Friday, 28 August 2020

एशिया की सबसे लंबी यात्रा नंदा राजजात

 


एशिया की सबसे लंबी धार्मिक यात्रा नंदा राजजात
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दिनेश कुकरेती
श्रीनंदा देवी राजजात। उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में दुर्गम राहों से पैदल गुजरने वाली एशिया की सबसे लंबी धार्मिक, आध्यात्मिक, भावपूर्ण एवं रोमांचक यात्रा। यह यात्रा सीमांत चमोली जनपद के नौटी गांव से आरंभ होकर दुर्गम रास्तों, घाटियों एवं पर्वतमालाओं से गुजरती हुई त्रिशूल पर्वत के आधार में स्थित होमकुंड में पूजा-अर्चना के बाद वापस नौटी पहुंकर विराम लेती है। तकरीबन 280 किलोमीटर के इस सफर में 19 पडा़व आते हैं, जिनमें पांच निर्जन हैं। हालांकि वर्ष 2014 की राजजात में बीस पडा़व बनाए गए थे। ऐसा भाद्रपद सप्तमी तिथि के एक दिन आगे खिसके होने के कारण किया गया। क्योंकि, परंपरा के अनुसार वेदनी कुंड में ही सप्तमी को पितृ तर्पण किया जाता है।

राजजात की शुरुआत कब हुई, इसकी जानकारी देने वाले कोई दस्तावेज मौजूद नहीं। लेकिन, पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर राजजात की शुरुआत निश्चित रूप सेआठवीं शताब्दी में हो चुकी थी। वैसे जनश्रुतियां राजजात को प्रारंभ करने का श्रेय राजा अजयपाल को देती हैं। लेकिन, देखा जाए तो अजयपाल राजजात को प्रारंभ नहीं, बल्कि पुन: प्रारम्भ करने वाले नरेश हैं। क्योंकि कन्नौज के राजा यशोधवल की राजजात में रूपकुंड दुर्घटना 1150 ईस्वी से पहले हो चुकी थी। जबकि, अजयपाल के 1499 ईस्वी  से पूर्व चांदपुरगढ़ का शासक होने के प्रमाण मिलते हैं।

बहरहाल! उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार सन् 2014 से पूर्व सन् 1845, सन् 1865, सन् 1886, सन् 1905, सन् 1925, सन् 1951, सन् 1968 और सन् 1987 के बाद सन् 2000 में ही राजजात के आयोजन की जानकारी मिल पाई है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार राजजात गढ़वाल नरेश द्वारा आयोजित की जाती थी, इसलिए इसे राजजात यानी राजा की यात्रा कहा गया। इतिहासकारों द्वारा देवाल, वेदनी, कैला विनायक से प्राप्त मूर्तियों को आठवीं से दसवीं  सदी का माना गाया तो इस धार्मिक यात्रा की प्राचीनता की पुष्टि भी इसी समय से की जाने लगी। कहते हैं कि गढ़वाल के चमोली जनपद में स्थित चांदपुरगढी़ के राजा भानुप्रताप भगवान बदरी विशाल के उपासक थे। देवताओं से वार्तालाप करने के लिए उनके पास श्रीयंत्र था। इसलिए उन्हें बोलांदा बदरी (बोलने वाला बदरीनाथ) भी कहा जाता था। बोलांदा बदरी को भगवान बदरीनाथ ने देवी का संदेश दिया कि वह राजा कनकपाल से अपनी पुत्री का विवाह कर दे। इसी से उनकी वंशबेल आगे बढे़गी। जब यह विवाह संपन्न हुआ तो राजा कनकपाल को राज्य के साथ ईष्ट देवी के रूप में नंदा की भी प्राप्ति हुई। भानुप्रताप के बाद जब कनकपाल चांदपुरगढी़ के राजा बने तो उन्होंने आपने छोटे भाइयों को चांदपुरगाढी़ के पास ही बसाया। यह गांव कालांतर में कांसुवा गांव के नाम से जाना जाने लगा। कांसुवा शब्द कान्सा या कणसा का अपभ्रंश है। गढ़वाली में कान्सा का मतलब छोटा होता है।


 

इसी कांसुवा गांव से होता है राजजात का श्रीगणेश। हालांकि कहते इसे नौटी की जात हैं। इसके पीछे कहानी है कि राजा ने अपने राजगुरु को नौटी गांव में बसाया, जो नौटियाल कहलाए। 18वीं सदी में चांदपुरगढी़ के तृतीय राजा पूरणपाल ने गढी़ स्थित श्रीयंत्र की पूजा अर्चना कर उसे गुरु ग्राम नौटी में भूमिगत कर दिया। इसकी पूजा का भार नौटियालों को सौंपा गया। तभी से नंदा नौटियालों की ईष्ट देवी और धियाण यानी बेटी मानी जाने लगी। इसी धियाण को  ससुराल कैलास के लिए विदा करने से पूर्व  कुलसारी के मंदिर समूह के बीच स्थित श्रीयंत्र की पूजा-अर्चना की जाती है।



इससे पूर्व सिमली तल्ला चांदपुर में पूजा संबंधी बैठक के दौरान समिति का गठन किया जाता है। जिसके अध्यक्ष राजवंशीय कुंवरों में से और मंत्री नौटी गांव से होते हैं। इस बीच देवी स्वरूप चौसिंग्या खाडू यानी चार सींग वाला मेढा कुंवरों की थोकदारी में जन्म लेता है। कहते हैं कि प्रत्येक बारह साल बाद क्षेत्र में जब-जब  भगोती नंदा के दोष लगने का आभास होता है, कांसुवा के राजकुंवर राजजात की मनौती के रूप में रिंगाल की राजछंतोली और चौसिंग्या खाडू के साथ नंदा देवी सिद्धपीठ नौटी पहुंचते हैं। यहां अनुष्ठानपूर्वक देवी की सुवर्ण प्रतिमा को प्राण प्रतिष्ठा कर रिंगाल की छंतोली में रखा जाता है और शुभ मुहूर्त पर अपने पहले पडा़व ईडा़ बधाणी के लिए प्रस्थान करती है श्री नंदा देवी राजजात। लोक की बेटी नंदा के प्रति आस्था का अपार जनसमूह उमड़ने लगता है। जनसमूह चौंसिग्या खाडू को लेकर लोकवाद्यों के साथ आगे बढ़ता है। मान्यता है कि एक समय ईडा़ बधाणी के पधान यानी मुखिया जमनू जदौडा़ गुसाईं को नंदा ने वचन दिया था कि वह ससुराल जाने से पूर्व उसके घर की पूजा अवश्य स्वीकार करेगी।उसी वचन को निभाने देवी ईडा़ बधाणी पहुंचती है। मार्ग में ल्यूयसा, सिंगली, चौंडली, हेलुरी आदि स्थानों पर नंदा का स्वागत सत्कार होता है। धियाण को खाली हाथ ससुराल न भेजे जाने की परंपरा का निर्वाह  यहां पर भी किया जाता है। मार्ग में देवी को श्रृंगार सामग्री व दक्षिणा भेंट स्वरूप प्रदान की जाती है और राह आस्था पथ में तब्दील हो जाता है।



ईडा़ बधाणी में विश्राम के बाद अगले दिन नंदा फिर नौटी लौटती है। सभी आगंतुकों का भव्य
अभिनंदन होता है। स्थान-स्थान पर लोग राजजात का हिस्सा बनते हैं। रिठोली, नांदाखाला,जाख में नंदा की पूजा होती है। 10 किमीके इस संपूर्ण यात्रापथ को स्वागत पथ के रूप में महसूस किया जा सकता है। नौटी से विदाई के बाद राजजात कांसुवा की तरफ बढ़ने लगती है। आगे-आगे चौसिंग्या खाडू और पीछे राजछंतोलीय लिए राजगुरुओं के प्रतिनिधि । नौटी से कांसुवा के लिए विदाई का यहदृश्य अत्यंत मार्मिकहोता है।हर किसी की आंखों में आंसू झरने लगते हैं। वातावरण भावुक हो उठता है। देवी भी अपने परिजनों से गले मिलकर भावभीनी विदाई लेती हैं। मार्ग में मलेठी व नैणी की छंतोलियां जात का हिस्सा बनती हैं। बैनोली की नंदाचौंरी यानी चबूतरे में जब नंदा की डोली पहुंचती है तो इस स्थल का स्वरूप एक भव्य मेले में परिवर्तित हो जाता है। देवी पर पुष्प वर्षा होने लगती है। कन्याएं जल कलश लेकर मंगलमय यात्रा की कामना करती हैं। विदाई का यह दृश्य यात्रा के विदाई पथ में होने का आभास कराने लगता है। कांसुवा में राजकुंवर देवी की पूजा-अर्चना करते हैं। यहीं पर यात्रा के पथ-प्रदर्शक मेढे एवं पवित्र रिंगाल की राजछंतोलियों की पूजा-अर्चना की जाती है।

यात्रा का अगला पडा़व सेम है। समुद्रतल से 1530 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह बारह थोकी ब्राह्मणों का गांव है। गांव में स्थित महादेवघाट मंदिर में विधि-विधान पूर्वक नंदा की पवित्र छंतोलीड्यूंडी ब्राह्मणों को सौंप दी जाती है। यात्रा आगे बढ़ते हुए आटागाड को पार कर गढ़वाल राज्य की तत्कालीन राजधानी चांदपुरगढ़ पहुंचती है। यहां जात का स्वागत राजवंशी कुंवर परंपरागत ढंग से करते हैं। शाही पूजा होती है, जिसके साक्षी हजारों लोग बनते हैं। यहां पर कैलापीर में देवी का भव्य मंदिर और चांदपुरगढी़ में गढ़वाल राज्य की राजधानी के अवशेष हैं। नवीं से 15वीं सदी तक यह पंवार राजाओं की राजधानी रही। यहीं गैरोली की छंतोली का मिलन राजजात से होता है। यात्रा आगे बढ़ते हुए तोप होकर सेम पहुंचती है, जहां चमोली व सेम की छंतोली नंदाचौक में इंतजार कर रही होती हैं। सेम के लोगों की नंदा के प्रति आस्था देखिए कि वे राजजात में आए हर यात्री को नंदा के रूप में ही देखते हैं और उसकी आदर-खातिर करते हैं। यहां नंदा को पारंपरिक अनाज, च्यूडा़, फल-सब्जियां भेंट की जाती हैं। ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो हम आतिथ्य पथ से गुजर रहे हैं।

