Wednesday, 17 May 2023

उत्तर भारत में सबसे पहले मसूरी पहुंची थी बिजली

उत्तर भारत में सबसे पहले मसूरी पहुंची थी बिजली
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जब दिल्ली, मुंबई व कोलकाता जैसे महानगरों में लोग चिमनी, ढिबरी, लालटेन व मशालें जलाकर घरों को रोशन किया करते थे, तब पहाड़ों की रानी मसूरी व देहरादून के कई इलाकों में बिजली के बल्ब जगमगाने लगे थे। ऐसा मसूरी के पास ग्लोगी में बनी उत्तर भारत की पहली एवं देश की दूसरी जल-विद्युत परियोजना के अस्तित्व में आने के कारण संभव हो पाया था। परियोजना वर्ष 1907 में बनकर तैयार हुई और फिर मसूरी विद्युत प्रकाश में जगमगा उठी। इस बिजलीघर से पहाड़ों की रानी मसूरी का बार्लोगंज और दूनघाटी का अनारवाला क्षेत्र आज भी रोशन है। दरअसल, ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने देश में जिन चार विद्युत गृहों की परिकल्पना की थी, उनमें मैसूर, दार्जिलिंग व चंबा (हिमाचल प्रदेश) के अलावा ग्लोगी परियोजना भी शामिल थी। 
 

कर्नल बेल की देख-रेख में तैयार हुआ था विद्युत गृह
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दिनेश कुकरेती
क्यारकुली व भट्टा गांव के ग्रामीणों की ओर से दान में दी गई जमीन पर वर्ष 1890 में ग्लोगी जल-विद्युत परियोजना पर काम शुरू हुआ था। यह स्थान मसूरी-देहरादून मार्ग पर भट्टा गांव से तीन किमी दूर है। परियोजना से बिजली उत्पादन की शुरुआत वर्ष 1907 में हुई। मसूरी नगर पालिका के तत्कालीन विद्युत इंजीनियर कर्नल बेल की देख-रेख में 600 से ज्यादा लोगों ने इस परियोजना पर काम किया था। तब परियोजना की लागत लगभग छह लाख रुपये तय की गई थी। इसमें तत्कालीन नॉर्थ-वेस्ट प्रोविसेंस अवध एंड आगरा शासन ने मसूरी नगर पालिका को 4.67 लाख रुपये का ऋण मुहैया कराया। जबकि, 1.33 लाख की धनराशि पालिका को अपने स्तर से उपलब्ध करनी थी। हालांकि, बाद में परियोजना की कुल लागत 7.50 लाख रुपये पहुंच गई।



बैलगाड़ी से ग्लोगी पहुंचाए गए टरबाइन व जनरेटर
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परियोजना का खाका नगर पालिका मसूरी के तत्कालीन इंजीनियर पी.बिलिंग हर्ट ने तैयार किया था। परियोजना के लिए विद्युत उत्पादन करने वाली टरबाइन लंदन से खरीदी गई। तब मसूरी के लिए सड़क नहीं थी, सो मजूदरों को मशीनें ग्लोगी पहुंचाने के लिए कष्टसाध्य परिश्रम करना पड़ा। सबसे पहले बड़े जनरेटर और संयंत्रों को बैलगाडिय़ों के जरिये परियोजना स्थल तक पहुंचाने के लिए गढ़ी डाकरा से कच्ची सड़क बनाने का निर्णय लिया गया। लेकिन, विस्तृत सर्वेक्षण के बाद इसमें अधिक धन और समय की बर्बादी को ध्यान में रखते हुए मशीनें वर्तमान देहरादून-मसूरी मोटर मार्ग से ग्लोगी पहुंचाई गई। तब यह बैलगाड़ी मार्ग हुआ करता था।



1907 में पूरा हुआ कार्य, 1909 में उद्घाटन
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वर्ष 1907 में परियोजना का कार्य पूरा हुआ और क्यारकुली व भट्टा में बने छोटे तालाबों से 16 इंची पाइप लाइनों के जरिये जलधाराओं ने इंग्लैंड में बनी दो विशालकाय टरबाइनों से विद्युत उत्पादन शुरू कर दिया। लेकिन, इसका विधिवत शुभारंभ 25 मई 1909 को किया गया।

पहली बार बल्ब को देखकर डर गए थे लोग
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मसूरी स्थित लाइब्रेरी में जिस दिन बिजली का पहला बल्ब जला, उस दिन ब्रिटेन का राष्ट्रीय गीत बजाकर खुशिया मनाई गईं। हालांकि, लोग तब बल्ब को देखकर डर रहे थे कि यह क्या बला है। लेकिन, तत्कालीन इंजीनियर ने बल्ब को अपने हाथ से पकड़कर लोगों को समझाया कि इससे उन्हें कोई खतरा नही है। इसके बाद मसूरी में अन्य स्थान भी बिजली से रोशन हुए और फिर देहरादून के लिए भी आपूर्ति की गई।



