Tuesday, 6 October 2020

डरा रहा कोरोना, समझा रहा कोरोना



डरा रहा कोरोना, समझा रहा कोरोना
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कोरोना के अनेक रूप हैं, बुरे भी और अच्छे भी। एक तरफ कोरोना महामारी, त्रासदी, आपदा, भय, विषाद आदि-आदि रूपों में हमारे सामने है, वहीं इसने पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक जीने के तौर-तरीके भी पूरी तरह बदल डाले। कोरोना ने हमें प्रकृति की अहमियत समझाई तो स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालने के लिए प्रेरित भी किया। कोरोना ने बताया कि सादगी, संयम, सद्प्रयास, हौसला और सकारात्मक दृष्टिकोण से हम बड़ी से बड़ी चुनौती का भी सहज भाव से मुकाबला कर सकते हैं। बस! हमें धैर्य को नहीं टूटने देना है, अंधकार देर-सवेर खुद-ब-खुद छंट जाएगा। 

दिनेश कुकरेती
हामारी कोई भी हो, हर कालखंड में उसका कमोबेश यही स्वरूप रहा है। ऐसी ही चुनौतियों से तब भी मानवता का जूझता पड़ा, जैसी आज हमारे सामने खड़ी हैं। हां! यह जरूर है कि साधन-संसाधनों की स्थिति में समय के साथ-साथ बदलाव आया है। आज हम समझ पा रहे हैं कि प्रकारांतर से यह मानवीय भूल का ही नतीजा है। जबकि, पहले संक्रामक बीमारियों को दैवीय प्रकोप की परिणति मान लिया जाता था और मनुष्य चुनौतियों से लडऩे के बजाय नियति के शरणागत हो जाता था। आज बहुत हद तक ऐसा नहीं है। हम जितनी शिद्दत से कोविड-19 के खतरों को महसूस कर रहे हैं और उसी गंभीरता से इससे लडऩे के लिए लगातार खुद को तैयार भी कर रहे हैं। हम जानते हैं कि इस महामारी का पूरी तरह खात्मा तब तक संभव नहीं, जब तक कि कोई प्रामाणिक वैक्सीन अस्तित्व में नहीं आ जाती। सो, तब तक इससे बचने को हमने अपनी जीवनचर्या को ही आमूलचूल बदल डाला है। यह अलग बात है कि इस बदलाव से तमाम विसंगतियां भी सामने आ रही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि इन्हीं विसंगतियों के बीच से रास्ता भी निकलना है।
जरा थोड़ी देर गंभीरता से मनन कीजिए, पता चल जाएगा कि कोरोना ने न केवल स्वास्थ्य के सामने चुनौतियां खड़ी की हैं, बल्कि समाज, शिक्षा, संस्कृति, खान-पान, अर्थ, व्यापार, पर्यटन, तीर्थाटन आदि, सभी को बुरी तरह प्रभावित किया है। कोरोना ऐसा दुश्मन है, जो हम चैलेंज भी कर रहा है और लड़ाई में मुकाबले के लिए खुद को तैयार करने के अवसर भी दे रहा है। वह समझा रहा है कि लड़ाई को जीतने के लिए सबसे पहले हमें अपना इम्यूनिटी सिस्टम (प्रतिरोधक क्षमता) मजबूत करना होगा। ...और ऐसा प्रकृति के करीब रहकर ही संभव है। चलताऊ भोजन (फास्ट फूड) की संस्कृति हमें मुकाबले में टिके नहीं रहने देगी। हमारी समझ में आ गया है कि तरक्की का मतलब जमीन छोड़ देना नहीं है। प्रकृति ने जो फूड चेन हमारे लिए नियत की है, अंतत: वही हमें बीमारियों से लडऩे की ताकत देती है। हमारे लिए दुपहिया-चौपहिया जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है खुशी-खुशी पैदल चलना। एसी की शीतलता से ज्यादा जरूरत हमारे लिए खिड़की से आनी वाले ताजा हवा के झोंको की है। भले ही उसमें मौसमानुकूल वातावरण की गर्माहट या शीतलता क्यों न समाई हुई हो।
कोरोना ने हमें यह सोचने को भी मजबूर किया कि भोग-विलास की तमाम जरूरतों के बावजूद मनुष्य की अंतिम लड़ाई पेट के लिए ही है। कोठियों में रहने वाला हो या झोपड़ी में, गेहूं-चावल के बगैर किसी की भी गुजर संभव नहीं। हां! क्वालिटी और कीमत में अंतर जरूर हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि हम कृषि क्षेत्र एवं किसानों को सशक्त करने के लिए कार्य करें। यह न भूलें कि आपात काल में सिर्फ किसान ही हमारी उम्मीदों को जिलाए रख सकता है। पूरी दुनिया में अगर लॉकडाउन सफल हो पाया तो यह किसान की मेहनत का ही परिणाम था। इस अवधि में पूरी मानवता गेहूं-चावल के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रही। सबका ध्येय एक ही रहा कि कोई भूखा न रहे।
इस महामारी ने यह भी समझाया कि हमें समाज के प्रति उदार होना चाहिए। यही हमारे मनुष्य होने की पहचान भी है। एक-दूसरे का हाथ बंटाने और कमजोर लोगों की मदद करने से ही समाज परिस्थितियों का मुकाबला करने में सक्षम होता है। भोगवादी संस्कृति के बावजूद लॉकडाउन की अवधि में इसकी झलक व्यापक स्तर पर देखने को मिली। सक्षम लोग खुलकर जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आए और लाखों लोगों का जीवन बचाने के साथ ही उनकी उम्मीदों को भी मुरझाने नहीं दिया। वहीं, हमने यह भी प्रत्यक्ष देखा कि एक कल्याणकारी राज्य के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की क्या अहमियत है और इसे मजबूत किया जाना क्यों जरूरी है। संकट की इस घड़ी में जहां मुनाफा बटोरेने वाले तमाम निजी अस्पताल और चिकित्सक तटस्थ नजर आए या नेपथ्य में चले गए, वहीं सरकारी अस्पताल व चिकित्सकों ने सीमित संसाधनों के बावजूद अपनी जिम्मेदारी का पूरे मनोयोग से न केवल निर्वहन किया, बल्कि स्वयं की जान जोखिम में डालने से भी नहीं हिचके। 