सेम से आगे कोटी तक उत्साह ही उत्साह है। धारकोट तक चढा़ई है। यहां से घंडियाल और सिमतोली गांवों से पूजा-अर्चना के बाद यात्रा सिमतोली धार पहुंचती है, जहां मां भगवती की कोटि-कोटि पूजा-अर्चनाएं की जाती हैं। संभवतः इसीलिए धार के दूसरी तरफ स्थित गांव का कोटि नाम पडा़। कोटि की समुद्र तल से ऊंचाई 1630 मीटर है। उत्तर-मध्य काल में चांदपुरगढ़, तोप गांव व कोटी में गढ़ सेनाएं रहती थीं। कोटी में खंडूडा़, रतूडा़, चुलाकोट व थापली गांव की छंतोलियां और बगोली के लाटू देवता यात्रा में शामिल होते हैं। केदारू, चूला, घतौडा़की छंतोलियां भी इसी स्थल पर यात्रा का हिस्सा बनती हैं। संपूर्ण वातावरण आगे की यात्रा के लिए उत्साहभरा दिखता है। लंबी-लंबी कतार में सम्मिलित हो रहा प्रत्येक व्यक्ति उत्साह से लवरेज नजर आता है और संपूर्ण पथ उत्साह पथ बन जाता है।



कोटी के बाद देवी का आगला पडा़व भगोती है। कहते हैं यह भगोती नंदा के मायके का अंतिम पडा़व है। भगोती नंदा का यह सबसे प्रिय स्थल होने के कारण उसी के नाम पर इसका नाम भगोती पडा़। कोटी से भगोती के बीच 12 किमी का फासला है। मायके का अंतिम गांव होने के कारण यहां पर विदाई का मार्मिक दृश्य साकार होता है। बेटी से मिलने को पूरा गांव उमड़ पड़ता है। संपूर्ण जात में सभी लोगों में सौहार्द का वातावरण दिखाई देता है। अलग-अलग जाति-धर्मा के लोध द्वारा एक ही लक्ष्य के साथ आगे बढ़ने की इच्छालि इस पथ को सौहार्द पथ बनाती है।


अगले दिन यात्रा भगोती से कुलसारी के लिए प्रस्थान करती है। देवी के मायके से ससुराल सीमा में प्रवेश की मान्यता के कारण यात्रा का एक बार फिर गर्मजोशी के साथ स्वागत-अभिनंदन होता है। मार्ग में स्वागत के लिए जगह-जगह तोरणद्वार, साज-सज्जा और हजारों लोगों की बहुरंगी वेशभूषा एवं पोशाकों के कारण रंगपथ से गुजरने का-सा अहसास होने लगता है। कुलसारी नंदा के ससुराल क्षेत्र का पहला पडा़व है। देवी के काली रूप में होने से इस क्षेत्र का नाम कुलसारी पडा़। यहां के निवासी कुलसारा ब्राह्मण कहलाते हैं। परंपरा के अनुसार जात हमेशा आमावस्या के दिन कुलसारी पहुंचती है। अमावस्या की रात्रि को कुलसारी स्थित भूमिगत काली यंत्र को निकालकर पूजा-अर्चना की जाती है। इस स्थान से बुटोला थोकदारों, सयाणों का सहयोग भी जात के लिए लिया जाता है। कुलसारी के बाद अगला पडा़व है चेपड़्यूं। जात थराली पहुंचती है। इस यात्रा पथ के साथ-साथ विपरीत दिशा की ओर बढ़ने वाली पिंडर नदी के स्वर और नदी के आसपास बिखरा नैसर्गिक सौंदर्य अभिभूत कर देने वाला है। नदी के आसपास बसे गांवों के खेत-खलिहानों के दृश्य यात्रा की थकान में पुनः स्फूर्ति प्रदान करते हैं। थराली में इस अवसर पर भव्य मेला आयोजित होता है। थराली के सामने ही देवराडा़ गांव है। लोक मान्यताओं के अनुसार यहां राजराजेश्वरी नंदा वर्ष में छह महीने रहती हैं। बाकी के छह महीने उनका प्रवास कुरुड़ (दशोली) में होता है।

अब बढ़ते हैं नवें पडा़व नंदकेसरी की ओर। चेपड़्यूं से पांच किमी की यात्रा पर स्थित इस पडा़व को वर्ष 2000 की राजजात में पडा़व के रूप में शामिल किया गया। यह राजजात का इंद्रधनुषी पडा़व है। इस स्थल से जात में उत्तराखंड के दोनों क्षेत्रों गढ़वाल-कुमाऊं केश्रद्धालुओं,सैलानियों व पर्यटकों का मिलन होता है। पिंडर नदी पर बने पुल पर दोनों ओर की जात एकसार हो जाती हैं। कुमाऊं से चली छंतोलियां चनोदा, लोबांज, कौसानी, गरुड़, बैजनाथ, ग्वालदम होते हुए नंदकेसरी पहुंचती हैं। इस भावपूर्ण मिलन से भावविभोर होकर गढ़वाल-कुमाऊं से आईं छंतोलियां अब आगे बढ़ती हैं और यह अकल्पनीय व दुर्लभ मिलन पूरी राजजाता का साक्षी बन जाता है। नंदकेसरी को इस हिमालयी महाकुंभ में दो संस्कृतियों का मिलन केंद्र कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।



चलो, गढ़वाल-कुमाऊं की जात के मिलन की सांस्कृतिक परंपरा का निर्वाह भी कर लिया।अब इस सांस्कृतिक पथ पर आगे बढे़ं। पिंडर नदी का प्रवाह ग्रामीण अंचल की सुंदरता और हरियाली को खुद में समेटकर मनमोहक दृश्य उत्पन्न कर रहा है। जागर और लोकवाद्यों की मधुर लहरियों के बीच नंदा को विदाई दी जा रही है। देवाल में भी माहौल अन्य पडा़वों सरीखा ही है। वही उत्साह, वही सौहार्द, वही सत्कार। और... पूर्णा से देवाल होते हुए ही रात्रि विश्राम के लिए जात फल्दिया गांव पहुंचती है।



नंदकेसरी से फल्दिया तक यात्रियों को तकरीबन दस किमी का सफर तय करना पड़ता है। फल्दिया गांव पहुंचने पर जात में शामिल सभी छंतोलियों का पारंपरिक रूप से पूजन होता है। मांगलिक गीतों से नंदा की स्तुति की जाती है। गांव में प्रवेश करने से पूर्व हाटकल्याणी, उलंग्रा आदि स्थानों पर भी पूजा की जाती है।



फल्दिया गांव के बाद जात का अगला पडा़व है मुंदोली। समुद्रतल से 1750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मुंदोली तक पहुंचने के लिए जात को दस किमी का सफर तय करना होता है। जात में लोगों की संख्या बढ़ जाती है। पीछे रह गए लोग इसा पडा़व तक जित में अवश्य शामिल हो जाते हैं। अब जात हिमालयी क्षेत्र की ओर प्रवेश करने के पथ पर अग्रसर है। नदी घाटी पीछे छूट चुकी है और सामने नजर आ रही हैं पर्वत श्रृंखलाएं। जिज्ञासाएं बढ़ने लगी हैं, इसलिए यह पथ जिज्ञासा पथ में परिवर्तित हो गया है। जात का रात्रि विश्राम मुंदोली में होता है। यहां भूमिपाल व जैपाल देवता के चौक में देव डोलियों को रखा जाता है। इस दौरान मुंदोली की महिलाएं मन को हर्षाने वाले झौडा़ लोकनृत्य के साथ पारंपरिक गीत गाकर यात्रियों की आगवानी करती हैं। चारों दिशाओं में आनंद बरसने लगता है।



दशोली की नंदा राजराजेश्वरी और दशमद्वारके साथ विभिन्न क्षेत्रों से आ रही छंतोलियां एवं मुख्य जात मुंदोली से चलकर अगले पडा़व वाण की ओर प्रस्थान करती है। हल्की उतराई और फिर चढा़ई के साथ वाण तक पहुंचने का अत्यंत सुरम्य मार्ग है यह। बांज-बुरांश व सुरई के वृक्षों के मध्य से गुजरते हुए मन में ताजगी और तन में स्फूर्ति आ जाती है। प्रकृति के अनूठे सौंदर्य से यह पथ प्रकृति पथ का आभास कराने लगता है। वाण गांव का अपना आलग ही महत्व है। जात के मार्ग पर आबादी वाला यह अंतिम गांव है। यहां से कुछ आगे चलकर ही हिम श्रृंखलाओं के दर्शन होने लगते हैं। दुरूह भौगोलिक स्थिति के कारण यहां पर उपजाऊ भूमि की कमी है। डोलियों और छंतोलियों के मिलन का अंतिम पडा़व होने के कारण यहां से विभिन्न क्षेत्रों से आईं डोली-छंतोली एक साथ आगे बढ़ती हैं। मुंदोली से वाण की दूरी तकरीबन 15 किमी बैठती है। वाण में ही नंदा के धर्म भाई लाटू देवता का प्रसिद्ध मंदिर है। जिसके कपाट नंदा राजजात के समय पूजा-अर्चना को सिर्फ एक दिन के लिए खुलते हैं। नंदा का अपने भाई लाटू से मिलन अभिभूत कर देने वाली अनुभूति है। यहां से आगे लाटू का निसाण यानी ध्वज ही राजजात की अगुआई करता है।