1933 में स्थापित हुई दो और इकाइयां
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वर्ष 1933 में विद्युत गृह की क्षमता 3000 किलोवाट करने के लिए एक-एक हजार किलोवाट की दो और इकाइयां स्थापित की गईं। जो आज भी मसूरी के बार्लोगंज और झड़ीपानी क्षेत्र को रोशन कर रही हैं। राज्य गठन के बाद से इसका संचालन उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड कर रहा है।

पानी के जहाजों से मुंबई और रेल से दून पहुंची मशीनें
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वर्ष 1900 में पहली बार देहरादून पहुंची रेल ने ग्लोगी जल-विद्युत परियोजना को गति देने में अहम भूमिका निभाई थी। इंग्लैंड से पानी के जहाजों के जरिये मुंबई पहुंची भारी मशीन और टरबाइनों को इस रेल से ही देहरादून पहुंचाया गया। यहां से बैलगाड़ी और श्रमिकों के कंधों पर इन मशीनों को पहाड़ी पर स्थित परियोजना स्थल तक पहुंचाया गया।



70 साल ग्लोगी बिजलीघर की मालिक रही मसूरी नगर पालिका
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नौ नवंबर 1912 में ग्लोगी विद्युत गृह ने देश में दूसरा बिजलीघर होने का गौरव हासिल किया। वर्ष 1920 तक मसूरी के अधिकांश बंगलों, होटलों और स्कूलों से लैंप उतार दिए गए और उनकी जगह बिजली के चमकदार बल्बों ने ले ली। मसूरी नगर पालिका पूरे 70 साल ग्लोगी बिजलीघर की मालिक रही। तब बिजली की आय से मसूरी नगर पालिका उत्तर प्रदेश की सबसे धनी नगर पालिका मानी जाती थी। वर्ष 1976 को उत्तर प्रदेश विद्युत परिषद ने बिजली घर सहित पालिका के समस्त विद्युत उपक्रम अधिग्रहीत कर लिए।

लंदन की विद्युत संबंधी कंपनी के विशेषज्ञ ने की थी सराहना
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ग्लोगी पावर हाउस उस दौर में कितना पावरफुल रहा होगा, इसका अनुमान लंदन स्थित इंग्लैंड की सबसे बड़ी विद्युत संबंधी कंपनी के विशेषज्ञ डॉ. जी.मार्शल के पत्र से लगाया जा सकता है। उन्होंने 19 दिसंबर 1912 को मसूरी पालिका के तत्कालीन अध्यक्ष ओकेडन यह पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने कहा था कि, 'ग्लोगी हिंदुस्तान का प्रथम जल-विद्युत गृह है, जो अतिरिक्त रूप से कई सौ हॉर्स पावर की रोपवे, ट्रॉम-वे और भारी मशीनों को चलाने की विशेष क्षमता रखता है।Ó

हर्ट ने 1898 में खींच लिया था परियोजना का खाका
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वर्ष 1898 में मसूरी नगर पालिका के तत्कालीन इंजीनियर पी.विलिंग हर्ट की जल-विद्युत परियोजना पर सौ पृष्ठों की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें  उन्होंने प्रस्तावित परियोजना का विस्तृत खाका खींचा था। इससे उस दौर में ऊर्जा विकास की समृद्ध तकनीकी का पता चलता है।


मसूरी के कब्रिस्तान में सोया है रानी झांसी का वकील

मसूरी के कब्रिस्तान में सोया है रानी झांसी का वकील
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दिनेश कुकरेती
पहाड़ों की रानी मसूरी में कैमल्स बैक रोड के कब्रिस्तान में स्वतंत्रता आंदोलन का एक ऐसा अंग्रेज सपूत भी दफन है, जिसने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ युद्ध में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया था। पेशे से वकील एवं पत्रकार इस आस्ट्रेलियन अंग्रेज ने अंग्रेजी हुकूमत द्वारा रानी झांसी के विरुद्ध लगाए गए झूठे आरोपों की ब्रिटिश अदालत में धज्जियां उड़ा दी थीं। वह जीवनपर्यंत भारतीय जनता की गुलामी व उत्पीडऩ के खिलाफ लड़ते रहे। इससे अंग्रेज हुक्मरान उनसे बेहद खफा रहते थे और अन्य भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की ही तरह उनका भी उत्पीडऩ किया करते थे।