इस कालखंड ने जीवन को सरल भी बनाया और कठिन भी। सरल इस मायने में कि आम लोग एक ओर जहां डिजिटल होना सीखे, वहीं उन्हें यह भी मालूम हुआ इंटरनेट के माध्यम से दूर रहकर भी एक-दूसरे से करीबी कैसे बनाई जाती है। बच्चे घर बैठे ऑनलाइन स्टडी में पारंगत हुए और बड़े ऑनलाइन खरीदारी में। लेकिन, इसका कष्टदायी पक्ष यह है कि आज भी उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य के ज्यादातर गांवों में इंटरनेट पहुंच ही नहीं बना पाया। जहां पहुंचा भी, वहां अव्वल तो नेटवर्क नहीं आता और आता भी है तो टू-जी स्पीड का। उस पर एक बड़ी आबादी ऐसी भी है, जो आर्थिक रूप से इतनी मजबूत नहीं कि पेट काटकर इंटरनेट सेवा का उपभोग कर सके। ऐसे भी परिवारों की कमी नहीं है, जिनमें दो से अधिक बच्चे हैं और मोबाइल सिर्फ एक। बताइए! सभी बच्चे एक साथ क्लास कैसे अटेंड कर लेंगे। उस पर 'आपÓ ऐसे परिवारों के पास लैपटॉप होने की उम्मीद किए बैठे हैं। इतना ही नहीं, दिनभर मोबाइल की छोटी-सी स्क्रीन पर आंखें गड़ाए रहने से बच्चों की आंखों पर भी तो फर्क पड़ेगा। क्या यह चिंताजनक स्थिति नहीं है।
एक बात और, जो लगती तो सामान्य है, लेकिन परिणाम इसके बेहद गंभीर हो सकते हैं। यह है डब्ल्यूएचओ की ओर से दिया गया टर्म, जिसे 'सोशल डिस्टेंसिंगÓ कहा जा रहा है। चीन के वुहान शहर में कोरोना संक्रमण के मामले सामने आने पर डब्ल्यूएचओ ने इसे सुरक्षा का सबसे कारगर हथियार बताया था। दरअसल, वर्ष 1930 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से टीबी जैसी संक्रामक बीमारियों पर शोध करने वाले विलियम एफ वेल्स ने यह टर्म ईजाद किया था। शोध के दौरान वह इस नतीजे पर पहुंचे थे कि मुंह से निकलने वाले इन्फेक्टेड ड्रॉपलेट्स एक से दो मीटर के अंतर्गत ही गिरते हैं। इसलिए संक्रमित व सामान्य व्यक्ति के बीच इतनी दूरी होनी ही चाहिए। कोरोना संक्रमण फैलने पर इस टर्म का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य माना गया।
देखा जाए तो 'सोशल डिस्टेंसिंगÓ का मतलब 'सामाजिक दूरीÓ होता है। जबकि, दो व्यक्तियों के बीच एक से दो मीटर दूरी का मतलब तो 'फिजिकल डिस्टेंसिंगÓ यानी 'शारीरिक दूरीÓ हुआ। सही टर्म भी यही है। आखिर हम समाज से दूरी बनाकर कैसे इस महामारी का मुकाबला कर सकते हैं। होना तो यह चाहिए कि सामाजिक सहभागिता निभाते हुए हम शारीरिक दूरी का पालन करें। लेकिन, दुर्भाग्य से जिम्मेदार लोग पूरी दुनिया को सामाजिक दूरी बनाने की नसीहत दे रहे हैं। इसके अलावा भी जीवन से जुड़े तमाम ऐसे पहलू हैं, जिन्हें कोविड-19 ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया और कर रहे हैं। लेकिन, मनुष्य होने के नाते हमें हर परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इतिहास गवाह है कि मनुष्य ने संकट पर हमेशा विजय प्राप्त की है और अतीत से सबक लेकर भविष्य में भी प्राप्त करता रहेगा। यही तो जीवन है और जीवन कभी हार नहीं मानता।

Sunday, 4 October 2020

डी.एकिन का 'ओलंपियाÓ और एस्ले का 'ओरियंटÓ

:: यादें ::
डी.एकिन का 'ओलंपियाÓ और एस्ले का 'ओरियंटÓ
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दिनेश कुकरेती
आज का 'दिग्विजयÓ सिनेमा तीस के दशक में देहरादून की शान हुआ करता था। उस दौर में सिर्फ दो ही छविगृह दून में थे, एक 'ओलंपियाÓ और दूसरा 'ओरियंटÓ। दोनों ही 1927 में बनकर तैयार हुए, लेकिन हिंदुस्तानी सिर्फ 'ओलंपियाÓ में ही एंट्री कर सकते थे। 'ओरियंटÓ सिर्फ अंग्रेजों के लिए था और यहां फिल्में भी इंग्लिश ही लगा करती थीं। बाद में इन दोनों छविगृहों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर 'ओडियनÓ नाम से एक नया टॉकीज भी अस्तित्व में आया, लेकिन आज उसकी सिर्फ यादें बाकी हैं।

ओलंपिया वह ऐतिहासिक सिनेमाघर है, जिसने घंटाघर के ठीक सामने आरएस माधोराम की बिल्डिंग में आकार लिया। इसकी मालकिन थी डी.एकिन। सिनेमाघर के नीचे लाल इमली-धारीवाल की एजेंसी हुआ करती थी। पास ही बंगाली स्वीट शॉप के आगे पेट्रोल पंप था, जिसका टैंकर वहीं नीचे खुदवाया गया था। भारतीयों के लिए बने इस 450 सीट वाले सिनेमाघर में तब केवल हिंदी फिल्में चला करती थीं। फिल्म निर्माता-निर्देशक एवं लेखक डा.आरके वर्मा बताते हैं कि उस दौर में 'कृष्ण जन्मÓ, 'मिसिंग ब्रेसलेटÓ (बाद में इसी से मिस्टर इंडिया बनी), 'भूल-भुलैयाÓ जैसी पारिवारिक फिल्मों ने टिकट खिड़की पर सफलता के झंडे गाड़े।

वह बताते हैं कि 30 नवंबर 1927 को ओलंपिया की मालकिन ने सरकार को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि 'यहां पर एक स्टूडियो खोला जाना चाहिए।Ó इसके 15 दिन बाद एमकेपी के अवैतनिक प्रबंधक बाबू एस.दर्शनलाल ने भी एक चिट्ठी लिखी, 'देहरादून में ओलंपिया भारतीयों के लिए है। यहां हिंदी फिल्में चलती हैं।Ó उन्होंने यह भी लिखा कि 'इंग्लैंड में दिखाई जाने वाली फिल्मों में भारत की गलत छवि पेश की जाती है।Ó यही 'ओलंपियाÓ वर्ष 1948 में 'प्रकाश टॉकीजÓ हुआ और आज इसे 'दिग्विजयÓ सिनेमा के नाम से जानते हैं।

वह बताते हैं कि 1927में ही 'ओलंपियाÓ से कुछ मीटर के फासले पर गांधी पार्क के सामने एस्ले नामक अंग्रेज ने प्लॉट खरीदकर 500 सीट वाले 'ओरियंटÓ सिनेमा की स्थापना की। लेकिन, यहां भारतीयों के लिए 'नो एंट्रीÓ थी। इन दोनों सिनेमाघरों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने बाद में 'ओडियनÓ सिनेमा अस्तित्व में आया। 226 सीट वाले इस हॉल में भी सिर्फ अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। 1948 में यहां दो और सिनेमाघर बने, 'अमृतÓ और 'हॉलीवुडÓ। 'अमृतÓ में हिंदी और 'हॉलीवुडÓ में अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। तब का 'अमृतÓ आज का 'नटराजÓ है, जबकि 'हॉलीवुडÓ कालांतर में 'चीनियाÓ थियेटर बना और फिर 'कैपरीÓ सिनेमा। अब इस हॉल की जगह कैपरी टेड्र सेंटर ने ले ली है।

इसी कालखंड में मोती बाजार देहरादून का सबसे बड़ा सिनेमाघर अस्तित्व में आया। नाम था 'फिल्मिस्तानÓ और सीटे 650। यहां भी पारिवारिक फिल्में लगा करती थीं। जब यहां 'जय संतोषी मांÓ लगी तो, दर्शक स्टेज पर पैसे फेंका करते थे। रेलवे स्टेशन के समीप 'मिनर्वाÓ सिनेमाघर था, जो बाद में 'लक्ष्मीÓ सिनेमा बना और आज वहां लक्ष्मी पैलेस नाम से व्यावसायिक सेंटर है। सिनेमाघरों का अब नामोनिशान भी नहीं बचा।
(फोटो सहयोग गोपाल सिंह थापा)

आई बरखा बहार, पडे़ बूंदनि फुहार


आई बरखा बहार, पडे़ बूंदनि फुहार
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दिनेश कुकरेती
बादशाह अकबर ने सभासदों से पूछा, बारह में से चार महीने निकल जाएं तो शेष कितने रहे? सभी ने एक स्वर में जवाब दिया, आठ। लेकिन, बीरबल का गणित सभी से भिन्न था। वह बोला, जहांपनाह! बारह में चार गए तो बाकी बचा शून्य। बादशाह अचरज से बोले, कैसे? तब बीरबल ने उन्हें समझाया, हमारा देश खेती प्रधान है। खेती वर्षा पर आधारित है। वर्ष के बारह महीनों में से वर्षा के चार महीने यदि निकल जाएं, तो शेष क्या बचेगा? सूखा, दुर्भिक्ष, महामारी और मौत का तांडव। इस नई व्याख्या को सुन सभा में सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे।

