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नई पीढ़ी के बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि ब्रिटिश हुकूमत के दौर में देहरादून से पहाड़ों की रानी मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हो गया था। लेकिन, देहरादून से लगे राजपुर गांव के निकट घने जंगल में सुरंग बनाने के दौरान हुए हादसे ने अंग्रेजों की उम्मीदें धराशायी कर दीं। हालांकि, इसके बाद एक बार फिर कोशिश की गई, लेकिन सुरंग का पहाड़ धंसने के कारण योजना परवान नहीं चढ़ पाई। चलिए! हम भी अतीत की सैर करते हैं।
दो साल के भीतर मसूरी रेल ले जाना चाहते थे अंग्रेज
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दिनेश कुकरेती
कहानी शुरू होती है रेल के देहरादून पहुंचने से। इसके लिए वर्ष 1894 में देहरादून-हरिद्वार के बीच ट्रैक बिछाने का कार्य शुरू हो चुका था। वर्ष 1899 में यह ट्रैक बनकर तैयार हुआ और वर्ष 1900 से देहरादून-हरिद्वार के बीच रेल चलनी शुरू हो गई। उस दौर में अंग्रेजों ने व्यापार और हुकूमत, दोनों के लिए देहरादून रेलवे स्टेशन का भरपूर उपयोग किया। इस स्टेशन के निर्माण के बाद अंग्रेज अधिकारियों के लिए मसूरी समेत गढ़वाल रियासत के विभिन्न हिस्सों में पहुंचना आसान हो गया था। लेकिन, अपनी सोच एवं तकनीकी के लिए मशहूर अंग्रेजों के कदम भला इतने में ही कहां रुकने वाले थे। सो, वह देहरादून शहर से 12 किमी दूर राजपुर गांव से मसूरी तक रेल ले जाने के लिए कार्ययोजना तैयार करने लगे। इसके लिए सर्वे का कार्य तो वे पहले ही पूरा कर चुके थे। उन्होंने राजपुर गांव के पास सुरंग बनानी शुरू की, जिससे होते हुए रेल ट्रैक को मसूरी पहुंचाया जाना था। अंग्रेज अधिकारी चाहते थे कि अगले दो सालों में वह मसूरी रेल ले जाने के सपने को हकीकत में बदल डालें।
दो बार हुआ था रेल लाइन बिछाने को सर्वे
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अंग्रेजों ने पुरानी मसूरी के निकट रेलवे ट्रैक बिछाने के लिए दो बार सर्वे किया। पहला सर्वे हर्रावाला से राजपुर गांव होते हुए मसूरी तक वर्ष 1885 में किया गया। वर्ष 1893 में रेल लाइन बिछाने का मसौदा भी तैयार कर लिया गया। इसके तहत अवध एंड रुहेलखंड रेलवे कंपनी की योजना राजपुर होते हुए मसूरी तक रेलगाड़ी ले जाने की थी। मसूरी के लिए रेल ले जाने का दूसरा प्रयास वर्ष 1920-21 में हुआ। तब हिंदुस्तान के कुछ राजे-रजवाड़ों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने 23 लाख रुपये की लागत से मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। अगर यह योजना जारी रह पाती तो यकीनन वर्ष 1928 तक रेल मसूरी पहुंच गई होती।
व्यापारियों का विरोध भी बना परियोजना के ठप पडऩे की वजह
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बताया जाता है कि मसूरी रेल परियोजना के बंद होने की वजह तब दून के व्यापारियों का तीखा विरोध भी बना। दरअसल, परियोजना के रोड मैप के अनुसार रेल ट्रैक को हर्रावाला से शहंशाही आश्रम होते हुए ओकग्रोव स्कूल, झड़ीपानी, बार्लोगंज और कुलड़ी के पास हिमालय क्लब से होकर गुजरना था। उस दौर में देहरादून के इस पूरे हिस्से में चाय और बासमती धान की खेती बहुतायत में हुआ करती थी। ये दोनों ही नकदी फसलें तब व्यापार का प्रमुख जरिया थीं। इसे देखते हुए दून के व्यापारी हर्रावाला से सीधे मसूरी रेल लाइन बिछाने के विरोध में उतर आए। नतीजा, अंग्रेजों को कदम पीछे खींचने पड़े।
निर्माण कंपनी टोल तक ला चुकी थी पटरियां
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रेल लाइन ले जाने के लिए राजपुर में शहंशाही आश्रम से कुछ आगे पुराने मसूरी टोल से आगे सुरंग बनाने का काम दो साल तक चला। बुजुर्ग बताते हैं कि वर्ष 1924 में सुरंग हादसे के बाद जब परियोजना का काम बंद हुआ, तब तक निर्माण कंपनी टोल तक पटरियां ला चुकी थी। सो, तय किया गया कि देहरादून से मसूरी तक इलेक्ट्रिक ट्रेन ट्रैक बनाया जाए और इस ट्रेन को ग्लोगी पावर हाउस से बिजली की सप्लाई दी जाए। लेकिन, यह सपना हकीकत में नहीं बदल पाया।
इसलिए हुई ओक ग्रोव स्कूल की स्थापना
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मसूरी रेल लाइन बिछाए जाने की प्रत्याशा में तत्कालीन भारतीय रेलवे ने वर्ष 1888 में झड़ीपानी में ओक ग्रोव स्कूल की स्थापना की थी। इस स्कूल का संचालन आज भी उत्तरी रेलवे द्वारा किया जाता है। यहां मुख्य रूप से रेलवे कर्मचारियों के बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल की इमारतों का निर्माण गोथिक शैली में हुआ है।
धरोहरों की सुध लेने वाला कोई नहीं
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इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि हमारी सरकारें अतीत की धरोहरों का संरक्षण भी नहीं कर पा रहीं। इसी का नतीजा है कि अंग्रेजों की बनाई इस सुरंग के चारों ओर इस कदर झाडिय़ां उग आई हैं कि सुरंग कहीं नजर ही नहीं आती। सुरंग तक पहुंचने का रास्ता भी जमींदोज हो चुका है। सरकारें चाहती तो नई पीढ़ी के ज्ञानवद्र्धन के लिए इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता था। लेकिन...।
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