सिर्फ 48 साल जिया आस्‍ट्रेलिया निवासी लैंग
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वाल्टर लेंग और एलिजाबेथ की संतान जॉन लैंग का जन्म 19 दिसंबर 1816 को सिडनी (आस्ट्रेलिया) में हुआ था। लेकिन, 20 अगस्त 1864 को 48 साल की अल्पायु में उन्होंने दुनिया-ए-फानी से रुखसत ली पहाड़ों की रानी मसूरी में। उनकी मौत संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई थी। इसलिए 22 अगस्त 1864 को मसूरी पुलिस चौकी में उनकी हत्या की रिपोर्ट लिखाई गई। लेकिन, अंग्रेजी हुक्मरानों ने मामले की जांच को ही दबा दिया और उनकी मौत का रहस्य हमेशा रहस्य बनकर रह गया।

रस्किन ने खोजी कैमल्स बैक रोड के कब्रिस्तान में लैंग की कब्र
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जॉन लैंग वर्ष 1842 में भारत आ गए थे और यहां अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की कानूनी मदद करने लगे। वर्ष 1861 में उन्होंने मसूरी में ही मारग्रेट वैटर से विवाह किया। कम ही लोग जानते हैं कि लैंग का नाम वर्ष 1964 में तब सुर्खियों में आया, जब प्रख्यात लेखक रस्किन बांड ने मसूरी की कैमल्स बैक रोड पर उनकी कब्र खोज निकाली। हालांकि, ऑस्ट्रेलिया में लैंग अपनी किताबों की वजह से पहले से लोकप्रिय थे, लेकिन भारत में उन्हें कम ही लोग जानते थे। बांड लिखते हैं, अक्सर लैंग का ऐतिहासिक जिक्र आता था, लेकिन यह पुष्ट नहीं था कि वह मसूरी में रहे थे। वर्ष 1964 में लैंग की सौवीं पुण्य तिथि पर ऑस्ट्रेलिया से एक परिचित ने उनसे जुड़े कुछ दस्तावेज भेजे थे। इसके बाद ही उन्होंने लैंग की कब्र की खोज शुरू की।

हिमालय के कद्रदान थे लैंग
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रस्किन बांड लिखते हैं, जॉन लैंग को हिमालय और इसकी शिवालिक श्रेणियों की सुंदरता काफी भाती थी। मेरठ में गर्मी की वजह से जब वह बीमार रहने लगे तो उन्होंने मसूरी का रुख किया और फिर यहीं गृहस्थी बसा ली। वह मसूरी में पिक्चर पैलेस के पास हिमालय क्लब में रहते थे। यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।

वर्ष 1830 में दे दिया गया था देश निकाला
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लैंग की प्रारंभिक शिक्षा सिडनी में हुई और वर्ष 1837 में उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी (इंग्लैंड) से बैरिस्टर की डिग्री हासिल की। फिर कुछ समय आस्ट्रेलिया में बिताने के बाद भारत आ गए। हालांकि, सिडनी विद्रोह में ब्रिटिश शासकों के खिलाफ आवाज उठाने पर उन्हें वर्ष 1830 में ही देश निकाला दे दिया गया था और वह इंग्लैंड चले गए थे। भारत आने के बाद वर्ष 1845 तक यहां विभिन्न क्षेत्रों में अंग्रेजों द्वारा गरीब भारतीयों पर थोपे गए मुकदमे लड़े।

आखिरी दम तक करते रहे अखबार 'मफसिलाइटÓ का प्रकाशन
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वर्ष 1845 में लैंग ने कोलकाता में 'मफसिलाइटÓ नाम से एक अखबार का प्रकाशन शुरू किया। बाद में इसका मेरठ से प्रकाशन किया गया, जिसे जीवन के अंतिम समय तक वह मसूरी से भी प्रकाशित करते रहे। इसके लिए उन्होंने मसूरी के कुलड़ी बाजार स्थित द एक्सचेंज बिल्डिंग परिसर में मफसिलाइट प्रिंटिंग प्रेस लगाई थी। अपने अखबार में वह अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ लेख प्रकाशित करते थे। आज भी यह अखबार साप्ताहिक मफसिलाइट नाम से ङ्क्षहदी-अंगे्रजी, दोनों भाषाओं में प्रकाशित हो रहा है। इसके संपादक इतिहासकार जयप्रकाश उत्तराखंडी हैं और वही जॉन की याद में बनी एक समिति भी चलाते हैं।

1854 में रानी झांसी ने नियुक्त किया था लैंग को अपना वकील
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रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत से मान्यता दिलाने का मुकदमा जॉन लैंग ने ही लड़ा था। इतिहासकार जयप्रकाश उत्तराखंडी लिखते हैं कि संतानविहीन शासकों का राज्य हड़पने के लिए भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की निगाहें झांसी पर भी टिकी थीं। वर्ष 1854 में रानी लक्ष्मी बाई ने जॉन लैंग को अपना मुकदमा लडऩे के लिए नियुक्त किया और मिलने के लिए झांसी बुलाया। ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट में चले इस मुकदमे को लैंग हार गए। इसी बीच 1857 का गदर शुरू हो गया और 17 जून 1858 को अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मी बाई शहीद हो गईं। गदर असफल हो चुका था, सो इसी वर्ष लैंग भी मसूरी चले आए।