सच भी है, वर्षा ऋतु जहां प्रकृति के कण-कण में जीवन का संचार करती है, वहीं मिट्टी भी हरियाली से भर उठती है। वर्षा ऋतु व्यक्ति एवं समाज की आध्यात्मिक चेतना जगाने में भी अहम भूमिका निभाती है। इसलिए वर्षा ऋतु के चार महीनों के लिए 'चातुर्मासÓ शब्द प्रयोग हुआ। यदि वर्षा ऋतु न हो तो बाकी ऋतुएं महत्वहीन हो जाती हैं। इसके बिना उनका सारा सौंदर्य जाता रहता है। वह वर्षा ऋतु ही है, जो अपने शीतल जल से धरती की प्यास बुझाकर उसे उर्वर बनाती है। वर्षाकाल शुरू होते ही प्रकृति में कुछ स्वाभाविक बदलाव होने लगते हैं। इनमें पर्यावरण का परिवर्तन सबसे प्रमुख है। जहां वर्षा का शीतल जल वातावरण को ठंडक प्रदान कर सुहावना और प्रिय बना देता है, वहीं यह नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति का कारक भी बनता है। यह ऐसा समय है, जब बूंदों की रिमझिम में संगीत का सरगम होता है। हवा, बादल, पेड़, पपीहे सब झूमते-गाते हुए से प्रतीत होते हैं। यह उल्लास जहां लोक के कंठ से बारहमासी, कजरी व झूला गीतों के रूप फूटता है, वहीं सुर साधकों के हृदय में उमडऩे-घुमडऩे लगता है राग मेघ-मल्हार।

वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के 28वें सर्ग में वर्षा के सौंदर्य का बखान करते हुए श्रीराम कहते हैं, 'वर्षाकाल आ पहुंचा। देखो, पर्वत के समान बड़े-बड़े मेघों के समूहों से आकाश आच्छादित हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो मेघ रूपी सीढिय़ों से आकाश में पहुंचकर अर्जुन के फूलों के हार सी दिखने वाली मेघमालाओं से सूर्य बिंब स्थित अलंकार प्रिय नारायण शोभा पा रहे हैं।Ó पहाड़ों की ढलानों पर उतरते मेघों के सौंदर्य पर मुग्ध कवियों ने वर्षा काल में नदियों के कल-कल निनाद, झरनों की झर-झर, मेढकों की टर-टर, झींगुरों की झिर-झिर, वन-उपवनों के सौंदर्य और पशु-पक्षियों के क्रीड़ा-कल्लोल का अद्भुत चित्रण किया है। 'मेघदूतमÓ में अलकापुरी से भटके शापग्रस्त यक्ष द्वारा मेघों को दूत मानकर अपनी प्रिया यक्षिणी तक विरह-वेदना और प्रेम संदेश भेज देने का निवेदन है। कहते हैं कि महाकवि कालिदास ही वह यक्ष थे, जो उज्जैन से कश्मीर तक अपनी प्रियतमा को मेघों से संदेशा भेजना चाहते थे। 

वर्षा ऋतु का पर्यायवाची चातकानंदन यानी चातक को आनंद देने वाली ऋतु भी है। वर्षा काल की समाप्ति के उपरांत अक्टूबर-नवंबर तक ये पक्षी लौटते मानसून के साथ पुन: अरब सागर होते हुए वापस अफ्रीका चले जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे परदेशी बालम चातुर्मास बीतने के बाद अपनी प्रियतमा को छोड़ वापस काम पर लौट जाया करते थे। क्या पावस ऋतु का ऐसा शब्द चित्र खींचना अन्यत्र सम्भव है? यही शब्द चित्र तो है जो वर्षा ऋतु में दून घाटी में उल्लास भर देता है। चहुंओर बिखरी हरियाली, सूखे वृक्षों पर नवीन पल्लव, ऐसा प्रतीत होता है मानो घाटी ने अपने जीर्णशीर्ण वस्त्रों का परित्याग कर नवीन हरित परिधान धारण कर लिया है। आकाश में मेघों की गडग़ड़ाहट के साथ श्यामल घनघोर घटाओं में स्वर्णिम चपला दामिनी की थिरकन, मृदंग वादन की संगति में नृत्य का आभास कराती है। मेघ गर्जना से उन्मादित मयूर अपने सतरंगी पंखों को फैलाकर नृत्य विभोर हो उठता है। श्यामवर्णी मेघ के मध्य उड़ती हुई बकुल पंक्तियां अत्यंत मनोहारी प्रतीत होती हैं। तब कवि गा उठता है, 'आई बरखा बहार पड़े बूंदनि फुहार, गोरी भीजत अंगनवा अरे सांवरिया, गोरी-गोरी बैयां पहने हरी-हरी चूडिय़ां, आगे सोने के कंगनवा अरे सांवरिया, बालों में गजरवा सोहे नैनन बीच सजरा, माथे लाली रे टिकुलिया अरे सांवरिया।Ó

कभी कम नहीं हुई पलटन बाजार की रूमानियत

कभी कम नहीं हुई पलटन बाजार की रूमानियत
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दिनेश कुकरेती
दून के खुशगवार मौसम में चलिए एतिहासिक पलटन बाजार की सैर करें। अंग्रेजों के जमाने में बसा तकरीबन सौ साल पुराना यह बाजार दून की आन-बान-शान है। यही वजह है कि देहरादून का भ्रमण तब तक पूरा नहीं माना जाता, जब तक कि रंगीन पलटन बाजार न घूम लिया जाए। यह ऐसा बाजार है, जहां से खाली हाथ लौटने का मन नहीं करता। कारण, यह बाजार हर वर्ग की पॉकेट का ख्याल रखता है। विश्वसनीयता के मामले में इसका कोई शानी नहीं। बहुत से लोग किताबें व कपड़े खरीदने या घूमने का आनंद लेने के लिए यहां आते हैं। घंटाघर तक फैले इस बाजार में चूडिय़ां, दूल्हा-दुल्हन के कपड़े, तैयार वस्त्र (रेडीमेट गारमेंट्स), हर प्रकार के मसाले, जूते, रोजाना घरेलू उपयोग में आने वाली वस्तुएं, उपहार का सामान, गुणवत्ता वाले बासमती चावल से लेकर ट्रैकिंग और लंबी पैदल यात्रा का साजो-सामान सब-कुछ वास्तविक कीमतों पर उपलब्ध रहता है। अगर आप मोलभाव करने का हुनर रखते हैं तो यहां बहुत सारी वस्तुएं न्यूनतम दाम पर खरीद सकते हैं। ब्रांडेड कपड़ों के कई शोरूम भी यहां मौजूद हैं। इसके अलावा आप प्राचीन वस्तुएं, शॉल, स्वेटर, कॉर्डिगन, सजावटी और पीतल के सामान जैसी हस्तशिल्प वस्तुएं भी पलटन बाजार में खरीद सकते हैं।