वाण में पडा़व के बाद राजजात का दूसरा चरण आरंभ होता है। यहां से जात उच्च हिमालयी क्षेत्र के निर्जन एवं दुर्गम पडा़वों के लिए अग्रसर होती है। देखा जाए तो प्रकृति प्रदत्त नयनाभिराम सौंदर्य से साक्षात्कार इसी पडा़व के बाद आरंभ होता है। मखमली बुग्यालों में छाई अप्रतिम हरितिमा, नगाधिराज हिमालय के चमकते हिमशिखर और उन पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों के दृश्य सहज ही मन को आकर्षित कर लेते हैं। यहां से आगे की यात्रा प्रकृति प्रेमियों के अनुकूल होती है, अंतिम गांव वाण के बाद हिमशिखरों को स्पर्श करने की कल्पना आगे के पथ को रोमांच पथ का रूप प्रदान करती है। वाण से 10किमी की दूरी तय कर जात गैरोली पातल पहुंङाती है। गैरोली की राह पर बुग्यालों का सिलसिला भी आरंभ हो जाता है। घनी वनस्पतियों के जंगल अब पीछे छूट जाते हैं। आगे की ऊंची पहाडी़ भूमि में घने पेड़ नहीं, बल्कि सिर्फ हरी मखमली घास के बुग्याल ही यहां दिखाई पड़ते हैं। यही वास्तव में वृक्ष रेखा है। इससे आगे के स्थल मई से सितंबर तक ही बिना हिम के रहते हैं।



गैरोली पातल में ठहरने की जगह कम होने के कारण अधिकांश यात्री अगले पडा़व की ओर रुख करना ही बेहतर समझते हैं। महज तीन किमी के फासले पर है यह पडा़व, जिसे  बुग्यालों का स्वप्नलोक यानी वेदनी बुग्याल कहा जाता है। समुद्रतल से 3354 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्वप्नलोक का सौंदर्य मन को मोह लेता है। खूबसूरत पश्चिमी-उत्तरी ढलान पर फैला यह बुग्याल एशिया के सबसे खूबसूरत बुग्यालों में से एक है। नंदा घुंघटी व त्रिशूल हिमशिखरों के निकट होने का पहला अहसास वेदनी में ही होता है। वेदनी बुग्याल के मध्य में वेदनी कुंड स्थित है, जहां जात के दौरान सप्तमी पूजन एवं राजकुंवरों द्वारा पितृ तर्पण की परंपरा है। मान्यता है कि वेदों की रचना इसी स्थान पर की गई, इसलिए इसका नाम वेदनी पडा़। 



अब चौदहवें पडा़व की ओर कदम बढा़एं, जिसे हम पातर नचौण्यां के नाम से जानते हैं। कहते हैं कि इस स्थान पर कन्नौज के राजा यशधवल ने राजजात के दौरान मान्यताओं की अनदेखी करते हुए नर्तकियों को नचाया था। इससे देवी के रुष्ट होने पर सभी नर्तकियां शिलाओं में परिवर्तित हो गईं। तभी से इस स्थान का नाम पातर नचौण्यां पडा़। इससे पूर्व तक इसका नाम निरालीधार था। यहां पर भी विशेष पूजा-अर्चना के बाद रात्रि विश्राम होता है। इस बडे़ क्षेत्र में फैले औषधीय पादप, ब्रह्मकमल आदि की सुगंध हवा में महसूस की जा सकती है। हिमालयी क्षेत्र में फैले हरे-भरे घास के मैदानों का सौंदर्य आगे की कठिन राह को आनंद पथ में परिवर्तित कर देता है। घास के मैदानों में बिखरे मखमली फूल और चमकदार जलधाराएं इस पथ में आनंद की अनुभूति कराती हैं।


पातर नचौण्यां में रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन जात शिला समुद्र के लिए प्रस्थान करती है। इसी पथ में जात के दो प्रमुख आकर्षण रहस्यमयी झील रूपकुंड और यात्रा का सर्वाधिक ऊंचाई वाला स्थल ज्यूंरागली पड़ते हैं। रूपकुंड के आसपास बिखरे सदियों पुराने नरकंकाल जहां अज्ञात रहस्य का बोध कराते हैं, वहीं 17500 फीट की ऊंचाई पर स्थित ज्यूंरागली हिमालय के निकट होने का अहसास कराती है। यहां तक पहुंचते-पहुंचते सांसें उखड़ने लगती हैं और बढ़ता चला जाता है रोमांच। सूर्योदय के समय नंदा घुंघटी का नजारा दीये की लौ जैसा दिखाई देता है। यह अलौकिक दृश्य रोमांच की इस यात्रा में एक और रहस्य को जन्म देता है, जो एक सुखद स्वप्न के सच होने जैसा है। प्रकृति के इस अद्भुत साक्षात्कार के कारण मन को असीम शांति मिलती है। थकान का अहसास तक नहीं रहता। इस रहस्य पथ पर आगे बढ़ते हुए हम शिला समुद्र पहुंचते हैं, जहां विशेष पूजा-अर्चना होती है। इस स्थान पर बडी़-बडी़ शिलाएं हैं। हिमनद के खिसकते रहने से और मौसम परिवर्तन होने पर बर्फ के पिघलने से चट्टानें यत्र-तत्र बिखर जाती हैं। शायद इसीलिए इस स्थल का नाम शिला समुद्र है। शिला समुद्र के ऊपरी भाग में शौला समुद्र के नाम का हिमनद भी इस नामकरण का कारण हो सखता है। इसी हिमनद से नंदाकिनी नदी निकलती है।


अब राजजात अपने चरमोत्कर्ष पर है। हम नंदा को विदाई देने उसके ससुराल यानी होमकुंड की चौखट पर पहुंच चुके हैं। आस्था के शिखर त्रिशूल एवं नंदा घुंघटी की तलहटी में स्थित है आस्था का यह कुंड। यहां पूजा, अनुष्ठान व हवन के बाद नंदा जात का पथ प्रदर्शक मेंढा भी भेंट, स्वर्णाभूषण, खाद्य सामग्री आदि से सुसज्जित कर कैलास के लिए छोड़ दिया जाता है। पवित्र कुंड के यहां स्थित होने पर ही इस स्थान का नाम होमकुंड रखा गया है। जात के विसर्जन और चौसिंग्या खाडू की भावपूर्ण विदाई के बाद यात्री तत्काल चंदनियां घट की ओर चल पड़ते हैं। यह राजजात का वापसी मार्ग है। शिला समुद्र से होमकुंड तक केरल ङो का सौंदर्य बिखरा पडा़ है। हिम श्रृंखलाओं के आधार को स्पर्श करने के कारण इस पथ को हिमपथ के रूप में देखा जा सकता है। यह स्थान नंदा के गण चंदनियां का है, इसीलिए इसका नाम चंदनीयां घट पडा़।। चंदनियांकोट पर्वत शिखर इसके ऊपर है, जहां से नंदाकिनी का उद्गम होता है।

चंदनियां घट के बाद अगला पडा़व सुतोल है । निरंतर प्रकृति के बीचृकई दिन गुजारने के बाद यात्रा आबादी की ओर बढ़ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि हर यात्री यात्रा के अनुभवों पर शांति के साथ चिंतन करता हुआ आगे बढ़ रहा है। सीधी ढलान और घनी वनस्पतियों के बीच इस मार्ग पर सभी को एकाग्र होना पड़ता है इसलिए यह पथ शांतिपथ में तब्दील हो जाता है। सुतोल पहुंचने के लिए ढलान उतरनी होती है। यह बेहद खातरनाक राह है। आगे बढ़ते हुए बुग्यालों का विस्तार सिमटता जाता है। हरी मखमली घास के साथ अब झाडि़यां एवं भोजपत्र के वन आरंभ होते हैं। जहां भोजपत्र का वन समाप्त होता है, वहां से बांज का घना वन शुरू हो जाता है। सुतोल से कुछ पहले एक जगह से दूर बस्ती के दर्शन होते हैं। चार-पांच दिनों तक निर्जन स्थलों की यात्रा के बाद किसी बस्ती को देखना अत्यन्त सुखद लगता है। सुतोल से चार किमी ऊपर तातडा़ नामक स्थान पर द्योसिंह देवता का मंदिर है। यह सुतोल वासियों के भू-देवता हैं। रूपगंगा और नंदाकिनी के संगम पर बसे सुतोल गांव के लोग यात्रियों का स्वागत-सत्कार करते हैं।



सुतोल गांव से जात नंदाकिनी पथ पर घाट की ओर बढ़ती है। नंदाकिनी नदी और प्रकृति की सुंदरता के मध्य सभी लोग थकान बिसराने का प्रयास करते हैं। घाट नंदाकिनी घाटी के मध्य बसा एक छोटा सा कस्बा है। यहां प्रमुख तीर्थमार्गों के समान चट्टी जैसी समस्त सुविधाएं मौजूद हैं। सुतोल से घाट की राह भी मनमोहक है। नंदाकिनी नदी का पुल पार करते ही रास्तेभर चीड़ व कैल के घने जंगल से गुजरना सुखद लगता है। यात्रा की सफलता का संतोष भी सभी के चेहरों पर साफ झलकता है।



अब यात्रा समापन की ओर है और हम विश्व की इस अनूठी, अलौकिक एवं अद्भुत यात्रा के सदस्य के रूप में खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अधिकांश यात्री अपनी सुविधा के अनुसार अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर चुके हैं। विधि-विधान के साथ अन्य यात्री नौटी की ओर प्रस्थान करते हैं। यह पथ कर्मपथ की अनुभूति प्रदान करते हुए सभी को उनके कर्तव्य की ओर ले जाता है। और...यात्रा पुनः बारह बरस बाद होने वाली आगामी जात के स्वागत पथ में मिलने के संकल्प के साथ विराम लेती है।

Mysterious Roopkund (रहस्य का रूपकुंड)

 


 

