि यहां बासमती धान लगा है। वर्तमान में जो बासमती उगाई भी जा रही है, उसमें टाइप थ्री दून बासमती बेहद कम है। देहरादूनी बासमती का नाम तो अब सिर्फ ब्रांड के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। हकीकत यह है कि दूसरी जगह से आ रहे बारीक चावल को देहरादूनी बासमती का ठप्पा लगाकर बेचा जा रहा है।
अन्य प्रदेशों में बदल जाते हैं इसके गुण
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देहरादूनी बासमती की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि देश-प्रदेश के दूसरे हिस्सों में इसकी उपज में यहां जैसी मिठास, महक और स्वाद पैदा नहीं हो पाता। परीक्षण के तौर पर देहरादूनी बासमती को देश के दूसरे हिस्सों में बोया भी गया, लेकिन सार्थक नतीजे सामने नहीं आए।
प्रमुख अफगान शासकों में से एक था दोस्त मोहम्मद खान
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दोस्त मोहम्मद खान (23 दिसंबर 1793-नौ जून 1863) बरकजई वंश का संस्थापक और अफगानिस्तान के प्रमुख शासकों में से एक था। वह सरदार पाइंदा खान (बरकजई जनजाति के प्रमुख) का 11वां बेटा था, जो वर्ष 1799 में जमान शाह दुर्रानी के हाथों मारा गया था। दोस्त मोहम्मद का दादा हाजी जमाल खान था।
Saturday, 14 November 2020
जीवन में जलें शांति एवं समृद्धि के दीप
जीवन में जलें शांति एवं समृद्धि के दीप
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सनातनी संस्कृति में पर्व-त्योहारों की वही अहमियत है, जो जीवन में हवा और पानी की। पर्व-त्योहार हमारे ऐसे सनातनी उपक्रमहैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना का भाव भी जगाते हैं। दीपावली (बग्वाल) ऐसा ही मौका है, जो संपूर्ण मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। आइए! आपका परिचय दीपावली के इसी पारंपरिक, सांस्कृतिक और लोक कल्याणकारी स्वरूप से कराते हैं...
उत्तराखंड का पंचकल्याणी पर्व
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दिनेश कुकरेती
दीपावली यानी दीपों का उत्सव उल्लास एवं उमंग का ही प्रतीक नहीं, समृद्धि एवं खुशहाली का सूचक भी है। जब आत्मा में ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित होने लगेे, समझो जीवन में दीपावली का प्रवेश हो गया है। इसमें भौतिक सुखों की लालसा भी है तो आध्यात्मिकता में डूब जाने की उत्कंठा भी। कहने का तात्पर्य समस्त संसारिक भाव इसमें समाए हुए हैं। इसीलिए ज्योति पर्व का आरंभ धनतेरस होता है तो परिणति भैया दूज के रूप में। देखा जाए तो ज्योतिपर्व त्योहार मात्र न होकर त्योहारों का भरा-पूरा समूह है। शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो दीपावली का पूजन धनतेरस से शुरू हो जाता है। यह ऐसा दिन है जब घर में किसी नई वस्तु का प्रवेश होता है। आशय यही है कि वर्षभर घर-परिवार में सुख, शांति एवं समृद्धि को स्थायित्व मिले और तन की निर्मलता एवं मन की पवित्रता बनी रहे। उत्तराखंड पर्वतीय अंचल में इस दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा की जाती है। इसके उपरांत ही घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। धनतेरस के बाद आती है नरक चतुर्दशी यानी छोटी दीपावली। सही मायने में यह मां लक्ष्मी के आगमन की प्रतीक्षा का दिन है, इसलिए इस दिन घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौक (द्वार) की पूजा की जाती है। आप मां लक्ष्मी की आगवानी को तैयार हैं, तो वह आएंगी ही। इसीलिए यह छोटी बग्वाल है, जो बड़ी बग्वाल यानी दीपावली के स्वागत में मनाई जाती है। दीपावली के बाद गोवद्र्धन पूजा और भैयादूज का पर्व आता है।
जीवन में स्वच्छता का भाव जगाता ज्योति पर्व
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घोर निराशा के इस दौर में जब सामाजिक मान्यताएं भरभराकर ढह रही हैं, तब तीज-त्योहार ही हैं, जो काफी हद तक इन्हेंं बचा पाने में सफल रहे हैं। यही ऐसे सनातनी उपक्रम हैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना भी जगाते हैं। शायद इसी वजह से त्योहार भारतीय जीवन पद्धति में गहरे से रचे-बसे हैं। हम समाज की खुशियों में कैसे शामिल हों, इसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन तो होना ही चाहिए। दीपावली ऐसा ही मौका है, जो पूरे मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। दीपावली की