त्योहारों का खजाना लेकर आई शरद ऋतु
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दिनेश कुकरेती
शरद ऋतु का अपना अलग ही आनंद है। उत्तराखंड के पहाड़ व मैदानों में बारिश का प्रवाह थम चुका है और खुशगवार हो गया है मौसम। दिन सुकूनभरे हंै और रातें ठंडक का अहसास कराने वाली। हरसिंगार के शर्मीले फूल मुनादी पीट रहे हैं कि पितृपक्ष के बाद त्योहारों का सिलसिला शुरू हो जाएगा। यानी मन को हॢषत कर देने वाली ऐसी ऋतु और कोई हो ही नहीं सकती। आश्विन में शरद पूॢणमा के आसपास तो इसका सौंदर्य देखते ही बनता है।
यह ठीक है कि 'वसंतÓ के पास अपने झूमते-महकते सुमन हैं, इठलाती-खिलती कलियां हैं, गंधवाही मंद बयार और भौंरों के गुंजरित-उल्लासित झुंड हैं, मगर शरद का नील-धवल, स्फटिक-सा चमकता आकाश, अमृत बरसाने वाली चांदनी और कमल-कुमुदनियों भरे ताल-तड़ाग उसके पास कहां। संपूर्ण धरा को श्वेत चादर के आगोश में लेने को आकुल कास-जवास के सफेद-सफेद ऊध्र्वमुखी फूल तो शरद की धरोहर हैं। पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विरहता चांद और उससे फूटती एवं धरती की ओर भागती निर्बाध, निष्कलंक चांदनी पर भी शरद का ही एकाधिकार है। तभी तो 'रामचरितमानसÓ में तुलसीदास कहते हैं, 'बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई। फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।Ó (हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा ऋतु बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई है। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी आच्छादित है। जैसे वर्षा ऋतु अपना बुढ़ापा प्रकट कर रही हो)। वह आगे कहते हैं 'रस-रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी। जानि सरद रितु खंजन आए, पाई समय जिमि सुकृत सुहाए।Ó (नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है, उसी तरह जैसे विवेकी पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए, जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं यानी पुण्य प्रकट हो जाते हैं)।
दूध के सागर में नहाई धरा
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शरद ऋतु उत्तर भारत की सबसे मनोहारी ऋतु है। इसमें आकाश निर्मल और नदियों का जल स्वच्छ हो जाता है। शायद इसीलिए हमारे कविवृंद इस ऋतु के प्रशंसक हैंं। प्रसिद्ध छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निरालाÓ लिखते हैं, 'झरते हैं चुंबन गगन केÓ तो उधर वैदिक वांग्मय सौ शरद की बात करता है, 'जीवेत शरद शतमÓ, यानी कर्म करते हुए सौ शरद जीवित रहें। सचमुच ऐसी ही है शरद ऋतु। साफ नीला आसमान और ठंड के आगमन से पहले के खूबसूरत मौसम का संधिकाल। गरमी का अहसास है न ठिठुरन का ही। मन खिला-खिला सा प्रतीत होता है। सांझ ढलते ही वन कुमुद और मालती के फूलों की मंद-मंद मादक खुशबू मन मोहने लगी है। चांद अपने उन्मुक्त सौंदर्य के साथ जगमगा रहा है। धरा ऐसी प्रतीत होती है, मानो दूध के सागर में स्नान कर रही हो। ऐसा कोई सरोवर नहीं है, जिसमें सुंदर कमल न खिले हों। ऐसा कोई पंकज नहीं है, जिस पर भ्रमर न बैठा हो। ऐसा कोई भौंरा नहीं, जो गुंजन न कर रहा हो। ऐसी कोई भनभनाहट और पक्षियों का कलरव नहीं, जो मन को न हर रहा हो। ऐसे में आलस्य के स्थान पर शरीर में चुस्ती और कार्य करने का उत्साह बढऩेे लगा है। चेहरे पर खुशी और जीवन में प्रसन्नता स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है। तब तुलसीदास कहते हैं, 'भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद रितु पाइ, सदगुर मिलें जाहिं जिमि, संसय भ्रम समुदाइ।Ó अर्थात 'वर्षा ऋतु के कारण पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए, जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं।Ó
जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद की ऋतु
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शरद उत्सव प्रिय है। इस एक ऋतु में जितने उत्सव होते हैं, उतने पूरे साल भी नहीं होते। शरद यानी हरसिंगार, कमल और कुमुदिनी के खिलने का मौसम। शरद यानी जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद का मौसम। गंदलेपन से मुक्ति का प्रतीक। इसलिए 'ऋतु संहारÓ में महाकवि कालिदास कहते हैं, 'लो आ गई यह नववधू-सी शोभती, शरद नायिका! कास के सफेद पुष्पों से ढकी इस श्वेतवस्त्रा का मुख कमल पुष्पों से निॢमत है और मस्त राजहंसी की मधुर आवाज ही इसकी नुपूर ध्वनि है। ऐसे में पकी बालियों से नत, धान के पौधों की तरह तरंगायित इसकी तन-यष्टि भला किसका मन नहीं मोह लेगी।Ó
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