याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या
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दिनेश कुकरेती
देवभूमि के हर रंग में रचे-बसे हैं नेहरू जी। वह खेत-खलिहानों में भी हैं और नदियों, पहाड़ों व घाटियों में भी। उन्होंने प्रकृति के मध्य स्वच्छंद जीवनयापन करने वाले लोक समाज को धरती का सुकुमार पुष्प मानकर गले ही नहीं लगाया, बल्कि खुद भी उसके रंग में रंग गए। तभी तो गढ़वाली लोक हृदय झूम उठा और गाने लगा कि 'तू फूलों मा को फूल छई, लालों मा को लाल जवाहिर, बांकों मा को बांको छई, भारत को आंखो तू जवाहिर, ब्वै-बाबू देश को लाडो छई, गैणों मा की जून तू जवाहिरÓ।
नेहरू जी को प्राकृतिक छटा से अपार स्नेह था और उतना ही प्यार वे प्रकृति के मध्य स्वच्छंद विचरण करने वाले लोगों से भी करते थे। यह वजह भी है गढ़वाली लोक हृदय ने उन्हें अपार स्नेह दिया। वह दिलों में बसकर लोकगीतों के रूप में जुबां पे उतर गए। आजादी के पहले और बाद में भी लोक समाज को उनमें अपना ही अक्स नजर आया। अपनी पुस्तक गढ़वाली लोक गीत में प्रसिद्ध साहित्यकार डा.शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि, 'गढ़वाली लोक समाज का मन पंडित जी के प्रतिष्ठा वाले पद को पाने पर ही नहीं नाचा करता था। वह तो बालपन से ही गढ़वाली गीतों के नायक रहे हैंÓ। नेहरू जी तो गढ़वाली समाज के लिए बसंत के समान हैं, जिनके दर्शन मात्र से वह गा उठा, 'बसंत छ आज ऋतु, बासंती ह्वै गवां हम, देखीक त्वै जबारी मन नचद छम-छमÓ।
गढ़वाली लोकगीतों में 'चौंफलाÓ प्रसिद्ध नृत्य गीत है, जिसे नेहरू जी के सम्मान में तब गाया गया, जब अंग्रेजों ने गढ़वाली रणबांकुरों की वीरता से प्रभावित होकर उन्हें 'विक्टोरिया क्रॉसÓ से सम्मानित किया। उस दौर में गढ़वाली समाज अपने खेत-खलिहानों में मुखर होकर यह चौंफला गाते हुए झूम उठता था, 'मोतीलाला कू नौनू जवारी, तीले धारू बोला दा, भारता कू नेता जवारी, तीले धारू बोला दाÓ। डा.नौटियाल लिखते हैं कि अंग्रेज जब गढ़वाली वीरों को प्रलोभनों के बूते फौज में भरती होने को मना रहे थे, तब माताएं अपने बेटों, बहनें अपने भाईयों और बहुएं अपने सुहाग को गांधी, सुभाष और नेहरू की स्वराज वाली फौज में भरती होने के लिए प्रोत्साहित कर रही थीं। एक बानगी-'चला भुलौं भर्ती ह्वे जौंला, जवाहिर दादा की पलटन मा, भला सजुला खद्दर पैरी अर रंगीला जवाहिर कोट मा, मर मिटला देश का बाना, घर छोडुला दादा जवारी का साथ माÓ।
जेठ में बरसात की कल्पना करने वाला गढ़वाली लोक समाज नेहरू को अपना भाग्य विधाता मानता रहा है। उसकी यह भावना लोकगीत में कुछ इस तरह प्रस्फुटित हुई, 'तिमला का पात भैजी, तिमला का पात, नेरू को राज भैजी जेठ मा बरसात, बाजी जाला बाजा भैजी, बाजी जाला बाजा, भारत मा ह्वैगे भैजी नेरू को सुखकारी राजÓ। अपनी तटस्थ नीति के लिए सारी दुनिया ने नेहरू जी को सराहा, फिर गढ़वाली समाज कैसे चुप रह सकता था। वह भी गा उठा, 'माछी मारी ताति भैजी, माछी मारी ताति, भलो तेरो राज नेरू, भली तेरी नीतिÓ। और जब गढ़वाली लोक समाज का वह नचाड़ इस दुनिया-ए-फानी से अलविदा कह गया तो लोक हृदय मानने को कतई तैयार नहीं था। वह तो आज भी उन्हें भारत के कण-कण में पाता है और गा उठता है, 'याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या, सूरज-जून सि नाम रालो, धरती-आकाश जब तक याÓ।
किसी आघात से कम नहीं था नेहरू का जाना
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कितनी सशक्त और हृदय विदारक पंक्तियां हैं यह। तथाकथित सभ्य और चकड़ैत लोग भले ही इसे कल्पना समझें, लेकिन दुनिया के छल-कपट से दूर रहने वाले गढ़वाली लोक समाज के लिए किसी आघात से कम नहीं था नेहरू जी का जाना। उसके तो कलेजे पर मानो किसी ने चीरा लगा दिया हो। ऐसी थी उसकी पीड़ा, 'कलेजा का चीरा ह्वैगीं हिया का बेहाल, आंख्यों मा रिटण लैगी जवाहिर लालÓ।