तैयारियां शारदीय नवरात्र के साथ ही शुरू हो जाती हैं। नवरात्र जहां प्रकृति एवं उसकी रचनाओं के प्रति सम्मान का बोध कराते हैं, वहीं दीपावली जीवन में स्वच्छता का भाव जगाती है। असल में इस पर्व की बाहरी चकाचौंध इसके भीतर छिपे दर्शन को ही प्रकाशित करती है। तन की निर्मलता, मन की पवित्रता और परिवेश की स्वच्छता का असल मकसद विचारों का प्रवाह समाज की उन्नति की ओर मोडऩा ही है। परिवेश की सफाई से आरंभ होने वाला यह त्योहार पराकाष्ठा पर पहुंचते-पहुंचते भाई-बहन के स्नेह का प्रतिरूप बन जाता है। महालक्ष्मी का पूजन इसका मुख्य सोपान है, लेकिन लक्ष्मी की कृपा तभी बरसती है, जब इसके पीछे मानव के कल्याण और प्रकृति के संरक्षण का भाव निहित हो। भारतीय संंस्कृति का असली स्वरूप भी यही है।
'बग्वालÓ का एक रूप 'इगासÓ भी
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पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने की परंपरा है। दरअसल ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को इगास-बग्वाल नाम दिया गया। मान्यता है कि अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती हैं, इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। जबकि, हरिबोधनी एकादशी यानी इगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। सो, इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है। देखा जाए तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास-बग्वाल कहा जाता है। इन दोनों दिनों में सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है। मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुवे के आटे का हलुवा) और जौ का पींडू (आहार) तैयार किया जाता है। भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डू तैयार कर उन्हें परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं। बग्वाल और इगास को घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाकर उन सभी परिवारों में बांटे जाते हैं, जिनकी बग्वाल नहीं होती। इस पर्व पर भी रात में पूजन के बाद गांव के सभी लोग भैलो खेलते हैं।
उत्सव में परंपराओं का समावेश
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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली। इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया। मान्यता यह भी है कि गढ़वाल राज्य के सेनापति वीर भड़ माधो सिंह भंडारी जब दीपावली पर्व पर लड़ाई से वापस नहीं लौटे तो जनता इससे काफी दुखी हुई और उसने उत्सव नहीं मनाया। इसके ठीक ग्यारह दिन बाद एकादशी को वह लड़ाई से लौटे। तब उनके लौटने की खुशी में दीपावली मनाई गई। जिसे इगास पर्व नाम दिया गया।
Thursday, 5 November 2020
इसलिए खास है उत्तराखंड की पारंपरिक दीपावली
उत्तराखंड की पारंपरिक दीपावली पर विशेष
शुरू होता है इगास का इंतजार
Sunday, 1 November 2020
त्योहारों का खजाना लेकर आई शरद ऋतु
त्योहारों का खजाना लेकर आई शरद ऋतु
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दिनेश कुकरेती
शरद ऋतु का अपना अलग ही आनंद है। उत्तराखंड के पहाड़ व मैदानों में बारिश का प्रवाह थम चुका है और खुशगवार हो गया है मौसम। दिन सुकूनभरे हंै और रातें ठंडक का अहसास कराने वाली। हरसिंगार के शर्मीले फूल मुनादी पीट रहे हैं कि पितृपक्ष के बाद त्योहारों का सिलसिला शुरू हो जाएगा। यानी मन को हॢषत कर देने वाली ऐसी ऋतु और कोई हो ही नहीं सकती। आश्विन में शरद पूॢणमा के आसपास तो इसका सौंदर्य देखते ही बनता है।
यह ठीक है कि 'वसंतÓ के पास अपने झूमते-महकते सुमन हैं, इठलाती-खिलती कलियां हैं, गंधवाही मंद बयार और भौंरों के गुंजरित-उल्लासित झुंड हैं, मगर शरद का नील-धवल, स्फटिक-सा चमकता आकाश, अमृत बरसाने वाली चांदनी और कमल-कुमुदनियों भरे ताल-तड़ाग उसके पास कहां। संपूर्ण धरा को श्वेत चादर के आगोश में लेने को आकुल कास-जवास के सफेद-सफेद ऊध्र्वमुखी फूल तो शरद की धरोहर हैं। पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विरहता चांद और उससे फूटती एवं धरती की ओर भागती निर्बाध, निष्कलंक चांदनी पर भी शरद का ही एकाधिकार है। तभी तो 'रामचरितमानसÓ में तुलसीदास कहते हैं, 'बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई। फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।