Monday, 31 January 2022

फिजाओं में वासंती बयार

फिजाओं में वासंती बयार
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दिनेश कुकरेती
वातावरण में गर्माहट घुलने के साथ दून घाटी में भी मौसम सुहावना हो गया है। पेड़ों एवं लताओं के पोर-पोर पर हरियाली फूटने लगी है और बौरों से लद गई हैं आम की डालियां। खेतों में फूली सरसों और कंदराओं में महकती फ्योंली सम्मोहन सा बिखेर रही है। कोयल की कूक मन को उद्वेलित कर वातावरण में मादकता घोल रही है। चारों दिशाओं में नया रंग, नई उमंग, उल्लास एवं उत्साह का माहौल है। बागों में बहती मंद-मंद सुगंधित बयार प्रकृति से अठखेलियां करती प्रतीत होती है। कहने का मतलब ऋतुचक्र के परिवर्तन का इससे रंगीन पड़ाव अन्य कोई हो ही नहीं सकता। शायद इसीलिए भारतीय चिंतन परंपरा में वसंत को ऋतुओं का राजा माना गया है और जैसे राजा के आगमन पर उत्सव मनाया जाता है, ठीक वैसे ही ऋतुराज के स्वागत की रीत भी है।
वसंत उत्तर भारत के अलावा समीपवर्ती देशों की छह ऋतुओं में से एक ऋतु है, जो फरवरी से शुरू होकर अप्रैल मध्य तक इस क्षेत्र में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ शुक्ल पंचमी से वसंत ऋतु का आगमन होता है। फाल्गुन और चैत्र वसंत ऋतु के महीने माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम महीना है और चैत्र पहला। इसीलिए भारतीय नववर्ष का शुभारंभ वसंत से ही होता है। वैसे देखा जाए तो भारतीय ऋतु चक्र में चैत्र व वैशाख वसंत के मास हैं, किंतु सृष्टि में वसंत अपनी निर्धारित तिथि से 40 दिन पूर्व माघ में आता है। आए भी क्यों न, ऋतुराज जो ठैरा।
'मत्स्य सूक्तÓ में उल्लेख है कि अन्य पांच ऋतुओं हेमंत, शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ने अपने राजा के सम्मान में उसके अभिषेक एवं अभिनंदन के लिए स्वयं के कालखंड से आठ-आठ दिन समर्पित कर दिए। इसीलिए धरती पर वसंत ऋतु का पदार्पण चैत्र कृष्ण प्रथमा के स्थान पर 40 दिन पूर्व माघ शुक्ल पंचमी को हो जाता है। वसंत को प्रकृति का उत्सव भी कहा गया है। तभी तो 'ऋतुसंहारÓ में महाकवि कालिदास ने इसे 'सर्वप्रिये चारुतर वसंतेÓ कहकर अलंकृत किया है। जबकि, गीता में भगवान श्रीकृष्ण 'ऋतूनां कुसुमाकर:Ó अर्थात् 'मैं ऋतुओं में वसंत हूंÓ कहकर वसंत को अपना स्वरूप बताते हैं। पौराणिक कथाओं में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है।
कवि देव वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं, 'रूप एवं सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है। पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, फूल वस्त्र पहनाते हैं, पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।Ó 'कालिका पुराणÓ में वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए इसे सुदर्शन, अति आकर्षक, संतुलित शरीर वाला, तीखे नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम्र मंजरियों को हाथ में पकड़े रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला जैसे तमाम गुणों से भरपूर बताया गया है।