रहस्य का रूपकुंड
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दिनेश कुकरेती
चमोली जिले के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 16499 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात मार्ग पर नंदाघुंघटी और त्रिशूली जैसे विशाल हिम शिखरों की छांव में स्थित है मनोरम रूपकुंड झील। त्रिशूली शिखर (24 हजार फीट) की गोद में ज्यूंरागली दर्रे के नीचे 12 मीटर लंबी, दस मीटर चौड़ी और दो मीटर से अधिक गहरी हरे-नीले रंग की अंडाकार आकृति वाली यह झील साल में करीब छह माह बर्फ से ढकी रहती है। इसी झील से रूपगंगा की धारा भी फूटती है। झील की सबसे बड़ी खासियत है इसके चारों ओर पाए जाने वाले रहस्यमय प्राचीन नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल आदि। इसलिए इसे रहस्यमयी झील का नाम दिया गया है।
कोई कहता है कि ये कंकाल किसी राजा की सेना के जवानों के हैं, तो कोई इनके तार सिकंदर के दौर से जोड़ता है। लेकिन, सच अभी भी भविष्य के आगोश में है। वैज्ञानिकों के नए शोध में बताया गया है कि ये नरकंकाल सिकंदर के जमाने से 250 साल पुराने हैं। क्योंकि, सिकंदर से पूर्व भी ग्रीक देशों के लोग भी यहां आए थे। इस शोध के लिए नरकंकालों के सौ सैंपल की ऑटोसोमल डीएनए, माइटोकॉन्ड्रियल और वाई क्रोमोसोम्स डीएनए जांच कराई गई। जिसमें पता चला कि ये ग्रीक लोगों के कंकाल हैं। साथ ही कुछ कंकाल स्थानीय लोगों के भी हैं। इस नतीजे तक पहुंचने के लिए शोध टीम ने आसपास के इलाकों के करीब 800 लोगों की भी डीएनए जांच की। इसी सेइन नरकंकालों के ग्रीक और स्थानीय लोगों के होने की पुष्टि हुईं। हालांकि, इससे पूर्व वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला था कि नरकंकाल सिकंदर की सेना की टुकड़ी के हो सकते हैं।



रहस्य से खुल रहे कई रहस्य
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बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों के अनुसार सैंपल की डीएनए जांच से ग्रीक डीएनए का मिलान हो रहा है। लेकिन, इसमें अभी और शोध की जरूरत है। इसके अलावा एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया जल्द ही एक प्रोजक्ट शुरू करने जा रहा है। देखना है कि आगे इन नरकंकालों को लेकर और क्या-क्या बातें सामने आती हैं।

पौराणिक मान्यता
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चमोली जिले में हर 12वें साल नौटी गांव से नंदा देवी राजजात का आयोजन होता है। इस यात्रा से संबंधित कथा के अनुसार अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवंत) पुत्री देवी नंदा (पार्वती) जब शिव के साथ रोती-बिलखती कैलास जा रही थीं, तब मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर नजरें दौड़ाईं, लेकिन कहीं भी पानी नहीं था। सो, उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, जिससे वहां पानी का फव्वारा फूट पड़ा। नंदा जब प्यास बुझा रही थीं, तब उन्हें पानी में एक रूपवती स्त्री का प्रतिबिंब नजर आया, जो शिव के साथ एकाकार था। नंदा को चौंकते देख शिव उनके अंतर्मन के द्वंद्व को समझ गए और बोले, यह तुम्हारा ही रूप है। तब से ही यह कुंड रूपकुंड, शिव अद्र्धनारीश्वर और यहां के पर्वत त्रिशूल व नंदाघुंघटी कहलाए। जबकि, यहां से निकलने वाली जलधारा का नाम नंदाकिनी पड़ा।



शोध कार्य में जुटे हैं देश-दुनिया के वैज्ञानिक
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रूपकुंड में नरकंकाल की खोज सबसे पहले वर्ष 1942 में नंदा देवी रिजर्व के गेम रेंजर हरिकृष्ण मधवाल ने की थी। मधवाल दुर्लभ पुष्पों की खोज में यहां आए थे। इसी दौरान अनजाने में वह झील के भीतर किसी चीज से टकरा गए। देखा तो वह एक कंकाल था। झील के आसपास और तलहटी में भी नरकंकालों का ढेर मिला। यह देख रेंजर मधवाल के साथियों को लगा मानो वे किसी दूसरे ही लोक में आ गए हैं। उनके साथ चल रहे मजदूर तो इस दृश्य को देखते ही भाग खड़े हुए।
इसके बाद शुरू हुआ वैज्ञानिक अध्ययन का दौर। 1950 में कुछ अमेरिकी वैज्ञानिक नरकंकाल अपने साथ ले गए। अब तक कई जिज्ञासु-अन्वेषक दल भी इस रहस्यमय क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा कर चुके हैं। भूगर्भ वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक दल ने भी यहां पहुंचकर अन्वेषण व परीक्षण किया। उत्तर प्रदेश वन विभाग के एक अधिकारी ने सितंबर 1955 में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया और कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुएं एकत्रित कर उन्हें परीक्षण के लिए प्रसिद्ध मानव शास्त्री एवं लखनऊ विश्वविद्यालय केमानव शास्त्र विभाग के डायरेक्टर जनरल डॉ. डीएन मजूमदार को सौंप दिया। बाद में डॉ. मजूमदार स्वयं भी यहां से अस्थियां आदि सामग्री एकत्रित कर अपने साथ ले गए।
उन्होंने इस सामग्री को 400 साल से कहीं अधिक पुरानी माना और बताया कि ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं। डॉ. मजूमदार ने 1957 में यहां मिले मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डॉ. गिफन को भेजे। जिन्होंने रेडियो कॉर्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को 400 से 600 साल पुरानी बताया। ब्रिटिश व अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि अवशेषों में तिब्बती लोगों के ऊन से बने बूट, लकड़ी के बर्तनों के टुकड़े, घोड़े की साबूत रालों पर सूखा चमड़ा, रिंगाल की टूटी छंतोलियां और चटाइयों के टुकड़े शामिल हैं। याक के अवशेष भी यहां मिले, जिनकी पीठ पर तिब्बती सामान लादकर यात्रा करते हैं।
अवशेषों में खास वस्तु बड़े-बड़े दानों की हमेल है, जिसे लामा स्त्रियां पहनती थीं। वर्ष 2004 में भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के एक दल ने भी संयुक्त रूप से झील का रहस्य खोलने का प्रयास किया। इसी साल नेशनल ज्योग्राफिक के शोधार्थी भी 30 से ज्यादा नरकंकालों के नमूने इंग्लैंड ले गए। बावजूद इसके रहस्य अब भी बरकरार है।

स्वामी प्रणवानंद ने जोड़े कन्नौज से तार
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रूपकुंड के वैज्ञानिक पहलू को प्रकाश में लाने का श्रेय हिमालय अभियान के विशेषज्ञ एवं अन्वेषक साधक स्वामी प्रणवानंद को जाता है। प्रणवानंद ने वर्ष 1956 में लगभग ढाई माह और वर्ष 1957 व 58 में दो-दो माह रूपकुंड में शिविर लगाकर नरकंकाल, अस्थि, बालों की चुटिया, चमड़े के चप्पल व बटुआ, चूडिय़ां, लकड़ी व मिट्टी के बर्तन, शंख के टुकड़े, आभूषणों के दाने आदि वस्तुएं एकत्रित कीं।
इन्हें वैज्ञानिक परीक्षण के लिए बाहर भेजा गया और वर्ष 1957 से 1961 तक इन पर शोध परीक्षण होते रहे। शोध के आधार पर ये नरकंकाल, अस्थियां आदि 650 से 750 वर्ष पुराने बताए गए। प्रणवानंद ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में रूपकुंड से प्राप्त अस्थियां आदि वस्तुओं को कन्नौज के राजा यशोधवल के यात्रा दल का माना है। जिसमें राजपरिवार के सदस्यों के अलावा अनेक दास-दासियां, कर्मचारी, कारोबारी आदि शामिल थे।
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Mysterious Roopkund

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Dinesh Kukreti

The picturesque Roopkund Lake is situated in the ridge of huge ice peaks like Nandaghunghati and Trishuli on the famous Nandadevi Rajajat Marg, situated at an altitude of 16499 feet above sea level in the marginal Dewal development block of Chamoli district.  The lake is 12 meters long, ten meters wide and more than two meters deep green-blue oval in the lap of Trishuli peak (24 thousand feet), covered with snow for about six months in a year.  The stream of Roopganga also erupts from this lake.  The biggest feature of the lake is the mysterious ancient hell, bones, various tools, clothes, jewelry, utensils, slippers etc. found around it.  Hence it has been named as the mysterious lake.

Some say that these skeletons belong to the soldiers of a king's army, then someone connects their wires with the era of Alexander.  But, the truth is still in the future.  According to new research by scientists, this hell is 250 years old from the time of Alexander.  Because, even before Alexander, people from Greek countries also came here.  For this research, autosomal DNA, mitochondrial and Y chromosomes DNA were tested for hundred samples of hellbears.  In which it was revealed that these are skeletons of the Greeks.  Also some skeletons belong to the local people.  To reach this result, the research team also conducted DNA tests of around 800 people from nearby areas.  These were confirmed as Greek and local people of these hells.  However, earlier scientists had concluded that the hellfire may belong to Alexander's army contingent.

 

 Many secrets are revealed by secrets

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According to the scientists of Birbal Sahni Puranaspati Vigyan Sansthan, Lucknow, the DNA testing of the sample is matching the Greek DNA.  However, more research is still needed.  Apart from this, Anthropological Survey of India is going to start a project soon.  It is to be seen what other things come forward regarding these hells.

 

 Mythological belief

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Nanda Devi Rajajat is organized from the village of Nauti every 12th year in Chamoli district.  According to the legend related to this journey, Anupam Sundari, the Himalayan (Himwant) daughter, Devi Nanda (Parvati), was thirsting at a place on the way when she was going to Kailas weeping with Shiva.  Seeing Nanda's dry lips, Shiva looked around, but there was no water anywhere.  So, they hit their trident on the earth, causing a fountain of water to erupt there.  When Nanda was quenching the thirst, he saw a reflection of a beautiful woman in the water, who was in harmony with Shiva.  Seeing Nanda shocked, Shiva understood their duality and said, this is your form.  Since then, this pool has been called Roopkund, Shiva Adradhanarishwar and the mountains Trishul and Nandaghunghati.  Whereas, the water stream originating from here was named Nandakini.


 

 Scientists of country and world are engaged in research work

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Narkankal was first discovered in Roopkund in the year 1942 by the game ranger Harikrishna Madhwal of Nanda Devi Reserve.  Madhwal came here in search of rare flowers.  During this time, he inadvertently bumped into something inside the lake.  He was a skeleton when seen.  Heaps of hell were found around the lake and also in the foothills.  Seeing this, the colleagues of Ranger Madhwal felt as if they had come to some other world.  The laborers running with them ran away on seeing this scene.