Ó (हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा ऋतु बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई है। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी आच्छादित है। जैसे वर्षा ऋतु अपना बुढ़ापा प्रकट कर रही हो)। वह आगे कहते हैं 'रस-रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी। जानि सरद रितु खंजन आए, पाई समय जिमि सुकृत सुहाए।Ó (नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है, उसी तरह जैसे विवेकी पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए, जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं यानी पुण्य प्रकट हो जाते हैं)।
दूध के सागर में नहाई धरा
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शरद ऋतु उत्तर भारत की सबसे मनोहारी ऋतु है। इसमें आकाश निर्मल और नदियों का जल स्वच्छ हो जाता है। शायद इसीलिए हमारे कविवृंद इस ऋतु के प्रशंसक हैंं। प्रसिद्ध छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निरालाÓ लिखते हैं, 'झरते हैं चुंबन गगन केÓ तो उधर वैदिक वांग्मय सौ शरद की बात करता है, 'जीवेत शरद शतमÓ, यानी कर्म करते हुए सौ शरद जीवित रहें। सचमुच ऐसी ही है शरद ऋतु। साफ नीला आसमान और ठंड के आगमन से पहले के खूबसूरत मौसम का संधिकाल। गरमी का अहसास है न ठिठुरन का ही। मन खिला-खिला सा प्रतीत होता है। सांझ ढलते ही वन कुमुद और मालती के फूलों की मंद-मंद मादक खुशबू मन मोहने लगी है। चांद अपने उन्मुक्त सौंदर्य के साथ जगमगा रहा है। धरा ऐसी प्रतीत होती है, मानो दूध के सागर में स्नान कर रही हो। ऐसा कोई सरोवर नहीं है, जिसमें सुंदर कमल न खिले हों। ऐसा कोई पंकज नहीं है, जिस पर भ्रमर न बैठा हो। ऐसा कोई भौंरा नहीं, जो गुंजन न कर रहा हो। ऐसी कोई भनभनाहट और पक्षियों का कलरव नहीं, जो मन को न हर रहा हो। ऐसे में आलस्य के स्थान पर शरीर में चुस्ती और कार्य करने का उत्साह बढऩेे लगा है। चेहरे पर खुशी और जीवन में प्रसन्नता स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है। तब तुलसीदास कहते हैं, 'भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद रितु पाइ, सदगुर मिलें जाहिं जिमि, संसय भ्रम समुदाइ।Ó अर्थात 'वर्षा ऋतु के कारण पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए, जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं।Ó
जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद की ऋतु
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शरद उत्सव प्रिय है। इस एक ऋतु में जितने उत्सव होते हैं, उतने पूरे साल भी नहीं होते। शरद यानी हरसिंगार, कमल और कुमुदिनी के खिलने का मौसम। शरद यानी जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद का मौसम। गंदलेपन से मुक्ति का प्रतीक। इसलिए 'ऋतु संहारÓ में महाकवि कालिदास कहते हैं, 'लो आ गई यह नववधू-सी शोभती, शरद नायिका! कास के सफेद पुष्पों से ढकी इस श्वेतवस्त्रा का मुख कमल पुष्पों से निॢमत है और मस्त राजहंसी की मधुर आवाज ही इसकी नुपूर ध्वनि है। ऐसे में पकी बालियों से नत, धान के पौधों की तरह तरंगायित इसकी तन-यष्टि भला किसका मन नहीं मोह लेगी।Ó
Friday, 30 October 2020
The mountain speaks in the voice of Negida
The mountain speaks in the voice of Negida
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The prestigious 'Academy Award' of the year 2018 by Sangeet Natak Akademi to Uttarakhand's famous folk singer Narendra Singh Negi is not just an individual, but an honor for the dialect, language, culture and folk traditions of Uttarakhand. Negi is the flag bearer of the folk culture of Uttarakhand. The daughter-in-law of the mountain is the representative of the daughter and a reflection of her agony. The problems of mountain like mountain are age-old and in their time, there are rapid changes, concerns related to people and concerns of life. Negi is a poet, lyricist, folklorist as well as an esoteric thinker and expert in folklore. There is very little inclusion of such qualities in a personality. Allama Iqbal's words say, "Thousands of years, Nargis cries on her disunity, it is very difficult to be born in Chaman."
