Monday, 23 November 2020

'देहरादूनीÓ हो गई अफगानिस्तान से आई बासमती


 'देहरादूनीÓ हो गई अफगानिस्तान से आई बासमती
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दून की बात चले और यहां की बासमती का जिक्र न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लेकिन, संभवत: अधिकांश लोगों को मालूम नहीं होगा कि जिस 'देहरादूनीÓ बासमती की देश-दुनिया में धाक रही है, वह अफगानिस्तान से यहां आई थी। हां! यह जरूर है कि दून पहुंचने पर न केवल इसकी गुणवत्ता में निखार आया, बल्कि यह अपनी मिठास, महक और स्वाद के कारण दुनियाभर की पसंद बन गई। इस बासमती को दून लाने का श्रेय अफगानिस्तान के शासक रहे दोस्त मोहम्मद खान बरकजई को जाता है। 

दोस्त मोहम्मद खान ने मंगवाया था बासमती का बीज

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किस्सा कुछ यूं है। वर्ष 1839 से वर्ष 1842 तक चले तमाम उतार-चढ़ावों वाले ब्रिटिश-अफगान युद्ध में अफगान शासक दोस्त मोहम्मद खान की हार हुई और अंग्रेजों ने उसके पूरे परिवार को देश निकाला दे दिया। तब दोस्त मोहम्मद खान निर्वासित जीवन बिताने के लिए परिवार के साथ मसूरी (देहरादून) आ गया। वैसे तो इस परिवार को यहां की आबोहवा बहुत रास आई, पर यहां के चावल से संतुष्टि नहीं मिली। ऐसे में दोस्त मोहम्मद ने अफगानिस्तान से बासमती धान के बीज मंगवाए और उन्हें देहरादून की हसीन वादियों में बो दिए। मजा देखिए कि इस धान को न केवल दून की मिट्टी रास आई, बल्कि बासमती की जो पैदावार हुई, उसकी गुणवत्ता पहले की बनिस्बत और उम्दा थी। यह चावल जब गांव के किसी एक घर में पकता तो पूरे गांव को खबर हो जाती। इसकी खूशबू पूरे गांव की फिजा को महका देती थी।

खेत से ही उठा ले जाते थे दूर-दूर के व्यापारी

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धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की चर्चा पूरे भारत में होने लगी। व्यापारी देहरादून आते, खड़ी फसल की बोली लगाते और धान पकने पर उसे खेत से ही उठा ले जाते। एक दौर ऐसा भी आया, जब बासमती की खेती से पूरा इलाका महकने लगा। देहरादून के अलावा अब हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर और नैनीताल में भी बासमती की बेशुमार खेती होने लगी। लेकिन, हर जगह इसे देहरादूनी बासमती ही कहा गया। इसे पूरी दुनिया में अपनी खास खुशबू के लिए जाना जाने लगा। लेकिन, समय के साथ शहरीकरण की मार देहरादूनी बासमती पर पड़ी। बाकी रही-सही कसर हाईब्रीड करने के चक्कर में पूरी हो गई। जिससे देहरादूनी बासमती को पहचानना भी मुश्किल हो गया। आज तो देहरादूनी बासमती की शुद्धता की पहचान करना केवल प्रयोगशाला में ही संभव है। 





















शहरीकरण में गुम हुई बासमती की महक

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एक दौर में 2200 एकड़ में देहरादूनी बासमती की खेती होती थी। लेकिन, कालांतर में खेतों की जगह कंक्रीट के जंगल उगते चले गए। नतीजा, धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की खेती सिमटने लगी। बीज प्रमाणीकरण कंपनियों की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 तक देहरादून जिले में करीब छह हजार एकड़ में देहरादूनी बासमती की पैदावार होती थी। वर्ष 1990 में घटकर यह 200 एकड़ रह गई। वर्ष 2010 आते-आते यह केवल 55 एकड़ और वर्ष 2019 में मात्र 11 एकड़ के आसपास सिमट गई। जबकि एक दौर में देहरादून के सेवला, माजरा और मोथरावाला इलाकों में जब बयार चलती थी तो बासमती के खेतों से उठती महक हवा में घुल जाती। दूर से ही पता चल जाता कि यहां बासमती धान लगा है। वर्तमान में जो बासमती उगाई भी जा रही है, उसमें टाइप थ्री दून बासमती बेहद कम है। देहरादूनी बासमती का नाम तो अब सिर्फ ब्रांड के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। हकीकत यह है कि दूसरी जगह से आ रहे बारीक चावल को देहरादूनी बासमती का ठप्पा लगाकर बेचा जा रहा है।

अन्य प्रदेशों में बदल जाते हैं इसके गुण

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देहरादूनी बासमती की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि देश-प्रदेश के दूसरे हिस्सों में इसकी उपज में यहां जैसी मिठास, महक और स्वाद पैदा नहीं हो पाता। परीक्षण के तौर पर देहरादूनी बासमती को देश के दूसरे हिस्सों में बोया भी गया, लेकिन सार्थक नतीजे सामने नहीं आए।

प्रमुख अफगान शासकों में से एक था दोस्त मोहम्मद खान

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दोस्त मोहम्मद खान (23 दिसंबर 1793-नौ जून 1863) बरकजई वंश का संस्थापक और अफगानिस्तान के प्रमुख शासकों में से एक था। वह सरदार पाइंदा खान (बरकजई जनजाति के प्रमुख) का 11वां बेटा था, जो वर्ष 1799 में जमान शाह दुर्रानी के हाथों मारा गया था। दोस्त मोहम्मद का दादा हाजी जमाल खान था।

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