Friday, 30 March 2018

A craftsman extending the tradition of Maularam


मौलाराम की परंपरा को विस्तार देता एक शिल्पी
दिनेश कुकरेती
एक ऐसा कलाकार, जिसने बुलंदियां छूने के बाद भी जड़ों से नाता नहीं तोड़ा और देश-दुनिया की परिक्रमा करते हुए लौट आया अपनी मातृभूमि की ओर। किसी लोभ के वशीभूत होकर नहीं, बल्कि इसलिए कि नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक का कार्य कर सके। उसे समझा सके कि लगन एवं समर्पण से कोई भी कला समृद्धि और प्रसिद्धि का आधार भी बन सकती है। यह कलाकार है वर्ष 1955 में देहरादून के मनियारवाला (गुनियालगांव) गांव में जन्मा सुरेंद्र पाल जोशी। मूलरूप से अल्मोड़ा निवासी जोशी के अंतर्मन में कला के अंकुर स्कूली जीवन के दौरान ही फूटने लगे थे, सो ऋषिकेश से बीए करने के बाद 1980 में लखनऊ के आट्र्स एंड क्राफ्ट्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। और...फिर यहां से कला का जो सफर शुरू हुआ, वह आज भी बदस्तूर जारी है। इस सफर के हर पड़ाव पर उन्होंने कला प्रेमियों को कोई न कोई ऐसी सौगात दी, जिसने सफर को यादगार बना दिया। इसी की बानगी है देहरादून में स्थापित उत्तराखंड का पहला उत्तरा समकालीन कला संग्रहालयÓ। पहाड़ की आधुनिक एवं समकालीन गतिविधियों को रेखांकित करने का यह एक ऐसा ठौर है, जहां उत्तराखंड के कला साधक एवं शिल्पी न केवल अपनी साधना को प्रदर्शित कर सकेंगे, बल्कि देश-दुनिया हिमालयी अंचल को प्रतिष्ठित करने वाले महान चित्र शिल्पी मौलाराम तोमर की परंपरा को उत्तरोत्तर विस्तार भी प्रदान करेंगे।          


ऊंचाइयों पर पहुंचा गर्दिशभरा सफर
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जोशी की साधना के शुरुआती साल बेहद गर्दिशभरे रहे। हालांकि, जीत लगन की ही हुई और संघर्ष करते-करते वर्ष 1988 में वे राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट जयपुर की फाइन आर्ट फैकल्टी में सहायक प्राध्यापक नियुक्त हो गए। लेकिन, साधना फिर भी अनवरत जारी रही। कहते हैं, 'मैं हर दिन ब्रश उठाता था और आर्ट कंप्टीशन में भी बराबर शिरकत करता था। म्यूरल बनाने का मुझे शौक था, सो आइओसी दिल्ली, यूनी लिवर मुबंई, शिपिंग कॉर्पोरेशन विशाखापत्तनम आदि स्थानों पर म्यूरल बनाए। वर्ष 1997 में ब्रिटेन से फैलोशिप मिली तो वहां भी म्यूरल पर कार्य किया। लेकिन, वर्ष 2000 के बाद मैंने सिर्फ पेंटिंग पर ही ध्यान देना शुरू कर दिया।Ó कहते हैं, 'नौकरी में रहते हुए भी मेरे मन में स्टूडेंट्स फीलिंग हमेशा रहती थी। मुझे लगता था सरकारें न तो आर्ट के लिए कुछ करना चाहती हैं और न स्टूडेंट्स के लिए ही। इन हालात में मैं खुद को बंधनों में जकड़ा हुआ महसूस करता था। मैं जानता था कि दो नावों में एक साथ सवारी नहीं की जा सकती, इसलिए वर्ष 2008 में मैंने वीआरएस ले लिया।Ó 

कला को कतर जैसा सम्मान कहीं नहीं
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जोशी बताते हैं कि इसी साल मुझे छह देशों में घूमने का मौका मिला और फिर शुरू हुआ नए सिरे से कला साधना का सफर। पेंटिंग में कई नए-नए प्रयोग किए और कई देशों में इसके लिए सम्मान भी मिला।Ó कतर का एक वाकया सुनाते हुए जोशी कहते हैं, 'मैंने ऐसा देश दुनिया में कहीं नहीं देखा, जहां कला और कलाकार को इतना सम्मान मिलता है। वहां सरकार ने ऐसा अद्भुत इस्लामिक म्यूजियम बनाया हुआ है, जिसकी तीन मंजिल समुद्र में और तीन इससे ऊपर हैं। इतना ही नहीं, कलाकारों के लिए वहां बाकायदा आर्टिस्ट कॉलोनी भी बनी हुई है। इसमें रहने वाले कलाकारों का सारा खर्चा कतर सरकार वहन करती है। ऐसा भारत में होता तो...।Ó 

पेंटिंग बनाकर चुकाते थे खाने का बिल
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लखनऊ के दिनों को याद करते हुए जोशी बताते हैं, 'वह कड़े संघर्ष का दौर था। मेरी आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि ढाबे का बिल चुकाने के लिए भी पैसे नहीं होते थे। पहली बार जब ढाबे वाले ने खाने का बिल मांगा तो मैंने वहीं से कोयला उठाकर उसकी ढाबे की दीवार पर उसका पोट्रेट बना दिया। वह खुश हो गया और एक महीने का बिल माफ। दूसरी बार उसने बिल मांगा तो मैंने ढाबे के आसपास का लैंडस्कैप बनाकर उसे गिफ्ट कर दिया। वह फिर खुश हो गया। लेकिन, जब ऐसा चार-पांच बार हो गया तो आखिरकार ढाबे वाले को बोलना पड़ा, भाई! मुझे नून-तेल खरीदना है, जो पेंटिंग से तो मिलेगा नहीं। इसलिए मेहरबानी कर पैसे दे दिया करो। तब मेरी स्थिति क्या रही होगी, उसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। लेकिन, मैं इससे टूटा नहीं, बल्कि और मजबूत होता चला गया।Ó 