After this, the phase of scientific study started.  In 1950, some American scientists took the hell out.  So far, many inquisitorial teams have also made historical visits to this mysterious region.  A team of geologists and experts also reached here and conducted investigation and testing.  In September 1955, an officer of the Uttar Pradesh Forest Department visited the Roopkund area and collected some hell, bones, slippers, etc. and handed them over to Dr. D.N.  .  Later, Dr. Majumdar himself collected material from the bones and took it with him.

He considered this material to be more than 400 years old and said that these bone remains belong to a pilgrimage party.  In 1957, Dr. Mazumdar sent samples of human bones found here to American human body specialist Dr. Giffen.  Who tested these bones as 400 to 600 years old by radio carbon method.  Scientists from the British and US also found that the remains included boots made of wool from Tibetans, pieces of wooden utensils, dry leather on horse-drawn carpets, broken rhinestone rings and pieces of mats.  Yak's remains are also found here, on whose back Tibetans travel with luggage loaded.

The main item in the relic is the large-grain hamlets, which the Lama women wore.  In 2004, a team of Indian and European scientists also jointly attempted to unravel the mystery of the lake.  In the same year, researchers from National Geographic also took samples of more than 30 narcissists to England.  Despite this, its mystery still remains.


 Swami Pranavanand connected wires to Kannauj

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The credit for exposing the scientific aspect of Roopkund goes to Swami Pranavanand, an expert and investigative seeker of the Himalayan expedition.  Pranavanand spent about two and a half months in the year 1956 and two months in the year 1957 and 58 by camping in Roopkund, hell, bone, hair pinch, leather slippers and wallets, bangles, wood and pottery, conch pieces, jewelery.  Collected grains etc.

They were sent out for scientific testing and from 1957 to 1961 research on them continued.  On the basis of research, these hell, bones, etc. were said to be 650 to 750 years old.  In the conclusion of his study, Pranavananda considered the objects of bones, etc. obtained from Roopkund as the travel party of King Yashodhaval of Kannauj.  Apart from the members of the royal family, there were many slaves, servants, businessmen etc.

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Thursday, 27 August 2020

समय की नब्ज पकड़ता नया दौर का सिनेमा (New era cinema changed with time)

 


समय की नब्ज पकड़ता नया दौर का सिनेमा
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दिनेश कुकरेती
तमाम तरह के स्टीरियोटाईप (जड़ताओं) को तोड़ रहा आज का हिंदी सिनेमा अपने पुरसुकून रूमानी माहौल से उबर रहा है। उसने दर्शकों की बेचैनी को भांप लिया है और उन्हें आवाज देनी भी शुरू कर दी है। वह अपने नए मिजाज से दर्शकों को न सिर्फ अपनी तरफ खींच रहा है, बल्कि उन्हें नए तरीके से सोचने पर मजबूर भी कर रहा है। सिनेमा का वर्तमान इसलिए भी आकर्षक है, क्योंकि वह अपने समय की नब्ज को न सिर्फ पकड़ता है, बल्कि बिल्कुल ही-मैन वाले अंदाज में अपना प्रभामंडल भी तैयार करता है।
कहना न होगा कि फॉर्म और कंटेंट (विषय, भाषा, पात्र, प्रस्तुति), दोनों ही स्तर पर सिनेमा बदला है। हालांकि, ऐसा नहीं कि यह सब-कुछ पहली मर्तबा हुआ या हो रहा है। पहले भी समय-समय पर बदलाव होते रहे, लेकिन वर्तमान में जो बदलाव परिलक्षित हुए या हो रहे हैं, वह पहले पूरी तरह जुदा हैं। दरअसल आज का मेनस्ट्रीम या व्यावसायिक सिनेमा अपने भीतर कला फिल्मों की सादगी एवं सौंदर्य को भी समेटे हुए है। जिससे शायद अब फिल्मकारों को राष्ट्रीय पुरस्कारों को लक्ष्य कर कुछ खास तरह की फिल्में बनाने की जरूरत नहीं रह गई है।
वैसे देखा जाए तो वर्तमान में सिनेमा ही नहीं, भारतीय फिल्मों का दर्शक भी बिल्कुल उसी रफ्तार से बदल रहा है। नए दर्शक वर्ग ने सिनेमा के इस परिवर्तित और अपेक्षाकृत समृद्ध रूप को तहेदिल से स्वीकार किया है। इसी भारतीय दर्शक के बारे में कभी श्याम बेनेगल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, 'यह हमारे डीएनए में है कि हम एक खास किस्म की फिल्में पसंद करते हैं।Ó लेकिन, अब हिंदी सिनेमा के बदले हुए परिदृश्य को देखकर लग रहा है कि इस डीएनए की 'खास पसंदÓ में हलचल हुई है। हालांकि, अभी श्याम बेनेगल के उपरोक्त कथन को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज भी बहुसंख्य फिल्में उसी 'खास किस्मÓ की श्रेणी में आती और बनाई जाती हैं। बावजूद इसके कई ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचे को हिलाने की जुर्रत की है। इन फिल्मों न  अपने समय को संयमित ढंग से दृश्यबद्ध किया है और सफलता के नए मानदंड भी गढ़े हैं।

यह भी गौर करने वाली बात है कि नए सिनेमा ने फिल्मों को एक खास तरह के एलीटिज्म (अभिजात्यता) से बचाया है। स्त्री पात्रों को नायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली इन फिल्मों की स्त्रियां अपने शर्म और संकोच की कैद से बाहर निकल जाती हैं। वह कथित सभ्रांत समाज से बेपरवाह हो ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, मुक्तकंठ से गाती हैं और तब तक नाचती हैं, जब तक कि मन नहीं भर जाता। वह महंगी शिफॉन साडिय़ों या कई-कई किलो के लहंगे और अनारकली सूट में नजर नहीं आतीं। बल्कि, साधारण कपड़ों में ही अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं। वह नारी जीवन के पारिवारिक एवं सामाजिक सवालों को ही नहीं उठातीं, बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण भी मजबूती से पेश करती हैं। यही वजह है कि जिस स्त्री को सिनेमा ने अपने शुरुआती दौर में अबला के रूप में प्रस्तुत किया था, आज वही अबला मुख्य भूमिका में आ गई है।

अर्थ ही नहीं, पैमाने भी बदले
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नए दौर के सिनेमा ने मनोरंजन के अर्थ ही नहीं, पैमाने भी बदले हैं। सिनेमा समझ चुका है कि बदला हुआ दर्शक केवल लटके-झटकों से संतुष्ट होने वाला नहीं। उसे बदलते सामाजिक-आर्थिक मौसम के अनुरूप कुछ खास एवं मजबूत आहार की जरूरत है। यही वजह है कि करण जौहर जैसे विशुद्ध सिने व्यवसायी भी अपने स्वनिर्मित रूमानी किले से बाहर निकलकर 'माई नेम इज खानÓ, 'बॉम्बे टाकिजÓ जैसी फिल्में बनाने को मजबूर हुए हैं।

पुरानी रूढिय़ां तोड़ रहा नया सिनेमा
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हिंदी सिनेमा ने तमाम तरह की पुरानी रूढिय़ों को तोड़ा है। अपने समय की नब्ज को पहचानते हुए उसे प्रोत्साहित किया है और अपने लिए दर्शक वर्ग तैयार किया है। विषय, भाषा, चरित्र, प्रस्तुति आदि सभी स्तरों पर भारतीय सिनेमा अपनी पुरानी छवि को छोड़ नई जमीन तैयार कर रहा है। 

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New era cinema changed with time

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Dinesh Kukreti

Breaking all kinds of stereotypes (inertia), today's Hindi cinema is recovering from its predominantly romantic atmosphere.  He has sensed the restlessness of the audience and has also started giving voice to them.  With his new mood, he is not only pulling the audience towards himself, but also forcing him to think in a new way.  The present of cinema is also attractive because it not only captures the pulse of its time, but also prepares its aura in an all-man style.

Needless to say that cinema has changed both at the level of form and content (subject, language, characters, presentation).  However, it is not the case that all this happened for the first time or was happening.  Even before, there have been changes from time to time, but the changes reflected or happening in the present are completely different from the first.  In fact, today's mainstream or commercial cinema also incorporates the simplicity and beauty of art films within itself.  Due to which, now the filmmakers are no longer required to make certain types of films by aiming for national awards.

By the way, at present, not only cinema, the audience of Indian films is also changing at the same pace.  The new audience has wholeheartedly accepted this transformed and relatively rich form of cinema.  It was about this Indian audience that Shyam Benegal once said in an interview, "It is in our DNA that we like a certain type of films." But, now, looking at the changed scenario of Hindi cinema, it seems that  This 'special choice' of DNA has caused a stir.  However, the above statement of Shyam Benegal cannot be rejected outright, because even today, the majority of films fall under the same 'special variety' category and are made.  Despite this, many such films are also being made, which have tried to shake the structure of cinema and society.  These films have not visualized their time in a restrained manner and new standards of success have also been created.

It is also worth noting that the new cinema has saved films from a certain kind of elitism.  The women of these films, who portray female characters as heroes, get out of their shame and inhibition.  She cries out, shouts, sings, sings with muktakantha, and dances until the mind is full, irrespective of the alleged elite society.  She is not seen in expensive chiffon saris or many-kilo lehengas and anarkali suits.  Rather, she presents her personality effectively in simple clothes.  The women not only raise the family and social questions of life, but also present the political outlook firmly.  This is the reason that the woman, who was presented as Abla in her early days, has come in the lead role today.

Not only meaning, scale also changed

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New age cinema has changed not only the meaning of entertainment but also the scale.  Cinema has understood that the changed audience is not going to be satisfied only by hanging.  It needs some special and strong food to suit the changing socio-economic season.  This is the reason why even pure cine businessmen like Karan Johar have been forced to move out of their self-made romantic fortresses to make films like 'My Name is Khan', 'Bombay Talkies'.

New cinema breaking old trends

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Hindi cinema has broken all kinds of old stereotypes.  Recognizing the pulse of his time, he has encouraged him and has prepared an audience for himself.  At all levels of subject, language, character, presentation etc. Indian cinema is leaving its old image and preparing new ground.