Encyclopedia of Uttarakhand is Negida
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Dinesh Kukreti
If you want to know about Uttarakhandi society, its civilization, culture, folk life, politics etc., then listen to the songs of Garhatna Narendra Singh Negi. The entire picture will be revealed. Negi has exposed various aspects of misery-pain, happiness and life of Uttarakhandi society through the lyrics and notes of his songs. He has sung all kinds of Uttarakhandi folk songs without hurting the feelings and respect of any folk songs. He also composed love songs, but with new images and metaphors. The biggest feature of these songs is that they do not have levity like film songs, but rather the decency and dignity of love emerges. However, in the early songs of Negi, the Vandana of Garhbhoomi, its natural beauty and appreciation of folk life is very visible. However, gradually the sufferings of the mountain society and the problems of the system here began to emerge in his songs.
Uttarakhandi symbol of identity
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Born on 12 August 1949 in Pauri village of Pauri district, Negi started his career in Pauri and till now he has spread the magic of his folk melody in various parts of the country, not only in many countries of the world. Although many new singers continued to join the Garhwal music industry over time, despite the new voices of new singers, the entire Uttarakhand listens to the songs of Negi with the same love and respect as today Used to listen four decades ago. The most important aspect of Negi's songs is his lyrics and deep stream of feelings towards the Uttarakhandi people. This is the reason that the people of Uttarakhand consider Negi a symbol of their identity wherever they are in the world.
Beginning with 'Geetmala', proceeded from 'Buransh'
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Negi started his singing career with Garhwali Geetmala, which was in ten different episodes. But, then he started displaying his album under different names. He named his debut album 'Buransh'. A beautiful wild flower found in the Burans mountain range. This album was taken by the people and then Negi's songs went on to become the voice of every Uttarakhandi.
Received worldwide respect
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Negida has sung more than a thousand songs so far. He has also been awarded several times for his excellent singing on various occasions throughout the world. Akashvani Lucknow recognized and rewarded him with ten other artists as the most popular folk lyricist. The award was given on the basis of mail sent by Akashwani to Farameesh-e-Geet.
Negida's fans everywhere in the country and the world
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In addition to all the major cities of the country, Negi has performed for many times in countries like USA, Australia, Canada, New Zealand, Muscat, Oman, Bahrain, UAE etc. He is often invited by Garhwali-Kumaoni migrants to perform in different parts of the country and abroad.
Rule in the hearts of the public
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The lyrics of all the songs of Negi have sprouted from the ground plane of reality. That is why he rules in the hearts of Uttarakhandi people. He is as close to Garhwal as he is to Kumaon and Jaunsar. Everyone wants to hear them, humming in solitude. The special thing is that most of the songs that Negi has sung are also written by himself.
Three books have been published
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- 'Khuchakandi' (a basket made of ringle for carrying arrays and rot).
- 'Ganges of Ganges, Samodar of Syrians' (Ganges of imagination, sea of longing).
-'Mut bowi's ashes' (keeping fists closed and ready).
(Note: It contains songs by Negi related to all major movements including Uttarakhand state movement.)
'Dylan of the Hills'
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In 2007, the Kolkata-based Telegraph named Negi as the 'Dylan of the Hills' for his song 'Jagar' (Nachhami Narain), the then Chief Minister ND Tiwari and against the entire political system of Uttarakhand in 2006. Dylan Thomas has been one of the greatest British poets of the 20th century. He is a literary icon in his native Wales.
The lyrics of these films were given notes
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Chakrachalak, Gharjwain, Subero Gham s, Bayo, Kantyon ki Suraj Aayi, Meri Ganga Holi Mamu Aali, Kauthig, Beti-bwari, Bantwaru, Fionli Jwan Hwage, Ounce Night, Chhamm Ghungroo, Jai Dhari Devi, Subero Gham etc.
Negida's flagship album
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Buransh, Honsiya Omar, Syani, Salanya Syali, Samadola ka Dwi, Wa Juniyali Night, Rumuk, Maya to Mundaro, Basant Aage, Barkha, Nauchmi Narain, Nayu-nayu Byo, Dagadya, Tumari Maya Ma, Ghassari, Tu Holi Bira . Now Kataga Khaleyu etc.
