Wednesday, 17 May 2023

मसूरी के कब्रिस्तान में सोया है रानी झांसी का वकील

मसूरी के कब्रिस्तान में सोया है रानी झांसी का वकील
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दिनेश कुकरेती
पहाड़ों की रानी मसूरी में कैमल्स बैक रोड के कब्रिस्तान में स्वतंत्रता आंदोलन का एक ऐसा अंग्रेज सपूत भी दफन है, जिसने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ युद्ध में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया था। पेशे से वकील एवं पत्रकार इस आस्ट्रेलियन अंग्रेज ने अंग्रेजी हुकूमत द्वारा रानी झांसी के विरुद्ध लगाए गए झूठे आरोपों की ब्रिटिश अदालत में धज्जियां उड़ा दी थीं। वह जीवनपर्यंत भारतीय जनता की गुलामी व उत्पीडऩ के खिलाफ लड़ते रहे। इससे अंग्रेज हुक्मरान उनसे बेहद खफा रहते थे और अन्य भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की ही तरह उनका भी उत्पीडऩ किया करते थे।

सिर्फ 48 साल जिया आस्‍ट्रेलिया निवासी लैंग
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वाल्टर लेंग और एलिजाबेथ की संतान जॉन लैंग का जन्म 19 दिसंबर 1816 को सिडनी (आस्ट्रेलिया) में हुआ था। लेकिन, 20 अगस्त 1864 को 48 साल की अल्पायु में उन्होंने दुनिया-ए-फानी से रुखसत ली पहाड़ों की रानी मसूरी में। उनकी मौत संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई थी। इसलिए 22 अगस्त 1864 को मसूरी पुलिस चौकी में उनकी हत्या की रिपोर्ट लिखाई गई। लेकिन, अंग्रेजी हुक्मरानों ने मामले की जांच को ही दबा दिया और उनकी मौत का रहस्य हमेशा रहस्य बनकर रह गया।

रस्किन ने खोजी कैमल्स बैक रोड के कब्रिस्तान में लैंग की कब्र
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जॉन लैंग वर्ष 1842 में भारत आ गए थे और यहां अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की कानूनी मदद करने लगे। वर्ष 1861 में उन्होंने मसूरी में ही मारग्रेट वैटर से विवाह किया। कम ही लोग जानते हैं कि लैंग का नाम वर्ष 1964 में तब सुर्खियों में आया, जब प्रख्यात लेखक रस्किन बांड ने मसूरी की कैमल्स बैक रोड पर उनकी कब्र खोज निकाली। हालांकि, ऑस्ट्रेलिया में लैंग अपनी किताबों की वजह से पहले से लोकप्रिय थे, लेकिन भारत में उन्हें कम ही लोग जानते थे। बांड लिखते हैं, अक्सर लैंग का ऐतिहासिक जिक्र आता था, लेकिन यह पुष्ट नहीं था कि वह मसूरी में रहे थे। वर्ष 1964 में लैंग की सौवीं पुण्य तिथि पर ऑस्ट्रेलिया से एक परिचित ने उनसे जुड़े कुछ दस्तावेज भेजे थे। इसके बाद ही उन्होंने लैंग की कब्र की खोज शुरू की।

हिमालय के कद्रदान थे लैंग
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रस्किन बांड लिखते हैं, जॉन लैंग को हिमालय और इसकी शिवालिक श्रेणियों की सुंदरता काफी भाती थी। मेरठ में गर्मी की वजह से जब वह बीमार रहने लगे तो उन्होंने मसूरी का रुख किया और फिर यहीं गृहस्थी बसा ली। वह मसूरी में पिक्चर पैलेस के पास हिमालय क्लब में रहते थे। यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।

वर्ष 1830 में दे दिया गया था देश निकाला
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लैंग की प्रारंभिक शिक्षा सिडनी में हुई और वर्ष 1837 में उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी (इंग्लैंड) से बैरिस्टर की डिग्री हासिल की। फिर कुछ समय आस्ट्रेलिया में बिताने के बाद भारत आ गए। हालांकि, सिडनी विद्रोह में ब्रिटिश शासकों के खिलाफ आवाज उठाने पर उन्हें वर्ष 1830 में ही देश निकाला दे दिया गया था और वह इंग्लैंड चले गए थे। भारत आने के बाद वर्ष 1845 तक यहां विभिन्न क्षेत्रों में अंग्रेजों द्वारा गरीब भारतीयों पर थोपे गए मुकदमे लड़े।