शीत व उष्णता का संधिकाल वसंत ऋतु
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ऋतुराज वसंत शीत व उष्णता का संधिकाल है। इसमें शीत ऋतु का संचित कफ सूर्य की संतप्त किरणों से पिघलने लगता है। इससे जठराग्नि मंद हो जाती है और सर्दी-खांसी, उल्टी-दस्त जैसे अनेक रोग उत्पन्न होने लगते हैं। लिहाजा, इस समय आहार-विहार की विशेष सावधानी रखना जरूरी है। आहार: 'अष्टांगहृदयÓ में उल्लेख है कि इस ऋतु में देर से पचने वाले शीतल पदार्थ, दिन में सोना, स्निग्ध यानी घी-तेल में बने और अम्ल व मधुर रस प्रधान पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। ये सभी कफवर्धक हैं। इसके अलावा मिठाई, सूखे मेवे, खट्ठे-मीठे फल, दही, आइसक्रीम और गरिष्ठ भोजन का सेवन भी इस ऋतुत में वर्जित है।
इन दिनों में शीघ्र पचने वाले, अल्प तेल व घी में बने, तीखे कड़वे, कसैले, उष्ण पदार्थों जैसे लाई, मुरमुरे, जौ, भुने हुए चने, पुराना गेहूं, चना, मूंग, अदरक, सौंठ, अजवायन, हल्दी, पीपलामूल, काली मिर्च, हींग, सूरन, सहजन की फली, करेला, मेथी, ताजी मूली, तिल का तेल, शहद, गोमूत्र का सेवन लाभदायी माना गया है। इनसे कफ नहीं बढ़ता। विहार: 'योग सूत्रÓ में कहा गया है कि ऋतु परिवर्तन से शरीर में उत्पन्न भारीपन और आलस्य को दूर करने के लिए सूर्योदय से पूर्व उठना, व्यायाम, दौड़, तेज चलना, आसन और प्राणायाम (विशेषकर सूर्यभेदी) लाभदायी हैं। तिल के तेल से मालिश कर सप्तधान्य उबटन से स्नान करने को स्वास्थ्य की कुंजी माना गया है।

ऊर्जा, आशा एवं विश्वास की ऋतु
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मौसम का बदलाव हमें जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह का संदेश देता है। जब भी प्रकृति अपना स्वरूप बदलती है तो यह संकेत भी करती है कि समय के साथ-साथ बदलाव जरूरी है। पतझड़ के बाद वसंत ऋतु का आगमन भी इसी का प्रतीक है। इस ऋतु में जीवन प्रबंधन के कई सूत्र छिपे हैं। बस! जरूरत है उन्हें समझने की। पतझड़ में पेड़ों से पुराने पत्तों का गिरना और इसके बाद नए पत्तों का आना जीवन में सकारात्मक भाव, ऊर्जा, आशा एवं विश्वास जगाता है। वसंत ऋतु फूलों के खिलने का मौसम है, जो हमें हमेशा मुस्कराने का संदेश देता है।
वसंत को शृंगार की ऋतु भी माना गया है, जो व्यक्ति को व्यवस्थित और सजे-धजे रहने की सीख देती है। वसंत का रंग वासंती (केसरिया) होता है, जो त्याग और विजय का रंग है। यह बताता है कि हम अपने विकारों का त्याग कर कमजोरियों पर विजय प्राप्त करें। वसंत में सूर्य उत्तरायण होता है, जो संदेश है कि सूर्य की भांति हम भी प्रखर और गंभीर बनें। वसंत को ऋतुओं का राजा भी कहा गया है, क्योंकि इस ऋतु में उर्वरा शक्ति यानी उत्पादन क्षमता अन्य ऋतुओं की अपेक्षा बढ़ जाती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को ऋतुओं में वसंत कहा। जैसे वे समस्त देवताओं और परमशक्तियों में सबसे ऊपर हैं, वैसे ही वसंत ऋतु भी सभी मौसमों में सबसे श्रेष्ठ है।

