देवताओं के प्रयाग देवप्रयाग में रघुनाथ के दर्शन
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दिनेश कुकरेती
ऋषिकेश से 70 किमी दूर स्थित देवप्रयाग नगर ने आधुनिक युग में भी अपने पुराने वैभव को नहीं खोया। इसी नगर में मौजूद है प्राचीन रघुनाथ मंदिर। शहर के ऊपरी भाग में एक चबूतरे पर सीमेंट रहित बड़े पत्थरों से निर्मित 80 फीट ऊंचे इस मंदिर का निर्माण काल 1700 से 2000 वर्ष पूर्व का है। कहते हैं कि धारानगरी के पंवार वंश के राजा कनकपाल के पुत्र श्याम पाल (722-782 ईस्वी) के गुरु शंकर ने काष्ठ का प्रयोग कर मंदिर शिखर का निर्माण करवाया था। गुरु शंकर और आद्य शंकराचार्य का काल आठवीं सदी का है। उस काल में मंदिर का शिखर परिवर्तित होने के कारण जनश्रुति है कि मंदिर का निर्माण शंकराचार्य ने कराया था। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में उल्लेख है कि त्रेता युग में ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति के लिए श्रीराम ने देवप्रयाग में तप किया और विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना की। इसलिए यहां रघुनाथ मंदिर की स्थापना हुई। यहां श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु की पूजा होती है।
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दिनेश कुकरेती
ऋषिकेश से 70 किमी दूर स्थित देवप्रयाग नगर ने आधुनिक युग में भी अपने पुराने वैभव को नहीं खोया। इसी नगर में मौजूद है प्राचीन रघुनाथ मंदिर। शहर के ऊपरी भाग में एक चबूतरे पर सीमेंट रहित बड़े पत्थरों से निर्मित 80 फीट ऊंचे इस मंदिर का निर्माण काल 1700 से 2000 वर्ष पूर्व का है। कहते हैं कि धारानगरी के पंवार वंश के राजा कनकपाल के पुत्र श्याम पाल (722-782 ईस्वी) के गुरु शंकर ने काष्ठ का प्रयोग कर मंदिर शिखर का निर्माण करवाया था। गुरु शंकर और आद्य शंकराचार्य का काल आठवीं सदी का है। उस काल में मंदिर का शिखर परिवर्तित होने के कारण जनश्रुति है कि मंदिर का निर्माण शंकराचार्य ने कराया था। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में उल्लेख है कि त्रेता युग में ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति के लिए श्रीराम ने देवप्रयाग में तप किया और विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना की। इसलिए यहां रघुनाथ मंदिर की स्थापना हुई। यहां श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु की पूजा होती है।
चतुर्भुज भगवान, दो बाहों की पूजा
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रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह में श्याम पाषाण निर्मित छह फीट ऊंची चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। लेकिन, पूजा करते हुए मूर्ति की दो बाहों को ढक दिया जाता है। यह अलौकिक मंदिर अन्य मंदिरों की तरह किसी चट्टान या दीवार पर टिका न होकर गर्भगृह के केंद्र में स्थित है। परिसर के परिक्रमा पथ पर शंकराचार्य, गरुड़, हनुमान, अन्नपूर्णा व भगवान शिव के छोटे-छोटे मंदिर हैं। परिसर में राजस्थानी शैली की एक छतरी भी है, जहां समारोहों के दौरान प्रार्थना की जाती है।
सिंहद्वार पहुंचने को 101 सीढिय़ां
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रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह में श्याम पाषाण निर्मित छह फीट ऊंची चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। लेकिन, पूजा करते हुए मूर्ति की दो बाहों को ढक दिया जाता है। यह अलौकिक मंदिर अन्य मंदिरों की तरह किसी चट्टान या दीवार पर टिका न होकर गर्भगृह के केंद्र में स्थित है। परिसर के परिक्रमा पथ पर शंकराचार्य, गरुड़, हनुमान, अन्नपूर्णा व भगवान शिव के छोटे-छोटे मंदिर हैं। परिसर में राजस्थानी शैली की एक छतरी भी है, जहां समारोहों के दौरान प्रार्थना की जाती है।
सिंहद्वार पहुंचने को 101 सीढिय़ां