जब रानी ने लैंग से कहा 'मैं मेरी झांसी नहीं दूंगीÓ
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जॉन लैंग ने अपनी किताब  'वांडरिंग्स इन इंडियाÓ में लिखते हैं, बातचीत के दौरान रानी के गोद लिए हुए बेटे दामोदर ने अचानक रानी और मेरे बीच का पर्दा हटा दिया। जिससे रानी हैरान रह गई, हालांकि तब तक मैं रानी को देख चुका था। उन्होंने मुझसे कहा, 'मैं मेरी झांसी नहीं दूंगीÓ। मैं रानी को देख इतना प्रभावित हुआ कि खुद को नहीं रोक पाया और बोल बैठा, 'अगर गवर्नर जनरल भी आपको देखते तो थोड़ी देर के लिए खुद को भाग्यशाली मान बैठते, जैसे मैं मान रहा हूं। मैं विश्वास के साथ कह रहा हूं कि वो आप जैसी खूबसूरत रानी को झांसी वापस दे देते। हालांकि मेरी बात पर रानी ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया के साथ गरिमामयी ढंग से इस कॉम्प्लीमेंट को स्वीकार किया।Ó

 
रानी झांसी से रू-ब-रू होने वाले अकेले अंग्रेज थे लैंग
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जॉन लैंग अकेले अंग्रेज थे, जिन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से रू-ब-रू होने का सौभाग्य मिला था। लैंग लिखते हैं, 'रानी औसत कद, स्वस्थ, साधारण शरीर और कम आयु में बहुत सुंदर दिखने वाली गोल चेहरे वाली महिला थीं। उनकी आंखें काफी सुंदर और नाक की बनावट बेहद नाजुक थी। रंग बहुत गोरा नहीं, लेकिन श्यामलता से काफी बढिय़ा था। उनके शरीर पर कानों में ईयर रिंग के सिवा कोई जेवर नहीं था। वो बहुत अच्छी बुनाई की गई सफेद मलमल के कपड़े पहने हुई थीं। इस परिधान में उनके शरीर का रेखांकन काफी स्पष्ट था। वो वाकई बहुत सुंदर थीं। हां, जो चीज उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ती थी, वह थी उनकी रुआंसी ध्वनि युक्त फटी आवाज। हालांकि, वो बेहद समझदार एवं प्रभावशाली महिला थीं

आस्ट्रेलिया के पहलेे उपन्यासकार थे लैंग
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लैंग सिर्फ वकील ही नहीं, एक लेखक और अपने दौर के नामी पत्रकार भी थे। ऑस्ट्रेलिया में जॉन लैंग को देश के पहले उपन्यासकार के तौर पर जाना जाता है। लैंग ने अंग्रेजी उपन्यास द वेदरबाइज, टू क्लेवर बाई हॉफ, टू मच अलाइक, द फोर्जर्स वाइफ, कैप्टन मैकडोनाल्ड, द सीक्रेट पुलिस, ट्रू स्टोरीज ऑफ द अर्ली डेज ऑफ ऑस्ट्रेलिया, द एक्स वाइफ, माई फ्रेंड्स वाइफ जैसे चर्चित उपन्यास लिखे। उनके निधन के बाद ये उपन्यास कई बार प्रकाशित हुए और पाठकों द्वारा पसंद किए जाते रहे।

सुरंग बनना न टलता तो 1928 में मसूरी पहुंच जाती रेल

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नई पीढ़ी के बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि ब्रिटिश हुकूमत के दौर में देहरादून से पहाड़ों की रानी मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हो गया था। लेकिन, देहरादून से लगे राजपुर गांव के निकट घने जंगल में सुरंग बनाने के दौरान हुए हादसे ने अंग्रेजों की उम्मीदें धराशायी कर दीं। हालांकि, इसके बाद एक बार फिर कोशिश की गई, लेकिन सुरंग का पहाड़ धंसने के कारण योजना परवान नहीं चढ़ पाई। चलिए! हम भी अतीत की सैर करते हैं।


दो साल के भीतर मसूरी रेल ले जाना चाहते थे अंग्रेज
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दिनेश कुकरेती

