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उत्तराखंड की पारंपरिक दीपावली पर विशेष
शुरू होता है इगास का इंतजार
उत्तराखंड की पारंपरिक दीपावली पर विशेष
भैलो की रोशनी में मंगल का गान
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दिनेश कुकरेती
देवभूमि उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में पंचकल्याणी पर्व दीपावली को मनाने का अंदाज ही निराला है। यहां दीपावली का उत्सव कार्तिक त्रयोदशी यानी धनतेरस से शुरू होकर कार्तिक कृष्ण अमावस्या के ११ दिन बाद देवोत्थान (देवउठनी) एकादशी को विराम लेता है। इसीलिए यहां दीपावली को लोग 'इगास-बग्वालÓ नाम से जानते हैं। भैलो (बेलो) परंपरा दीपावली (बड़ी बग्वाल) का मुख्य आकर्षण है। बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है, जिसे सांस्कृतिक क्षरण के इस दौर में भी सुदूर अंचल में देखा जा सकता है।
'बेलोÓ पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हैं। इसमें एक निश्चित दूरी पर चीड़ की लकडियां (छिल्ले) फंसाई जाती हैं। इसके बाद सभी लोग गांव के किसी ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान (चौंर) पर एकत्र होते हैं। जहां पांच से सात की संख्या में तैयार बेलो में फंसी लकडिय़ों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है। फिर ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर सावधानी से उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य की छटा बिखेरते हैं। इसे भैलो खेलना कहा जाता है। लोक मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के आरिष्टों का निवारण करती हैं।
लोक के सरोकारों से जुड़े साहित्यकार नरेंद्र कठैत बताते हैं कि गांव की खुशहाली एवं सुख-समृद्धि के लिए बेलो को गांव की चारों दिशाओं में भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के छिल्लों को जलाकर ग्रामीण समूह नृत्य भी करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप है। इसके अलावा दीपोत्सव पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता की भी पूजा होती है।
लगता है गऊ पूड़ी का भोग
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धनतेरस के दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर गोपूजा होती है। फिर घर के सभी सदस्य 'गऊ पूड़ीÓ का भोग लगाते हैं।
इसलिए प्रथम पूजनीय है गाय
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बग्वाल तक खरीफ की फसल तैयार होकर घरों तक भी पहुंच जाती है। फसल को तैयार करने में पशुओं की भूमिका भी अहम होती है। इसीलिए अन्न का पहला ग्रास गो को देने का प्रचलन शुरू हुआ।
महकने लगते हैं पकवानों से घर
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छोटी बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन को बुहार (साफ-सफाई) कर चौक (द्वार) की पूजा होती है और उस पर 'शुभ-लाभÓ अथवा 'स्वास्तिकÓ का चिह्न अंकित किया जाता है। इस दिन सुबह से ही स्वाले व दाल की पकौडिय़ों की खुशबू से घर महकने लगते हैं। साथ ही गाय के लिए पींडो यानी झंगोरा, भात व बाड़ी (मंडुवे का फीका हलवा) बनना शुरू हो जाता है। बच्चे नजदीक के जंगल से फूल तोड़कर लाते हैं और उन्हें पींडो में रोप देते हैं। इसके बाद परिवार के सभी लोग छानी (गोशाला) में जाकर पहले गोवंश के सींगों पर सरसों का तेल लगाते हैं और फिर उनका तिलक कर पींडो खिलाते हैं।
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दिन के वक्त कलेऊ (स्वाले-पकौड़े) गांवभर में बांटा जाता है। अंधेरा घिरने पर घर, छज्जे, आले के भीतर, चौक, यहां तक कि छानी में भी तेल के दीये जलाए जाते हैं। और...चारों दिशाओं में गूंजने लगता है सुमधुर गीत, 'झिलमिल-झिलमिल दिवा जलि गैना, फिर बौडि़ ऐ ग्ये बग्वाल...।Ó
गो, वृक्ष, पर्वत और नदी की पूजा
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दीपावली का अगला दिन पड़वा गोवर्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत व नदी की पूजा की जाती है। कहते हैं कि पड़वा को निद्रा त्यागकर बिना मुख धोए मीठा ग्रहण करने से सालभर घर-परिवार में मिठास घुली रहती है।
शुरू होता है इगास का इंतजार
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बग्वाल के तीसरे दिन पडऩे वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है। इस दिन बहन घर आए भाई का टीका कर उसे मिष्ठान खिलाती है। फिर शुरू हो जाता है इगास का इंतजार।
खिलखिला उठते हैं घर-आंगन
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अंतराल के गांवों में बग्वाल पर दरवाजों, देहरी की चौखट और तिबारी के खंभों को हल्दी (पीला रंग), रोली (लाल रंग) और आटे (सफेद रंग) की बिंदियों से सजाया जाता है। दरवाजे के दोनों कोनों पर थोड़ा सा गोबर लगाकर उसे रंगों और जौ की हरियाली से सजाने की परंपरा है। जबकि, दरवाजे और पूजा घर को फूल मालाओं से सजाया जाता है।
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