Saturday, 12 February 2022

जैसा वसंत, वैसा वेलेंटाइन

शीत के आगोश से मुक्त होने के साथ धरती के पोर-पोर में उल्लास छलकने लगा है। भ्रमरों का मधुर गुंजन हृदय के तारों को झंकृत कर रहा है। वसंत जो आ रहा है और साथ में ला रहा है वेलेंटाइन का मखमली अहसास। ऐसे में कौन होगा, जो शृंगार रस में भीगना न चाहेगा। आइए! वसंत और वेलेंटाइन के इसी लौकिक एवं आत्मीय स्वरूप से हम भी परिचित हो लें।

जैसा वसंत, वैसा वेलेंटाइन

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दिनेश कुकरेती

चमुच! धरा पर वसंत सरीखी कोई ऋतु नहीं। यह न सिर्फ विद्या एवं बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अनुकंपा प्राप्त करने की, बल्कि मन के मौसम को परख लेने, रिश्तों को नवसंस्कार-नवप्राण देने, गीत की, संगीत की, हल्की-हल्की शीत की और नर्म-गर्म प्रीत की ऋतु भी है। वसंत ऋतु का संदेश भी यही है कि 'देवी-देवताओं की तरह सज-धजकर, शृंगारित होकर रहो। प्रबल आकर्षण में भी पवित्रता का प्रकाश संजोकर रखो और उत्साह, आनंद एवं उत्फुल्लता का बाहर-भीतर संचार करो।Ó इसीलिए गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं,  समस्त महीनों में मैं मार्गशीष (अगहन) और समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसंत ऋतु हूं। ऐसा माना गया है कि माघ शुक्ल पंचमी से वसंत ऋतु का आरंभ होता है। फाल्गुन और चैत्र वसंत के महीने माने गए हैं। फाल्गुन विक्रमी वर्ष का अंतिम महीना है और चैत्र पहला। इस तरह सनातनी पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ वसंत में ही होता है। 


वेलेंटाइन-डे मनाएं, पर वसंत की धड़कन भी सुनें

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यह भी संयोग ही है कि पश्चिम से उपजा 'वेलेंटाइन-डेÓभी वसंत के सुखद आगमन की पंचमी के आसपास ही पड़ता है। लेकिन, संस्कृति का अंतर देखिए, एक ओर प्रेम की अभिव्यक्ति का सिर्फ एक दिन है, जबकि दूसरी ओर पूरा मौसम ही शृंगार रस में भीगने और एक-दूसरे को जानने-समझने का है। हालांकि, हम जिस दौर में हैं, वह सहजता से, शांति से और सौम्यता से प्रेम की अभिव्यक्ति का दौर नहीं है। लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि डिस्कोथेक पर धूम-धड़ाका करते हुए हम न तो वसंत की धड़कन सुन सकते हैं और न उसकी सादगी का अहसास ही कर सकते हैं। हम वेलेंटाइन-डे जरूर मनाएं, लेकिन यह भी न भूलें कि हमारा वसंत मदोन्मत्त नहीं, मदनोत्सुक है। वसंत सिर्फ कामना की ही ऋतु नहीं, बुद्धि, ज्ञान एवं विवेक की भी ऋतु है और यह चीजें बाजार में नहीं मिला करती। हमें प्रेम की और पूजा की पवित्रता को तो कायम रखना ही होगा, क्योंकि वसंत बिगड़ैल प्यार का पोषक नहीं है। लेकिन, यह अहसास हमें तभी हो पाएगा, जब प्रेम के असली मायने समझने लगेंगे।

जीवन में उल्लास का वसंत लाने वाले संत वेलेंटाइन

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जरा सोचिए जिस विवाह नामक संस्था की रक्षा के लिए संत वेलेंटाइन ने अपने प्राण गंवाए, आज की खिलंदड़ पीढ़ी क्या उसमें विश्वास रखती है। रोम में तीसरी सदी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था, जिसकी मान्यता थी कि विवाह करने से पुरुषों की शक्ति एवं बुद्धि कम होती है। लिहाजा, उसने फरमान निकाला कि उसका कोई भी सैनिक या अफसर विवाह नहीं करेगा। संत वेलेंटाइन ने इस अमानवीय आदेश का विरोध किया और उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों एवं अधिकारियों ने ब्याह रचाए। नतीजा, क्लॉडियस ने 14 फरवरी वर्ष 269 को वेलेंटाइन को फांसी पर चढ़वा दिया। तब से उनकी स्मृति में 'प्रेम दिवसÓ मनाया जाता है। देखा जाए तो संत वेलेंटाइन का यह बलिदान जीवन में उल्लास का वसंत लाने के लिए ही तो था। 


अंतर्मन में महसूस करें वसंत की कच्ची-करारी सुगंध

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एक सुहानी-सजीली ऋतु हमारे जीवन में दस्तक देती है और हमें उसकी कच्ची-करारी सुगंध को अपने भीतर उतारने की भी फुर्सत नहीं। क्या  प्रकृति की रूमानी छटा देखकर हमारे मन की कोमल मिट्टी अब सौंधी होकर नहीं महकती। क्या अनुभूतियों की बयार नटखट पछुआ की तरह अब हृदय में नहीं बहती। देखा जाए तो मन के इसी मुरझाए-कलुषाए मौसम को खिला-खिला रूप देने के लिए ही तो  खिलखिलाता-खनकता वसंत आता है। सो, क्यों ने झरते केसरिया टेसू को अंजुरियों में भरकर इस वसंत का स्वागत करें। फिर देखिए खुलकर सरसरा उठेगी उमंगों की पछुआ पवन और फिर मुस्करा उठेगा वसंत।

दुनिया के हर कोने में ऐसे ही आता होगा वसंत

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लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक प्रसिद्ध गीत है, 'मेरी डांडी-कांठियूं का मुलुक जैल्यु, बसंत ऋतु मा जैई, हैरा बणु मा बुरांशी का फूल, जब बणांग लगाणा होला, भीटा-पाखों थैं फ्यूंली का फूल, पिंगल़ा रंग मा रंगाणा होला, लय्या-पय्यां ग्वीराल फुलू ना, होली धरती सजीं देखि ऐई..., बसंत ऋतु मा जैई।Ó इसका भावार्थ है, 'मेरे पहाड़ों में जब भी जाना चाहो, बसंत ऋतु में ही जाना। जब हरे-भरे जंगलों में सुर्ख बुरांश के फूल जंगल की आग की तरह नजर आ रहे हों, घाटियों को फ्योंली के फूल बासंती रंग में रंग रहे हों और धरती सरसों, पय्यां और कचनार के फूलों से रंगी अपनी सुंदरता का बखान कर रही हो।Ó देखा जाए तो वसंत की ये छटा एक पहाड़ और एक भूगोल की नहीं है। संभवत: दुनिया के हर कोने में अपनी-अपनी भाषा-बोली और अपने-अपने फूलों व पेड़ों में वसंत ऐसे ही आता होगा। इसलिए मितरों, वसंत को क्यों न उसके इस कोमल और मीठे दर्द से भरे आह्वान के साथ ही रहने दिया जाए। यही तो उसके रंग हैं।