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मुख्य मंदिर के शीर्ष पर स्वर्ण कलश और गर्भगृह में श्रीराम की विशाल मूर्ति विराजमान है। मूर्ति के चरण व हाथों पर आभूषण और सिर पर स्वर्ण मुकुट सजा है। हाथों में धनुष-बाण और कमर में ढाल लिए श्रीराम के एक ओर माता सीता और दूसरी ओर लक्ष्मण की मूर्ति है। मंदिर के बाहर गरुड़ की पीतल की मूर्ति है, जबकि मंदिर के दाहिनी ओर बदरीनाथ, महादेव व कालभैरव विराजमान हैं। मंदिर के सिंहद्वार तक पहुंचने के लिए 101 सीढिय़ां बनी हुई हैं। वर्ष 1803 में आए भूकंप में रघुनाथ मंदिर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। तब ग्वालियर राजघराने के माधवराव सिंधिया के पितामह दौलतराव सिंधिया ने इसकी मरम्मत करवाई।
कत्यूरी नहीं, नागर शैली का मंदिर
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मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। मंदिर निर्माण के बाद जब हिमालयन शैली विकसित हुई, तब आमलक के पास चारों ओर खंभों वाली तिबारी बनाकर उसको तांबे की चद्दरों से ढक छतरीनुमा बनाया गया। फिर उसके मध्य में कलश रखे गए। यह कत्यूरी शिखर शैली का प्रभाव था, इसलिए छतरी पर लकड़ी का प्रयोग किया गया। इसी लकड़ी के शिखर को देखकर प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल 'चारणÓ ने इस मंदिर को कत्यूरी शिखर शैली के प्रधान मंदिरोंं में माना। जबकि, वास्तव में यह नागर शैली का मंदिर है। श्रीनारायण चतुर्वेदी ने भी ङ्क्षहदू मंदिरों के रूप विन्यास में नागर शैली के मंदिरों का जो वर्णन किया है, उसके मुताबिक इस मंदिर की बनावट नागर शैली की है। मात्र शिखर ही कत्यूरी शैली का है।
'स्कंद पुराणÓ में देवप्रयाग पर 11 अध्याय
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भारत व नेपाल के 108 दिव्य धार्मिक स्थलों में देवप्रयाग का नाम आदर से लिया जाता है। यहीं अलकनंदा व भागीरथी नदी के संगम पर गंगा का उद्भव होता है। इसी कारण देवप्रयाग को पंच प्रयागों में सबसे अधिक महत्व मिला। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने यहां दस हजार वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिए देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ व सुदर्शन क्षेत्र भी कहा गया। मान्यता यह भी है कि मुनि देव शर्मा के 11 हजार वर्षों तक तप करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा को त्रेतायुग में देवप्रयाग लौटने का वचन दिया और रामावतार में देवप्रयाग आकर उसे निभाया भी। कहते हैं कि श्रीराम ने ही मुनि देव शर्मा के नाम पर इस स्थान को देवप्रयाग नाम दिया। देवप्रयाग के पूर्व में धनेश्वर, दक्षिण में तांडेश्वर, पश्चिम में तांतेश्वर व उत्तर में बालेश्वर मंदिर और केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर स्थित हैं। ऐसी भी मान्यता है कि यहां गंगाजल के भीतर भी एक शिवलिंग मौजूद है।
एटकिंसन की नजर में देवप्रयाग
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वर्ष 1882 में 'द हिमालयन गजेटियरÓ में ईटी एटकिंसन लिखते हैं-देवप्रयाग गांव एक छोटी सपाट जगह पर खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित था। उसके पीछे 800 फीट ऊंचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से ऊपर पहुंचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर मवेशी भी चढ़ सकें। इसके अलावा रस्सी के दो झूला पुल भागीरथी और अलकनंदा नदी के उस पार जाने के लिए उपलब्ध हैं।
पाल वंश के अधीन रहा देवप्रयाग
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चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रह्मपुरी कहा है। सातवीं सदी में इसे ब्रह्मतीर्थ और श्रीखंड नगर नाम से भी जाना जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ 'अरावलÓ में इसे कंडवेणुकटि नगरम् माना गया है। 1000 से 1803 ईस्वी तक शेष गढ़वाल की तरह ही देवप्रयाग भी पाल वंश के अधीन रहा, जो बाद में पंवार वंश के शाह कहलाए।
आठवीं सदी में आए थे तिलंग भट्ट
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आठवीं सदी में आद्य शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत से तिलंग भट्ट ब्राह्मणों देवप्रयाग आगमन हुआ। कहते हैं कि तिलंग ब्राह्मण बदरीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्रपत्र के अनुसार पंवार वंश के 37वें वंशज अभय पाल ने तिलंग भट्टों को बदरीनाथ का तीर्थ पुरोहित होने का अधिकार दिया था।