जोशी को मिले पुरस्कारों का सफर 
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2013 में राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड (नई दिल्ली) 
2012 में केंद्रीय ललित कला ऐकेडमी नई दिल्ली का नेशनल अवार्ड 
2005 में राजस्थान सरकार के उच्च शिक्षा विभाग का सम्मान 
2004 में उप्र ललित कला ऐकेडमी का ऑल इंडिया अवार्ड 
2001 में तिलक स्मारक ट्रस्ट पुणे का ऑल इंडिया अवार्ड 
2000 में यूनेस्को का स्वर्ण पदक 
1997 में ब्रिटिश ऑट्र्स काउंसिल एंड चार्ल्‍स वेलैस ट्रस्ट वेल्स की फैलोशिप
1994 में राजस्थान ललित कला ऐकेडमी का ऑल इंडिया अवार्ड 
1992 में राजस्थान स्टेट ललित कला ऐकेडमी अवार्ड 
1991 में साउथ सेंट्रल कल्चरल जोन नागपुर का ऑल इंडिया अवार्ड 
1990 में एशियन कल्चरल सेंटर फॉर यूनेस्को (जापान) 
1986-88 में उप्र स्टेट ललित कला ऐकेडमी लखनऊ की स्कॉलरशिप 
1980-85 में लखनऊ कॉलेज ऑफ ऑर्ट की मेरिट स्कॉलरशिप
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A craftsman extending the tradition of Maularam
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Dinesh Kukreti
An artist who, despite touching his heights, did not break away from the roots and returned to his motherland, revolving around the country and the world.  Not because of any greed, but because it can act as a guide for the new generation.  Could convince him that with dedication and dedication, any art can also become the basis of prosperity and fame.  This artist is Surendra Pal Joshi, born in Maniyarwala (Gunialgaon) village in Dehradun in the year 1955.  Originally a resident of Almora, Art's sprouts began to erupt during his school life, and after joining BA from Rishikesh, he joined the Arts and Crafts College in Lucknow in 1980.  And ... Then the journey of art started from here, it continues unabated today.  At every stage of this journey, he gave some such gift to art lovers, which made the journey memorable.  This is the hallmark of Uttarakhand's first Uttara Contemporary Art Museum established in Dehradun.  This is a way to highlight the modern and contemporary activities of the mountain, where the art seekers and artisans of Uttarakhand will not only display their cultivation, but also the tradition of the great paintings, Shilpi Maularam Tomar, who has distinguished the country and the world Himalayan region.  Will also provide progressive expansion.

A difficult journey to reach the heights
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Joshi's early years of cultivation were extremely turbulent.  However, he won hard and in 1988, while struggling, he was appointed Assistant Professor in the Fine Art Faculty of Rajasthan School of Art Jaipur.  But, the practice still continued unabated.  Says, 'I used to pick up brushes every day and used to participate equally in art competition.  I was fond of making murals, so I made murals at places like IOC Delhi, Uni Liver Mumbai, Shipping Corporation Visakhapatnam etc.  In 1997, he got a fellowship from Britain and also worked on murals there.  But, after the year 2000, I started focusing only on painting. "I used to always have student feeling in my mind even while in the job."  I used to think that governments neither want to do anything for art nor for students.  In these circumstances I felt myself bound in shackles.  I knew that two boats could not ride together, so I took VRS in the year 2008. Ó


Art is not respected like Qatar
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 Joshi says that this year I got the opportunity to roam in six countries and then started a journey of art cultivation afresh.  Many new experiments were done in painting and it was also respected in many countries. हुए "I have never seen a country in the world where art and artist get so much respect," says Joshi while narrating an incident from Qatar.  There the government has built such a wonderful Islamic museum, which has three floors in the sea and three above it.  Not only this, there is also an Artist Colony for artists.  The Qatar government bears all the expenses of the artists living in it.  If it were in India….


Used to pay the food bill by making a painting
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Recalling the days of Lucknow, Joshi says, 'It was a period of hard struggle.  My financial situation was so bad that there was no money to pay the dhaba bill.  For the first time, when the dhabha asked for the food bill, I picked up the coal from there and made a portrait of it on the wall of the dhaba.  He was happy and waived one month's bill.  The second time he asked for the bill, I made a landscape around the dhaba and gifted it.  He became happy again.  But, when this happened four or five times, the dhaba finally had to speak, brother!  I have to buy noon oil, which I will not get from painting.  That's why please give money  What my situation must have been then can only be felt.  But, I did not break from it, but grew stronger.

Joshi's journey of awards
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2013 Rajiv Gandhi Excellence Award (New Delhi)
National Award for Central Fine Arts Academy, New Delhi in 2012
Honor of Higher Education Department of Rajasthan Government in 2005
2004 All India Award for Upcoming Fine Arts Academy   All India Award for Tilak Smarak Trust Pune in 2001
2000 UNESCO Gold Medal
Fellowship of the British Orts Council and Charles Wellse Trust Wales in 1997
All India Award for Rajasthan Fine Arts Academy in 1994
Rajasthan State Fine Arts Academy Award in 1992
All India Award for South Central Cultural Zone Nagpur in 1991
Asian Cultural Center for UNESCO (Japan) in 1990
Scholarship of UP State Fine Arts Academy, Lucknow in 1986-88
Merit Scholarship of Lucknow College of Ort in 1980-85

