Saturday, 14 November 2020

जीवन में जलें शांति एवं समृद्धि के दीप






जीवन में जलें शांति एवं समृद्धि के दीप

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सनातनी संस्कृति में पर्व-त्योहारों की  वही अहमियत है, जो जीवन में हवा और पानी की। पर्व-त्योहार हमारे ऐसे सनातनी उपक्रमहैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना का भाव भी जगाते हैं। दीपावली (बग्वाल) ऐसा ही मौका है, जो संपूर्ण मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। आइए! आपका परिचय दीपावली के इसी पारंपरिक, सांस्कृतिक और लोक कल्याणकारी स्वरूप से कराते हैं...



उत्तराखंड का पंचकल्याणी पर्व

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दिनेश कुकरेती

दीपावली यानी दीपों का उत्सव उल्लास एवं उमंग का ही प्रतीक नहीं, समृद्धि एवं खुशहाली का सूचक भी है। जब आत्मा में ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित होने लगेे, समझो जीवन में दीपावली का प्रवेश हो गया है। इसमें भौतिक सुखों की लालसा भी है तो आध्यात्मिकता में डूब जाने की उत्कंठा भी। कहने का तात्पर्य समस्त संसारिक भाव इसमें समाए हुए हैं। इसीलिए ज्योति पर्व का आरंभ धनतेरस होता है तो परिणति भैया दूज के रूप में। देखा जाए तो ज्योतिपर्व त्योहार मात्र न होकर त्योहारों का भरा-पूरा समूह है।  शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो दीपावली का पूजन धनतेरस से शुरू हो जाता है। यह ऐसा दिन है जब घर में किसी नई वस्तु का प्रवेश होता है। आशय यही है कि वर्षभर घर-परिवार में सुख, शांति एवं समृद्धि को स्थायित्व मिले और तन की निर्मलता एवं मन की पवित्रता बनी रहे। उत्तराखंड पर्वतीय अंचल में इस दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा की जाती है। इसके उपरांत ही घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। धनतेरस के बाद आती है नरक चतुर्दशी यानी छोटी दीपावली। सही मायने में यह मां लक्ष्मी के आगमन की प्रतीक्षा का दिन है, इसलिए इस दिन घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौक (द्वार) की पूजा की जाती है। आप मां लक्ष्मी की आगवानी को तैयार हैं, तो वह आएंगी ही। इसीलिए यह छोटी बग्वाल है, जो बड़ी बग्वाल यानी दीपावली के स्वागत में मनाई जाती है। दीपावली के बाद गोवद्र्धन पूजा और भैयादूज का पर्व आता है।



जीवन में स्वच्छता का भाव जगाता ज्योति पर्व

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घोर निराशा के इस दौर में जब सामाजिक मान्यताएं भरभराकर ढह रही हैं, तब तीज-त्योहार ही हैं, जो काफी हद तक इन्हेंं बचा पाने में सफल रहे हैं। यही ऐसे सनातनी उपक्रम हैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना भी जगाते हैं। शायद इसी वजह से त्योहार भारतीय जीवन पद्धति में गहरे से रचे-बसे हैं। हम समाज की खुशियों में कैसे शामिल हों, इसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन तो होना ही चाहिए। दीपावली ऐसा ही मौका है, जो पूरे मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। दीपावली की तैयारियां शारदीय नवरात्र के साथ ही शुरू हो जाती हैं। नवरात्र जहां प्रकृति एवं उसकी रचनाओं के प्रति सम्मान का बोध कराते हैं, वहीं दीपावली जीवन में स्वच्छता का भाव जगाती है। असल में इस पर्व की बाहरी चकाचौंध इसके भीतर छिपे दर्शन को ही प्रकाशित करती है। तन की निर्मलता, मन की पवित्रता और परिवेश की स्वच्छता का असल मकसद विचारों का प्रवाह समाज की उन्नति की ओर मोडऩा ही है। परिवेश की सफाई से आरंभ होने वाला यह त्योहार पराकाष्ठा पर पहुंचते-पहुंचते भाई-बहन के स्नेह का प्रतिरूप बन जाता है। महालक्ष्मी का पूजन इसका मुख्य सोपान है, लेकिन लक्ष्मी की कृपा तभी बरसती है, जब इसके पीछे मानव के कल्याण और प्रकृति के संरक्षण का भाव निहित हो। भारतीय संंस्कृति का असली स्वरूप भी यही है।



'बग्वालÓ का एक रूप 'इगासÓ भी

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पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने की परंपरा है। दरअसल ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को इगास-बग्वाल नाम दिया गया। मान्यता है कि अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती हैं, इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। जबकि, हरिबोधनी एकादशी यानी इगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। सो, इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है। देखा जाए तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास-बग्वाल कहा जाता है। इन दोनों दिनों में सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है। मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुवे के आटे का हलुवा) और जौ का पींडू (आहार) तैयार किया जाता है। भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डू तैयार कर उन्हें परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं। बग्वाल और इगास को घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाकर उन सभी परिवारों में बांटे जाते हैं, जिनकी बग्वाल नहीं होती। इस पर्व पर भी रात में पूजन के बाद गांव के सभी लोग भैलो खेलते हैं।



उत्सव में परंपराओं का समावेश

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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली। इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया। मान्यता यह भी है कि गढ़वाल राज्य के सेनापति वीर भड़ माधो सिंह भंडारी जब दीपावली पर्व पर लड़ाई से वापस नहीं लौटे तो जनता इससे काफी दुखी हुई और उसने उत्सव नहीं मनाया। इसके ठीक ग्यारह दिन बाद एकादशी को वह लड़ाई से लौटे। तब उनके लौटने की खुशी में दीपावली मनाई गई। जिसे इगास पर्व नाम दिया गया।

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