Friday, 17 February 2023

संस्कृति ही नहीं, सरोकार भी भुला बैठे



संस्कृति ही नहीं, सरोकार भी भुला बैठे

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दिनेश कुकरेती

मिलनाडु में सांड को काबू करने के खेल जल्लीकट्टू की वापसी को हम आगे बढ़ते हुए समाज का विद्रूप कह सकते हैं, लेकिन इसके निहितार्थ तलाशें तो पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं जड़ों से जुड़े रहने की भावना निहित दिखती है। इसी से मिलती-जुलती परंपरा कुमाऊं (उत्तराखंड) में देवीधुरा की बग्वाल़ की भी है। परंपराओं में समाहित एक-दूसरे पर पत्थर बरसाने के इस खेल का भी अपना सांस्कृतिक पक्ष है। इसलिए लोगों ने इसे बंद करने के बजाय, बहुत हद तक इसके स्वरूप को ही बदल डाला। लेकिन, मूल में छेड़छाड़ किए बगैर। देर-सवेर जल्लीकट्टू के मामले में भी यही होना है। बावजूद इसके, इससे एक बात तो साबित होती ही है कि किसी भी समाज के लिए उसके मूल यानी जड़ों की कितनी अहमियत है। पर, अफसोस! हमारी सरकारों ने तो कभी मूल को महत्व दिया ही नहीं। जबकि, उत्तराखंड राज्य गठन की मांग के पीछे मूल यानी अपनी पहचान के संरक्षण का भाव ही छिपा हुआ था। आंदोलन के दौरान उत्तराखंड के हर कोने से एक गूंज सुनाई देती थी, 'कोदा-झंगोरा खांएगे, उत्तराखंड बनाएंगे'। क्या यह महज एक नारा था, अगर वैज्ञानिक दृष्टि से सोचा जाए तो इसका जवाब निश्चित रूप से 'ना' में होगा।

असल में कोदा-झंगोरा तो प्रतीक है उस श्रम शक्ति का, जिसने पहाड़ के सीने पर हल चलाकर उसे उपजाऊ बना दिया। उस कृषि प्रधान समाज का, जिसने पहाड़ की पहाड़ जैसी चुनौतियों का मुकाबला कर उसे कभी टूटने नहीं दिया। उस बहुरंगी संस्कृति और उन परंपराओं का, जिन्होंने दुश्वारियों के बीच भी कदमों में थिरकन भर दी। उस दुधबोली (मातृभाषा) का, जिसकी मिठास ने पहाड़ी समाज को देश-दुनिया में अलग पहचान दी। लेकिन, हुआ क्या? अलग राज्य के रूप में तो हमने आधी-अधूरी पहचान पा ली, किंतु पहले ही दिन से अपने कहलाने वालों के हाथों छले जाने लगे। बीते सोलह सालों का मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि इस अवधि में भाग्य-विधाता उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान को मिटाने का ही काम करते रहे। पहाड़ की मिट्टी में जन्मे और पले-बढ़े नेता हल्द्वानी और देहरादून में कदम रखते ही अपनी संस्कृति एवं संस्कार ही नहीं, सरोकार भी भुला बैठे। नतीजा, असली उत्तराखंड अपनी पहचान के लिए आज भी उसी तरह छटपटा रहा है, जैसी छटपटाहट उसमें उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते नजर आती थी। इसके एक नहीं, अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं, जिनका क्रमवार उल्लेख करना इस चुनावी बेला में मैं जरूरी समझता हूं।



पराई कर दी अपनी भाषा

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इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि पहले कांग्रेस और अब भाजपा के पांचों सांसद लोकसभा में हैं, लेकिन किसी ने भी वहां गढ़वाली-कुमाऊंनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में लाने की पहल नहीं की। न ही उत्तराखंड की किसी सरकार ने गढ़वाली-कुमाऊंनी को राज्य की द्वितीय भाषा का दर्जा देना जरूरी समझा। जबकि, उत्तराखंड के साथ ही बने झारखंड व छत्तीसखंड में वहां की स्थानीय भाषाओं को द्वितीय भाषा का दर्जा हासिल है और वे पाठ्यक्रम का भी हिस्सा हैं। यहां यह बताना जरूरी है कि किसी भी भाषा को आठवीं अनुसूची में तभी स्थान मिल सकता है, जब वह दिल्ली हिंदी अकादमी में सूचीबद्ध हो। और...अच्छी बात यह है कि गढ़वाली-कुमाऊंनी इस सूची में क्रमश: 16वें और 17वें स्थान पर दर्ज हैं।