Friday, 9 March 2018

आस्था का प्रतिबिंब

आस्था का प्रतिबिंब ------------------------ दिनेश कुकरेती किलेनुमा प्राचीर के चारों ओर खुलते प्रवेश द्वार और उनके ऊपर गर्व से तनी मीनारें। पश्चिमी छोर पर विशाल फाटक खुलते ही नजर आता है सफेद सीढ़ीनुमा गोल चबूतरा। इसी चबूतरे पर खड़ा है आस्था का वह प्रतिबिंब, जिसे दूनघाटी 'झंडा साहिबÓ के रूप में सम्मान देती है। सच कहें तो दून की आत्मा है झंडा साहिब। देहरादून के जन्म और विकास की गाथा यहीं से आरंभ होती है। नानक पंथ के सातवें गुरु हर राय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र राम राय महाराज ने इसी स्थान पर झंडा चढ़ाया था। इसमें समाहित है एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत, जो दून में पनपी और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश व दिल्ली तक फैल गई। वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन गुरु रामराय महाराज के कदम दून की धरती पर पड़े। वर्ष 1676 इसी दिन उनकी प्रतिष्ठा में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। यहीं से झंडा मेला की शुरुआत हुई, जो कालांतर में दूनघाटी का वार्षिक समारोह बन गया। यह इन्सान को इन्सान से जोडऩे का ऐसा पर्व है, जिसमें दूनघाटी के संपूर्ण जीवन दर्शन की झलक मिलती है। दरबार साहिब में प्रतिष्ठित झंडा साहिब साधारण ध्वज न होकर ऐसा शक्तिपुंज हैं, जिनसे नेमतें बरसती हैं। झंडेजी के आरोहण के अवसर पर देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों से हजारों संगतें द्रोणनगरी पहुंचती हैं। आरोहण की पहली शाम से ही दरबार साहिब में पांव रखने तक की जगह नहीं बचती। रात्रि में भजन-कीर्तन का दौर चलता है और होने लगता है भोर का इंतजार। सैकड़ों वर्षों का इतिहास समेटे करीब सौ फीट ऊंचे झंडेजी को उतारने और चढ़ाने की प्रक्रिया स्वयं में अद्भुत है। जमीन पर रखे बगैर झंडेजी कब उतरे और कब चढ़ गए, किसी को ठीक से भान भी नहीं होता। यही इस मेले का अद्भुत क्षण है। झंडा मेले में झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की भी अनूठी परंपरा है। चैत्र पंचमी के दिन झंडे की पूजा-अर्चना के बाद पुराने झंडेजी को उतारा जाता है और ध्वज दंड में बंधे पुराने गिलाफ, दुपट्टे आदि हटाए जाते हैं। दरबार साहिब के सेवक दही, घी व गंगाजल से ध्वज दंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद शुरू होती है झंडेजी को गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया। झंडेजी पर पहले सादे (मारकीन के) और फिर शनील के गिलाफ चढ़ते हैं। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है और फिर पवित्र जल छिड़ककर भक्तजनों की ओर से रंगीन रुमाल, दुपट्टे आदि बांधे जाते हैं। परंपरा के अनुसार झंडेजी को दर्शनी गिलाफ के अलावा मारकीन के 41 और शनील के 21 गिलाफ चढ़ाए जाते हैं। जबकि, गिलाफ अर्पित करने वालों की तादाद हजारों में होती है। हालांकि, श्रद्धालुओं को झंडेजी के दर्शनी गिलाफ के ही दर्शन होते हैं। इसके साथ ही दरबार साहिब में समाधि पर मत्था टेकने, उसकी परिक्रमा करने, झंडेजी पर नए वस्त्र चढ़ाने और लंगर में प्रसाद ग्रहण करने का क्रम भी अनवरत चलता रहता है। ----------------------- दून की आन-बान-शान झंडेजी ------------------------ दर्शनी गिलाफ चढऩे के बाद सूर्य की ढलती किरणें जब दरबार की मीनारों और गुंबदों पर पड़ती हैं, तब सज्जादानसीन श्रीमहंत जी के आदेश से झंडेजी के आरोहण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। यही वह घड़ी है, जब झंडेजी कैंचियों के सहारे धीरे-धीरे ऊपर उठते हैं। जैसे ही वह अपने स्थान पर खड़े होकर राजसी ठाठ के साथ खुले आसमान में लहराते हैं श्री गुरु रामराय महाराज की जय-जयकार से द्रोणनगरी गूंज उठती है। यह ऐसा दृश्य होता है, जिसे वहां मौजूद हर व्यक्ति अपने हृदय में बसा लेना चाहता है। इस दौरान सिर पर चढ़ावा लिए दरबार साहिब पहुंच रही संगतें अलौकिक नजारा पेश करती हैं। दरबार साहिब के सम्मान के प्रतीक झंडेजी का जैसे ही आरोहण होता है, संगतों की परिक्रमा का सिलसिला आरंभ हो जाता है। परंपरा का यह ऐसा विलक्षण अनुभव है, जिसकी मिसाल अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। ------------------- बाज भी करता है परिक्रमा -------------------- मान्यता है कि जब झंडेजी अपने स्थान पर विराजमान होते हैं, तभी दूर आकाश में एक बाज आता है और झंडेजी की परिक्रमा कर नजरों से ओझल हो जाता है। यही वह क्षण है, जब आस्था और विश्वास पराकाष्ठा को छू रहे होते हैं। -------------------- मसंदों को पगड़ी-प्रसाद ------------------ झंडेजी के आरोहण के बाद संगत के मसंदों को सज्जादानसीन श्रीमहंत देवेंद्रदास महाराज आशीर्वाद स्वरूप पगड़ी, प्रसाद एवं ताबीज प्रदान करते हैं। यह परंपरा माता पंजाब कौर के जमाने से चली आ रही है। ------------------ दरबार साहिब के श्रीमहंत -------------------- श्रीमहंत औददास (1687-1741) श्रीमहंत हरप्रसाद (1741-1766) श्रीमहंत हरसेवक (1766-1818) श्रीमहंत स्वरूपदास (1818-1842) श्रीमहंत प्रीतमदास (1842-1854) श्रीमहंत नारायणदास (1854-1885) श्रीमहंत प्रयागदास (1885-1896) श्रीमहंत लक्ष्मणदास (1896-1945) श्रीमहंत इंदिरेशचरण दास (1945-2000) श्रीमहंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनसीन) ---------------------- बाबा ऐसे पहुंचे थे दून ----------------- बाबा रामराय महाराज के देहरादून पहुंचने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। पिता के कहे कटु वचन कि 'तुमने मना करने के बाद भी मुगल दरबार में अपने चमत्कार दिखाए, इससे गुरु ग्रंथ साहिब का अपमान हुआ है, इसलिए मैं तुम्हारा मुंह तक नहीं देखना चाहता, तुम्हारा मुख जिस दिशा में है, उसी ओर चले जाओÓ ने बाबा रामराय के जीवन की धारा ही बदल डाली। लाहौर समेत अनेक स्थानों से यात्रा करते हुए बाबा दूनघाटी स्थित कांवली गांव पहुंचे। यहां पास ही आचार्य श्रीचंद्र महाराज के शिष्य बालू हसना से उदासीन मत की दीक्षा लेने के बाद उन्होंने वर्तमान झंडा स्थल पर डेरा डाला। दून में पिछड़े व उपेक्षित लोगों का डेरा होना चाहिए, इसी विचार के साथ वर्ष 1707 में बाबा रामराय ने दरबार साहिब का निर्माण किया।