जो वसंत का सार, वही वेलेंटाइन का ध्येय भी

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वसंतोत्सव कहें या वेलेंटाइन, दोनों का संदेश यही है कि धरती सूर्य से मिलने और उससे एकाकार होने को आतुर है। इसलिए प्रकृति के कण-कण से संगीत फूट रहा है। ऋतु स्वयं छंद हो गई है और उसका प्रभाव इतना मादक है कि सारी प्रकृति खिल गई है। कविवर पद्माकर कहते हैं, 'कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में, क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है। कहे पद्माकर परागन में पौनहू में, पानन में पीक में पलासन पगंत है। द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में, देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है। बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में, बनन में बागन में बगरयो बसंत है।Ó वसंत का आगमन जहां सिर्फ ऋतु का परिवर्तन नहीं है, वहीं वेलेंटाइन भी एक विशेष दिवस के रूप में सचमुच विशेष है। इसलिए स्वागत करें इस प्यारी ऋतु का। पूरी ऊष्मा और पूरी ऊर्जा से प्रकृति के साथ यह पर्व मनाएं। प्रेम की निर्मल-पावन अनुभूतियों को जीवन का आधार बनाएं। हंसे, मुस्कराएं, खिलखिलाएं, जीवन को जीवंत बनाएं। यही वसंत का सार है और प्रकारांतर से वेलेंटाइन का ध्येय भी यही है।

Monday, 31 January 2022

फिजाओं में वासंती बयार

फिजाओं में वासंती बयार
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दिनेश कुकरेती
वातावरण में गर्माहट घुलने के साथ दून घाटी में भी मौसम सुहावना हो गया है। पेड़ों एवं लताओं के पोर-पोर पर हरियाली फूटने लगी है और बौरों से लद गई हैं आम की डालियां। खेतों में फूली सरसों और कंदराओं में महकती फ्योंली सम्मोहन सा बिखेर रही है। कोयल की कूक मन को उद्वेलित कर वातावरण में मादकता घोल रही है। चारों दिशाओं में नया रंग, नई उमंग, उल्लास एवं उत्साह का माहौल है। बागों में बहती मंद-मंद सुगंधित बयार प्रकृति से अठखेलियां करती प्रतीत होती है। कहने का मतलब ऋतुचक्र के परिवर्तन का इससे रंगीन पड़ाव अन्य कोई हो ही नहीं सकता। शायद इसीलिए भारतीय चिंतन परंपरा में वसंत को ऋतुओं का राजा माना गया है और जैसे राजा के आगमन पर उत्सव मनाया जाता है, ठीक वैसे ही ऋतुराज के स्वागत की रीत भी है।
वसंत उत्तर भारत के अलावा समीपवर्ती देशों की छह ऋतुओं में से एक ऋतु है, जो फरवरी से शुरू होकर अप्रैल मध्य तक इस क्षेत्र में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ शुक्ल पंचमी से वसंत ऋतु का आगमन होता है। फाल्गुन और चैत्र वसंत ऋतु के महीने माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम महीना है और चैत्र पहला। इसीलिए भारतीय नववर्ष का शुभारंभ वसंत से ही होता है। वैसे देखा जाए तो भारतीय ऋतु चक्र में चैत्र व वैशाख वसंत के मास हैं, किंतु सृष्टि में वसंत अपनी निर्धारित तिथि से 40 दिन पूर्व माघ में आता है। आए भी क्यों न, ऋतुराज जो ठैरा।
'मत्स्य सूक्तÓ में उल्लेख है कि अन्य पांच ऋतुओं हेमंत, शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ने अपने राजा के सम्मान में उसके अभिषेक एवं अभिनंदन के लिए स्वयं के कालखंड से आठ-आठ दिन समर्पित कर दिए। इसीलिए धरती पर वसंत ऋतु का पदार्पण चैत्र कृष्ण प्रथमा के स्थान पर 40 दिन पूर्व माघ शुक्ल पंचमी को हो जाता है। वसंत को प्रकृति का उत्सव भी कहा गया है। तभी तो 'ऋतुसंहारÓ में महाकवि कालिदास ने इसे 'सर्वप्रिये चारुतर वसंतेÓ कहकर अलंकृत किया है। जबकि, गीता में भगवान श्रीकृष्ण 'ऋतूनां कुसुमाकर:Ó अर्थात् 'मैं ऋतुओं में वसंत हूंÓ कहकर वसंत को अपना स्वरूप बताते हैं। पौराणिक कथाओं में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है।
कवि देव वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं, 'रूप एवं सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है। पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, फूल वस्त्र पहनाते हैं, पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।Ó 'कालिका पुराणÓ में वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए इसे सुदर्शन, अति आकर्षक, संतुलित शरीर वाला, तीखे नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम्र मंजरियों को हाथ में पकड़े रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला जैसे तमाम गुणों से भरपूर बताया गया है।

शीत व उष्णता का संधिकाल वसंत ऋतु
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ऋतुराज वसंत शीत व उष्णता का संधिकाल है। इसमें शीत ऋतु का संचित कफ सूर्य की संतप्त किरणों से पिघलने लगता है। इससे जठराग्नि मंद हो जाती है और सर्दी-खांसी, उल्टी-दस्त जैसे अनेक रोग उत्पन्न होने लगते हैं। लिहाजा, इस समय आहार-विहार की विशेष सावधानी रखना जरूरी है। आहार: 'अष्टांगहृदयÓ में उल्लेख है कि इस ऋतु में देर से पचने वाले शीतल पदार्थ, दिन में सोना, स्निग्ध यानी घी-तेल में बने और अम्ल व मधुर रस प्रधान पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। ये सभी कफवर्धक हैं। इसके अलावा मिठाई, सूखे मेवे, खट्ठे-मीठे फल, दही, आइसक्रीम और गरिष्ठ भोजन का सेवन भी इस ऋतुत में वर्जित है।
इन दिनों में शीघ्र पचने वाले, अल्प तेल व घी में बने, तीखे कड़वे, कसैले, उष्ण पदार्थों जैसे लाई, मुरमुरे, जौ, भुने हुए चने, पुराना गेहूं, चना, मूंग, अदरक, सौंठ, अजवायन, हल्दी, पीपलामूल, काली मिर्च, हींग, सूरन, सहजन की फली, करेला, मेथी, ताजी मूली, तिल का तेल, शहद, गोमूत्र का सेवन लाभदायी माना गया है। इनसे कफ नहीं बढ़ता। विहार: 'योग सूत्रÓ में कहा गया है कि ऋतु परिवर्तन से शरीर में उत्पन्न भारीपन और आलस्य को दूर करने के लिए सूर्योदय से पूर्व उठना, व्यायाम, दौड़, तेज चलना, आसन और प्राणायाम (विशेषकर सूर्यभेदी) लाभदायी हैं। तिल के तेल से मालिश कर सप्तधान्य उबटन से स्नान करने को स्वास्थ्य की कुंजी माना गया है।