ऐसे पड़ा 'पलटन बाजारÓ नाम
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ब्रिटिश हुकूमत के दौर में जब वर्ष 1822 के आसपास सहारनपुर मार्ग अस्तित्व में आया, तब मसूरी व तत्कालीन गढ़वाल राज्य के समीपस्थ क्षेत्रों तक सामान पहुंचाने के लिए देहरादून से लगे राजपुर गांव तक भी यातायात व्यवस्था शुरू हुई। उस कालखंड में आज के देहरादून-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर मोहंड में बनी सुरंग से देहरादून और फिर मुख्य सड़क राजपुर रोड में प्रवेश किया जाता था। तब एकमात्र सड़क धामावाला गांव से आज के घंटाघर के समीप से होते हुए राजपुर गांव तक पहुंचती थी। इसी कारण वर्ष 1892 के आसपास तक दर्शनी गेट से राजपुर तक की सड़क 'राजपुर रोडÓ कहलाती थी। वर्ष 1864 में मुख्य मार्ग के समीप (वर्तमान पलटन बाजार में) अंग्रेजों की ओल्ड सिरमौर बटालियन ने अपनी छावनी स्थापित की। साहित्यकार देवकी नंदन पांडेय अपनी पुस्तक 'गौरवशाली देहरादूनÓ में लिखते हैं कि तब आज के यूनिवर्सल आयरन स्टोर से लेकर जंगम शिवालय के सामने वाली गली तक सैन्य अधिकारियों के आवासीय स्थल होते थे और इसके पीछे बटालियन ठहरती थी। घंटाघर से लेकर पलटन बाजार ंिस्थत सिंधी स्वीट शॉप के सामने तंग गली तक सड़क के दोनों ओर के क्षेत्र सेना के पास थे। सेना की आवाजाही के कारण कालांतर में यही क्षेत्र 'पलटन बाजारÓ कहलाया।


परेड ग्राउंड में थी गोरखा बटालियन की छावनी
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यह वह दौर है जब परेड ग्राउंड गोरखा बटालियन की छावनी के रूप में विकसित था। सिरमौर बटालियन और गोरखा बटालियन के सैनिक व अधिकारियों के लिए बाजार व पूजा स्थल विकसित किए गए। घंटाघर का हनुमान मंदिर, सब्जी मंडी की मस्जिद, फालतू लाइन का गुरुद्वारा और कचहरी रोड का चर्च भी उसी काल में अस्तित्व में आए।

 
1874 तक रही यहां ओल्ड सिरमौर बटालियन --------------------------------------- 
साहित्यकार देवकी नंदन पांडेय के अनुसार ओल्ड सिरमौर बटालियन और गोरखा बटालियन बाद में गढ़ी डाकरा क्षेत्र में स्थानांतरित कर दी गई, जिससे पलटन बाजार क्षेत्र खाली हो गया। तीन जुलाई 1874 को यह क्षेत्र सेना ने इस शर्त के साथ तत्कालीन सुपरिन्टेंडेंट ऑफ दून एचजी रॉस की सुपुर्दगी में दे दिया कि वह प्रतिवर्ष सेना के कोष में इसका नजराना जमा करवाएंगे। सुपरिन्टेंडेंट ऑफ दून ने सेना की ओर से सौंपी गई यह भूमि देखरेख के लिए नगर पालिका को सौंप दी। इसके बाद नगर पालिका की ओर से लंबे समय तक इस विशाल क्षेत्र का वार्षिक नजराना सेना को दिया जाता रहा।

वर्ष 1923 में लिया पलटन बाजार ने आकार
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एक मार्च 1923 को रायबहादुर उग्रसेन सिंह ने देहरादून नगर पालिका के अध्यक्ष का कार्यभार संभाला। इसके बाद उन्होंने खाली पड़े कई नजूल भूखंडों का स्वामित्व या तो अपने पक्ष में कर लिया या फिर नजूल नियमावली की अनदेखी कर उन्हें औने-पौने दाम में व्यापारियों के हाथ दिया। यही प्रक्रिया ओल्ड सिरमौर बटालियन की खाली की गई संपत्ति के साथ भी दोहराई गई। जिससे धीरे-धीरे पलटन बाजार आकार लेता चला गया।


उस दौर के प्रतिष्ठित व्यावसायिक प्रतिष्ठान
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पलटन बाजार के पुराने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में प्रमुख रूप से भगवान दास बैंक, चाचा हलवाई, दर्शनलाल टंडन की सोडा वाटर फैक्ट्री, नेशनल न्यूज एजेंसी, कस्तूरी हौजरी स्टोर, सुभाष फैमिली वियर, भाटिया ब्रदर्स, भोजा राम एंड संस, गुप्ता न्यूज एजेंसी, साहित्य सदन, सतपाल कृष्ण कुमार व ओमप्रकाश हलवाई आदि शामिल थे।


चाचा हलवाई बनाते थे वायसराय के लिए भोजन
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चाचा हलवाई की विशाल दुकान नेशनल न्यूज एजेंसी व गांधी आश्रम के स्थान पर हुआ करती थी। वायसराय के देहरादून आने पर यहीं से उनके भोजन की व्यवस्था की जाती थी। इसी तरह ग्रेंड बेकरी की दुकान के स्थान पर दर्शनलाल टंडन की हिमालय सोडा वाटर फैक्ट्री हुआ करती थी। वायसराय के लिए तैयार किया गया शुद्ध पेयजल यहीं से जाता था।


लार न टपकने लगे तो कहना...
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यह बाजार चाट गली के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां गोलगप्पे, समोसे, चाट, चाऊमीन, मोमोज, डोसा व टिक्की से लेकर विभिन्न प्रकार के फास्ट फूड का जायका ले सकते हैं। इस बाजार की स्वादिष्ट और फ्लेवरफुल आइसक्रीम की तो बात ही निराली है।


ब्रांडेड-गैर ब्रांडेड का संगम
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पलटन बाजार शॉप-ए-हेलिक्स के लिए सबसे लोकप्रिय स्थान है। यहां पीटर इंग्लैंड, फास्ट ट्रैक, बाटा, कामिनी, वर्धमान जैसे ब्रांड से लेकर अन्य गैर-ब्रांडेड वस्तुएं तक सब-कुछ उपलब्ध हैं। पलटन बाजार की पहचान अपने बेकरी और रेस्टोरेंट (जैसे- गेलॉर्ड एक्सप्रेस, सनराइज बेकर्स, हंगर बेल) के लिए भी है, जहां आप कोई भी स्वादिष्ट भोजन कर सकते हैं।


बारह घंटे खुला रहता है बाजार
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पल्टन बाजार में दुकानें सुबह दस बजे से खुलती हैं और रात 10 बजे तक बंद हो जाती हैं। बाजार हर वक्त आगंतुकों से खचाखच रहता है। खासकर रविवार को तो यहां पैर रखने तक को जगह नहीं मिलती। इसलिए बेहतर यही है कि अपने दुपहिया या चौपहिया वाहनों को उचित स्थान पर पार्क कर ही यहां आएं। पास ही स्थित राजीव गांधी कॉम्प्लेक्स में वाहन पार्क करने के लिए पर्याप्त स्थान मौजूद है।

Friday, 2 October 2020

कहानी (चाहत)

(कहानी)



चाहत

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सका मुझसे मिलन अनायास ही हुआ था। वैसे तो हम कई बार दो-चार हुए थे,लेकिन आपस में कोई निकटता नहीं थी। मैं और वो एक-दूसरे के सामने होने पर भी चुपचाप अपनी राह गुजर जाते थे। यह मेरा कॉलेज का अंतिम वर्ष था। इसी दौरान उससे मेरी मुलाकात हुई, किंतु बड़े नाटकीय ढंग से। दरअसल, उसका घर मेरे मित्र सुशील के घर के ठीक पीछे था। सुशील के घर मेरा आना-जाना लगा रहता था, सो कभी-कभी अकस्मात  उससे भी नजरें मिल जाया करतीं। जिस मकान में वह परिवार समेत रहती थी, वह किराये का था। यह मुझे सुशील से ही मालूम हुआ। साथ ही उसका नाम भी मालूम पड़ गया। भावना था उसका नाम। बड़ी मासूम सी, आकर्षक नैन-नक्श थे उसके। उस समय बारहवीं में पढ़ती थी। कक्षा के हिसाब से उम्र कुछ अधिक थी यानी बीस साल।