Tuesday, 13 February 2018

मैंने समेटी हैं अनगिनत खुशियां

मैंने समेटी हैं अनगिनत खुशियां 
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दिनेश कुकरेती
मैंने विकास की गोद में प्रकृति को सिमटते देखा है। दून की खुशहाली को सिसकते देखा है। जी हां! तमाम उन गवाहों में मैं भी शामिल हूं, जिसने देहरादून की बदलती सूरत और रंगत को न सिर्फ करीब से देखा, बल्कि महसूस भी किया। मैं 30 मई 1938 को जन्मा और नाम मिला जुगमंदर हॉल। आज मैं 79 वर्ष का हो चुका हूं। वैसे तो मैं शहर का एकमात्र सार्वजनिक प्रेक्षागृह (ऑडिटोरियम) हूं, मगर दुर्भाग्य देखिए कि कई लोग ठीक से मेरा नाम (जुगमंदर हॉल) भी नहीं जानते। ...और इतिहास तो शायद गिने-चुनों को ही पता होगा।
बड़ी बात नहीं कहता, मगर मैं इस शहर की वो इमारत हूं, जिसने गुजरे दौर में इस शहर को एक नई पहचान दी। इसके खुशहाल अतीत को जिया और वर्तमान को ढो रहा हूं। ढो इसलिए रहा हूं, क्योंकि आज का दून वो शहर नहीं रहा, जिसके लिए ये दुनियाभर में जाना जाता था। जिसके लिए ब्रितानी हुकूमत भी इसकी तारीफ करती थी। एक वक्त था, जब कल-कल बहती नहरें इस शहर की पहचान हुआ करती थीं। लोग इसे उत्तर का वेनिस कहा करते थे। लीची और बासमती की खुशबू लोगों के हृदय को महका देती थी। ...और मौसम इतना खुशनुमा कि पूछिए ही मत। जो भी यहां आता, उसका मुरीद हो जाता।
वो वक्त था 70 के दशक का, जो मेरे लिए भी बेहद सुनहरा दौर रहा है। तब उत्तर भारत के रंगमंच की पूरे देश में तूती बोलती थी। उस वक्त दून उत्तर भारत के रंगमंच का 'मक्काÓ हुआ करता था और मैं 'लॉड्र्सÓ। मेरा आंगन हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी से सराबोर रहता था। तब उत्तर भारत का शायद ही कोई थियेटर ऑर्टिस्ट होगा, जो अपनी कला को निखारने के लिए मेरी चौखट पर न पहुंचा हो। मैंने भी हर कला प्रेमी पर अपना सर्वस्व न्योछावर किया और उसे बुलंदियों तक पहुंचाया। मेरे आंगन में गूंजी किलकारियां मुझे आज भी याद करती हैं। संस्कृति और कला को सहेजने में मैंने कोई कसर बाकी नहीं रखी।
मेरी इमारत में चुनी गई हर एक ईंट इस बात की गवाह है। मगर, ये ईंटें उस दौर की भी गवाही देती हैं, जब मेरे अपनों ने ही मुझे बिसरा दिया था। मैंने अपने देश को आजाद होते देखा, अपने राज्य को वजूद में आते देखा और दून को अस्थायी राजधानी बनते भी। बावजूद इसके मेरे अपनों ने ही मेरे वजूद पर ताला जड़ दिया और मुझे धकेल दिया गुमनामी की काल कोठरी में। ठीक उसी तरह जैसे दून की नहरों को विकास के लिए बलि चढ़ा दिया गया और कंक्रीट के जंगल के लिए भुला दी गई बासमती व लीची की खुशबू। हालांकि, मैंने हिम्मत नहीं हारी। हर वक्त मेरा रोम-रोम आजादी के लिए तड़पता था। मेरा आंगन फिर से उन घुंघरुओं की छनक सुनने को बेताब रहता, जिनकी आवाज मेरी धड़कन हुआ करती थी। मैं तो अनंत काल तक कला को तराशने की हसरत रखता हूं, फिर ऐसा क्यों...?
यह सवाल हर वक्त मेरे जेहन में गूंजता रहता था। मगर, मुझे उम्मीद थी कि कभी तो मेरा कोई अपना मेरी सुध लेगा, क्योंकि मैं कोई गुजरा वक्त थोड़े हूं, जो लौट के न आ सकूं। सचमुच इसी उम्मीद ने मुझे टूटने नहीं दिया। कुछ वर्षों बाद नगर निगम ने मुझे फिर से संवारने का बीड़ा उठाया और मैं बेडिय़ों से आजाद हो गया। आज मैं फिर पहले की तरह कला को मुकाम देने का काम कर रहा हूं। अब मेरे आंगन में कबूतरों के पंखों की फडफ़ड़ाहट नहीं, बल्कि रंगमंच के संवाद और लोगों की तालियां गूंजती हैं। आज मैं फिर पहले की तरह हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी में गोते लगाता रहता हूं।

इस परिवार ने दिया दून को विस्तार 
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इस शहर की हर सांस में समाया हुआ है लाला भगवान दास का परिवार। यही परिवार मेरा जनक भी है। सही मायने में यही वो परिवार है, जिसने दून को विस्तार दिया। मुझ जैसे तमाम स्मृति चिह्न भगवान दास और उनके परिवार ने दून को दिए। इंदर रोड, चन्दर रोड, मोहिनी रोड, प्रीतम रोड आदि नाम इस परिवार की नेकनीयती के प्रतीक हैं। देहरादून स्पोट््र्स एसोसिएशन जैसी महत्वपूर्ण संस्था भी इसी परिवार की देन है। इसके अलावा डालनवाला में 450 बीघा में फैली टाउनशिप की सौगात भी दून को इसी परिवार ने दी। दून के लिए इस परिवार की सौगातों की सूची यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि म्युनिसिपैलिटी बिल्डिंग, लाला मनसुमरत दास मेमोरियल पवेलियन ग्राउंड, श्रीमती श्योति देवी एंड छिमा देवी वुमन्स हॉस्पिटल, डीएवी पीजी कॉलेज का जुगमंदर दास ब्लॉक, भगवानदास क्वार्टर, श्री दिगंबर जैन धर्मशाला के कुछ भवन भी इस परिवार की सामाजिक प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं।