हानी शुरू होती है रेल के देहरादून पहुंचने से। इसके लिए वर्ष 1894 में देहरादून-हरिद्वार के बीच ट्रैक बिछाने का कार्य शुरू हो चुका था। वर्ष 1899 में यह ट्रैक बनकर तैयार हुआ और वर्ष 1900 से देहरादून-हरिद्वार के बीच रेल चलनी शुरू हो गई। उस दौर में अंग्रेजों ने व्यापार और हुकूमत, दोनों के लिए देहरादून रेलवे स्टेशन का भरपूर उपयोग किया। इस स्टेशन के निर्माण के बाद अंग्रेज अधिकारियों के लिए मसूरी समेत गढ़वाल रियासत के विभिन्न हिस्सों में पहुंचना आसान हो गया था। लेकिन, अपनी सोच एवं तकनीकी के लिए मशहूर अंग्रेजों के कदम भला इतने में ही कहां रुकने वाले थे। सो, वह देहरादून शहर से 12 किमी दूर राजपुर गांव से मसूरी तक रेल ले जाने के लिए कार्ययोजना तैयार करने लगे। इसके लिए सर्वे का कार्य तो वे पहले ही पूरा कर चुके थे। उन्होंने राजपुर गांव के पास सुरंग बनानी शुरू की, जिससे होते हुए रेल ट्रैक को मसूरी पहुंचाया जाना था। अंग्रेज अधिकारी चाहते थे कि अगले दो सालों में वह मसूरी रेल ले जाने के सपने को हकीकत में बदल डालें।


दो बार हुआ था रेल लाइन बिछाने को सर्वे
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अंग्रेजों ने पुरानी मसूरी के निकट रेलवे ट्रैक बिछाने के लिए दो बार सर्वे किया। पहला सर्वे हर्रावाला से राजपुर गांव होते हुए मसूरी तक वर्ष 1885 में किया गया। वर्ष 1893 में रेल लाइन बिछाने का मसौदा भी तैयार कर लिया गया। इसके तहत अवध एंड रुहेलखंड रेलवे कंपनी की योजना राजपुर होते हुए मसूरी तक रेलगाड़ी ले जाने की थी। मसूरी के लिए रेल ले जाने का दूसरा प्रयास वर्ष 1920-21 में हुआ। तब हिंदुस्तान के कुछ राजे-रजवाड़ों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने 23 लाख रुपये की लागत से मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। अगर यह योजना जारी रह पाती तो यकीनन वर्ष 1928 तक रेल मसूरी पहुंच गई होती।















व्यापारियों का विरोध भी बना परियोजना के ठप पडऩे की वजह
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बताया जाता है कि मसूरी रेल परियोजना के बंद होने की वजह तब दून के व्यापारियों का तीखा विरोध भी बना। दरअसल, परियोजना के रोड मैप के अनुसार रेल ट्रैक को हर्रावाला से शहंशाही आश्रम होते हुए ओकग्रोव स्कूल, झड़ीपानी, बार्लोगंज और कुलड़ी के पास हिमालय क्लब से होकर गुजरना था। उस दौर में देहरादून के इस पूरे हिस्से में चाय और बासमती धान की खेती बहुतायत में हुआ करती थी। ये दोनों ही नकदी फसलें तब व्यापार का प्रमुख जरिया थीं। इसे देखते हुए दून के व्यापारी हर्रावाला से सीधे मसूरी रेल लाइन बिछाने के विरोध में उतर आए। नतीजा, अंग्रेजों को कदम पीछे खींचने पड़े।


निर्माण कंपनी टोल तक ला चुकी थी पटरियां
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रेल लाइन ले जाने के लिए राजपुर में शहंशाही आश्रम से कुछ आगे पुराने मसूरी टोल से आगे सुरंग बनाने का काम दो साल तक चला। बुजुर्ग बताते हैं कि वर्ष 1924 में सुरंग हादसे के बाद जब परियोजना का काम बंद हुआ, तब तक निर्माण कंपनी टोल तक पटरियां ला चुकी थी। सो, तय किया गया कि देहरादून से मसूरी तक इलेक्ट्रिक ट्रेन ट्रैक बनाया जाए और इस ट्रेन को ग्लोगी पावर हाउस से बिजली की सप्लाई दी जाए। लेकिन, यह सपना हकीकत में नहीं बदल पाया।


इसलिए हुई ओक ग्रोव स्कूल की स्थापना
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मसूरी रेल लाइन बिछाए जाने की प्रत्याशा में तत्कालीन भारतीय रेलवे ने वर्ष 1888 में झड़ीपानी में ओक ग्रोव स्कूल की स्थापना की थी। इस स्कूल का संचालन आज भी उत्तरी रेलवे द्वारा किया जाता है। यहां मुख्य रूप से रेलवे कर्मचारियों के बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल की इमारतों का निर्माण गोथिक शैली में हुआ है।


धरोहरों की सुध लेने वाला कोई नहीं
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इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि हमारी सरकारें अतीत की धरोहरों का संरक्षण भी नहीं कर पा रहीं। इसी का नतीजा है कि अंग्रेजों की बनाई इस सुरंग के चारों ओर इस कदर झाडिय़ां उग आई हैं कि सुरंग कहीं नजर ही नहीं आती। सुरंग तक पहुंचने का रास्ता भी जमींदोज हो चुका है। सरकारें चाहती तो नई पीढ़ी के ज्ञानवद्र्धन के लिए इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता था। लेकिन...।