भावना की परीक्षाएं नजदीक थी। परीक्षाओं में प्रयोगात्मक परीक्षा के लिए पोस्टर व फाइल तैयार करनी पड़ती है, जो उसे भी बनानी थी। भावना और सुशील के परिवार में अच्छे पड़ोसियों जैसा तालमेल था, जिससे दोनों सगे भाई-बहन की तरह रहते थे। लिहाजा, भावना ने फाइल बनाने की जिम्मेदारी सुशील को सौंप दी। सुशील की यह पुरानी आदत है कि वह किसी भी प्रकार दूसरे व्यक्ति से अपनी तारीफ करवाने की फिराक में रहता है। सो, उसने भावना को भी इन्कार नहीं किया। वैसे चित्र बनाने के मामले में वह शून्य ही था। जाहिर है फाइल मेरे ही गले पडऩी थी। खैर! मैंने फाइल व चार्ट तैयार कर पांच-छह दिन में उसे लौटा दिए।

एक दिन मैं सुशील के घर गया तो भावना वहीं सुशील की बहन सुधा के साथ बैठी मिली। फाइल भी उसके हाथ में थी। सुधा से उसे मालूम पड़ चुका था कि फाइल सुशील ने नहीं, बल्कि मैंने बनाई है। मैं चुपचाप दूसरे कमरे में जा बैठा। लेकिन, सुधा मुझे बुलाकर अपने साथ भावना के पास ले गई और खुद भी मेरे पास ही बैठ गई।
सुधा को मैं अपनी छोटी बहिन की तरह प्यार करता हूं, लेकिन इससे कहीं बढ़कर वह मेरी एक अच्छी दोस्त भी है। इसलिए मैं उससे कभी भी कोई बात नहीं छिपाता था। खैर! एक-दूसरे परिचय होने के बाद भी मैं चुप ही बैठा रहा। तब भावना ने स्वयं ही पहल करते हुए कहा- 'आपका- बहुत-बहुत धन्यवाद ।Ó
'हूं...Ó
मैं चौंका (रुककर) 'मैं कुछ समझा नहींÓ-  मैंने कहा।
'आपने फाइल बनाकर मेरी कितनी हेल्प की है, आप नहीं जानतेÓ-  भावना बोली।
'शायद आपको गलतफहमी हुई है। आपसे तो मैं आज पहली बार मिल रहा हूं। फिर फाइल...।Ó-  मैंने कहा।
'लेकिन...मुझे सब मालूम हो चुका है। वैसे आपकी कला की जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही हैÓ-  भावना बोली थी।
मैं चुप रहा।

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उस दिन के बाद करीब दो माह तक मेरी भावना से कोई मुलाकात नहीं हुई। हां, इतना जरूर पता चला कि भावना लोगों ने वहां से घर बदल लिया है और दूसरी जगह शिफ्ट हो गए हैं। जिस मकान में वे शिफ्ट हुए थे, वह हाल ही में बना था। वहां पर सभी-सुविधाएं थी, सिवाए बिजली के। हालांकि, फिटिंग हो चुकी थी, लेकिन कनेक्शन होना बाकी था। भवन स्वामी कनेक्शन के लिए भागादौड़ कर रहा था, मगर काम नहीं बन रहा था। इससे भावना के पिता भी तनाव में थे। इस बारे में उन्होंने सुशील के घर जाकर उससे भी बात की। संयोग से मैं भी उस वक्त सुशील के साथ ही था। सो, मेरा भी उनसे परिचय हो गया। हमने उन्हेंं भरोसा दिलाया कि तीन-चार दिन के भीतर उनके घर बिजली आ जाएगी।
हमारी बिजली दफ्तर में कुछ अधिकारियों से अच्छी छनती है। दरअसल, उन्होंने भावना की सगाई तय कर दी थी। चार-पांच दिन में सगाई होनी थी। गर्मियों के दिन थे, सो बिजली का होना जरूरी था। दूसरे दिन मैं कॉलेज गया तो देखा भावना भी सुधा के साथ कॉलेज आई हुई है। मैं सुधा के पास ही बैठ गया और बातों-बातों में उस दिन भावना से भी मेरा अच्छा मेल-जोल हो गया। वहां सुधा की क्लासमेट रेखा भी मौजूद थी। उससे भी मेरे स्नेहमयी संबंध थे। सुधा की तरह वह भी मुझसे हर बात बेहिचक कह देती थी। सो, मुझे अलग ले जाकर बोली- 'भईया तुमने कभी भावना के बारे में भी सोचा है?Ó
'क्या ?Ó- मैंने कहा।
'वह तो तुम्हें बहुत चाहती हैÓ- रेखा ने कहा।
'ऐसा!Ó- मैं बोला। हालांकि, इस हकीकत से मैं अच्छी तरह वाकिफ था।
'हां! उसे तुमसे बहुत ज्यादा लगाव है, पर तुमसे वह कुछ भी व्यक्त नहीं कर पाती।Ó- रेखा बोली थी।
मुझे उस दिन पहली बार अहसास हुआ कि मैं भी तो उसे कितना चाहता हूं, पर...। हालांकि जब भी वह दिखती थी तो मेरी तिरछी निगाह उस पर ही रहती थी। परन्तु, इस हकीकत को मैंने उस पर जाहिर नहीं होने दिया।
खैर! कुछ देर बात करने के बाद हम घर लौटने लगे तो सुधा बोली- 'भाई, चलो भावना के घर से होकर चलते हैं ।Ó मैं बगैर कोई जवाब दिये चुपचाप उसके साथ चलने लगा। आधा रास्ता तय करने तक तो भावना भी खामोशी से चलती रही, लेकिन जब घर करीब आ गया तो मुझसे मुखातिब होकर बोली- 'आप भी मेरी सगाई में जरूर आना, नहीं तो मैं नाराज हो जाऊंगी।Ó
मैं उसके भावों को समझ रहा था, इसलिए सिर्फ यह कहकर कि, 'जरूर आऊंगाÓ, चुप हो गया। घर पहुंचकर भावना ने अपनी मां से मेरा परिचय कराया। उसकी मां बोली, 'अच्छा! बेटा, अमित तू ही है। भावना ने तेरे बारे में मुझे बता दिया था। बहुत तारीफ करती है तेरी।Ó कुछ देर बैठने के बाद मैंने जाने की इजाजत चाही तो उसकी मां बोली, 'बेटा सगाई के दिन जरूर आना। सब काम तुमने ही करने हैं। भूलना मत।Ó मैंने आने का वादा किया और घर लौट आया।
उस दिन बेहद खुश था। दूसरे दिन शाम को हमने यहां बिजली का कनेक्शन भी करवा दिया। फिर तो भावना के माता-पिता हमारे कायल हो गए। वह भावना की सगाई का दिन था। मैं भी नियत समय पर उसके घर पहुंच गया। उस दिन भावना से मैं जी-भरकर बातें की। वह मेरे बिल्कुल करीब बैठ मेरे चेहरे को तक रही थी। शायद उसे पढऩे की कोशिश कर रही थी। सारे दिन मैं वहां रहा, पर जो कहना चाहता था, वह न कह पाया। हां, बातों-बातों में मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर जरूर रख लिया था। काफी देर तक यूं ही रखा रहा। उसे भी अच्छा लग रहा था, इसलिए उसने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की। फिर मैं उठकर चुपचाप घर लौट आया था।
मैं रेखा के मुंह से, कुछ-कुछ अस्पष्ट सा सुधा के मुंह से भी सुन चुका था कि भावना मुझसे बहुत प्यार करती है। और...कहती कि, 'मैं क्या करूं? मेरे पिता ने इतनी जल्दी और मुझसे राय-मशविरा किए बगैर मेरी सगाई कर दी। मैं विरोध भी नहीं कर सकती थी।Ó लेकिन, मुझसे तो भावना कुछ बोल ही नहीं पाती थी। हालांकि, उसके भावों से स्पष्ट झलकता था कि वह सचमुच मुझे किस हद तक चाहती है।