Monday, 12 February 2018

इस इमारत में धड़कता है दून का दिल

इस इमारत में धड़कता है दून का दिल 
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दिनेश कुकरेती 
देहरादून शहर अपने-आप में पीढिय़ों का इतिहास समेटे हुए है। इस शहर ने न केवल राष्ट्रीय, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी अलग पहचान बनाई। कई राष्ट्रीय इमारतों, महत्वपूर्ण शिक्षण एवं अनुसंधान संस्थानों और नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस शहर को अंग्रेजों के जमाने से ही खास रुतबा रहा है। लेकिन, विडंबना देखिए कि आज यही शहर अपनी अमूल्य धरोहरों की उपेक्षा का दंश झेल रहा है। ऐसी ही धरोहर है दून का दिल कहा जाने वाला घंटाघर, जो आज याचक की तरह खड़ा अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। दून की सबसे सौंदर्यपूर्ण संरचनाओं में शामिल घंटाघर शहर की सबसे व्यस्ततम राजपुर रोड के मुहाने पर स्थित है और यहां की प्रमुख व्यावसायिक गतिविधियों का केंद्र भी है। पहले इस घंटाघर का घंटानाद दून के दूर-दूर के स्थानों से भी श्रव्य था, लेकिन अब यह स्थलचिह्न मात्र रह गया है। अब इसके चारों ओर दुकानें, शॉपिंग मॉल, सिनेमाघर, सरकारी भवन, पर्यटक स्थल आदि उभर आए हैं। 

सवा लाख में बना था घंटाघर 
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घंटाघर का इतिहास तकरीबन उतना ही पुराना है, जितना कि आजादी का। 24 जुलाई 1948 की सुबह नौ बजकर दस मिनट पर रिमझिम फुहारों के बीच इसकी नींव रखी गई थी। लाला शेर सिंह और उनके भाई आनंद सिंह, हरि सिंह व अमर सिंह ने अपने पिता लाला बलबीर सिंह की स्मृति में इसका निर्माण करवाया था। तब घंटाघर के निर्माण में सवा लाख रुपये का खर्च आया था। 70 फीट ऊंची इस इमारत पर जो छह घडिय़ां लगी हैं, उन्हें स्विटजरलैंड से मंगवाया गया था। वर्ष 1952 में जब यह इमारत बनकर तैयार हुई तो तत्कालीन रक्षा मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इसका उद्घाटन किया था।

देश में खास इस घंटाघर के छह कोण 
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दून का घंटाघर इस लिहाज से भी अनूठा है कि अंग्रेजों ने जो घंटाघर बनवाए थे, वे दो या चार घडिय़ों वाले हैं। जबकि, यह घंटाघर षट्कोणीय आकार का है और इसके शीर्ष के छह मुखों पर छह घडिय़ां लगी हुई हैं। यह घंटाघर ईंट और पत्थरों से निर्मित है। इसके षट्कोणीय आकार वाली हर दीवार पर प्रवेश मार्ग बना हुआ है। इसके मध्य में स्थित 80 सीढिय़ां इसके ऊपरी तल तक जाती हैं, जहां अद्र्धवृत्ताकार खिड़कियां हैं। मीनार के शिखर पर सभी छह आकृतियों में प्रत्येक पर घड़ी रखी हुई है। लाल और पीले रंग की संरचना वाली मीनार के सभी छह भागों पर सीमेंट की जाली सजाई गई है और सभी दरवाजों के ऊपर खूबसूरत झरोखे लगे हुए हैं। खास बात यह कि बिना घंटानाद के घंटाघरों में यह सबसे बड़ा घंटाघर है, जो अपने षट्कोणनुमा ढांचे के कारण देश में विशेष स्थान रखता है। यह न सिर्फ देश का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा घंटाघर है, बल्कि इसकी सबसे मुख्य बात यह है कि देश में दून और कोलकाता ही ऐसे घंटाघर हैं, जिनमें छह सुईयां हैं।

जर्जरहाल हुई ऐतिहासिक धरोहर 
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पलटन बाजार व राजपुर रोड के मध्य स्थापित इस इमारत के चारों ओर बने छोटे से पार्क की हालत वर्तमान में बहुत अच्छी नहीं है। पार्क की रेलिंग टूटी हुई है और इसके सौंदर्यीकरण के भी कोई गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आते। हां, खास दिवसों पर पार्क को इलेक्ट्रिक लाइटों से जरूर सजा दिया जाता है, लेकिन प्राकृतिक सौंदर्यीकरण की दिशा में नाममात्र को ही कार्य किए गए हैं। आलम यह है की दून की शान कही जाने वाली इस इमारत की सभी दीवारों पर झाडिय़ां उग आई हैं। घडिय़ां टूट चुकी हैं और मशीन भी जर्जरहाल हैं।

हासिल होगा पुराना वैभव 
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खैर! देर आयद, दुरुस्त आयद। आखिरकार नीति-नियंता महसूस करने लगे हैं कि इस ऐतिहासिक इमारत को उसका खोया गौरव लौटाया जाए। सो, इसके कायाकल्प के लिए रस्साकसी होने लगी है। धर्मपुर विधायक एवं नगर निगम देहरादून के महापौर विनोद चमोली का कहना है कि घंटाघर की तस्वीर को नए साल में बदलने की तैयारी है। इसे बेहद आकर्षित बनाने का प्रयास किया जाएगा।