Friday, 17 February 2023

संस्कृति ही नहीं, सरोकार भी भुला बैठे



संस्कृति ही नहीं, सरोकार भी भुला बैठे

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दिनेश कुकरेती

मिलनाडु में सांड को काबू करने के खेल जल्लीकट्टू की वापसी को हम आगे बढ़ते हुए समाज का विद्रूप कह सकते हैं, लेकिन इसके निहितार्थ तलाशें तो पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं जड़ों से जुड़े रहने की भावना निहित दिखती है। इसी से मिलती-जुलती परंपरा कुमाऊं (उत्तराखंड) में देवीधुरा की बग्वाल़ की भी है। परंपराओं में समाहित एक-दूसरे पर पत्थर बरसाने के इस खेल का भी अपना सांस्कृतिक पक्ष है। इसलिए लोगों ने इसे बंद करने के बजाय, बहुत हद तक इसके स्वरूप को ही बदल डाला। लेकिन, मूल में छेड़छाड़ किए बगैर। देर-सवेर जल्लीकट्टू के मामले में भी यही होना है। बावजूद इसके, इससे एक बात तो साबित होती ही है कि किसी भी समाज के लिए उसके मूल यानी जड़ों की कितनी अहमियत है। पर, अफसोस! हमारी सरकारों ने तो कभी मूल को महत्व दिया ही नहीं। जबकि, उत्तराखंड राज्य गठन की मांग के पीछे मूल यानी अपनी पहचान के संरक्षण का भाव ही छिपा हुआ था। आंदोलन के दौरान उत्तराखंड के हर कोने से एक गूंज सुनाई देती थी, 'कोदा-झंगोरा खांएगे, उत्तराखंड बनाएंगे'। क्या यह महज एक नारा था, अगर वैज्ञानिक दृष्टि से सोचा जाए तो इसका जवाब निश्चित रूप से 'ना' में होगा।

असल में कोदा-झंगोरा तो प्रतीक है उस श्रम शक्ति का, जिसने पहाड़ के सीने पर हल चलाकर उसे उपजाऊ बना दिया। उस कृषि प्रधान समाज का, जिसने पहाड़ की पहाड़ जैसी चुनौतियों का मुकाबला कर उसे कभी टूटने नहीं दिया। उस बहुरंगी संस्कृति और उन परंपराओं का, जिन्होंने दुश्वारियों के बीच भी कदमों में थिरकन भर दी। उस दुधबोली (मातृभाषा) का, जिसकी मिठास ने पहाड़ी समाज को देश-दुनिया में अलग पहचान दी। लेकिन, हुआ क्या? अलग राज्य के रूप में तो हमने आधी-अधूरी पहचान पा ली, किंतु पहले ही दिन से अपने कहलाने वालों के हाथों छले जाने लगे। बीते सोलह सालों का मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि इस अवधि में भाग्य-विधाता उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान को मिटाने का ही काम करते रहे। पहाड़ की मिट्टी में जन्मे और पले-बढ़े नेता हल्द्वानी और देहरादून में कदम रखते ही अपनी संस्कृति एवं संस्कार ही नहीं, सरोकार भी भुला बैठे। नतीजा, असली उत्तराखंड अपनी पहचान के लिए आज भी उसी तरह छटपटा रहा है, जैसी छटपटाहट उसमें उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते नजर आती थी। इसके एक नहीं, अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं, जिनका क्रमवार उल्लेख करना इस चुनावी बेला में मैं जरूरी समझता हूं।



पराई कर दी अपनी भाषा

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इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि पहले कांग्रेस और अब भाजपा के पांचों सांसद लोकसभा में हैं, लेकिन किसी ने भी वहां गढ़वाली-कुमाऊंनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में लाने की पहल नहीं की। न ही उत्तराखंड की किसी सरकार ने गढ़वाली-कुमाऊंनी को राज्य की द्वितीय भाषा का दर्जा देना जरूरी समझा। जबकि, उत्तराखंड के साथ ही बने झारखंड व छत्तीसखंड में वहां की स्थानीय भाषाओं को द्वितीय भाषा का दर्जा हासिल है और वे पाठ्यक्रम का भी हिस्सा हैं। यहां यह बताना जरूरी है कि किसी भी भाषा को आठवीं अनुसूची में तभी स्थान मिल सकता है, जब वह दिल्ली हिंदी अकादमी में सूचीबद्ध हो। और...अच्छी बात यह है कि गढ़वाली-कुमाऊंनी इस सूची में क्रमश: 16वें और 17वें स्थान पर दर्ज हैं।