अर्जेंटीना ने दी दुनिया की पहली एनिमेटेड फिल्म (Argentina gave the world's first animated film)

 

अर्जेंटीना ने दी दुनिया की पहली एनिमेटेड फिल्म
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दिनेश कुकरेती
दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना भी भारत की तरह ही विविधताओं वाला देश है। यहां सिनेमा के प्रति लोगों की दीवानगी वैसी ही है, जैसे भारत में। महत्वपूर्ण यह कि दुनिया की पहली एनिमेटेड फिल्म का निर्माण भी अर्जेंटीना के नागरिक ने ही किया था। 70 मिनट की यह फिल्म वर्ष 1917 में कुइरिनो क्रिस्टियनी ने बनाई थी। उसका टाइटल था 'एल एलोस्टोलÓ, जिसमें कुल 58 हजार फ्रेम थे। हालांकि, आज इसकी कोई प्रति मौजूद नहीं है।
अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में फिल्म निर्माण की शुरुआत वर्ष 1898 में हुई। 1930 के दशक तक अर्जेंटीना फिल्म उद्योग प्रतिवर्ष 30 फिल्मों का उत्पादन करने लगा, जिन्हें सभी लैटिन अमेरिकी देशों में निर्यात किया जाता था। 1930 के दशक की शुरुआत में टैंगो गायक कार्लोस गार्डेल ने कई ऐसी फिल्में बनाईं, जिन्होंने उन्हें अंतरराष्ट्रीय मंच पर विशिष्ट पहचान दी। वर्ष 1935 में कार्लोस की मृत्यु हो गई। 

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक अर्जेंटीना सिनेमा बूम और बस्ट के कई दौर से गुजर चुका था। इसकी वजह बनी देश की राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता, जिससे अस्थायी रूप से कई स्टूडियो बंद हो गए। लेकिन, फिर ऐसा दौर भी आया, जब अर्जेंटीना फिल्म उद्योग की कई अविश्वसनीय प्रस्तुतियां सामने आईं। इनमें 'न्यूवे रीनासÓ, 'एल सेक्रेटो डी सुस ओजोसÓ, 'नो नोवियो पैरा एमआइ मुजरÓ, 'ला हिस्टोरिया ओफियलÓ, 'एल आराÓ, 'एल हिजो डे ला नोबियाÓ, 'पिज्जा-बिरा-फासोÓ जैसी फिल्में प्रमुख हैं, जिन्होंने लोगों को संस्कृति और मनोविज्ञान में एक अलग तरह की अंतर्दृष्टि प्रदान की। वर्तमान में अर्जेंटीना का सिनेमा पुनर्जागरण से दौर से गुजर रहा है और वहां सिनेमा में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं।

 

यथार्थ के आसपास हैं नए दौर की फिल्में

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विश्व सिनेमा को बदलने और उसे पहचान दिलाने में जिन फिल्मकारों का नाम प्रमुखता से उभरता है, उनमें फ्रांसीसी निर्देशक ज्यां लुक गोदार्द व फ्रांकोइस ट्रफ्ट, जापानी निर्देशक कुरोसोवो व यासुजिरो ओजू, स्वीडिश निर्देशक इंगमार बर्गमन व रूसी निर्देशक आंद्रेई तारकोवस्की से लेकर भारतीय निर्देशक सत्यजीत राय तक शामिल हैं। इन सभी ने प्रतिकूल परिस्थितियों और सीमित संसाधनों के साथ घोर वित्तीय चुनौतियों के बीच फिल्म निर्माण का साहस दिखाया। 

यही वजह है कि जब विश्व सिनेमा का जिक्र आता है तो उसमें हॉलीवुड या अंग्रेजी सिनेमा को शामिल नहीं किया जाता। उसमें मसाला फिल्में बनाने वाले बॉलीवुड को कितना जोड़ा जाए, यह भी बहस का विषय हो सकता है, लेकिन भारत का समानांतर सिनेमा या यर्थाथ के आसपास जगह बना रही है बॉलीवुड के नए निर्देशकों की फिल्में जरूर विश्व सिनेमा में शामिल की जा सकती हैं।
विश्व सिनेमा को दुनियाभर में सार्थक एवं उद्देश्यपरक फिल्में देने के लिए जाना जाता है, क्योंकि वह हमेशा जीवन के मुख्य सरोकारों, व्यवस्था बदलावों और दृष्टिकोण का पैराकार रहा है। हालांकि, यह भी सत्य है कि विश्व सिनेमा के ज्यादातर महान फिल्मकारों को हमेशा फिल्म बनाने के लिए धनाभाव से जूझना पड़ा। कारण वे बाजार जैसी व्यवस्था से खुद को न केवल दूर रखते थे, बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने कभी बॉक्स ऑफिस को ध्यान में रखकर फिल्में नहीं बनाईं। लेकिन, आज यही सिनेमा दुनियाभर में लोगों को आकर्षित कर रहा है।

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Argentina gave the world's first animated film
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Dinesh Kukreti
The South American country Argentina is also a country with variations like India.  People's craze for cinema here is the same as in India.  Importantly, the world's first animated film was also produced by an Argentinian citizen.  The 70-minute film was made in the year 1917 by Cuirino Christiani.  Its title was 'El Allostol', which had a total of 58 thousand frames.  However, no copy exists of it today.
 Filmmaking began in 1898 in the Argentine capital of Buenos Aires.  By the 1930s, the Argentine film industry began producing 30 films annually, which were exported to all Latin American countries.  In the early 1930s Tango singer Carlos Gardel made several films that gave him a distinct identity on the international stage.  Carlos died in the year 1935.

By the second half of the twentieth century, the Argentine cinema had gone through several periods of boom and bust.  This was due to the country's political and economic instability, which temporarily closed many studios.  But then also came a period when many incredible productions of the Argentine film industry came out.  These include films such as 'Nueva Reinas Ó,' El Secreto de Sus Ojos Ó, 'No Novio Para Mi Mujar Ó,' La Historia Offial Ó, 'El Ara Ó,' El Hijo de la Nobia Ó, 'Pizza-Bira-Faso', which made people culture  And provided a different kind of insight into psychology.  Currently Argentine cinema is undergoing a renaissance and there are new experiments in cinema.

New era films are around reality
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Filmmakers whose name emerges prominently in changing and recognizing world cinema include French director Jean Luc Godard and François Truft, Japanese director Kurosovo and Yasujiro Oju, Swedish director Ingmar Bergman and Russian director Andrei Tarkovsky to Indian director Satyajit Rai  Up to  All of these showed the courage of film production amidst unfavorable conditions and severe financial challenges with limited resources.

This is the reason that when it comes to mentioning world cinema, Hollywood or English cinema is not included in it.  How much Bollywood movies that make spice films in it, can also be a matter of debate, but India's parallel cinema is making a place around the heart or movies of Bollywood's new directors can definitely be included in world cinema.
 
World cinema is known worldwide for delivering meaningful and purposeful films, as it has always been a paragon of life's main concerns, system changes and attitudes.  However, it is also true that most of the great filmmakers of world cinema have always struggled with wealth to make films.  The reason was that he not only kept himself away from the market-like system, but it can also be said that he never made films keeping the box office in mind.  But today, this cinema is attracting people all over the world.

नए दौर के निर्देशकों ने गढ़ा नया सिनेमा (New era directors coined new cinema)

 


नए दौर के निर्देशकों ने गढ़ा नया सिनेमा
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दिनेश कुकरेती
अक्सर हिंदी सिनेमा को लेकर बहस सुनने को मिलती है कि आखिर हमें फिल्में क्यों बनानी चाहिए। जवाब होता है समाज की उस तस्वीर को लोगों के सामने लाने के लिए, जिसे व्यावसायिक सिनेमा नहीं दिखाना चाहता। लेकिन, फिर सवाल उठता है कि कला या समानांतर सिनेमा ही कौन-सा समाज का भला कर रहा है। उसे तो कोई देखता भी नहीं। काफी हद तक यह सोच सही भी मानी जा सकती है। क्योंकि, आज आजादी से पूर्व या तत्काल बाद वाली स्थितियां तो रही नहीं, जब सिनेमा कोई न कोई मकसद लिए हुए होता था। आज तो सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं और तनावों पर बन रही फिल्मों से भी कुछ सीखने को नहीं मिल रहा।

देखा जाए तो यह एकतरफा सोच है। सच तो यह है कि विषयवस्तु, शैली, प्रस्तुतीकरण और अभिनय में समानांतर सिनेमा जीवन के यथार्थ का आईना है। असल में सिनेमा और समाज के बीच एक अदृश्य-सा रिश्ता है, जो समय-समय पर उजागर एवं लुप्त होता रहा है। इसीलिए हर पांच-दस साल में सिनेमा की मुख्यधारा में एक नई धारा जुड़ती जाती है, जिसे कभी आधुनिक सिनेमा, कभी कला फिल्म तो कभी समानांतर सिनेमा का नाम दिया जाता रहा है। सत्तर के दशक में सिनेमा की एक नई धारा निकली, जिसे मृणाल सेन, बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी व गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों ने पोषित किया। इसे कला फिल्म या समानांतर सिनेमा का नाम दिया गया। हालांकि, इन फिल्मों में ऐसा कुछ भी कलात्मक नहीं था, जिसे कला फिल्म माना जा सके। न यह मुख्यधारा के समानांतर चलने वाला या उसकी बराबरी कर सकने वाला सिनेमा था। लेकिन, वर्तमान में तस्वीर इससे इतर है। अब भारत में जिस तरह की फिल्में बन रही हैं, वह निश्चित ही इन्हें समानांतर फिल्मों का ओहदा दिलवाने में इसलिए कामयाब है, क्योंकि यह मुख्यधारा की फिल्मों से हटकर होने के बावजूद किसी भी पैमाने पर उससे कमतर नहीं है। इन फिल्मों के बजट से लेकर सितारे तक मुख्यधारा की फिल्मों की तरह होते हैं। ठीक उसी तरह ये मुख्यधारा की फिल्मों के समानांतर चलते हुए बॉक्स ऑफिस पर उन्हें टक्कर देती हैं।
 