सगाई के काफी दिन बाद मेरा अनिल के घर जाना हुआ। संयोग से घर में सुधा के अलावा परिवार का कोई सदस्य न था। और...यह मेरी खुशकिस्मती थी कि भावना भी वहीं बैठी थी। अकेले होने के कारण मुझे भावना से बात करने में बड़ी सहूलियत थी। उस दिन पहली बार भावना मुझसे लिपटी रही। काफी देर तक उसने अपना सिर मेरे सीने से लगाए रखा। मैंने भी पहली बार उसके गाल चूमे थे। मैं आहिस्ता-आहिस्ता उसके बालों को सहला रहा था और वह चुपचाप मुझे देख रही थी। लेकिन, मैं फिर भी दिल की बात को जुबां पर न ला सका।
भावना ने उस दिन मुझसे  कहा था- 'मैंने बड़े अरमानों से जिसे चाहा, मैं जानती हूं, वह अब मुझे नहीं मिल सकता, लेकिन मैं उसे हमेशा चाहती रहूंगी। मेरे दिल में उसके लिए जो प्यार है, उसमें कोई कमी नहीं हो सकती।Ó मैं सब-कुछ समझ गया था।
21 मई 1995। यह भावना की शादी का दिन था। संयोग से मेरी काॅलेज की परीक्षा का भी यह अंतिम दिन था। मेरी मौखिक परीक्षा होनी थी उस दिन। मुझे भावना ने अपनी शादी में बुलाया था, सो जाना जरूरी था। मुझे खुशी भी थी और दुख भी। खैर! परीक्षा देकर मैं सीधे उसके घर पहुंच गया। दिनभर वहीं रहा, लेकिन भावना के करीब भी न फटका। हिम्मत ही नहीं हो रही थी जाने की। धीरे-धीरे विदाई की घड़ी भी आ गई। मैंने जैसे-तैसे खुद को संयत कर भावना को विदा किया। मुंह से बोल तक न फूटे, पर आंखें स्वत: सजल हो गई थीं। अब मेरे लिए वहां एक पल रुकना भी संभव नहीं था। सो, मैं खामोशी से घर लौट आया।
शादी के बाद भावना मुझे मिली। मुझसे काफी देर लिपटी रही, लेकिन तब भी मैं अपनी भावनाओं को उस पर व्यक्त नहीं कर पाया था। हां, मैंने साहस बटोरकर कागज का एक टुकड़ा जरूर उसे थमा दिया, जिसका मजमून था- 'कुछ तेरी अदाओं ने लूटा, कुछ तेरी इनायत मार गई, मैं राज-ए-मोहब्बत कह न सका, चुप रहने की आदत मार गई।Ó ...इसके बाद मैं चुपचाप लौट पड़ा।


(नोट: मेरी यह कहानी कहानी वर्ष 1997 में सरिता में प्रकाशित हुई थी।)

Thursday, 1 October 2020

उत्‍तराखंड हिमालय के चारधाम

 


यमुनोत्री से आरंभ होने वाली उत्तराखंड हिमालय की विश्व प्रसिद्ध चारधाम यात्रा गंगोत्री व केदारनाथ होती हुई बदरीनाथ में विराम लेती है। पुराणों में उल्लेख है कि बदरीनाथ धाम में भगवान नारायण के दर्शनों के बाद जीवन में और कुछ पाने की इच्छा शेष नहीं रह जाती। इसलिए बदरीनाथ धाम को भू-वैकुंठ भी कहा गया है। चारधाम यात्रा महज धार्मिक यात्रा न होकर उत्तराखंड की सामाजिक एवं सांस्कृतिक यात्रा भी है। सच कहें तो इसके बिना पर्वतीय अंचल में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आइए! हम भी चारधाम की यात्रा करें...

उत्‍तराखंड हिमालय के चारधाम

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दिनेश कुकरेती

चारधाम देश के चार प्रमुख तीर्थों पुरी, रामेश्वरम, द्वारका और बदरीनाथ का समूह है, जो चारों दिशाओं में विराजमान हैं। इन मंदिरों को आठवीं सदी में आद्य गुरु शंकराचार्य ने एक सूत्र में पिरोया था। मान्यता कि इन चारों में बदरीनाथ धाम सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए बदरीनाथ की यात्रा सबसे अंत में करने का विधान है। लेकिन, इस यात्रा को पूर्णता हिमालय में स्थित तीन अन्य धामों यमुनोत्री, गंगोत्री व केदारनाथ की यात्रा करने के बाद ही मिलती है। पूर्व में चारों मंदिरों के इस समूह को हिमालय पर स्थित 'छोटा चारधामÓ कहा जाता था। 'छोटाÓ विशेषण इस समूह को 20वीं सदी के मध्य में मिला। लेकिन, कालांतर में छोटा चारधाम देश में प्रतिष्ठित चारधाम के रूप में पहचाने जाने लगे। भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ हिंदुओं के सबसे पवित्र स्थान हैं। स्कंद पुराणÓ के 'केदारखंडÓ में उल्लेख है कि जो पुण्यात्माएं इन धामों के दर्शन करने में सफल होती हैं, उनका न केवल इस जनम का पाप धुल जाता है, वरन वह जीवन-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाती हैं। मान्यता के अनुसार तीर्थयात्री इस यात्रा के दौरान सबसे पहले यमुनोत्री में यमुनाजी और गंगोत्री में गंगाजी के दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारनाथ धाम पहुंचकर बाबा केदार का अभिषेक करते हैं। सबसे आखिर में होते हैं बदरीशपुरी में भगवान नारायण के दर्शन। इसीलिए शास्त्रों में इसे भक्ति से मोक्ष तक की यात्रा कहा गया है।


 

धर्म, संस्कृति और अर्थ से जुड़ी यात्रा

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हिमालय की इस चारधाम यात्रा को हम सिर्फ धार्मिक यात्रा के आवरण में नहीं देख सकते। यह उत्तराखंड की सामाजिक एवं सांस्कृतिक धरोहर ही नहीं, आर्थिकी को संवारने वाली यात्रा भी है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में अत्याधिक बर्फबारी होने से शीतकाल के दौरान जीवन सुप्तावस्था में चला जाता है। इस अवधि में वहां जीवन संचालन के भी कोई कार्य नहीं हो पाते। ऐसे में ग्रीष्मकाल के दौरान होने वाली चारधाम यात्रा उत्तराखंड हिमालय में न केवल जीवन का संचार करती है, बल्कि यहां की आर्थिकी को संजीवनी भी प्रदान करती है। यात्राकाल में भागीरथी, यमुना, मंदाकिनी व अलकनंदा घाटी के लोग यात्रा पड़ावों पर रोजगारपरक गतिविधियों का संचालन करते हैं। ताकि शीतकाल के लिए जीवन निर्वाह के साधन जुटाने के साथ घर-परिवार की अन्य जरूरतें भी पूरी कर सकें। एक तरह से चारधाम यात्रा यहां बाजार का पर्याय है।

जै बदरी-केदारनाथ, गंगोत्री जै-जै, यमुनोत्री जै-जै

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यमुनोत्री धाम

उत्तराखंड हिमालय में बंदरपूंछ चोटी के पश्चिमी छोर पर समुद्रतल से 3291 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है चारधाम यात्रा का प्रथम पड़ाव यमुनोत्री धाम। जानकी चट्टी से छह किमी की खड़ी चढ़ाई चढऩे के बाद यमुनोत्री पहुंचा जाता है। यहां पर स्थित यमुना मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं सदी में करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना सूर्य की पुत्री हैं, जबकि यम पुत्र। इसलिए यमुना में स्नान करने पर यम की विशेष कृपा प्राप्त होती है। यमुना का उद्गम यमुनोत्री से लगभग एक किमी दूर 4421 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर है। यमुनोत्री मंदिर के समीप गर्म पानी के कई कुंड हैं। इनमें सूर्यकुंड सबसे प्रसिद्ध है। मान्यता है कि अपनी पुत्री को आशीर्वाद देने के लिए सूर्यदेव ने यहां गर्म जलधारा का रूप धारण किया था। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं और पके हुए इन पदार्थों को प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं। सूर्यकुंड के पास ही एक शिला है, जिसे दिव्य शिला के नाम से जाना जाता है। यात्री यमुनाजी की पूजा पहले इस दिव्य शिला का पूजन करते हैं। इसी के पास जमुना बाई कुंड है, जिसका निर्माण करीब सौ साल पहले हुआ था। इस कुंड का पानी हल्का गर्म है, जिसमें पूजा सेपहले स्नान किया जाता है। यमुनोत्री के पुजारी और पंडा पूजा करने के लिए खरसाली गांव से आते हैं, जो जानकी बाई चट्टी के पास ही है।