Monday, 13 November 2017

याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या

याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या 
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दिनेश कुकरेती
देवभूमि के हर रंग में रचे-बसे हैं नेहरू जी। वह खेत-खलिहानों में भी हैं और नदियों, पहाड़ों व घाटियों में भी। उन्होंने प्रकृति के मध्य स्वच्छंद जीवनयापन करने वाले लोक समाज को धरती का सुकुमार पुष्प मानकर गले ही नहीं लगाया, बल्कि खुद भी उसके रंग में रंग गए। तभी तो गढ़वाली लोक हृदय झूम उठा और गाने लगा कि 'तू फूलों मा को फूल छई, लालों मा को लाल जवाहिर, बांकों मा को बांको छई, भारत को आंखो तू जवाहिर, ब्वै-बाबू देश को लाडो छई, गैणों मा की जून तू जवाहिरÓ। 
नेहरू जी को प्राकृतिक छटा से अपार स्नेह था और उतना ही प्यार वे प्रकृति के मध्य स्वच्छंद विचरण करने वाले लोगों से भी करते थे। यह वजह भी है गढ़वाली लोक हृदय ने उन्हें अपार स्नेह दिया। वह दिलों में बसकर लोकगीतों के रूप में जुबां पे उतर गए। आजादी के पहले और बाद में भी लोक समाज को उनमें अपना ही अक्स नजर आया। अपनी पुस्तक गढ़वाली लोक गीत में प्रसिद्ध साहित्यकार डा.शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि, 'गढ़वाली लोक समाज का मन पंडित जी के प्रतिष्ठा वाले पद को पाने पर ही नहीं नाचा करता था। वह तो बालपन से ही गढ़वाली गीतों के नायक रहे हैंÓ। नेहरू जी तो गढ़वाली समाज के लिए बसंत के समान हैं, जिनके दर्शन मात्र से वह गा उठा, 'बसंत छ आज ऋतु, बासंती ह्वै गवां हम, देखीक त्वै जबारी मन नचद छम-छमÓ। 
गढ़वाली लोकगीतों में 'चौंफलाÓ प्रसिद्ध नृत्य गीत है, जिसे नेहरू जी के सम्मान में तब गाया गया, जब अंग्रेजों ने गढ़वाली रणबांकुरों की वीरता से प्रभावित होकर उन्हें 'विक्टोरिया क्रॉसÓ से सम्मानित किया। उस दौर में गढ़वाली समाज अपने खेत-खलिहानों में मुखर होकर यह चौंफला गाते हुए झूम उठता था, 'मोतीलाला कू नौनू जवारी, तीले धारू बोला दा, भारता कू नेता जवारी, तीले धारू बोला दाÓ। डा.नौटियाल लिखते हैं कि अंग्रेज जब गढ़वाली वीरों को प्रलोभनों के बूते फौज में भरती होने को मना रहे थे, तब माताएं अपने बेटों, बहनें अपने भाईयों और बहुएं अपने सुहाग को गांधी, सुभाष और नेहरू की स्वराज वाली फौज में भरती होने के लिए प्रोत्साहित कर रही थीं। एक बानगी-'चला भुलौं भर्ती ह्वे जौंला, जवाहिर दादा की पलटन मा, भला सजुला खद्दर पैरी अर रंगीला जवाहिर कोट मा, मर मिटला देश का बाना, घर छोडुला दादा जवारी का साथ माÓ। 
जेठ में बरसात की कल्पना करने वाला गढ़वाली लोक समाज नेहरू को अपना भाग्य विधाता मानता रहा है। उसकी यह भावना लोकगीत में कुछ इस तरह प्रस्फुटित हुई, 'तिमला का पात भैजी, तिमला का पात, नेरू को राज भैजी जेठ मा बरसात, बाजी जाला बाजा भैजी, बाजी जाला बाजा, भारत मा ह्वैगे भैजी नेरू को सुखकारी राजÓ। अपनी तटस्थ नीति के लिए सारी दुनिया ने नेहरू जी को सराहा, फिर गढ़वाली समाज कैसे चुप रह सकता था। वह भी गा उठा, 'माछी मारी ताति भैजी, माछी मारी ताति, भलो तेरो राज नेरू, भली तेरी नीतिÓ। और जब गढ़वाली लोक समाज का वह नचाड़ इस दुनिया-ए-फानी से अलविदा कह गया तो लोक हृदय मानने को कतई तैयार नहीं था। वह तो आज भी उन्हें भारत के कण-कण में पाता है और गा उठता है, 'याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या, सूरज-जून सि नाम रालो, धरती-आकाश जब तक याÓ। 

किसी आघात से कम नहीं था नेहरू का जाना
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कितनी सशक्त और हृदय विदारक पंक्तियां हैं यह। तथाकथित सभ्य और चकड़ैत लोग भले ही इसे कल्पना समझें, लेकिन दुनिया के छल-कपट से दूर रहने वाले गढ़वाली लोक समाज के लिए किसी आघात से कम नहीं था नेहरू जी का जाना। उसके तो कलेजे पर मानो किसी ने चीरा लगा दिया हो। ऐसी थी उसकी पीड़ा, 'कलेजा का चीरा ह्वैगीं हिया का बेहाल, आंख्यों मा रिटण लैगी जवाहिर लालÓ।

I miss 'Leela temple' of 'Kamali'

यादों के झरोखों से
याद आती है 'लीला मंदिरÓ की 'कमलीÓ
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दिनेश कुकरेती
ठाकुर साहब जब देहरादून की सड़कों पर निकलते तो लोगों के कदम ठिठक जाया करते थे। पठानी व्यक्तित्व, सफेद खड़ी मूछें, सफेद बाल और हाथ में एक सोटी (आगे से गोल जादुई छड़ी सी) उन्हें अलग पहचान देती थी। लाहौर में बनने वाली साईलेंट फिल्मों के जाने-माने अभिनेता ठाकुर हिम्मत सिंह उन राजपूत ठिकानेदारों और जमींदारों के वंशज थे, जिन्हें कुछ खास वजहों से संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) का अपना घर-बार छोड़कर महाराजा रणजीत सिंह की शरण में जाना पड़ा। महाराजा ने उन्हें लाहौर के मोची दरवाजे के इलाके में बसने की इजाजत दी थी।
विभाजन के बाद वे मुंबई आ गए और फिर स्थायी रूप से देहरादून में बस गए। आजादी से पहले हिंदी सिनेमा और उस दौर के स्टूडियो सिस्टम का जिक्र आते ही जहन में जो नाम सबसे पहले उभरते हैं, वो हैं मुंबई के रणजीत, बांबे टॉकीज और वाडिया मूवीटोन, कोल्हापुर का जयाप्रभा, पुणे का प्रभात, कोलकाता का न्यू थिएटर्स और लाहौर का पंचोली आर्ट्स। इन बड़े नामों के बीच कुछेक ऐसे स्टूडियो भी अस्तित्व में आए, जो खुद भले ही ज्यादा समय तक जिंदा न रख पाए हों, लेकिन भारतीय सिनेमा के इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए उन्हें नजरअंदाज कर पाना मुनासिब नहीं होगा।