चलिए, उस दौर में लौटते हैं, जब श्याम बेनेगल ने 'मंथनÓ जैसी फिल्म से मसाला फिल्मों के निर्देशकों को बता दिया था कि बॉलीवुड में सिर्फ चलताऊ किस्म की कहानी ही नहीं चलती। लेकिन, बात अगर कमाई की करें तो ये फिल्में व्यावसायिक फिल्मों की कमाई से अब भी कोसों पीछे थीं। अस्सी के दशक में जब महेश भट्ट आए तो उन्होंने अपनी सार्थक एवं विषयपरक फिल्मों से सबका ध्यान खींचा, लेकिन कुछ समय बाद वे भी चकाचौंध का हिस्सा बन गए। तब फिल्म विधा से जुड़े काफी लोग यह धारण बना चुके थे कि नब्बे के दशक और उसके बाद शायद बॉलीवुड में कला फिल्में बननी ही बंद हो जाएं। लेकिन, इसी कालखंड में श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, सुधीर मिश्रा जैसे कुछ निर्देशकों ने सिनेमा की एक नई शैली विकसित की, जिसे समानांतर सिनेमा कहा गया। यह शैली काफी हद तक कला और मसाला फिल्मों का मिश्रण थी। सिलसिला आगे बढ़ता रहा और 21वीं सदी में आकर समानांतर सिनेमा ने मजबूत पकड़ बना ली। इस दौर के कम उम्र के निर्देशक हर उस विषय को अपनी फिल्मों में दिखाना चाहते थे, जिसे किन्हीं कारणों से बॉलीवुड में अब तक दिखा पाना मुश्किल था।


रामगोपाल वर्मा, श्रीराम राघवन व सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशकों ने अलग सोच एवं विषयों पर अपनी पकड़ से इन समानांतर फिल्मों को मुख्यधारा की फिल्मों की टक्कर में लाकर खड़ा कर दिया। रामगोपाल वर्मा इस शैली के सबसे सफल निर्देशक साबित हुए। 'सत्याÓ जैसी व्यावसायिक फिल्म इसका उदाहरण है। धीरे-धीरे अन्य नए निर्देशक भी इस धारा में शामिल हो गए। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित अनुराग कश्यप ने किया। उन्होंने 'ब्लैक फ्राइडेÓ और 'गुलालÓ जैसी फिल्मों के जरिये दुनिया को बता दिया कि कम बजट में भी कैसे बेहतरीन सिनेमा बनाया जा सकता है। इसके अलावा इम्तियाज अली और दिवाकर बनर्जी जैसे युवा निर्देशकों ने भी 'हाईवेÓ और 'लव सेक्स और धोखाÓ जैसी फिल्में बनाकर खुद को लंबी रेस का घोड़ा साबित किया। ऐसे ही निर्देशकों की बदौलत आज के दौर को बॉलीवुड में समानांतर सिनेमा का स्वर्णिम दौर कहा जा रहा है। 

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New era directors coined new cinema

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Dinesh Kukreti

Often we get to hear the debate about Hindi cinema as to why we should make films.  The answer is to bring that picture of society, which commercial cinema does not want to show.  But, then the question arises as to which society or art is doing good for society.  Nobody even sees him.  To a large extent this thinking can also be considered correct.  Because today, conditions before or immediately after independence were not there, when cinema used to have some motive.  Today, there is no learning even from films being made on socio-political events and tensions.

If seen, this is one sided thinking.  The truth is that parallel cinema is a mirror of real life in content, style, presentation and acting.  Actually there is an invisible relationship between cinema and society, which has been exposed and disappearing from time to time.  That is why every five-ten years a new stream is added to the mainstream of cinema, which is sometimes called modern cinema, sometimes art film and sometimes parallel cinema.  A new stream of cinema emerged in the seventies, nurtured by filmmakers like Mrinal Sen, Basu Bhattacharya, Basu Chatterjee and Govind Nihalani.  It was named art film or parallel cinema.  However, there was nothing artistic in these films that could be considered an art film.  Neither was it a cinema running parallel to or equal to the mainstream.  However, currently the picture is different than this.  The kind of films that are being made in India are now successful in getting them the rank of parallel films because it is not inferior to any scale despite being different from mainstream films.  These films range from budget to stars like mainstream films.  In the same way, they run parallel to mainstream films and compete with them at the box office.

Let us return to the era when Shyam Benegal had told the directors of masala films from a film like 'Manthan' that the story of Bollywood is not just moving.  However, if we talk about earning, these films were still far behind the earnings of commercial films.  When Mahesh Bhatt came in the eighties, he caught everyone's attention with his meaningful and thematic films, but after some time he too became a part of the glare.  At that time, many people associated with the film genre had made the assumption that in the nineties and beyond, perhaps Bollywood films should stop being made.  But, in the same period some directors like Shyam Benegal, Prakash Jha, Sudhir Mishra developed a new style of cinema, which was called parallel cinema.  The genre was largely a mixture of art and spice films.  The series continued to move forward and parallel cinema took a strong hold in the 21st century.  The young directors of this era wanted to show every subject in their films, which for some reason was difficult to show in Bollywood till now.

Directors like Ram Gopal Varma, Shri Ram Raghavan and Sudhir Mishra, with their hold on different thinking and themes, made these parallel films stand in the competition of mainstream films.  Ramgopal Varma proved to be the most successful director of the genre.  Commercial films like 'Satya' are an example of this.  Gradually other new directors also joined this stream.  Anurag Kashyap was the most affected among them.  Through films like 'Black Friday' and 'Gulal', he told the world how to make a good cinema even on a low budget.  Apart from this, young directors like Imtiaz Ali and Diwakar Banerjee also proved themselves as the race for a long race by making films like 'Highway' and 'Love Sex and Cheat'.  Due to such directors, today's era is being called the golden period of parallel cinema in Bollywood.

Wednesday, 26 August 2020

सर्दियों में भट्ट की दाल के अलग-अलग जायके

 


सर्दियों में भट्ट की दाल के अलग-अलग जायके
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दिनेश कुकरेती 

र्दियों के मौसम में ऐसा भोजन मिल जाए, जो तन में गर्माहट लाने के साथ मन में संतुष्टि का भाव जगा दे तो कहने ही क्या। भट्ट की दाल से बनने वाले भट्वाणी (चुड़कानी), डुबका, भटुला, जौला आदि ऐसे ही व्यंजन हैं। ये स्वाद में जितने लाजवाब हैं, उतने ही पौष्टिक भी। भट्ट का जौला तो पीलिया की भी रामबाण औषधि है। इन्हीं तमाम गुणों के कारण शहरों में रहने वाले प्रवासी उत्तराखंडी भी सर्दियों में पहाड़ से भट्ट की दाल मंगाना नहीं भूलते। आइये! आपको भी भट्ट के जायके से परिचित कराते हैं।
 


भट्वाणी
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भट्वाणी या चुड़कानी गढ़वाल में शीतकाल के दौरान सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला व्यंजन है। इसके लिए सबसे पहले भट्ट की दाल को बिना तेल या घी के कढ़ाई या तवे में हल्की राख डालकर भून लें। इससे भट्ट बर्तन में चिपकते नहीं और अच्छी तरह चटकते व फूल जाते हैं। अब लोहे की कढ़ाई में घी-तेल डालकर प्याज, लहसुन, जख्या व जम्बू का तड़का दें। साथ ही दो-चार छोटे चेरी टमाटर डालकर जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च व अन्य मसाले मिला लें। ग्रेवी तैयार होने पर इसमें भुने भट्ट डालकर खूब अल्टा-पल्टी करते रहें। फिर ढक्कन रखकर थोड़ी देर तक पकाएं। लगभग आधे घंटे में ही भट्वाणी पककर तैयार हो जाएगा। इसे आप भात (चावल)-झंगोरा के साथ गर्मागर्म परोस सकते हैं। वैसे भट्वाणी हर सीजन में खाया जा सकता है।

भट्ट का डुबका (एक)
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डुबका तैयार करने के लिए भट्ट की दाल रात को पानी में भिगोकर रख दें। अगले दिन उसे सिल-बट्टे या मिक्सी में दरदरा (एकदम महीन नहीं) पीसकर मसीटा बना लें। अब लोहे की कढ़ाई में घी या सरसों का तेल डालकर उसमें लहसुन, प्याज, जख्या, गंदरैण (कढ़ी पत्ता) व जम्बू का तड़का लगाएं। फिर जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च व अन्य मसाले मिला लें। चाहे तो टमाटर भी डाल सकते हैं। ग्रेवी बनने पर पानी में घुले मसीटे का छौंक लगा लें। कढ़ाई में लगातार करछी या कौंचा चलाते रहें अन्यथा डुबका तले में चिपकने लगेगा। जैसे ही रंग थोड़ा काला होने लगे और महक फैलने लगे, समझिए डुबका तैयार है।



भट्ट का डुबका (दो)
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भट्ट की दाल को चक्की में पीसकर मोटा आटा जैसा पाउडर बना लें। फिर लोहे की कढ़ाई में घी डालकर उसमें भट्ट का आटा मिला लें। इसे हलुवे की तरह हल्की आंच में भूनें। हल्का भूरा होने पर इसमें नमक मिर्च, धनिया व जीरा मिला लें। थोड़ा गाढ़ापन लाना हो तो दो-चार चम्मच गेहूं का आटा मिलाकर भून सकते हैं। ध्यान रखें कि आटा ज्यादा न भुन जाए, अन्यथा कड़वाहट आ जाएगी। अब कढ़ाई में अंदाज से पानी डाल लें। पानी एक बार ही डालना बेहतर होगा, इससे स्वाद अच्छा रहेगा। डुबका कढ़ाई के तले में न चिपके, इसके लिए बीच-बीच में करछी जरूर चलाते रहें। जब कढ़ाई के ऊपरी हिस्से में डुबका ज्यादा चिपकने लगे और पपड़ी बनने लगे तो समझिए डुबका तैयार है। सर्दियों में ठंड भगाने का इससे बेहतर व्यंजन है।