ऊर्जा, आशा एवं विश्वास की ऋतु
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मौसम का बदलाव हमें जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह का संदेश देता है। जब भी प्रकृति अपना स्वरूप बदलती है तो यह संकेत भी करती है कि समय के साथ-साथ बदलाव जरूरी है। पतझड़ के बाद वसंत ऋतु का आगमन भी इसी का प्रतीक है। इस ऋतु में जीवन प्रबंधन के कई सूत्र छिपे हैं। बस! जरूरत है उन्हें समझने की। पतझड़ में पेड़ों से पुराने पत्तों का गिरना और इसके बाद नए पत्तों का आना जीवन में सकारात्मक भाव, ऊर्जा, आशा एवं विश्वास जगाता है। वसंत ऋतु फूलों के खिलने का मौसम है, जो हमें हमेशा मुस्कराने का संदेश देता है।
वसंत को शृंगार की ऋतु भी माना गया है, जो व्यक्ति को व्यवस्थित और सजे-धजे रहने की सीख देती है। वसंत का रंग वासंती (केसरिया) होता है, जो त्याग और विजय का रंग है। यह बताता है कि हम अपने विकारों का त्याग कर कमजोरियों पर विजय प्राप्त करें। वसंत में सूर्य उत्तरायण होता है, जो संदेश है कि सूर्य की भांति हम भी प्रखर और गंभीर बनें। वसंत को ऋतुओं का राजा भी कहा गया है, क्योंकि इस ऋतु में उर्वरा शक्ति यानी उत्पादन क्षमता अन्य ऋतुओं की अपेक्षा बढ़ जाती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को ऋतुओं में वसंत कहा। जैसे वे समस्त देवताओं और परमशक्तियों में सबसे ऊपर हैं, वैसे ही वसंत ऋतु भी सभी मौसमों में सबसे श्रेष्ठ है।

मन प्रफुल्लित कर देता है राग वसंत
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भारतीय संगीत, साहित्य और कला में भी वसंत ऋतु को महत्वपूर्ण स्थान मिलाहै। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है, जिसे राग वसंत (बसंत) कहते हैं। यह शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी पद्धति का राग है। इसके गायन का समय वैसे तो रात्रि काअंतिम प्रहर है, किंतु इसे दिन या रात में किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है। इसके आरोह में पांच और अवरोह में सात स्वर होते हैं। इसलिए यह औडव-संपूर्ण जाति का राग है। रागमाला में इसे राग हिंडोल का पुत्र माना गया है। यह पूर्वी थाट का राग है। शास्त्रों में इससे मिलते जुलते एक अन्य राग वसंत हिंडोल का उल्लेख भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि राग वसंत के गाने व सुनने से मन प्रफुल्लित हो जाता है।

यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार करता है वसंत
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वसंत ऋतु हर साल आती है और पीछे छोड़ जाती है यह संदेश कि जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए। निराशा, नीरसता व निष्क्रियता को त्यागकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ताकि जीवन में यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार हो। शायद तभी प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल कहते हैं कि 'अब छाया में गुंजन होगा वन में फूल खिलेंगे, दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे, जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे, अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगेÓ।

वसंत के यौवन का प्रतिबिंब है बुरांश
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उत्तराखंड के हरे-भरे जंगलों में बुरांश के सुर्ख फूलों का खिलना पहाड़ में वसंत ऋतु के यौवन का सूचक है। वसंत आते ही पहाड़ के जंगल बुरांश के फूलों से लकदक हो जाते हैं। बुरांश को वसंत में खिलने वाला पहला फूल माना गया है। इसके खिलते ही जंगलों में बहार आ जाती है। ऐसा आभास होने लगता है, मानो प्रकृति ने लाल चादर ओढ़ ली हो। उत्तराखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बुरांश की महत्ता महज एक पेड़ और फूल की नहीं, बल्कि वह तो यहां के लोक जीवन में रचा-बसा है।
हिमालय के अनुपम नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन, पे्रयसी की उपमा, प्रेमाभिव्यक्ति, मिलन अथवा विरह, सभी प्रकार के लोकगीतों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बुरांश ही है। कहीं यह फूल पुत्र के रूप में दर्शाया गया है तो कहीं पर इसकी तुलना ससुराल गई बेटी से की गई है। यह फूल लोकगीतों में प्रेमी और प्रेमिका का संदेशवाहक भी बना है। इसमें किसी ने अपनी लाडली का प्रतिबिंब देखा तो किसी ने इसे अपनी प्रियतमा के रूप में स्वीकार किया।
बुरांश का खिलना प्रसन्नता का द्योतक है तो प्रेम एवं उल्लास की अभिव्यक्ति भी। क्योंकि, बुरांश ने लाल होकर भी क्रांति के गीत नहीं गाए, बल्कि हिमालय की तरह प्रशंसाओं से दूर एक आदर्शवादी बना रहा। बुरांश ने लोक रचनाकारों को कलात्मक उन्मुक्तता, प्रयोगशीलता और सौंदर्यबोध दिया। होली से लेकर प्रेम, सौंदर्य और विरह सभी प्रकार के लोकगीतों के भावों को व्यक्त करने का जरिया बुरांश बना।
प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रा नंदन पंत ने अपनी कुमाऊंनी कविता में बुरांश के सौंदर्य को कुछ इस तरह प्रतिबिंबित किया, 'सार जंगल में त्वीज क्वै न्हा रे, क्वै न्हा। फुलन छै कैबुरूंश जंगल जस जलि जां। सल्ल छ, द्यार छ, पईं छ, अंयार छ। सबनाक फागन में पुग्नक भार छ। पै त्वि में ज्वानिक फाग छ। रंगन में तेर ल्वे छ, प्यारक खुमार छ।Ó अर्थात सारे वन क्षेत्र में तेरा जैसा कोई नहीं है, कोई नहीं। जब तू फूलता है, संपूर्ण वन क्षेत्र के जलने का सा भ्रम होता है। जंगल में साल है, देवदार है, पईंया है और अंयार समेत विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं। सबकी शाखाओं में कलियों का भार है, पर तुझमें जवानी का फाग है। तेरे रंगों में लहू है, प्यार का खुमार है।

Friday, 7 January 2022

ओंकारेश्वर में विराजते हैं पांचों केदार

ओंकारेश्वर में विराजते हैं पांचों केदार
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दिनेश कुकरेती
प जानते हैं कि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर अति प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर है। जिला मुख्यालय रुद्रप्रयाग से 41 किमी दूर समुद्रतल से 1311 मीटर की ऊंचाई पर ऊखीमठ में स्थित यह मंदिर न केवल प्रथम केदार भगवान केदारनाथ, बल्कि द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर का शीतकालीन गद्दीस्थल भी है। पंचकेदारों की दिव्य मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित होने के कारण इसे पंचगद्दी स्थल भी कहा गया है। मान्यता है कि इस मंदिर में ओंकारेश्वर महादेव के दर्शनों से पंचकेदार यात्रा का पुण्य प्राप्त हो जाता है। कथा है कि वानप्रस्थ की अवस्था प्राप्त होने पर राजा मान्धाता ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें प्रणव स्वरूप अर्थात ओंकार रूप में दर्शन दिए। इसीलिए यहां अधीष्ठित भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को ओंकारेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा। 
ओंकारेश्वर अकेला मंदिर न होकर मंदिरों का समूह है। इस समूह में वाराही देवी मंदिर, पंचकेदार लिंग दर्शन मंदिर, पंचकेदार गद्दीस्थल, भैरवनाथ मंदिर, चंडिका मंदिर, हिमवंत केदार वैराग्य पीठ, विवाह वेदिका व अन्य मंदिरों समेत समेत संपूर्ण कोठा भवन शामिल हैं। उत्तराखंड के मंदिरों में क्षेत्रफल और विशालता के लिहाज से यह सर्वाधिक विशाल मंदिर समूह है। पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार प्राचीनकाल में ओंकारेश्वर मंदिर के अलावा सिर्फ काशी विश्वनाथ (वाराणसी) और सोमनाथ मंदिर में ही धारत्तुर परकोटा शैली उपस्थित थी। हालांकि, बाद में आक्रमणकारियों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। उत्तराखंड में भी अधिकांश प्रसिद्ध मंदिर या तो कत्यूरी शैली में निर्मित हैं या फिर नागर शैली में।