गंगोत्री धाम

गंगोत्री धाम समुद्रतल से 3140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत्री को ही गंगा का उद्गम स्थल माना गया है। हालांकि, गंगा गंगोत्री से ऊपर गोमुख ग्लेशियर से निकलती है। गंगोत्री में गंगा को 'भागीरथीÓ नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भगीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी पड़ा। कथा है कि राजा भगीरथ ही तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। सतयुग में सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ कराने का निश्चय किया। इस दौरान उनका घोड़ा जहां-जहां गया, उनके 60 हजार पुत्रों ने उन स्थानों को अपने अधीन कर लिया। इससे देवराज इंद्र चिंतित हो गए और उन्होंने घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सगर के पुत्र मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कुपित कपिल मुनि ने सगर के पुत्रों को भस्म हो जाने का श्राप दे दिया। लेकिन, सगर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और बोले कि अगर स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली गंगा पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए तो उनके पुत्र जीवित हो उठेंगे। लेकिन, सगर गंगा को पृथ्वी पर लाने में असफल रहे। बाद में उनके पुत्र भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की।

ऐसा माना जाता है कि 18वीं सदी में गोरखा कैप्टन अमर सिंह थापा ने शंकराचार्य के सम्मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। 20 फीट ऊंचा यह मंदिर भागीरथी नदी के बायें तट पर सफेद पत्थरों से निर्मित है। राजा माधोसिंह ने वर्ष 1935 में इसका जीर्णोद्धार कराया,  जिससे मंदिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक मिलती है। मंदिर के समीप भागीरथी शिला है, जिस पर बैठकर भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तप किया था।


 

केदारनाथ धाम

समुद्रतल से 11746 फीट की ऊंचाई पर मंदाकिनी नदी के उद्गम स्थल के समीप स्थित है केदारनाथ धाम। यहां पहुंचने के लिए गौरीकुंड से 16 किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। 'वायु पुराणÓ के अनुसार श्रीविष्णु मानव कल्याण के निमित्त पृथ्वी पर निवास करने आए और बदरीनाथ में अपना पहला कदम रखा। यहां पहले ही भगवान शिव का निवास था। लेकिन, उन्होंने नारायण के लिए इस स्थान का त्याग कर दिया और केदारपुरी में निवास करने लगे। इसीलिए पंचकेदार यात्रा में केदारनाथ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। साथ ही केदारनाथ त्याग की भावना को भी दर्शाता है। यह वही जगह है, जहां शंकराचार्य 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल यानी मुख्य पुरोहित नियुक्त किया। वर्तमान में 326वें रावल केदारनाथ धाम की व्यवस्था संभाल रहे हैं। केदारनाथ मंदिर न केवल अध्यात्म, बल्कि स्थापत्य कला में भी अन्य मंदिरों से भिन्न है।

पहाड़ी की तलहटी में यह मंदिर कत्यूरी शैली में निर्मित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्थरों का प्रयोग बहुतायत में हुआ है। मंदिर के शिखर पर सोने का कलश स्थापित है, जबकि बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी विराजमान हैं। मंदिर के तीन भाग हैं, पहला गर्भगृह, दूसरा दर्शन मंडप, तीसरा सभा मंडप। यात्री यहां भगवान शिव के अलावा ऋद्धि-सिद्धि के दाता श्रीगणेश, माता पार्वती, श्रीविष्णु, माता लक्ष्मी, श्रीकृष्ण, कुंती, द्रौपदी, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की पूजा-अर्चना भी करते हैं।


 

बदरीनाथ धाम

बदरीनाथ धाम नर-नारायण पर्वत के मध्य समुद्रतल से 10276 फीट (3133 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित है। अलकनंदा नदी इस मंदिर की खूबसूरती पर चार चांद लगाती है। मान्यता है कि भगवान नारायण इस स्थान पर ध्यानमग्न रहते हैं। नारायण को छाया प्रदान करने के लिए माता लक्ष्मी ने बेर (बदरी) के पेड़ का रूप धारण किया। लेकिन, वर्तमान में यहां बेर बहुत कम संख्या में देखने को मिलते हैं। नारद, जो इन दोनों के अनन्य भक्त हैं, उनकी आराधना भी यहां की जाती है। बदरीनाथ में वर्तमान मंदिर का निर्माण दो सदी पहले गढ़वाल के राजा ने किया था। लगभग 15 मीटर ऊंचा यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। मंदिर के शिखर पर गुंबद है और गर्भगृह में श्रीहरि के साथ नर-नारायण ध्यान की स्थिति में विराजमान हैं। 

ऐसा माना जाता है कि मूल मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था, जिसका पुनरुद्धार आठवीं सदी में शंकराचार्य ने किया। मंदिर में नर-नारायण के अलावा लक्ष्मी, शिव-पार्वती और गणेश की मूर्ति भी है। मंदिर के तीन भाग हैं- गर्भगृह, दर्शन मंडप और सभागृह। वेदों और ग्रंथों में बदरीनाथ के संबंध में कहा गया है कि स्वर्ग और पृथ्वी पर अनेक पवित्र स्थान हैं, लेकिन बदरीनाथ इन सभी में अग्रगण्य है। बदरीनाथ पंच बदरी मंदिरों में प्रमुख धाम है।

चारधाम के शीतकालीन पड़ाव

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यमुनोत्री : खरसाली (खुशीमठ) स्थित यमुना मंदिर

गंगोत्री : मुखवा (मुखीमठ) स्थित गंगा मंदिर

केदारनाथ : ऊखीमठ स्थित पंचगद्दी स्थल ओंकारेश्वर मंदिर

बदरीनाथ : जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर और पांडुकेश्वर स्थित योग-ध्यान व कुबेर मंदिर

(नोट : नृसिंह मंदिर में आद्य गुरु शंकराचार्य की गद्दी और पांडुकेश्वर में भगवान नारायण के बालसखा उद्धवजी व देवताओं के खजांची कुबेरजी शीतकाल में प्रवास करते हैं।)


 


 

Wednesday, 30 September 2020

दून की धरोहर : तीसरी सदी का अश्वमेध यज्ञ स्थल

 

दून की धरोहर : तीसरी सदी का अश्वमेध यज्ञ स्थल
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दिनेश कुकरेती
देहरादून जिले के विकासनगर ब्लॉक स्थित बाड़वाला जगतग्राम में सघन बाग के बीच तीसरी सदी के वीरान पड़े अश्वमेध यज्ञ स्थल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) ने इस क्षेत्र को नई पहचान दी है। विकासनगर से छह किमी की दूरी पर स्थित यह वही स्थल है, जहां कुणिंद (कुलिंद) शासक राजा शील वर्मन ने अश्वमेध यज्ञ किया था। एएसआइ की ओर से वर्ष 1952 से 1954 के बीच किए गए उत्खनन कार्य के बाद यह स्थल प्रकाश में आया। उत्खनन में पक्की ईंटों से बनी तीसरी सदी की तीन यज्ञ वेदिकाओं का पता चला, जो धरातल से तीन-चार फीट नीचे दबी हुई थीं। इन यज्ञ वेदिकाओं को एएसआइ ने दुर्लभतम की श्रेणी में रखा था। तीन में से एक वेदिका की ईंटों पर ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्णित सूचना के आधार पर जो एतिहासिक तथ्य उभरकर सामने आए, उनके अनुसार ईसा की पहली से लेकर पांचवीं सदी के बीच तक वर्तमान हरिपुर, सरसावा, विकासनगर और संभवत: लाखामंडल तक युगशैल नामक साम्राज्य फैला था। वृषगण गोत्र के वर्मन वंश द्वारा शासित इस साम्राज्य की राजधानी तब हरिपुर हुआ करती थी। तीसरी सदी को इस साम्राज्य का उत्कर्ष काल माना जाता है, जब राजा शील वर्मन ने साम्राज्य की बागडोर संभाली। वह एक परम प्रतापी राजा थे, जिन्होंने जगतग्राम बाड़वाला में चार अश्वमेध यज्ञ कर अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया। इन्हीं अश्वमेध यज्ञों में से तीन यज्ञों की वेदिकाएं यहां मिली हैं, जबकि चौथा यज्ञ स्थल अभी खोजना बाकी है।