Master of public
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When thousands of dialects are disappearing from the world, Negi is also the pioneer of Lokmanas, who intends to not only restore the dialects of Uttarakhand, but to make them the head of the lingua franca. He is the only folk songwriter and singer from Uttarakhand who is equally established in folk from Ascot to Arakot and Haridwar to Badrinath.
The line drawn is not easy to match
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After Negi's arrival, avenues were also opened for new singers. It is a different matter that some voices were blunted in that uproar and some emerged. But, no one can match the great streak Negi has drawn.
The first song composed in the rainy dupahri
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Negi recorded his first song in the year 1976. The lyrics were- 'Saira Basgyal Banu Ma, Rudy Kutan Ma, Hyund PC Bitaina, Myara Sadni in Din Raina.' When the song rang through the air, people became obsessed with it and started speaking on the tongue of everyone, big and small. "It was a rainy afternoon of 74," said Negi. My father had an eye surgery and I came with him from the village to Lehman Hospital in Vikasnagar. Dad was lying on the bed in the ward and I was sitting on the bed in the verandah renting three rupees and was staring at the showers. I was also thinking that after suffering all the trouble in our mountain, women also serve the elders at home and also work in the fields. I did not know when this song landed on paper in the same upsurge.
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Wednesday, 28 October 2020
Bapu has golden memories settled in Mussoorie/मसूरी में बसी हैं बापू की सुनहरी यादें
Publisher ID: pub-3625629991147628
मसूरी में बसी हैं बापू की सुनहरी यादें
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पहाड़ों की रानी देश के उन महत्वपूर्ण स्थानों में शामिल है, जिनसे गांधीजी का विशेष लगाव रहा है। आजादी के आंदोलन को गति देने और स्वास्थ्य लाभ के लिए गांधीजी दो बार मसूरी आए थे। अपने दूसरे मसूरी दौरे पर तो वह दस दिन मसूरी में रुके और यहां प्रार्थना सभाओं में हिस्सा लिया। इस दौरान उन्होंने कुलड़ी के सिल्वर्टन ग्राउंड में एक जनसभा को भी संबोधित किया था। तब गांधीजी हैप्पी वैली स्थित घनश्याम दास बिड़ला के आवास पर ठहरे थे। आइए! आपको भी गांधीजी की इन यात्राओं के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराते हैं।
बिड़ला हाउस में ठहरे थे गांधी
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दिनेश कुकरेती
गांधीजी का पहली बार मसूरी आना वर्ष 1929 में हुआ। तब वह किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए देहरादून आए थे और दो दिन मसूरी में भी रुके। इतिहासकार गोपाल भारद्वाज लिखते हैं कि वर्ष 1946 में जब महात्मा गांधी दोबारा मसूरी आए तो हैप्पी वैली स्थित बिड़ला हाउस में ठहरे थे। तब वह मसूरी के बड़े कांग्रेस नेताओं में शुमार पुष्कर नाथ तनखा के सहयोग से देश के अन्य बड़े नेताओं के साथ बैठक कर आजादी के आंदोलन को गति देने के लिए रणनीति बनाते थे।
मसूरी की सुंदरता देख दुख-दर्द भूल जाते थे बापू
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इतिहासकार भारद्वाज के अनुसार इस दौरान गांधीजी मसूरी में स्वास्थ्य लाभ भी लिया करते थे। वह नित्य माल रोड पर पैदल घूमते और लोगों से मिला करते थे। मसूरी के बारे में गांधीजी कहते थे कि यहां की खूबसूरत पहाडिय़ों को देखकर वह अपना सारा दुख-दर्द भूल जाते हैं। प्रार्थना सभा के बाद गांधीजी की कही बातें लोगों में जोश भर देती थीं। मसूरी के प्रति बापू के प्रेम का जिक्र जस्टिस जीडी खोसला ने अपनी पुस्तक 'मसूरी एंड द दून वैलीÓ में भी किया है। यह पुस्तक वर्ष 1961 में प्रकाशित हुई थी।
गांधीजी के करीबी रहे ज्योतिषाचार्य ऋषि भारद्वाज
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इतिहासकार भारद्वाज लिखते हैं कि उनके पिता ऋषि भारद्वाज की गांधीजी से काफी करीबी रही है। वह प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य थे। वर्ष 1946 में जब गांधीजी मसूरी बिरला हाउस में ठहरे थे, तब उनके पिता को लिवाने के लिए आवास पर रिक्शा भिजवाया करते थे। उनके पिता को पहली बार राजकुमारी अमृत कौर ने गांधीजी से मिलवाया था।
उपहार नीलाम कर खादी ग्रामोद्योग को दान कर दी थी राशि