इसलिए है विशेष महत्व
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शीतकाल में केदारनाथ के कपाट बंद होने पर बाबा की भोग मूर्ति को डोली, छत्र, त्रिशूल आदि प्रतीकों के साथ ऊखीमठ लाकर ओंकारेश्वर मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित किया जाता है। इसी तरह द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर की चल विग्रह उत्सव मूर्ति भी शीतकाल में यहीं विराजती है। इसके अलावा ओंकारेश्वर मंदिर पंचकेदारों का गद्दी स्थल भी है।
ऐसे पड़ा ऊखीमठ नाम
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पौराणिक कथा के अनुसार इस स्थान पर बाणासुर की पुत्री उषा एवं भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का विवाह संपन्न हुआ था। इसलिए इस तीर्थ को देवी उषा के नाम पर उषामठ कहा जाने लगा। कालांतर में उषामठ का अपभ्रंश होकर पहले इसका उखामठ और फिर ऊखीमठ नाम पड़ा। देवी उषा के आगमन से पूर्व इस स्थान का नाम 'आसमाÓ था। राजा मान्धाता की तपस्थली होने के कारण इसे मान्धाता भी कहा जाता है। इसलिए केदारनाथ की बहियों का प्रारंभ 'जय मान्धाताÓ से ही होता है। 

बदरीनाथ के बाद सबसे खूबसूरत सिंहद्वार
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ओंकारेश्वर मंदिर चारों ओर से प्राचीन भव्य भवनों से घिरा हुआ है, जिनकी छत पठाल निर्मित है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए बाहरी भवन पर एक विशाल सिंहद्वार बना हुआ है, जो मंदिर में प्रवेश का एकमात्र मार्ग है। बेहतरीन नक्काशी वाला यह द्वार खूबसूरती में बदरीनाथ धाम के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद उत्तराखंड में दूसरा स्थान रखता है।

सबसे प्राचीन एवं मजबूत मंदिर
----------ब्रिटेन के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् सर ऑर्थर जॉन इवान्स ने जुलाई 1892 को इस मंदिर का सर्वेक्षण किया था। इस दौरान जो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए, उनका उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'लैंड्स ऑफ गॉड्स एंड ऑर्किटेक्चर स्टाइल ऑफ हिंदू टैंपलÓ के अध्याय-523 में विस्तार से वर्णन किया है। शोध के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह मंदिर विश्व के सबसे प्राचीन एवं मजबूत मंदिरों में से एक है।

आक्रांताओं ने पहुंचाया नुकसान
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इतिहासकारों के अनुसार 1027 ईस्वी में मुस्लिम शासक महमूद ने ओंकारेश्वर मंदिर के सभामंडप की छत को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन, वह सभामंडप की दीवारों और गर्भगृह को ध्वस्त नहीं कर सका। इसके बाद क्षेत्रीय लोगों ने सभामंडप की छत पठालों से निर्मित की। वर्तमान में यह छत सीमेंट-कंक्रीट की बनी हुई है।

विलुप्त हुई धारत्तुर परकोटा शैली
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धारत्तुर परकोटा शैली आज से 4702 वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में रही है। इसके बाद यह धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। ओंकारेश्वर मंदिर का निर्माण इस शैली में होने के कारण इसके गर्भगृह के बाहर से 16 और भीतर से आठ कोने हैं। जिन्हें विभिन्न अट्टालिकाओं से आवेष्टित स्तंभ एक दूसरे से पृथक करते हैं। मंदिर पर जो भव्य प्रभाएं निर्मित हैं, उन्हें इस शैली के अनुसार अंगूर के पत्रों के सदृश मंदिर की मध्यांतक प्रभा पर उकेरा गया है। इस प्रभा के नीचे गवाक्ष रंध्रों से ऊपर की ओर जाती स्मलिक पट्टिकाएं उभरी हुई हैं, जिनके मध्य में अति भव्य मृणाल पिंड विराजमान है। मंदिर की सभी स्मलिक पट्टिकाओं पर शांडिल्य श्रुतक उकेरे गए हैं, जिनसे होकर पट्टियां गर्भगृह के शिखर तक जाती हैं और एक विशाल चबूतरे के साथ मिलकर खत्म हो जाती हैं। गर्भ के मध्यांतक दीर्घप्रभा के नीचे की ओर प्रत्येक खंड पर कृतांतक पटल के साथ भूमि तक जाती भौमिक रेखाएं हैं। जबकि, गर्भगृह के शिखर पर चारों दिशाओं से छेनमल्लमत्रिकाएं उकेरी गई हैं।

धारत्तुर परकोटा शैली की विशेषता
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इसमें पाषाणों को भीतर से घुमाकर स्टोन वेल्डिंग करकेलगाया जाता था। प्रत्येक शिला के गुरुत्व केंद्र में स्थित एक शिला को सीधा रखा जाता था। इससे संपूर्ण मंदिर का गुरुत्व केंद्र एक ही स्थान पर रहता है। भीतर से घुमाकर लगाए गए पट्टीनुमा पाषाण मंदिर को लचीला बनाते हैं। इससे कंपन्न के अनुरूप ही मंदिर भी कंपन्न करता है। इसके गुरुत्व केंद्र पर लगाए पाषाण बाहरी ढांचे को आपस में जोड़े रखते हैं।

वक्त के थपेड़े सहकर भी अडिग
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इस मंदिर पर जो पाषाण लगे हैं, उन पर ग्रेनाइट की मात्रा अधिक है। इसी कारण यह मंदिर प्रकृति के अनेकों थपेड़े सहकर भी अपने स्थान पर अडिग बना हुआ है। जबकि कत्यूरी शैली के अधिकांश मंदिरों के पाषाणों पर स्फटिक सिल्ट की मात्रा अधिक थी, जिससे विकृत होने के कारण समय-समय पर इनका जीर्णोद्धार करवाया गया। प्रामाणिक तथ्यों के अनुसार आज तक इस मुख्य मंदिर के जीर्णोद्धार की जरूरत महसूस नहीं हुई।