लोक का रंग, लोक से दूर

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लोक कलाओं की उपेक्षा का आलम यह है कि आज तक हम अपने किसी भी लोक नृत्य को पंजाब के 'गिद्दा', गुजरात के 'गरबा', असोम के 'बिहू', केरल के 'कथकली', ओडिशा के 'ओडिसी' जैसे प्रसिद्ध नृत्यों के समकक्ष खड़ा नहीं कर पाए। कुमाऊंनी छोलिया नृत्य को जरूर थोड़ी-बहुत पहचान मिली, लेकिन इसमें भी सरकार एवं संस्कृति विभाग का कोई हाथ नहीं है। लोक के संवाहकों की मेहनत से ही यह संभव हो पाया। संस्कृति के प्रसार एवं उन्नयन में संस्कृति विभाग की भूमिका तो बस सेटिंग वाले दलों को भेजने की रही। यही वजह है कि देश-दुनिया में होने वाले महत्वपूर्ण आयोजनों में जड़ों से जुड़े सांस्कृतिक दल भागीदारी नहीं कर पाते।



रोजी-रोटी से दूर हुए लोक वाद्य

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लोक वाद्य एवं वादकों का जैसा हश्र उत्तराखंड में हुआ, वैसा शायद ही कहीं और देखने को मिलता हो। यही वजह है कि औजी, दास, बाजगीर, ढोली आदि अपना पुश्तैनी काम छोड़ शहरों में रोजी-रोटी तलाशने को मजबूर हैं। सरकार ने ढोल को राज्य वाद्य तो घोषित कर दिया, लेकिन ढोल वादक इस स्थिति में नहीं कि ढोल बजाकर परिवार की गुजर कर सकें। असल में जरूरत तो पारंपरिक वाद्यों को प्रचलन में लाने की है और ऐसा तभी संभव है, जब हम इन्हें सीधे रोजी-रोटी से जोड़ें। इसके लिए लोक एवं राज्य से जुड़े सभी आयोजनों में पारंपरिक वाद्यों की अनिवार्यता किए जाने की दरकार है। पर, ऐसा तभी होगा, जब हमारे नीति-निर्धारक इच्छाशक्ति का परिचय दें।



कहां मधुबनी, कहां ऐंपण

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स्थानीय उत्पादों व हस्तशिल्प का हाल देखिए, उन्हें कोई पूछने वाला नहीं। बिहार के मिथिलांचल की मधुबनी चित्रकला को पूरी दुनिया जानती है, लेकिन इसी के समकक्ष कुमाऊं की ऐंपण (अल्पना) कला के बारे में उत्तराखंड के लोग भी ठीक से नहीं जानते। ऐसी ही दयनीय स्थिति प्राचीन काष्ठ कला की है। पर्वतीय जिलों में बने प्राचीन घर इसका प्रमाण हैं कि कभी लकड़ी पर नक्काशी व चित्रकारी के मामले में हमारा कोई शानी नहीं था, लेकिन धीरे-धीरे बाजार ने इन सारी लोक विधाओं को निगल लिया। सरकारें चाहतीं तो पारंपरिक कलाओं को संरक्षण देकर इस पहाड़ी राज्य की आर्थिकी संवार सकती थीं।



परंपरा निभा रहे पारंपरिक व्यंजन

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उत्तराखंडी खानपान भी आज तक सरकारों के एजेंडे में नहीं रहा। हम अपने हिल स्टेशनों पर देश-दुनिया के पर्यटकों को इडली-डोसा व चाऊमीन तो परोस सकते हैं, लेकिन मंडुवे की रोटी, बथुए के परांठे, हरे लहसुन की चटनी, अर्सा, स्वाले, कुलथ का फाणू, चैंसू जैसे पारंपरिक व्यंजन नहीं। हैरत तो इस बात की है कि पहाड़ी व्यंजन यहां के नेताओं की भी पसंद नहीं बन पाए। यह पहाड़ खाली होने की भी एक प्रमुख वजह है।


हकीकत में नहीं बदली सपनों की फिल्म इंडस्ट्री

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बात उत्तराखंडी फिल्म उद्योग की करें तो यहां भी इन सोलह सालों में उपेक्षा ही हावी रही। यही वजह है कि हम न तो उत्तराखंड को बेहतरीन शूटिंग स्थल के रूप में प्रोजेक्ट कर पाए, न आंचलिक फिल्म उद्योग की मजबूती के लिए ही कोई पहल हुई। जबकि, यहां शूटिंग की बेहतरीन लोकेशन मौजूद हैं। हालांकि, 2016 में राज्य की फिल्म नीति घोषित होने के साथ ही उत्तराखंड फिल्म विकास परिषद भी अस्तित्व में आ चुकी है। लेकिन, आधे-अधूरे मन से हुई यह पहल बहुत कारगर नजर नहीं आती। समझा जा सकता है कि सरकारें उत्तराखंड में फिल्म उद्योग को लेकर कितनी गंभीर हैं।