 

ऐसे ही अल्पजीवी स्टूडियो में एक नाम है लाहौर का 'लीला मंदिरÓ, जिसकी नींव ठाकुर हिम्मत सिंह ने रखी थी। 'लीला मंदिरÓ के बैनर की पहली फिल्म पंजाबी में बनी 'कमलीÓ थी, जो वर्ष 1946 में प्रदर्शित हुई। फिल्म के निर्देशक थे प्रकाश बख्शी और संगीतकार इनायत हुसैन। मुख्य भूमिका अमरनाथ, किरण (शौकत) व आशा पोसले ने निभाई। शौकत और आशा संगीतकार इनायत हुसैन की बेटियां थीं।
 
इस फिल्म ने अपने वक्त में अच्छा-खासा बिजनेस किया। ठाकुर साहब के बेटे करूणेश ठाकुर उन दिनों को याद करते हुए बताते थे, 'पिताजी ने वर्ष 1940 में बनी पंजाबी फिल्म 'दुल्ला-भट्टीÓ में खलनायक की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म के निर्देशक रूप के.शौरी और संगीतकार पंडित गोविंदराम थे। 'दुल्ला-भट्टीÓ को इसलिए भी याद किया जाता है, क्योंकि प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नैयर के जीवन की यह पहली फिल्म थी।
इस फिल्म में अजीज कश्मीरी के लिखे गीत 'रब दी जनाब विचों ऐहो दिल मंगदा, अंबियां दा बाग होवे, बदला दी छांव होवेÓ के कोरस में हिस्सा लेने के साथ-साथ वो इस गीत में पर्दे पर भी नजर आए थे।Ó वर्ष 1947 में 'लीला मंदिरÓ के बैनर तले फिल्म 'बेदर्दीÓ का निर्माण शुरू हुआ। निर्देशन का जिम्मा एक बार फिर प्रकाश बख्शी ने संभाला। ठाकुर हिम्मत सिंह के बेटे करूणेश ने मैट्रिक पास करने के बाद इस फिल्म में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर अपना करियर शुरू किया था।
नौ सितंबर 1929 को लाहौर में जन्मे करूणेश ठाकुर की उम्र तब 18 साल थी। करूणेश बताते थे, 'उन दिनों देहरादून में मेरी मौसी का मकान बन रहा था। तीन अगस्त 1947 को हमने लाहौर में फिल्म 'बेदर्दीÓ की शूटिंग शुरू की और आगे की शूटिंग के लिए 12 अगस्त को यूनिट के साथ देहरादून पहुंचकर मौसी के अधबने मकान में ठहर गए। लेकिन, इसी बीच मुल्क का बंटवारा हो गया और यूनिट को दंगों से बचाने के लिए हमें देहरादून छोड़कर रातोंरात कोलकाता जाना पड़ा।
जाने-माने रंगकर्मी स्व.अतीक अहमद बताते थे कि विभाजन के बाद ठाकुर हिम्मत सिंह लाहौर छोड़कर मुंबई में रहने लगे और फिर देहरादून आ गए। बाद में करूणेश ठाकुर भी यहां करनपुर स्थित उसी पुश्तैनी मकान में अपने छोटे भाई व बहन के साथ रहते थे। करूणेश ठाकुर 'उत्तराखंड फिल्म चैंबर ऑफ कॉमर्सÓ के वाइस प्रेसिडेंट भी रहे।
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Through the windows of memories

I miss 'Leela temple' of 'Kamali'
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Dinesh Kukreti

When Thakur saheb used to go out on the streets of Dehradun, the people used to take stubborn steps.  The Pathani personality, white mustache, white hair and a sooty in the hand (a round magic wand from the front) gave him a distinct identity.  Thakur Himmat Singh, a well-known actor in Silent films made in Lahore, was a descendant of Rajput hideouts and zamindars who had to leave their homes in the United Provinces (now Uttar Pradesh) for some special reason and go to the shelter of Maharaja Ranjit Singh.  The Maharaja allowed them to settle in the area of ​​the Mochi Darwaza of Lahore.

After partition, he moved to Mumbai and then permanently settled in Dehradun.  The names that first emerge in the minds of Hindi cinema before independence and the studio system of that era are Ranjeet, Bombay Talkies and Wadia Movietone in Mumbai, Jayaprabha of Kolhapur, Prabhat in Pune, New Theaters in Kolkata and Lahore.  Ka Pancholi Arts.  A few such studios also came into existence among these big names, who may not be able to keep themselves alive for a long time, but it will not be appropriate for those interested in the history of Indian cinema to ignore them.

One such name in short-lived studios is 'Leela Mandir' of Lahore, which was laid by Thakur Himmat Singh.  The first film under the banner of 'Leela Mandir' was 'Kamali', made in Punjabi, which was released in the year 1979.  The film's director was Prakash Bakshi and composer Inayat Hussain.  The lead roles were played by Amarnath, Kiran (Shaukat) and Asha Posle.  Shaukat and Asha were daughters of composer Inayat Hussain.



The film did a lot of business in its time.  Thakur Saheb's son Karunesh Thakur used to remember those days, 'Dad played the role of a villain in the Punjabi film' Dulla-Bhatti 'in the year 1980.  The film was directed by Roop K. Shauri and composer Pandit Govindaram.  'Dulla-Bhatti' is also remembered because it was the first film in the life of famous composer OP Nayyar.

In this film, he was also seen on screen in this song along with playing the chorus of 'Rab Di Janaab Vichon Aiho Dil Mangda, Ambiya Da Bagh Howe, Badla Di Chaon Howe' written by Aziz Kashmiri. In the year 1979  Production of the film 'Bedardi' started under the banner of 'Leela Mandir'.  Prakash Bakshi once again took charge of direction.  Karunesh, son of Thakur Himmat Singh, started his career as an assistant director in this film after passing matriculation.

 
Karunesh Thakur, born in Lahore on September 9, 1929, was then 14 years old.  Karunesh used to say, 'My aunt's house was being built in Dehradun those days.  On 3 August 1949, we started shooting for the film 'Bedardi 4' in Lahore and arrived in Dehradun on 12 August with the unit and stayed in Mausi's unoccupied house for further shooting.  But, in the meantime, the country was divided and we had to leave Dehradun and go to Kolkata overnight to save the unit from rioting.