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दिनेश कुकरेती
देवभूमि के हर रंग में रचे-बसे हैं नेहरू जी। वह खेत-खलिहानों में भी हैं और नदियों, पहाड़ों व घाटियों में भी। उन्होंने प्रकृति के मध्य स्वच्छंद जीवनयापन करने वाले लोक समाज को धरती का सुकुमार पुष्प मानकर गले ही नहीं लगाया, बल्कि खुद भी उसके रंग में रंग गए। तभी तो गढ़वाली लोक हृदय झूम उठा और गाने लगा कि 'तू फूलों मा को फूल छई, लालों मा को लाल जवाहिर, बांकों मा को बांको छई, भारत को आंखो तू जवाहिर, ब्वै-बाबू देश को लाडो छई, गैणों मा की जून तू जवाहिरÓ।
नेहरू जी को प्राकृतिक छटा से अपार स्नेह था और उतना ही प्यार वे प्रकृति के मध्य स्वच्छंद विचरण करने वाले लोगों से भी करते थे। यह वजह भी है गढ़वाली लोक हृदय ने उन्हें अपार स्नेह दिया। वह दिलों में बसकर लोकगीतों के रूप में जुबां पे उतर गए। आजादी के पहले और बाद में भी लोक समाज को उनमें अपना ही अक्स नजर आया। अपनी पुस्तक गढ़वाली लोक गीत में प्रसिद्ध साहित्यकार डा.शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि, 'गढ़वाली लोक समाज का मन पंडित जी के प्रतिष्ठा वाले पद को पाने पर ही नहीं नाचा करता था। वह तो बालपन से ही गढ़वाली गीतों के नायक रहे हैंÓ। नेहरू जी तो गढ़वाली समाज के लिए बसंत के समान हैं, जिनके दर्शन मात्र से वह गा उठा, 'बसंत छ आज ऋतु, बासंती ह्वै गवां हम, देखीक त्वै जबारी मन नचद छम-छमÓ।
गढ़वाली लोकगीतों में 'चौंफलाÓ प्रसिद्ध नृत्य गीत है, जिसे नेहरू जी के सम्मान में तब गाया गया, जब अंग्रेजों ने गढ़वाली रणबांकुरों की वीरता से प्रभावित होकर उन्हें 'विक्टोरिया क्रॉसÓ से सम्मानित किया। उस दौर में गढ़वाली समाज अपने खेत-खलिहानों में मुखर होकर यह चौंफला गाते हुए झूम उठता था, 'मोतीलाला कू नौनू जवारी, तीले धारू बोला दा, भारता कू नेता जवारी, तीले धारू बोला दाÓ। डा.नौटियाल लिखते हैं कि अंग्रेज जब गढ़वाली वीरों को प्रलोभनों के बूते फौज में भरती होने को मना रहे थे, तब माताएं अपने बेटों, बहनें अपने भाईयों और बहुएं अपने सुहाग को गांधी, सुभाष और नेहरू की स्वराज वाली फौज में भरती होने के लिए प्रोत्साहित कर रही थीं। एक बानगी-'चला भुलौं भर्ती ह्वे जौंला, जवाहिर दादा की पलटन मा, भला सजुला खद्दर पैरी अर रंगीला जवाहिर कोट मा, मर मिटला देश का बाना, घर छोडुला दादा जवारी का साथ माÓ।
जेठ में बरसात की कल्पना करने वाला गढ़वाली लोक समाज नेहरू को अपना भाग्य विधाता मानता रहा है। उसकी यह भावना लोकगीत में कुछ इस तरह प्रस्फुटित हुई, 'तिमला का पात भैजी, तिमला का पात, नेरू को राज भैजी जेठ मा बरसात, बाजी जाला बाजा भैजी, बाजी जाला बाजा, भारत मा ह्वैगे भैजी नेरू को सुखकारी राजÓ। अपनी तटस्थ नीति के लिए सारी दुनिया ने नेहरू जी को सराहा, फिर गढ़वाली समाज कैसे चुप रह सकता था। वह भी गा उठा, 'माछी मारी ताति भैजी, माछी मारी ताति, भलो तेरो राज नेरू, भली तेरी नीतिÓ। और जब गढ़वाली लोक समाज का वह नचाड़ इस दुनिया-ए-फानी से अलविदा कह गया तो लोक हृदय मानने को कतई तैयार नहीं था। वह तो आज भी उन्हें भारत के कण-कण में पाता है और गा उठता है, 'याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या, सूरज-जून सि नाम रालो, धरती-आकाश जब तक याÓ।
किसी आघात से कम नहीं था नेहरू का जाना
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कितनी सशक्त और हृदय विदारक पंक्तियां हैं यह। तथाकथित सभ्य और चकड़ैत लोग भले ही इसे कल्पना समझें, लेकिन दुनिया के छल-कपट से दूर रहने वाले गढ़वाली लोक समाज के लिए किसी आघात से कम नहीं था नेहरू जी का जाना। उसके तो कलेजे पर मानो किसी ने चीरा लगा दिया हो। ऐसी थी उसकी पीड़ा, 'कलेजा का चीरा ह्वैगीं हिया का बेहाल, आंख्यों मा रिटण लैगी जवाहिर लालÓ।
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