मन प्रफुल्लित कर देता है राग वसंत
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भारतीय संगीत, साहित्य और कला में भी वसंत ऋतु को महत्वपूर्ण स्थान मिलाहै। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है, जिसे राग वसंत (बसंत) कहते हैं। यह शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी पद्धति का राग है। इसके गायन का समय वैसे तो रात्रि काअंतिम प्रहर है, किंतु इसे दिन या रात में किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है। इसके आरोह में पांच और अवरोह में सात स्वर होते हैं। इसलिए यह औडव-संपूर्ण जाति का राग है। रागमाला में इसे राग हिंडोल का पुत्र माना गया है। यह पूर्वी थाट का राग है। शास्त्रों में इससे मिलते जुलते एक अन्य राग वसंत हिंडोल का उल्लेख भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि राग वसंत के गाने व सुनने से मन प्रफुल्लित हो जाता है।

यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार करता है वसंत
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वसंत ऋतु हर साल आती है और पीछे छोड़ जाती है यह संदेश कि जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए। निराशा, नीरसता व निष्क्रियता को त्यागकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ताकि जीवन में यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार हो। शायद तभी प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल कहते हैं कि 'अब छाया में गुंजन होगा वन में फूल खिलेंगे, दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे, जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे, अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगेÓ।

वसंत के यौवन का प्रतिबिंब है बुरांश
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उत्तराखंड के हरे-भरे जंगलों में बुरांश के सुर्ख फूलों का खिलना पहाड़ में वसंत ऋतु के यौवन का सूचक है। वसंत आते ही पहाड़ के जंगल बुरांश के फूलों से लकदक हो जाते हैं। बुरांश को वसंत में खिलने वाला पहला फूल माना गया है। इसके खिलते ही जंगलों में बहार आ जाती है। ऐसा आभास होने लगता है, मानो प्रकृति ने लाल चादर ओढ़ ली हो। उत्तराखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बुरांश की महत्ता महज एक पेड़ और फूल की नहीं, बल्कि वह तो यहां के लोक जीवन में रचा-बसा है।
हिमालय के अनुपम नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन, पे्रयसी की उपमा, प्रेमाभिव्यक्ति, मिलन अथवा विरह, सभी प्रकार के लोकगीतों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बुरांश ही है। कहीं यह फूल पुत्र के रूप में दर्शाया गया है तो कहीं पर इसकी तुलना ससुराल गई बेटी से की गई है। यह फूल लोकगीतों में प्रेमी और प्रेमिका का संदेशवाहक भी बना है। इसमें किसी ने अपनी लाडली का प्रतिबिंब देखा तो किसी ने इसे अपनी प्रियतमा के रूप में स्वीकार किया।
बुरांश का खिलना प्रसन्नता का द्योतक है तो प्रेम एवं उल्लास की अभिव्यक्ति भी। क्योंकि, बुरांश ने लाल होकर भी क्रांति के गीत नहीं गाए, बल्कि हिमालय की तरह प्रशंसाओं से दूर एक आदर्शवादी बना रहा। बुरांश ने लोक रचनाकारों को कलात्मक उन्मुक्तता, प्रयोगशीलता और सौंदर्यबोध दिया। होली से लेकर प्रेम, सौंदर्य और विरह सभी प्रकार के लोकगीतों के भावों को व्यक्त करने का जरिया बुरांश बना।
प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रा नंदन पंत ने अपनी कुमाऊंनी कविता में बुरांश के सौंदर्य को कुछ इस तरह प्रतिबिंबित किया, 'सार जंगल में त्वीज क्वै न्हा रे, क्वै न्हा। फुलन छै कैबुरूंश जंगल जस जलि जां। सल्ल छ, द्यार छ, पईं छ, अंयार छ। सबनाक फागन में पुग्नक भार छ। पै त्वि में ज्वानिक फाग छ। रंगन में तेर ल्वे छ, प्यारक खुमार छ।Ó अर्थात सारे वन क्षेत्र में तेरा जैसा कोई नहीं है, कोई नहीं। जब तू फूलता है, संपूर्ण वन क्षेत्र के जलने का सा भ्रम होता है। जंगल में साल है, देवदार है, पईंया है और अंयार समेत विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं। सबकी शाखाओं में कलियों का भार है, पर तुझमें जवानी का फाग है। तेरे रंगों में लहू है, प्यार का खुमार है।

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