भटुला
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भटुला डुबके जैसा ही व्यंजन है, लेकिन इसे बनाने का तरीका थोड़ा अलग है। मसलन भट्ट के आटे को पानी में घोलकर रख लें। लोहे की कढ़ाई में छौंके के लिए घी या तेल डालकर प्याज, लहसुन व जख्या का तड़का लगा लें। साथ ही नमक, मिर्च व अन्य मसाले भी भूनकर भट्ट के आटे के घोल का छौंक लगा लें। अंदाज से पानी डालकर इसे पकाते रहें और करछी चलाते रहें। 15-20 मिनट में भटुला तैयार।

भट्ट का जौला
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यह एक मजेदार रेसेपी है, जिसे साग या दाल के रूप में नहीं, बल्कि संपूर्ण भोजन के रूप में खाया जाता है। 'जौलाÓ या 'जौंल्याÓ शब्द दो अलग-अलग खाद्यों का मेल है, जो भट्ट व चावल के मिश्रण से बनता है। इसके लिए रात को भट्ट की दाल भिगोकर रख दें। सुबह इसे छिलका अलग कर या छिलके सहित ही सिल-बट्टे या अन्य तरीके से पीसकर मसीटा तैयार कर लें। लोहे की कढ़ाई में इस मसीटे को बिना छौंके पकाएं। साथ में जरूरत के हिसाब से चावल भी डाल दें। देर तक पकाते रहें। जब यह पककर बिल्कुल लसपसा हो जाए तो इसके साथ लहसुन वाला हरा नमक मिलाकर खाएं। यह पीलिया की रामबाण औषधि है। पीलिया के रोगी चावल की जगह झंगरियाल बिना नमक के ही खा सकते हैं। 



Monday, 24 August 2020

सबसे अनूठा एवं विलक्षण गढ़वाल का पांडव नृत्य

सबसे अनूठा एवं विलक्षण गढ़वाल का पांडव नृत्य
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दिनेश कुकरेती

वैसे तो गढ़वाल में लोकनृत्यों का खजाना बिखरा पड़ा है, लेकिन इनमें सबसे खास है पांडव (पंडौं) नृत्य। दरअसल पांडवों का गढ़वाल से गहरा संबंध रहा है। महाभारत के युद्ध से पूर्व और युद्ध समाप्त होने के बाद भी पांडवों ने गढ़वाल में लंबा समय व्यतीत किया। यहीं लाखामंडल में दुर्योधन ने पांडवों को उनकी माता कुंती समेत जिंदा जलाने के लिए लाक्षागृह का निर्माण कराया था। महाभारत के युद्ध के बाद कुल हत्या, गोत्र हत्या व ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेदव्यास ने पांडवों को शिव की शरण में केदारभूमि जाने की सलाह दी थी।
मान्यता है कि पांडवों ने केदारनाथ में महिष रूपी भगवान शिव के पृष्ठ भाग की पूजा-अर्चना की और वहां एतिहासिक केदारनाथ मंदिर का निर्माण किया। इसी तरह उन्होंने मध्यमेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ व कल्पनाथ (कल्पेश्वर) में भी भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर मंदिरों का निर्माण किया। इसके बाद द्रोपदी समेत पांडव मोक्ष प्राप्ति के लिए बदरीनाथ धाम होते हुए स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े। लेकिन, युधिष्ठिर ही स्वर्ग के लिए सशरीर प्रस्थान कर पाए, जबकि अन्य पांडवों व द्रोपदी ने भीम पुल, लक्ष्मी वन, सहस्त्रधारा, चक्रतीर्थ व संतोपंथ में अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया था। 


पांडवों के बदरी-केदार भूमि के प्रति इसी अलौकिक प्रेम ने उन्हें गढ़वाल का लोक देवता बना दिया। यहां कदम-कदम पर होने वाला पांडव नृत्य पांडवों के गढ़वाल क्षेत्र के प्रति इसी विशेष प्रेम को प्रदर्शित करता है।


सबसे विविधता पूर्ण पांडव नृत्य तल्ला नागपुर क्षेत्र में
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पांडव नृत्य का सबसे विविधता पूर्ण आयोजन रुद्रप्रयाग जिले के तल्ला नागपुर क्षेत्र में होता है। हर साल नवंबर और दिसंबर के मध्य यह पूरा क्षेत्र पांडवमय हो जाता है। अन्य क्षेत्रों, खासकर देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर का भी पांडव नृत्य एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है।


गांव की खुशहाली व अच्छी फसल की कामना का नृत्य
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गढ़वाल क्षेत्र में नवंबर और दिसंबर के दौरान खेतीबाड़ी का काम पूरा हो चुका होता है। इस खाली समय में लोग पांडव नृत्य में बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाते हैं। पांडव नृत्य कराने के पीछे लोग विभिन्न तर्क देते हैं। इनमें मुख्य रूप से गांव की खुशहाली व अच्छी फसल की कामना प्रमुख वजह हैं। लोक मान्यता यह भी है पांडव नृत्य करने के बाद गोवंश में होने वाला खुरपका रोग ठीक हो जाता है।


ब्याहता बेटियां और प्रवासी भी लौट आते हैं घर
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यह ऐसा अनुष्ठान है, जब गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर-दूर रहने वाली ब्याहता बेटियां अपने मायके लौट आती हैं। यानी पांडव नृत्य का पहाड़वासियों से एक गहरा पारिवारिक संबंध भी है। इस दौरान गांवों में प्रवासियों की भी चहल-पहल रहती है और बंद घरों के ताले खुल जाते हैं।


गांव के पांडव चौक में होता यह अनूठा नृत्य
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पांडव नृत्य के आयोजन से पूर्व इसकी रूपरेखा तय करने के लिए ग्रामीण पंचायत बुलाकर विचार-विमर्श करते हैं। तय तिथि को सभी ग्रामीण गांव के पांडव चौक (पंडौं चौरा) में एकत्रित होते हैं। पांडव चौक उस स्थान को कहा जाता है, जहां पांडव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल-दमाऊ, जो उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्ययंत्र हैं, उनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं। जैसे ही ढोली (औजी या दास) ढोल की पर विशेष धुन बजाते हैं, पांडव नृत्य में पांडवों की भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों पर पांडव अवतरित हो जाते हैं। इन व्यक्तियों को पांडवों का पश्वा कहा जाता है।


हर वीर के अवतरित होने की विशेष थाप
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पांडव पश्वों के अवतरित होने के पीछे भी एक अनोखा रहस्य छिपा हुआ है, जिस पर शोध कार्य चल रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि पांडव पश्वा गांव वाले तय नहीं करते। वह ढोली के नौबत बजाने (एक विशेष थाप) पर स्वयं अवतरित होते हैं। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रोपदी के अवतरित होने की विशेष थाप होती है। लोक के जानकार बताते हैं कि पांडव पश्वा उन्हीं लोगों पर अवतरित होते हैं, जिनके परिवारों में वह पहले भी अवतरित होते आए हैं।


13 पश्वा करते हैं पांडव नृत्य
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इन आयोजनों में पांडव पश्वों के बाण निकालने का दिन, धार्मिक स्नान, मोरु डाली, मालाफुलारी, चक्रव्यूह, कमल व्यूह, गरुड़ व्यूह आदि सम्मिलित हैं। पाडव नृत्य में  कुल 13 पश्वा होते हैं। इनमें द्रोपदी, भगवान नारायण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, हनुमान, अग्नि बाण, मालाफुलारी, भवरिक व कल्याल्वार शामिल हैं। नृत्य में इन सबका अहम योगदान रहता है। डॉ. विलियम एस. सैक्स की पुस्तक 'डांसिंग विद सेल्फÓ में पांडव नृत्य के हर पहलू को बड़े ही रोचक ढंग से उजाकर किया गया है।


लाखामंडल में पांडव नृत्य के अनूठे रंग
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पांडवों के बिना गढ़वाल के समाज, संस्कृति व परंपरा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यमुना घाटी में तो अनेक स्थान पांडवों के साथ कौरवों से भी जुड़े हुए हैं। इन्हीं में एक प्रमुख क्षेत्र है लाखामंडल। कहा जाता है कि लाखामंडल में कौरवों ने षड्यंत्र के तहत लाक्षागृह का निर्माण किया था। ताकि पांडवों को माता कुंती समेत जिंदा जलाया जा सके। लाखामंडल में आज भी सैकड़ों गुफाए हैं, जिनमें लाक्षागृह से सुरक्षित निकलकर पांडवों ने लंबा समय गुजारा था। जौनसार के इस इलाके के गांवों में हर वर्ष पांडव लीलाओं एवं नृत्य का आयोजन होता है।


जीवन शैली, खान-पान, हास्य, युद्ध, कृषि आदि की झांकी
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पांडव नृत्य कोई सामान्य नृत्य न होकर नृत्य, गीत व नाटकों का एक सम्मिलित स्वरूप है। इसमें ढोल की सबसे बड़ी भूमिका है। ढोली व सहयोगी वार्ताकार पांडवों की जीवन शैली, खान-पान, हास्य, युद्ध, कृषि जैसे अनेकों क्रियाकलापों को नृत्य-गीत व नाटिका के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इस नृत्य में जहां हास्य-व्यंग्य शामिल है, वहीं युद्ध कौशल व पांडवों के कठिन जीवन, रोष-क्षोभ का भी समावेश होता है।


ढोली होता है नृत्य का सूत्रधार
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इस नृत्य-गीत व नाटिका के सफल संचालन का जिम्मा गांव के ढोली के हवाले होता है। ढोली ही वह लोग हैं, जो महाभारत की कथाओं के एकमात्र ज्ञाता हैं। वह गीत व वार्ताओं से पांडव नृत्य में समा बांध देते हैं। बीच-बीच में गांव के अन्य बुर्जुग, जिन्हें पांडवों की कहानियां ज्ञात होती हैं, वे भी लयबद्ध वार्ता व गायन के जरिये इसका हिस्सा बनते हैं।


बिना स्क्रिप्ट का अनूठा नृत्य
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महत्वपूर्ण बात यह कि पांडव नृत्य के लिए गायन की कोई पूर्व निर्धारित स्क्रिप्ट नहीं होती। ढोली अपने ज्ञान के अनुसार कथा को लय में प्रस्तुत करता है और उसी हिसाब से सुर व स्वरों में उतार-चढ़ाव लाया जाता है।