Well-known painter late Atik Ahmed used to say that after partition Thakur Himmat Singh left Lahore and started living in Mumbai and then moved to Dehradun.  Later, Karunesh Thakur also lived here with his younger brother and sister in the same ancestral house in Karanpur.  Karunesh Thakur was also Vice President of Uttarakhand Film Chamber of Commerce.  

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Friday, 27 October 2017

लोक को जगाकर खुद सो गया लोक का चितेरा














लोक को जगाकर खुद सो गया लोक का  चितेरा
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दिनेश कुकरेती
प्रख्यात रंगकर्मी, चित्रकार, साहित्यकार एवं कार्टूनिस्ट बी.मोहन नेगी का असमय चले जाना किसी आघात से कम नहीं है। खासकर तब, जब कला-संस्कृति की परख रखने वाले बहुत कम लोग रह गए हों। नेगी महज एक चित्रकार नहीं, बल्कि चित्त  की पाठशाला थे। ऐसे चित्त की, जिसे महसूस करने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए। उनकी छांव में न जाने कितनों ने परिवेश को समझने की सोच विकसित की। उनमें पहाड़ के प्रति ऐसी छटपटाहट थी,जिसे देखने को आंखें तरस जाती हैं। नेगी सरलता एवं सौम्यता की ऐसी प्रतिमूर्ति थे, जिसने लोक के प्रति समझ रखने वाले हर व्यक्ति को उनका कायल बना दिया।

मूलरूप से पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक की मनियारस्यूं पटटी के पुंडोरी गांव निवासी बी.मोहन नेगी का जन्म 26 अगस्त 1952 को देहरादून में हुआ। लेकिन, कर्मक्षेत्र हमेशा उनका पहाड़ ही रहा। सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्हें पौडी़ से नीचे उतरना गवारा न हुआ। दो पुत्र और दो पुत्रियों के पिता 66 वर्षीय नेगी ने डाक विभाग में रहते हुए लंबे अर्से तक चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर व गौचर में सेवाएं दीं। यहीं उनके अंतर्मन में पहाड़ ने जन्म लिया और वे पहाड़ के चितेरे चित्रकार बन गए।

उन्होंने एक तरफ बोधपरक लघु कविताएं लिखीं तो दूसरी तरफ चित्र, रेखाचित्र, कविता पोस्टर, कोलाज, मिनिएचर्स, कार्टून आदि विधाओं के माध्यम से सोई हुई व्यवस्था को झकझोरने का काम किया। अपनी तूलिका के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन एवं मौजूदा दौर की ऐसी तस्वीर समाज के सामने रखी, जिसने हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दिया। बावजूद इसके उन्हें कभी प्रचार की चाह नहीं रही और खामोशी से सृजन में जुटे रहे। बाद में नेगी का स्थानांतरण प्रधान डाकघर पौड़ी में हुआ तो यहां भी उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता को संजीदा रखते हुए पर्वतीय समाज को एक नया आयाम देने का कार्य किया।


वर्ष 2009 में नेगी पौड़ी डाकघर से ही उप डाकपाल के पद से सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद तो उनका हर पल कला को समर्पित हो गया। उनके व्यक्तित्व में एक अजीब सा सम्मोहन था। जो भी एक बार उनसे मिलता हमेशा के लिए उनका हो जाता। अनजान लोगों से भी आत्मीयता पूर्वक मिलना उनका नैसर्गिक स्वभाव था। यही वजह है कि उनकी कलाकृतियां दीवारों पर ही नहीं लोगों के दिलों में अंकित हैं। एक दौर में नेगी पौड़ी की रामलीला के लिए कलाकारों के मुखौटा बनाया करते थे। साथ ही उन्होंने पहाड़ से गायब हो रही चित्रकला को पुनर्स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। वह कहते थे, जब तक जीवन है, मैं कला से मुंह नहीं मोड़ सकता। चित्रकारी मेरे लिए साधना से ज्यादा पहाड़ के प्रति जिम्मेदारी है। उन्होंने सैकडो़ं पुस्तकों के मुखपृष्ठ ही नहीं बनाए, बल्कि भोजपत्र पर चित्रकारी व प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां भी बनाई। उनके कलाकर्म को शास्त्रीय सीमाओं में बांध पाना असंभव है।


प्रेरणा के रूप में जिंदा रहेंगे बी मोहन
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प्रख्यात चित्रकार बी.मोहन नेगी 1984 से देश के विभिन्न शहरों में कविता व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी भी आयोजित करते रहे। उन्होंने उत्तराखंड के प्रमुख शहरों के साथ ही दिल्ली, मुंबई, लखनऊ आदि शहरों में भी कविता पोस्टर प्रदर्शनियां लगाईं। इसके अलावा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय व विभिन्न क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनके चित्र, रेखाचित्र, कार्टून व कविताओं का प्रकाशन निरंतर होता रहा।  कला के इस पुरोधा ने गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, रंवाल्टी, नेपाली, पंजाबी, हिंदी व अंग्रेजी भाषा में लगभग 700 कविता पोस्टर बनाए।

इसके अलावा उन्होंने प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की लगभग सौ कविताओं पर भी पोस्टर तैयार किए। उनके उकेरे गए चित्र लोकजीवन की जीवटता को प्रदर्शित करते हैं। खास बात यह कि जो भी चित्र नेगी ने बनाए, वे पर्वतीय जीवन की संजीदगी से भरे हुए हैं। नेगी को उनकी रचनाशीलता के लिए विभिन्न संस्थाओं की ओर से अनेकों बार सम्मानित किया गया। उन्हें मिले सम्मानों में प्रकाश पुरोहित जयदीप स्मृति सम्मान, हिमगिरी सम्मान, लक्ष्मी प्रसाद नौटियाल सम्मान, चंद्रकुंवर बत्र्वाल सम्मान, देव भूमि सम्मान, गढ़ विभूति सम्मान आदि प्रमुख हैं। नेगी भले ही आज दैहिक रूप में हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी प्रेरणा हमारे अंतर्मन में उन्हें हमेशा जिलाए रखेगी।

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