आखिरी दम तक करते रहे अखबार 'मफसिलाइटÓ का प्रकाशन
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वर्ष 1845 में लैंग ने कोलकाता में 'मफसिलाइटÓ नाम से एक अखबार का प्रकाशन शुरू किया। बाद में इसका मेरठ से प्रकाशन किया गया, जिसे जीवन के अंतिम समय तक वह मसूरी से भी प्रकाशित करते रहे। इसके लिए उन्होंने मसूरी के कुलड़ी बाजार स्थित द एक्सचेंज बिल्डिंग परिसर में मफसिलाइट प्रिंटिंग प्रेस लगाई थी। अपने अखबार में वह अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ लेख प्रकाशित करते थे। आज भी यह अखबार साप्ताहिक मफसिलाइट नाम से ङ्क्षहदी-अंगे्रजी, दोनों भाषाओं में प्रकाशित हो रहा है। इसके संपादक इतिहासकार जयप्रकाश उत्तराखंडी हैं और वही जॉन की याद में बनी एक समिति भी चलाते हैं।

1854 में रानी झांसी ने नियुक्त किया था लैंग को अपना वकील
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रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत से मान्यता दिलाने का मुकदमा जॉन लैंग ने ही लड़ा था। इतिहासकार जयप्रकाश उत्तराखंडी लिखते हैं कि संतानविहीन शासकों का राज्य हड़पने के लिए भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की निगाहें झांसी पर भी टिकी थीं। वर्ष 1854 में रानी लक्ष्मी बाई ने जॉन लैंग को अपना मुकदमा लडऩे के लिए नियुक्त किया और मिलने के लिए झांसी बुलाया। ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट में चले इस मुकदमे को लैंग हार गए। इसी बीच 1857 का गदर शुरू हो गया और 17 जून 1858 को अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मी बाई शहीद हो गईं। गदर असफल हो चुका था, सो इसी वर्ष लैंग भी मसूरी चले आए।

जब रानी ने लैंग से कहा 'मैं मेरी झांसी नहीं दूंगीÓ
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जॉन लैंग ने अपनी किताब  'वांडरिंग्स इन इंडियाÓ में लिखते हैं, बातचीत के दौरान रानी के गोद लिए हुए बेटे दामोदर ने अचानक रानी और मेरे बीच का पर्दा हटा दिया। जिससे रानी हैरान रह गई, हालांकि तब तक मैं रानी को देख चुका था। उन्होंने मुझसे कहा, 'मैं मेरी झांसी नहीं दूंगीÓ। मैं रानी को देख इतना प्रभावित हुआ कि खुद को नहीं रोक पाया और बोल बैठा, 'अगर गवर्नर जनरल भी आपको देखते तो थोड़ी देर के लिए खुद को भाग्यशाली मान बैठते, जैसे मैं मान रहा हूं। मैं विश्वास के साथ कह रहा हूं कि वो आप जैसी खूबसूरत रानी को झांसी वापस दे देते। हालांकि मेरी बात पर रानी ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया के साथ गरिमामयी ढंग से इस कॉम्प्लीमेंट को स्वीकार किया।Ó

 
रानी झांसी से रू-ब-रू होने वाले अकेले अंग्रेज थे लैंग
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जॉन लैंग अकेले अंग्रेज थे, जिन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से रू-ब-रू होने का सौभाग्य मिला था। लैंग लिखते हैं, 'रानी औसत कद, स्वस्थ, साधारण शरीर और कम आयु में बहुत सुंदर दिखने वाली गोल चेहरे वाली महिला थीं। उनकी आंखें काफी सुंदर और नाक की बनावट बेहद नाजुक थी। रंग बहुत गोरा नहीं, लेकिन श्यामलता से काफी बढिय़ा था। उनके शरीर पर कानों में ईयर रिंग के सिवा कोई जेवर नहीं था। वो बहुत अच्छी बुनाई की गई सफेद मलमल के कपड़े पहने हुई थीं। इस परिधान में उनके शरीर का रेखांकन काफी स्पष्ट था। वो वाकई बहुत सुंदर थीं। हां, जो चीज उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ती थी, वह थी उनकी रुआंसी ध्वनि युक्त फटी आवाज। हालांकि, वो बेहद समझदार एवं प्रभावशाली महिला थीं

आस्ट्रेलिया के पहलेे उपन्यासकार थे लैंग
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लैंग सिर्फ वकील ही नहीं, एक लेखक और अपने दौर के नामी पत्रकार भी थे। ऑस्ट्रेलिया में जॉन लैंग को देश के पहले उपन्यासकार के तौर पर जाना जाता है। लैंग ने अंग्रेजी उपन्यास द वेदरबाइज, टू क्लेवर बाई हॉफ, टू मच अलाइक, द फोर्जर्स वाइफ, कैप्टन मैकडोनाल्ड, द सीक्रेट पुलिस, ट्रू स्टोरीज ऑफ द अर्ली डेज ऑफ ऑस्ट्रेलिया, द एक्स वाइफ, माई फ्रेंड्स वाइफ जैसे चर्चित उपन्यास लिखे। उनके निधन के बाद ये उपन्यास कई बार प्रकाशित हुए और पाठकों द्वारा पसंद किए जाते रहे।

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