राजा आते थे तो ढक दिया जाता था मंदिर
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वर्ष 1785 में पंवार राजा जयकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में अपनी जान दे दी थी। माना जाता है कि राजा की चार रानियां भी यहां सती हो गईं, जिन्हें रानी सती मंदिर समर्पित है। माना जाता है कि उन्होंने पंवार वंश को शापित कर दिया था। जिस कारण आज भी पंवार वंश की कोई सदस्य मंदिर की ओर नहीं झांकता। पूर्व में भी जब राजा देवप्रयाग आते थे तो मंदिर को पूरी तरह ढक दिया जाता था। मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में 19 लोगों के नाम खुदे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी।
हरि के पांच अवतारों का संबंध
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देवप्रयाग से भगवान विष्णु के श्रीराम समेत पांच अवतारों का संबंध माना गया है। जिस स्थान पर वे वराह के रूप में प्रकट हुए, उसे वराह शिला और जहां वामन रूप में प्रकट हुए, उसे वामन गुफा कहते हैं। देवप्रयाग के निकट नृसिंहाचल पर्वत के शिखर पर भगवान विष्णु नृसिंह रूप में शोभित हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहंता राजा सहस्रबाहु को मारने से पूर्व यहां तप किया। इसके निकट ही शिव तीर्थ में श्रीराम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिए तपस्या की थी। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही दशरथ को श्रीराम पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। श्रीराम के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे, जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं। गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गिद्धांचल कहते हैं। यह स्थान जटायु की तपोभूमि थी। पहाड़ी के आधार स्थल पर श्रीराम ने एक सुंदर स्त्री किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा के शाप से मकड़ी में परिवर्तित हो गई थी। इसी स्थान के निकट एक स्थान पर ओडिसा के राजा इंद्रद्युम ने भगवान विष्णु की आराधना की थी।
कत्यूरी नहीं, नागर शैली का मंदिर
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मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। मंदिर निर्माण के बाद जब हिमालयन शैली विकसित हुई, तब आमलक के पास चारों ओर खंभों वाली तिबारी बनाकर उसको तांबे की चद्दरों से ढक छतरीनुमा बनाया गया। फिर उसके मध्य में कलश रखे गए। यह कत्यूरी शिखर शैली का प्रभाव था, इसलिए छतरी पर लकड़ी का प्रयोग किया गया। इसी लकड़ी के शिखर को देखकर प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल 'चारणÓ ने इस मंदिर को कत्यूरी शिखर शैली के प्रधान मंदिरोंं में माना। जबकि, वास्तव में यह नागर शैली का मंदिर है। श्रीनारायण चतुर्वेदी ने भी ङ्क्षहदू मंदिरों के रूप विन्यास में नागर शैली के मंदिरों का जो वर्णन किया है, उसके मुताबिक इस मंदिर की बनावट नागर शैली की है। मात्र शिखर ही कत्यूरी शैली का है।
'स्कंद पुराणÓ में देवप्रयाग पर 11 अध्याय
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भारत व नेपाल के 108 दिव्य धार्मिक स्थलों में देवप्रयाग का नाम आदर से लिया जाता है। यहीं अलकनंदा व भागीरथी नदी के संगम पर गंगा का उद्भव होता है। इसी कारण देवप्रयाग को पंच प्रयागों में सबसे अधिक महत्व मिला। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने यहां दस हजार वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिए देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ व सुदर्शन क्षेत्र भी कहा गया। मान्यता यह भी है कि मुनि देव शर्मा के 11 हजार वर्षों तक तप करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा को त्रेतायुग में देवप्रयाग लौटने का वचन दिया और रामावतार में देवप्रयाग आकर उसे निभाया भी। कहते हैं कि श्रीराम ने ही मुनि देव शर्मा के नाम पर इस स्थान को देवप्रयाग नाम दिया। देवप्रयाग के पूर्व में धनेश्वर, दक्षिण में तांडेश्वर, पश्चिम में तांतेश्वर व उत्तर में बालेश्वर मंदिर और केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर स्थित हैं। ऐसी भी मान्यता है कि यहां गंगाजल के भीतर भी एक शिवलिंग मौजूद है।