लोक का रंग, लोक से दूर

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लोक कलाओं की उपेक्षा का आलम यह है कि आज तक हम अपने किसी भी लोक नृत्य को पंजाब के 'गिद्दा', गुजरात के 'गरबा', असोम के 'बिहू', केरल के 'कथकली', ओडिशा के 'ओडिसी' जैसे प्रसिद्ध नृत्यों के समकक्ष खड़ा नहीं कर पाए। कुमाऊंनी छोलिया नृत्य को जरूर थोड़ी-बहुत पहचान मिली, लेकिन इसमें भी सरकार एवं संस्कृति विभाग का कोई हाथ नहीं है। लोक के संवाहकों की मेहनत से ही यह संभव हो पाया। संस्कृति के प्रसार एवं उन्नयन में संस्कृति विभाग की भूमिका तो बस सेटिंग वाले दलों को भेजने की रही। यही वजह है कि देश-दुनिया में होने वाले महत्वपूर्ण आयोजनों में जड़ों से जुड़े सांस्कृतिक दल भागीदारी नहीं कर पाते।



रोजी-रोटी से दूर हुए लोक वाद्य

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लोक वाद्य एवं वादकों का जैसा हश्र उत्तराखंड में हुआ, वैसा शायद ही कहीं और देखने को मिलता हो। यही वजह है कि औजी, दास, बाजगीर, ढोली आदि अपना पुश्तैनी काम छोड़ शहरों में रोजी-रोटी तलाशने को मजबूर हैं। सरकार ने ढोल को राज्य वाद्य तो घोषित कर दिया, लेकिन ढोल वादक इस स्थिति में नहीं कि ढोल बजाकर परिवार की गुजर कर सकें। असल में जरूरत तो पारंपरिक वाद्यों को प्रचलन में लाने की है और ऐसा तभी संभव है, जब हम इन्हें सीधे रोजी-रोटी से जोड़ें। इसके लिए लोक एवं राज्य से जुड़े सभी आयोजनों में पारंपरिक वाद्यों की अनिवार्यता किए जाने की दरकार है। पर, ऐसा तभी होगा, जब हमारे नीति-निर्धारक इच्छाशक्ति का परिचय दें।



कहां मधुबनी, कहां ऐंपण

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स्थानीय उत्पादों व हस्तशिल्प का हाल देखिए, उन्हें कोई पूछने वाला नहीं। बिहार के मिथिलांचल की मधुबनी चित्रकला को पूरी दुनिया जानती है, लेकिन इसी के समकक्ष कुमाऊं की ऐंपण (अल्पना) कला के बारे में उत्तराखंड के लोग भी ठीक से नहीं जानते। ऐसी ही दयनीय स्थिति प्राचीन काष्ठ कला की है। पर्वतीय जिलों में बने प्राचीन घर इसका प्रमाण हैं कि कभी लकड़ी पर नक्काशी व चित्रकारी के मामले में हमारा कोई शानी नहीं था, लेकिन धीरे-धीरे बाजार ने इन सारी लोक विधाओं को निगल लिया। सरकारें चाहतीं तो पारंपरिक कलाओं को संरक्षण देकर इस पहाड़ी राज्य की आर्थिकी संवार सकती थीं।



परंपरा निभा रहे पारंपरिक व्यंजन

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उत्तराखंडी खानपान भी आज तक सरकारों के एजेंडे में नहीं रहा। हम अपने हिल स्टेशनों पर देश-दुनिया के पर्यटकों को इडली-डोसा व चाऊमीन तो परोस सकते हैं, लेकिन मंडुवे की रोटी, बथुए के परांठे, हरे लहसुन की चटनी, अर्सा, स्वाले, कुलथ का फाणू, चैंसू जैसे पारंपरिक व्यंजन नहीं। हैरत तो इस बात की है कि पहाड़ी व्यंजन यहां के नेताओं की भी पसंद नहीं बन पाए। यह पहाड़ खाली होने की भी एक प्रमुख वजह है।


हकीकत में नहीं बदली सपनों की फिल्म इंडस्ट्री

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बात उत्तराखंडी फिल्म उद्योग की करें तो यहां भी इन सोलह सालों में उपेक्षा ही हावी रही। यही वजह है कि हम न तो उत्तराखंड को बेहतरीन शूटिंग स्थल के रूप में प्रोजेक्ट कर पाए, न आंचलिक फिल्म उद्योग की मजबूती के लिए ही कोई पहल हुई। जबकि, यहां शूटिंग की बेहतरीन लोकेशन मौजूद हैं। हालांकि, 2016 में राज्य की फिल्म नीति घोषित होने के साथ ही उत्तराखंड फिल्म विकास परिषद भी अस्तित्व में आ चुकी है। लेकिन, आधे-अधूरे मन से हुई यह पहल बहुत कारगर नजर नहीं आती। समझा जा सकता है कि सरकारें उत्तराखंड में फिल्म उद्योग को लेकर कितनी गंभीर हैं।

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