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मसूरी प्रवास के दौरान स्थानीय लोगों ने उपहार स्वरूप गांधीजी को चांदी की छड़ी और रिक्शा भेंट किया था। गांधीजी ने उपहार को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन उसे उसी समय बेचने के लिए बोली भी लगा दी। स्थानीय लोगों ने तब यह उपहार 800 रुपये में खरीदा। यह राशि गांधीजी ने तत्काल खादी ग्रामोद्योग को दान कर दी। उस समय खादी के उत्थान के लिए स्वदेशी वस्तु अभियान चलाया जा रहा था।
गरीब-पिछड़ों के लिए संस्था बनाने का दिया था सुझाव
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इतिहासकार भारद्वाज के अनुसार उस दौर में माल रोड पर आम भारतीय का चलना प्रतिबंधित था। इससे गांधीजी बेहद व्यथित हुए और स्थानीय लोगों को मसूरी में एक ऐसी संस्था बनाने का सुझाव दिया, जिसके माध्यम से गरीब एवं पिछड़े अपनी सभा और बात कर सकें। इसके बाद गांधीवादी विचारक पीसी हरी और पुष्कर नाथ तनखा ने नगर में एक पुराने भवन को किराये पर लिया। बाद में उन्होंने इसे खरीदकर गांधी निवास सोसाइटी बनाई, जो आज भी चल रही है और इसे श्री गांधी निवास सोसायटी के नाम से जाना जाता है।
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Bapu has golden memories settled in Mussoorie
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The queen of the mountains is one of the important places in the country to which Gandhiji has a special attachment. Gandhiji came to Mussoorie twice to give impetus to the freedom movement and to get health benefits. On his second visit to Mussoorie, he stayed in Mussoorie for ten days and attended prayer meetings here. During this time he also addressed a public meeting at the Sylvartan Ground in Kulri. Then Gandhiji stayed at Ghanshyam Das Birla's residence in Happy Valley. Come! Let us also introduce you to the various aspects of these visits of Gandhiji.
Gandhi stayed in Birla House
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Dinesh kukreti
Gandhiji first came to Mussoorie in the year 1929. He then came to Dehradun to attend an event and also stayed in Mussoorie for two days. Historian Gopal Bhardwaj writes that when Mahatma Gandhi came to Mussoorie again in the year 1946, he stayed at Birla House in Happy Valley. He then formulated a strategy to speed up the freedom movement by meeting with other big leaders of the country in collaboration with Pushkar Nath Tankha, one of the prominent Congress leaders of Mussoorie.
Seeing the beauty of Mussoorie, Bapu forgot his pain and pain
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According to historian Bhardwaj, during this time Gandhiji also used to take health benefits in Mussoorie. He used to walk and meet people on the regular goods road. About Mussoorie, Gandhiji used to say that he forgets all his pain and pain by looking at the beautiful hills here. After the prayer meeting, Gandhiji's words used to excite people. Bapu's love for Mussoorie is also mentioned by Justice GD Khosla in his book 'Mussoorie and the Doon Valley'. This book was published in the year 1961.
Jyotishacharya Rishi Bharadwaj was close to Gandhiji
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Historian Bhardwaj writes that his father, Rishi Bhardwaj, was very close to Gandhiji. He was a famous astrologer. When Gandhiji stayed at Mussoorie Birla House in the year 1946, he used to send rickshaws to his father's residence. His father was first introduced to Gandhiji by Princess Amrit Kaur.
The gift was auctioned and donated the amount to Khadi village industry
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During his stay in Mussoorie, the locals presented a silver rod and rickshaw to Gandhiji as a gift. Gandhiji accepted the gift, but at the same time bid to sell it. The locals then bought this gift for Rs 800. Gandhiji immediately donated this amount to Khadi Gramodyog. At that time, the Swadeshi object movement was going on for the upliftment of Khadi.
It was suggested to make an institution for the poor and backward
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According to historian Bhardwaj, the common Indian was prohibited from walking on the Mall Road at that time. This upset Gandhiji and suggested the local people to form an institution in Mussoorie through which the poor and backward could speak and hold their meetings. After this, Gandhian thinkers PC Hari and Pushkar Nath Tankha rented an old building in the city. Later he bought it to form Gandhi Niwas Society, which is still running today and it is known as Shri Gandhi Niwas Society.