एएसआइ के अधीन, फिर भी उपेक्षित
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पुरातात्विक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण यह अश्वमेध यज्ञ स्थल वर्तमान में एएसआइ के अधीन होने पर भी उपेक्षित पड़ा हुआ है। यहां पहुंचने के लिए एक पगडंडीनुमा मार्ग है, जो एक निजी बाग से होकर गुजरता है। यज्ञ स्थल पर शौचालय तो छोडि़ए, पेयजल की सुविधा तक नहीं है, जिससे पर्यटक यहां जाना पसंद नहीं करते। वैसे पुरातत्व विभाग ने इस यज्ञ स्थल की देख-रेख के लिए दो संविदाकर्मी भी तैनात किए हुए हैं। लेकिन, निजी मिल्कियत वाले आम के बाग से रास्ता जाने के कारण उसे पक्का तक नहीं किया जा सका।



इसलिए किया जाता था अश्वमेध यज्ञ
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प्राचीन काल में शक्तिशाली राजाओं की ओर से अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अश्वमेध यज्ञ किया जाता था। इस यज्ञ में अनुष्ठान के पश्चात एक सुसज्जित अश्व छोड़ दिया जाता था। अश्व जहां-जहां से होकर भी गुजरता था, वह क्षेत्र स्वाभाविक रूप से अश्वमेध यज्ञ करने वाले राजा के अधीन हो जाता था। लेकिन, यदि किसी राजा ने उसे पकड़ लिया तो यज्ञ करने वाले राजा को उससे युद्ध करना पड़ता था।

सुधरेगी पर्यटन की स्थिति
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अश्वमेध यज्ञ स्थल जगतग्राम बाड़वाला के राष्ट्रीय स्मारक बनने का पर्यटन पर विशेष प्रभाव पड़ेगा। अभी तक पर्यटकों को इस स्थल के बारे में कोई जानकारी नही थी। यज्ञ स्थल तक जाने के लिए कोई रास्ता न होना भी इसकी बड़ी वजह है। लेकिन, अब राष्ट्रीय स्मारक घोषित होने के बाद अश्वमेध यज्ञ स्थल पर देश-विदेश के पर्यटकों की संख्या बढऩे की उम्मीद है। अभी तक पर्यटक कालसी स्थित अशोक शिलालेख देखने के लिए यहां आते रहे हैं। लेकिन, राष्ट्रीय स्मारक बनने के बाद अब इस अश्वमेध यज्ञ स्थल के बारे में भी लोगों को जानकारी मिल पाएगी। साथ ही पर्यटन की स्थिति में भी सुधार आएगा। बता दें कि वर्ष 1860 में जॉन फॉरेस्ट नामक अंग्रेज ने कालसी क्षेत्र की खोज की थी। इस दौरान बाड़वाला के पास जगतग्राम के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियां मिली थीं।

ऐसे घोषित होते हैं राष्ट्रीय स्मारक
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किसी खोदाई स्थल को विशेष परिस्थितियों में ही राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाता है। इसके लिए एक लंबी कागजी प्रक्रिया से गुजरना होता है, जिसमें सालों लग जाते हैं। मगर, एएसआइ को देश की संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी महत्वपूर्ण 11 धरोहरों को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने में अप्रैल 2018 से लेकर मार्च 2019 तक का ही समय लगा। यह अपने आप में एक अनूठा रिकॉर्ड है। इन 11 धरोहरों को मिलाकर अब देश में राष्ट्रीय स्मारकों की संख्या 3697 हो गई है।



पुरोला में मिली अश्वमेध यज्ञ वेदी जगतग्राम से पुरानी
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देहरादून जिले के जगतग्राम के अलावा उत्तरकाशी जिले के पुरोला में भी अश्वमेध यज्ञ के प्रमाण मिले हैं। खास बात यह कि देश में पुरोला के अलावा अब तक कोई भी स्थल नहीं मिला, जहां अश्वमेध यज्ञ की वेदी का इतना स्पष्ट ढांचा हो। इस स्थल पर प्राचीन विशाल उत्खनित ईंटों से बनी यज्ञ वेदी मौजूद है। स्थल की खुदाई में लघु केंद्रीय कक्ष से शुंग कुषाण कालीन (दूसरी सदी ईस्वी पूर्व से दूसरी सदी ईस्वी) मृदभांड, दीपक की राख, जली अस्थियां और काफी मात्रा में कुणिंद शासकों की मुद्राएं मिली हैं। पुरोला में मिली अश्वमेध यज्ञ वेदी जगतग्राम से पुरानी हैं।



मलारी व रामगंगा घाटी में भी मिली समाधियां
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देहरादून जिले में कालसी के पास भी आरंभिक पाषाणयुगीन अवशेष मिले हैं। जबकि, चमोली जिले के मलारी गांव और पश्चिमी रामगंगा घाटी में महापाषाणकालीन शवाधान (समाधियां) मिलीं। इतिहासकारों के अनुसार सातवीं सदी ईस्वी पूर्व और चौथी सदी ईस्वी के मध्य हिमालय के आद्य इतिहास का प्रमाण मुख्यत: प्राचीन साहित्य है।



राजा शिव भवानी व राजा शील वर्मन ने किए यज्ञ
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जौनसार-बावर (देहरादून) में जयदास व उनके वंशजों का समृद्ध राज 350-460 ईस्वी तक माना जाता है। इस काल (301-400 ईस्वी) में यहां युगशैल राजाओं का राज भी रहा। इनमें से राजा शिव भवानी ने एक और राजा शील वर्मन ने चार अश्वमेध यज्ञ किए।

पर्यटन विकास के प्रमाण अश्वमेध यज्ञ
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अश्वमेध यज्ञ इस बात के द्योतक हैं कि क्षेत्र में व्यापार (निर्यात) से प्रचुर लाभ हुआ होगा। व्यापार अपने आप में एक पर्यटनकारी घटक है और अश्वमेध यज्ञ पर्यटन विकास की ही कहानी के प्रमाण हैं। यज्ञ दर्शन और प्रवचन सुनने के लिए यहां बाह्य प्रदेशों से गणमान्य व्यक्ति व पंडित भी आए होंगे, जिससे निश्चित रूप से पर्यटन को नया आयाम मिला होगा।



मुद्रा विनियम विकास काल
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कुणिंद अवसान काल की मुद्राएं बेहट, देहरादून, गढ़वाल (सुमाड़ी व डाडामंडी क्षेत्र का भैड़ गांव), काली गंगा घाटी आदि स्थानों पर मिलीं। ताम्र व रजत मुद्राओं के मिलने और हर काल में मुद्रा निर्माण होने में विकास झलकता है। मुद्रा निर्माण से स्पष्ट होता है कि तब उत्तराखंड में व्यापार विकसित था और विनियम के लिए मुद्राएं जरूरी मानी जाने लगी थीं।