28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत
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वैदिक वास्तुकला से सुसज्जित इस मंदिर का निर्माण ग्रेनाइट पत्थरों से किया गया है। इन पत्थरों को पांच वर्षों तक मूंगा की चट्टानों कैल्शियम कॉर्बोनेट के चूर्ण और यव (जौ) से बने घोल में भिगोकर रखा गया था। मंदिर की दीवारें इतनी विशिष्टता के साथ निर्मित हैं कि यह अन्य मंदिरों की 28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत हैं।

कहीं नहीं हैं ब्रह्मा-विष्णु द्वारपाल
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यह एकमात्र प्राचीन मंदिर है, जिसके द्वारपाल के रूप में ब्रह्मदेव व श्रीहरि विराजमान हैं। अन्य किसी भी मंदिर में ब्रह्मदेव व श्रीहरि की प्रतिमाएं द्वारपाल के रूप में स्थापित नहीं है।

Saturday, 1 January 2022

#संकल्प एवं सपनों का नया साल



संकल्प एवं सपनों का नया साल

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नए वर्ष का समय बहुत अनुकूल होता है, किसी नए संकल्प के लिए, दृढ़ निश्चय से किसी नई शुरुआत के लिए। वैसे तो जीवन को सुधारने की शुरुआत कभी भी की जा सकती है, मगर मनोवैज्ञानिक रूप से नए साल के आरंभ से थोड़ा पहले या बाद में इस तरह की सोच के लिए अधिकांश तैयार रहते हैं। पिछले वर्ष भी गलतियां हुईं, उनके परिणाम भुगत लिए, चलो अब नए वर्ष के लिए तय करें कि इन गलतियों को नहीं दोहराएंगे और जीवन को बेहतर बनाएंगे। इस तरह की सोच केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन की कुछ कमजोरियों को दूर करने पर आधारित हो सकती है। लेकिन, इसे व्यापकता देने के लिए अपने, अपने परिवार के, आसपास के जीवन को अधिक उद्देश्यपूर्ण बनाने से भी जोड़ा जा सकता है। बहुत से लोग यह सोचते हैं कि हम किन्हीं एक-दो लक्ष्यों को नए साल के लिए अपना लें, तो यही बहुत है। बहुत लंबी-चौड़ी बातें सोचने में कुछ नहीं रखा है। लेकिन, यदि हम अपने जीवन को समाज के व्यापक सरोकारों और सार्थक उद्देश्यों से जोड़ें तो हो सकता है, वहीं से हमें वह शक्ति मिल जाए, जो हमें अपनी कुछ व्यक्तिगत कमजोरियों और समस्याओं में ऊपर उठने का सामथ्र्य दे सके। यह तो स्पष्ट है कि पृथ्वी पर जो लाखों जीव रूप मौजूद हैं, उनमें मनुष्य की बहुत विशिष्ट स्थिति है। मनुष्य में ही वह क्षमता है कि वह पर्यावरण की, पेड़-पौधों की, जीवन के लाखों रूपों की रक्षा के लिए नियोजित ढंग से कदम उठा सके, असरदार कार्रवाई कर सके। यही मनुष्य की मुख्य पहचान और सबसे सार्थक उद्देश्य है, जिसके साथ हमें अपने जीवन को जोडऩा है। बहुत छोटे-छोटे स्तर पर हो रहे लाखों-करोड़ों सार्थक प्रयास ही आज दुनिया की सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यह करोड़ों की संख्या में जलने वाले छोटे-छोटे दीप ही अंधकारमय हो रही दुनिया को रोशन करेंगे।












ऐसे हुई एक जनवरी से नए साल की शुरुआत

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दिनेश कुकरेती

वैसे तो भारत में हिंदू कैलेंडर के मुताबिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा के दिन से नए साल की शुरुआत होती है, लेकिन पूरे विश्व में सर्वग्राह्य रूप से नया साल एक जनवरी से मनाने का चलन है। यह परंपरा कैसे अस्तित्व में आई, इसका भी रोचक इतिहास है। ऐसी मान्यता है कि जनवरी महीने का नाम रोमन देवता 'जानूसÓ के नाम पर रखा गया था। कहते हैं कि जानूस दो मुख वाले देवता थे, जिसमें एक मुख आगे और दूसरा पीछे की ओर था। दो मुख होने की वजह से जानूस को अतीत और भविष्य की सारी जानकारियां रहती थीं। इसलिए उनके नाम पर जनवरी को साल का पहला महीना और एक जनवरी को साल की शुरुआत मानी गई। कहते हैं कि नया साल आज से लगभग 4000 साल पहले बेबीलोन में मनाया गया था। असल में एक जनवरी को मनाया जाने वाला नया वर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर पर आधारित है। इसकी शुरुआत रोमन कैलेंडर से हुई। हालांकि पारंपरिक रोमन कैलेंडर का नया साल एक मार्च से शुरू होता है। रोम के प्रसिद्ध सम्राट जूलियस सीजर ने 47 वर्ष ईसा पूर्व इस कैलेंडर में परिवर्तन किया था। उन्होंने इसमें जुलाई का महीना और इसके बाद अपने भतीजे के नाम पर अगस्त का महीना जोड़ दिया। तब से नया साल एक जनवरी को ही मनाया जाता है। 













एक जनवरी से लंबे होने लगते हैं दिन

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नया साल एक जनवरी से मनाए जाने के पीछे कई खगोलीय कारण भी हैं। एक जनवरी को पृथ्वी सूर्य के बेहद करीब होती है, इसलिए भी इसे साल की शुरुआत कहा जाता है। एक जनवरी को नया साल मनाने का तार्किक कारण यह भी है कि 31 दिसंबर को साल का सबसे छोटा दिन होता है और इसकेबाद दिन लंबे होने लगते हैं। इसलिए एक जनवरी को ही नए साल की शुरुआत मानी जाती है। 
















23 मार्च 2000 बीसी को हुआ था पहला न्यू ईयर सेलिब्रेशन 

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दुनिया में सबसे पहले न्यू ईयर सेलिब्रेशन की बात करें तो वह 23 मार्च 2000 बीसी को किया गया था। हालांकि, इजिप्ट और पर्सिया जैसे देशों में 20 सितंबर को नया साल मनाया जाता है। जबकि, ग्रीक में 20 दिसंबर को नए साल के जश्न मनाने का रिवाज है।














हर जगह अपने-अपने नववर्ष

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भारत में नया साल विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। ये तिथियां अमूमन मार्च और अप्रैल में पड़ती हैं। पंजाब में नया साल बैशाखी के रूप में 13 अप्रैल को मनाया जाता है। जबकि, सिख धर्म के अनुयायी इसे नानकशाही कैलेंडर के अनुसार मार्च में होली के दूसरे दिन मनाते हैं। जैन धर्मावलंबी नववर्ष को दीवाली के अगले दिन मनाते हैं। यह तीर्थांकर महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन से शुरू होता है। ङ्क्षहदू नववर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। ङ्क्षहदू मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मास मोहर्रम की पहली तारीख को नया साल हिजरी शुरू होता है।














इनकी पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मान्यता

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ईसाइयों का एक अन्य पंथ ईस्टर्न आर्थोडॉक्स चर्च और इसके अनुयायी ग्रेगोरियन कैलेंडर को मान्यता न देकर पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मानते हैं। इस कैलेंडर के अनुसार जॉर्जिया, रूस, यरूशलम, सर्बिया आदि में नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। 

Thursday, 23 December 2021

सबका अपना-अपना क्रिसमस

सबका अपना-अपना क्रिसमस

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क्रिसमस ऐसा त्योहार है, जिसकी शुरुआत तो रोम से हुई, लेकिन कालांतर में क्रिश्चियनिटी के प्रसार के साथ यह पूरी दुनिया में फैल गया। खास बात यह रही कि क्रिसमस जहां भी गया, वहीं के रंग में रंग गया। क्रिसमस ने न केवल संबंधित क्षेत्र की लोक परंपराओं को आत्मसात किया, बल्कि कैरल के गीतों में भी लोक का वास हो गया। आइए! हम भी जानते हैं कि क्रिसमस के इसी बहुरंगी को...