Sunday, 29 January 2023

Culture is the reflection of nature

प्रकृति का ही प्रतिबिंब है संस्कृति

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दिनेश कुकरेती

ब न कोई वन नीति थी और न पर्यावरण से जुड़ी संस्थाएं, तब पर्यावरण संरक्षण हमारे नियमित क्रियाकलापों में था। हमने पीपल को अखंड सुहाग का प्रतीक मानते हुए पूजा तो भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना। बेल के वृक्ष में महादेव को देखा तो ढाक, पलाश, दूर्वा व कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजन का साधन बनाया। यहां तक कि जीवन का विभाजन भी प्रकृति को आधार मानकर किया। कहने का मतलब देह की रचना पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक पृथ्वी, जल, सूर्य, वायु और आकाश से ही हुई।














उपनिषदों में उल्लेख है कि 'हे अश्वरूप धारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है। नदियां तुम्हारी नाडिय़ां हैं। पर्वत और पहाड़ तुम्हारे हृदय खंड हैं। समग्र वनस्पतियां, वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं। ये सभी हमारे लिए शिव बनें। हम नदी, वृक्षादि को तुम्हारे अंग स्वरूप समझकर इनका सम्मान और संरक्षण करते हैंÓ यानी जिस तरह धरती का संतुलन बनाए रखने को उसका 33 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना जरूरी है, उसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण को समर्पित था, ताकि मनुष्य प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके। कृष्ण की गोवर्द्धन पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष भी यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष, वनस्पति का आदर करना सीखे। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं को ऋतु स्वरूप, वृक्ष स्वरूप, नदी स्वरूप व पर्वत स्वरूप कहकर इनके महत्व को रेखांकित करते हैं।

प्रकृति के संरक्षक हैं वेद

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वेदों में प्रार्थना है कि पृथ्वी, जल, औषधि व वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों। ऐसा तभी हो सकता है, जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं का उसे अपने संरक्षण में लेना, कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारतीय संस्कृति में प्रकृति समाई हुई है। 

प्रकृति और शास्त्र एक-दूसरे के पूरक

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पूजा के कलश में सप्त नदियों का जल एवं सप्त भृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता है। इसलिए शास्त्रों में सर्वप्रथम भूमि व जल के पूजन की सलाह दी गई है। बात जैन धर्म की करें तो अणुव्रत का ग्यारहवां नियम है, "मैं पर्यावरण के प्रति जागरूक रहूंगा। न तो हरे-भरे वृक्ष काटूंगा, न पानी का अपव्यय ही करूंगा।" तात्पर्य यही है कि हमारा भौतिक वातावरण जीवों पर और जीव भौतिक वातावरण पर आश्रित हैं।

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Culture is the reflection of nature

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Dinesh Kukreti

When there was no forest policy and no environment-related institutions, then environmental protection was in our routine activities.  We considered Peepal as a symbol of unbroken marriage and considered the worship of Tulsi holy in the food.  Seeing Mahadev in the Bael tree, plants like Dhak, Palash, Durva and Kush were made the means of Navagraha worship.  Even the division of life was done considering nature as the basis.  It means to say that the body was created from the important components of the environment, earth, water, sun, air and sky.

It is mentioned in the Upanishads that 'O God in the form of a horse!  Sand is semi-perishable food in your stomach.  Rivers are your nadis.  The mountain and the mountains are parts of your heart.  All plants, trees and medicines are like your hair.  May all of them become Shiva for us.  We respect and protect the river, trees etc. considering them as your part. That is, just as 33 percent of the earth's area is required to be forested to maintain the balance, in the same way, in ancient times, one-third of the life was devoted to natural conservation, so that  Man can understand the nature properly and make proper use of it.  The cosmic side of the beginning of Krishna's Govardhan Puja is also that the general public should learn to respect soil, mountains, trees and vegetation.  In the Gita, Yogeshwar Shri Krishna underlines their importance by calling himself the form of the season, the form of the tree, the form of the river and the form of the mountain.

Vedas are the guardians of nature

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There is a prayer in the Vedas that earth, water, medicine and plants should be peaceful for us.  This can happen only when we protect them at all levels.  That is why this huge concept of environmental protection has significance in Indian culture.  The emergence of the Kalpavriksha as a representative of the tree species from the churning of the ocean, the deities taking it under their protection, the protection of Kamdhenu and the Airavat elephant are such examples, which show that nature is embedded in Indian culture.

Nature and science complement each other

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Worshiping the water of the seven rivers and the seven clays in the pot of worship communicates the feeling of keeping the river and the land sacred in the person.  That's why it has been advised in the scriptures to worship land and water first.  If we talk about Jainism, then the eleventh rule of Anuvrat is, "I will be aware of the environment. Neither will I cut green trees, nor will I waste water."  The meaning is that our physical environment is dependent on the living beings and the living beings are dependent on the physical environment.