एटकिंसन की नजर में देवप्रयाग
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वर्ष 1882 में 'द हिमालयन गजेटियरÓ में ईटी एटकिंसन लिखते हैं-देवप्रयाग गांव एक छोटी सपाट जगह पर खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित था। उसके पीछे 800 फीट ऊंचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से ऊपर पहुंचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर मवेशी भी चढ़ सकें। इसके अलावा रस्सी के दो झूला पुल भागीरथी और अलकनंदा नदी के उस पार जाने के लिए उपलब्ध हैं।
पाल वंश के अधीन रहा देवप्रयाग
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चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रह्मपुरी कहा है। सातवीं सदी में इसे ब्रह्मतीर्थ और श्रीखंड नगर नाम से भी जाना जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ 'अरावलÓ में इसे कंडवेणुकटि नगरम् माना गया है। 1000 से 1803 ईस्वी तक शेष गढ़वाल की तरह ही देवप्रयाग भी पाल वंश के अधीन रहा, जो बाद में पंवार वंश के शाह कहलाए।
आठवीं सदी में आए थे तिलंग भट्ट
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आठवीं सदी में आद्य शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत से तिलंग भट्ट ब्राह्मणों देवप्रयाग आगमन हुआ। कहते हैं कि तिलंग ब्राह्मण बदरीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्रपत्र के अनुसार पंवार वंश के 37वें वंशज अभय पाल ने तिलंग भट्टों को बदरीनाथ का तीर्थ पुरोहित होने का अधिकार दिया था।
राजा आते थे तो ढक दिया जाता था मंदिर
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वर्ष 1785 में पंवार राजा जयकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में अपनी जान दे दी थी। माना जाता है कि राजा की चार रानियां भी यहां सती हो गईं, जिन्हें रानी सती मंदिर समर्पित है। माना जाता है कि उन्होंने पंवार वंश को शापित कर दिया था। जिस कारण आज भी पंवार वंश की कोई सदस्य मंदिर की ओर नहीं झांकता। पूर्व में भी जब राजा देवप्रयाग आते थे तो मंदिर को पूरी तरह ढक दिया जाता था। मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में 19 लोगों के नाम खुदे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी।
हरि के पांच अवतारों का संबंध
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देवप्रयाग से भगवान विष्णु के श्रीराम समेत पांच अवतारों का संबंध माना गया है। जिस स्थान पर वे वराह के रूप में प्रकट हुए, उसे वराह शिला और जहां वामन रूप में प्रकट हुए, उसे वामन गुफा कहते हैं। देवप्रयाग के निकट नृसिंहाचल पर्वत के शिखर पर भगवान विष्णु नृसिंह रूप में शोभित हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहंता राजा सहस्रबाहु को मारने से पूर्व यहां तप किया। इसके निकट ही शिव तीर्थ में श्रीराम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिए तपस्या की थी। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही दशरथ को श्रीराम पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। श्रीराम के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे, जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं। गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गिद्धांचल कहते हैं। यह स्थान जटायु की तपोभूमि थी। पहाड़ी के आधार स्थल पर श्रीराम ने एक सुंदर स्त्री किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा के शाप से मकड़ी में परिवर्तित हो गई थी। इसी स्थान के निकट एक स्थान पर ओडिसा के राजा इंद्रद्युम ने भगवान विष्णु की आराधना की थी।
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