दिनेश कुकरेती

क्रिसमस मनाने की परंपरा ईसा के जन्म से बहुत पुरानी है। क्रिसमस एक रोमन त्योहार सैटर्नेलिया का अनुकरण है, जो मध्य दिसंबर से जनवरी तक मनाया जाता था। सैटर्नस रोमन देवता हैं। इस दौरान लोग तरह-तरह के पकवान बनाते थे और मित्र-परिचितों के साथ उपहारों का आदान-प्रदान करते थे। फूलों व हरे वृक्षों से घर सजाए जाते और स्वामी एवं सेवक अपना स्थान बदलते थे। कालांतर में यह त्योहार बरुमेलिया (सर्दियों के बड़े दिन) के रूप में मनाया जाने लगा। तब सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था और मान्यता थी कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ। बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मान इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे। हालांकि, तब ईसाइयों में इस प्रकार के किसी पर्व का सार्वजनिक आयोजन नहीं होता था। कहते हैं कि ईस्वी वर्ष की चौथी सदी में सूर्य उपासना का पर्व क्रिसमस में विलय हुआ। वैसे यह त्योहार ईसा मसीह के जन्मोत्सव के रूप में वर्ष 98 से मनाया जा रहा है। वर्ष 137 में रोम के बिशप ने इसे मनाने की विधिवत घोषणा की और वर्ष 350 में रोम के ही एक अन्य बिशप यूलियस ने इसके लिए 25 दिसंबर का दिन नियत किया। हालांकि, इसके पीछे भी रोचक कहानी है। दरअसल 16 दिसंबर के बाद दिन बड़े होने लगते हैं और 25 दिसंबर को रात-दिन बराबर। इसीलिए प्राचीन रोम में 25 दिसंबर को 'सूरज की विजयÓ के दिन के रूप में मनाया जाता था। धीरे-धीरे पूरा रोम क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में आ गया और इस पर्व को 'स्टेट रिलीजनÓ घोषित कर 'क्राइस्ट द सनÓ का रूप प्रदान कर दिया गया। तभी से क्रिसमस को प्रभु यीशु के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

विश्वास से उल्लास तक 

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25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म हुआ, इस संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसे तथ्य भी मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि ईसा का जन्म सर्दियों में नहीं हुआ था। दरअसल उस जमाने में मैसोपोटामिया के लोग अनेक देवताओं पर विश्वास करते थे, लेकिन उनका प्रधान देवता मार्डुक था। मान्यता थी कि सर्दियों के आगमन पर मार्डुक अव्यवस्था के दानवों से युद्ध करता है। इसी के निमित्त नववर्ष का त्योहार मनाया जाता था। मैसोपोटामिया का राजा मार्डुक के मंदिर में देव प्रतिमा के सामने वफादारी की सौगंध खाता था। परंपराएं राजा को वर्ष के अंत में युद्ध का आमंत्रण देती थीं, ताकि वह मार्डुक की तरफ से युद्ध करता हुआ वापस लौट सके। अपने राजा को जीवित रखने के लिए मैसोपोटामिया के लोग किसी अपराधी का चयन कर उसे राजसी वस्त्र पहनाते और उसे राजा का सम्मान एवं सभी अधिकार दिए जाते। आखिर में वास्तविक राजा को बचाने के लिए उसकी हत्या कर दी जाती। क्रिसमस में भी मुख्य ध्वनि परमात्मा को प्रसन्न करने की ही है।

क्रिसमस का एक रूप 'सैसियाÓ

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पर्शिया और बेबिलोनिया में ऐसा ही एक त्योहार 'सैसियाÓ नाम से मनाया जाता था। शेष सभी रस्मों के साथ इसमें दासों को स्वामी और स्वामियों को दास बनाने की रस्म भी निभाई जाती थी। प्राचीन यूरोपियन दुष्ट आत्माओं में विश्वास रखते थे। जैसे ही सर्दी के छोटे दिनों की लंबी-ठंडी रातें आतीं, उनके मन में भय समा जाता कि सूर्य देवता वापस नहीं लौटेंगें। सूर्य को वापस लाने के लिए इन्हीं दिनों विशेष रीति-रिवाजों का पालन होता और समारोह का आयोजन होता।

प्रकृति का पर्व

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स्कैंडिनेविया में सर्दियों के दौरान महीनों तक सूर्य के दर्शन नहीं होते थे। इसलिए सूर्य की वापसी के लिए 35 दिन के बाद पहाड़ की चोटी पर लोग स्काउट भेज देते। प्रथम रश्मि के आगमन की शुभ सूचना के साथ ही स्काउट वापस लौटते। इसी अवसर पर यूलटाइड नामक त्योहार मनाया जाता। प्रज्ज्वलित अग्नि के आसपास खान-पान का आयोजन चलता। अनेक स्थलों पर लोग वृक्षों की शाखाओं पर सेब लटका देते। इसका अर्थ है कि वसंत और ग्रीष्म अवश्य आएंगे। पहले यूनान में भी इससे मिलता-जुलता त्योहार मनाया जाता था। इसमें लोग देवता क्रोनोस की सहायता करते, ताकि वह ज्यूस और उसकी सहयोगी दुष्टात्माओं से लड़ सके।

66 पुस्तकों का संग्रह है बाइबल

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बाइबल यहूदियों और ईसाइयों का साझा धर्मग्रंथ है, जिसके ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट दो भाग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म से पूर्व के हालात का ब्यौरा है। इसमें 39 पुस्तकें हैं। न्यू टेस्टामेंट में ईसा का जीवन, शिक्षाएं एवं विचार हैं। इसमें 27 पुस्तकें हैं। कहने का मतलब बाइबल एक पुस्तक न होकर 66 पुस्तकों का संग्रह है, जिसे 1600 वर्षों में 40 लेखकों ने लिखा। 


जहां गया, वहीं का हो गया क्रिसमस

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रोम से शुरू हुई इस परंपरा ने आज पूरी दुनिया के उत्सव का स्वरूप ले लिया है। लेकिन, हर जगह इसका स्वरूप स्थानीयता का पुट लिए हुए है। यही वजह है कि हर जगह क्रिसमस के दौरान होने वाले करोल (कैरल) के आयोजन में लोकधुनों की गूंज सुनाई पड़ती है। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं अंचल में कैरल के अधिकांश गीत गढ़वाली-कुमाऊंनी में ही गाए जाते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इस आयोजन में सभी धर्म-जाति के लोग बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं। 

देहरादून के ऐतिहासिक चर्च

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सेंट थॉमस चर्च

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178 साल पुराने देहरादून के सेंट थॉमस चर्च के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। व्यस्ततम राजपुर रोड पर दिलाराम बाजार में स्थित यह चर्च लंबे अर्से तक बंद पड़ा रहा। वर्ष 2012 में इसे दोबारा खोला गया। सेंट थॉमस चर्च की सबसे बड़ी खासियत इसका सेना से जुड़ा इतिहास है। वर्ष 1840 में बने इस चर्च की इमारत और लंबे-चौड़े गार्डन की भव्यता देखते ही बनती है। पॉप म्यूजिक के दीवानों की तो यह खास जगह है। यह वही चर्च है, जहां ब्रिटिश संगीतकार, कलाकार एवं अभिनेता सर क्लिफ रिचर्ड का बपतिस्मा हुआ था। सर क्लिफ रिचर्ड का जन्म लखनऊ में हुआ था और बाद में उनका परिवार देहरादून शिफ्ट हो गया। यह चर्च सीएनआइ (चर्च ऑफ नार्थ इंडिया) के अधीन है। इस चर्च को सेना के लिए बनाया गया था और यहां सेना के जवान और सर्वे ऑफ इंडिया से जुड़े लोग प्रार्थना करने आते थे। इसीलिए यह चर्च आर्मी (गैरिसन) चर्च के रूप में जाना जाता था।

मॉरीसन मेमोरियल चर्च

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सीएनआइ द्वारा संचालित राजपुर रोड स्थित मॉरीसन मेमोरियल चर्च 25 अगस्त 1884 को बनकर तैयार हुआ था। अंग्रेजों का बनाया यह दून का सबसे बड़ा एवं खूबसूरत चर्च है। यह उत्तर भारत के सबसे पुराने चर्चों में से एक है। इस चर्च का मूल नाम देहरा प्रेस्बायटेरियन था, जिसे वर्ष 1890 में एपी मिशन ङ्क्षहदुस्तानी चर्च कर दिया गया। इसके बाद यहां के प्रमुख पास्टर रेवरेन जॉन मॉरीसन और उनकी पत्नी के नाम पर इस चर्च को मॉरीसन नाम दिया गया। इस चर्च में पहली बार बपतिस्मा रेवरेन थैंकवैल के सानिध्य में 26 अक्टूबर 1884 को हुआ था। यहां पहले भारतीय पास्टर के रूप में रेवरेन प्रभुदास ने अपनी सेवाएं दी। अब तक  कुल नौ मिशनरी और 22 पास्टर चर्च में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। चर्च के मुख्य हॉल की फर्श टेराजो की बनी है और छत से लगा खूबसूरत बोर्ड बिल्डिंग की शोभा को और अधिक बढ़ाता है। छत के रिज पर कई सारे सजावटी बोर्ड लगे हैं। आंतरिक भाग में उभरा हुआ छत तिकोन चर्च के सौंदर्य में चार चांद लगाता है। 

सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च

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कॉन्वेंट रोड पर स्थित सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च का निर्माण 1856 में आर्च बिशप कार्लि आगरा के विकेरिएट अपोसतोलिक ने शुरू किया था। 1897 से यहां पुरोहितों ने रहना शुरू कर दिया। चार अप्रैल 1905 को आए भूकंप ने चर्च को भारी नुकसान पहुंचाया। इसके बाद 1910 तक यहां एक बड़े कमरे का प्रयोग चर्च के रूप में होता रहा। 1910 में चर्च का नया भवन बनकर तैयार हुआ, जिसका उद्घाटन आगरा के आर्च बिशप और इलाहबाद व लाहौर के बिशप ने किया था। पल्ली पुरोहित फादर लूकस ओएफएम कपुचिन के अनुरोध पर इटली के चित्रकार निनोला सिमीटाटा ने चर्च की दीवारों पर सेंट फ्रांसिस आसिसी के उद्देश्य एवं जीवन की घटनाओं को चित्रित किया। निनोला सिमीटाटा द्वितीय विश्व युद्ध का बंदी था और उसे देहरादून के प्रेमनगर में बंदी बनाकर रखा गया था। फादर लूकस ने इस कार्य के लिए उसे बंदीगृह से छुड़वाया। इस चर्च में कई बार मदर टेरेसा भी आती रही हैं। 

Monday, 30 August 2021

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

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दिनेश कुकरेती

सावन-भादों प्रकृति के उल्लास के महीने हैं। जंगल हरियाली से लकदक हो गए हैं। धरती के गर्भ से जगह-जगह जलस्रोत फूट चुके हैं। गाड-गदेरों, नदियों और झरनों का कोलाहल वातावरण में संगीत घोल रहा है। इस अनुपम छटा को देख भला कौन होगा, जो प्रकृति के इस सृजनकाल से रू-ब-रू नहीं होना चाहेगा। लेकिन, इस मनोहारी परिदृश्य के बीच विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में सावन-भादों का दूसरा पहलू भी है। पहाडिय़ों ने कोहरे की सफेद चादर ओढ़ी हुई है। यदा-कदा आसमान खुलने पर कोहरे के आगोश से झांकती पहाडिय़ां न केवल मन की अकुलाहट (व्याकुलता) बढ़ा रही हैं, बल्कि इस अंधियारे मौसम में लोग घरों से बाहर तक नहीं निकल पा रहे। ऐसे में खुद (याद) तो लगेगी ही। इसीलिए पहाड़ में सावन-भादों को खुदेड़ महीना कहा गया है। इसकी अभिव्यक्ति यहां लोक गीतों में हुई है। 

लोकगीतों में छलकती है 'खुदÓ

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पर्वतीय समाज में बिछोह ज्यादा है। पहले अभाव भी काफी अधिक था। बावजूद इसके आज भी पहाड़ के लोग एक-दूसरे के प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। ऐसे में समय, स्थान और वातावरण के चलते खुद की व्युत्पत्ति होती है। सावन-भादों में जब थोड़ा-सा अभाव होता है तो एक-दूसरे के प्रति स्नेह 'खुदÓ (नराई) के रूप में सामने आ जाता है। यही वजह है कि यह खुद लोकगीतों में छलक पड़ी। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का गाया ऐसा ही एक गीत है, जिसमें वह बड़े चुटीले अंदाज में बोडी-ब्वाडा (ताई-ताऊ) की परेशानियों को माध्यम बनाकर पहाड़वासियों की दुश्वारियों को बयां करते हैं। देखिए, 'गरा-रा-रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे, सरा-रा-रा डांड्यूं में कन कुयेडि़ छैगे।Ó (बारिश की झड़ी लग गई है और पहाडिय़ां कोहरे के आगोश में छिप गई हैं)। 

पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा

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एक अन्य गीत में नेगी उस नव विवाहिता के मन की थाह ले रहे हैं, जो अपने मायके के उल्लास एवं उमंगभरे दिनों को याद करते हुए उनकी याद में घुली जा रही है। तब वह कहती है, 'सौणा का मैना ब्वे कनु कै रैणा, कुयेड़ी लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालिÓ (मां! सावन के महीने में मैं कैसे रहूं। चारों दिशाएं कोहरे के आगोश में हैं। अंधेरी रात है और बारिश की झड़ी लगी हुई है। ऐसे में मुझे लगातार तेरी याद आ रही है)। नेगी के गीतों में पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा कुछ इस तरह भी अभिव्यक्ति मिली है, देखिए- 'हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासीÓ (चातुर्मास की बारिश, वनों में कोहरा घिर रहा है तो मन में उदासी)। 

इसी उदासी के बीच नवविवाहिता गा रही है, 'भादों की अंधेरी झकझोर, न बास-न बास, पापी मोर, ग्वेरै की मुरली तू-तू बाज, भैंस्यूूं की घांड्योंन डांडू गाज, तुम तैं मेरा स्वामी कनी सूझी, आंसुन चादरी मेरी रूझी।Ó (भादों का अंधेरा छाया है, हे मोर तू मेरे पास न बोल, न बोल। चरवाहों की मुरली तू-तू बज रही है और भैंसों की घंटियों से पर्वत गूंज रहा है। तुम्हें मेरे पति कैसी कठोरता सूझी, आंसूओं से मेरी धोती भीग गई है)।

लोक में सावन की फुहारों का इंतजार

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हालांकि, यह भी सच है कि सावन की इन्हीं फुहारों का पहाड़वासियों को हमेशा बेसब्री से इंतजार रहता है। इसकी अभिव्यक्ति नेगी अपने गीत में इस तरह करते हैं, 'बरखा हे बरखा, तीस जिकुडि़ की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूझै जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजाÓ (बारिश हे बारिश, मेरे हृदय की प्यास बुझा जा, मेरे सुलगते तन-मन को भिगो जा, प्रकृति में संगीत बिखेरते हुए आ जा)। दरअसल, पहाड़ में खेती बारिश पर ही निर्भर है, इसलिए जब समय से बारिश नहीं होती तो पहाड़वासियों के कंठ से गीतों के रूप में यह पीड़ा छलक पड़ती है।

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

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दिनेश कुकरेती

शिक्षा महज किताबी ज्ञान हासिल कर अच्छी पद-प्रतिष्ठा पा लेने का नाम नहीं है। विषय विशेषज्ञ बन जाने को भी शिक्षा नहीं माना जा सकता। शिक्षा को डिग्रियों में भी नहीं तौला जा सकता। शिक्षा तो जीवन चलाने की ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य के जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। व्यापक दृष्टि से देखें तो शिक्षा में मनुष्य के वह सभी अनुभव समाहित हैं, जिनका प्रभाव उस पर जन्म से लेकर मृत्यु तक पड़ता है। 

शिक्षा शब्द संस्कृत की 'शिक्षÓ धातु से बना है। इसका अर्थ है सीखना या ज्ञान प्राप्त करना। सीखने की प्रक्रिया शिक्षक, छात्र व पाठ्यक्रम के माध्यम से संपादित होती है। इसका अंग्रेजी पर्याय एड्यूकेशन है, जो लैटिन के 'एड्यूकेटमÓ शब्द से बना है। इसमें 'ईÓ का अर्थ है 'अंदर सेÓ और 'ड्यकोÓ का अर्थ है 'बाहर निकालनाÓ। यानी एड्यूकेशन का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का प्रकटीकरण है। इस प्रकार शिक्षा अथवा एड्यूकेशन का अर्थ चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक और अंतर्निहित शक्तियों का व्यवस्थित रूप से विकास करना है। 

व्यापक अर्थ में देखें तो शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में निरंतर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। दुनिया के विभिन्न विचारकों ने समय-समय पर शिक्षा को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया। मसलन विवेकानंद मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति को शिक्षा मानते हैं। जबकि, गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के शब्दों में उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती, बल्कि हमारे जीवन को समूचे अस्तित्व के अनुकूल बनाती है। शिक्षा से गांधीजी का अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण प्रकटीकरण से है। 













प्लेटो के विचार से बालक की क्षमता के अनुरूप शिक्षा उसके शरीर और आत्मा का विकास करती है, जबकि रूसो ने शिक्षा को विचारशील, संतुलित, उपयोगी एवं प्राकृतिक जीवन के विकास की प्रक्रिया माना है। कमेनियस ने संपूर्ण मानव के विकास को शिक्षा की संज्ञा दी है। जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यक्ति की क्षमताओं का विकास है। जिसके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रख सकता है और संभावनाओं को पूरा कर सकता है। टी रेमांट के अनुसार शिक्षा मानव जीवन के विकास की वह प्रक्रिया है, जो शैशवास्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है। 

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा बच्चे की अंतर्निहित शक्तियों (योग्यताओं) को बाहर निकालकर उसके व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन करती है। शिक्षा को समझने के दो दृष्टिकोण हैं, संकुचित और व्यापक। संकुचित सबसे प्राचीन दृष्टिकोण है, जो वर्ष 1879 तक अस्तित्व में रहा। इसमें शिक्षा के सैद्धांतिक, ज्ञानात्मक व औपचारिक स्वरूप पर बल दिया गया। लेकिन, इसका फलक विद्यालयी शिक्षा तक ही सीमित था। जबकि, व्यापक दृष्टिकोण बीसवीं सदी में आया। इसमें शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष यानी सर्वांगीण विकास और अनौपचारिक शिक्षा पर बल दिया गया।

शिक्षा का महत्व

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शिक्षा व्यक्ति के प्रत्येक पहलू को विकसित कर उसके चरित्र का निर्माण करती है। साथ ही उसके अंदर राष्ट्रीय एकता, भावनात्मक एकता, सामाजिक कुशलता, राष्ट्रीय अनुशासन जैसी भावनाएं विकसित करती है। ताकि वह राष्ट्रीय हित को केंद्र में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व का पूरे मनोयोग से निर्वहन कर सके।

शिक्षा के कार्य

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व्यक्ति संबंधी

- आंतरिक शक्तियों और संपूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण विकास

- भावी जीवन की तैयारी

- नैतिक उत्थान

- मानवीय गुणों का विकास

- आत्मनिर्भर बनाना

- आवश्यकता की पूर्ति में सक्षम

- जन्मजात प्रकृतियों में सुधार

समाज संबंधी

- सामाजिक नियमों का ज्ञान

- प्राचीन साहित्य का इतिहास

- कुरीतियों के निवारण में सहायक

- सामाजिक भावना का विकास

- सामाजिक उन्नति में सहायक

- धर्मों के विषय में तात्विक ज्ञान

- उदार दृष्टिकोण

राष्ट्र संबंधी

- भावनात्मक एकता

- कुशल नागरिक

- राष्ट्रीय विकास

- राष्ट्रीय एकता

सार्वजनिक हित संबंधी

सार्वजनिक आय संबंधी

- राष्ट्रीय अनुशासन

- अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान

वातावरण संबंधी

- वातावरण से समायोजन

- वातावरण का अनुकूलन