Thursday, 26 November 2020

देवताओं के प्रयाग देवप्रयाग में रघुनाथ के दर्शन

देवताओं के प्रयाग देवप्रयाग में रघुनाथ के दर्शन
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दिनेश कुकरेती
षिकेश से 70 किमी दूर स्थित देवप्रयाग नगर ने आधुनिक युग में भी अपने पुराने वैभव को नहीं खोया। इसी नगर में मौजूद है प्राचीन रघुनाथ मंदिर। शहर के ऊपरी भाग में एक चबूतरे पर सीमेंट रहित बड़े पत्थरों से निर्मित 80 फीट ऊंचे इस मंदिर का निर्माण काल 1700 से 2000 वर्ष पूर्व का है। कहते हैं कि धारानगरी के  पंवार वंश के राजा कनकपाल के पुत्र श्याम पाल (722-782 ईस्वी) के गुरु शंकर ने काष्ठ का प्रयोग कर मंदिर शिखर का निर्माण करवाया था। गुरु शंकर और आद्य शंकराचार्य का काल आठवीं सदी का है। उस काल में मंदिर का शिखर परिवर्तित होने के कारण जनश्रुति है कि मंदिर का निर्माण शंकराचार्य ने कराया था। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में उल्लेख है कि त्रेता युग में ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति के लिए श्रीराम ने देवप्रयाग में तप किया और विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना की। इसलिए यहां रघुनाथ मंदिर की स्थापना हुई। यहां श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु की पूजा होती है।




























चतुर्भुज भगवान, दो बाहों की पूजा
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रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह में श्याम पाषाण निर्मित छह फीट ऊंची चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। लेकिन, पूजा करते हुए मूर्ति की दो बाहों को ढक दिया जाता है। यह अलौकिक मंदिर अन्य मंदिरों की तरह किसी चट्टान या दीवार पर टिका न होकर गर्भगृह के केंद्र में स्थित है। परिसर के परिक्रमा पथ पर शंकराचार्य, गरुड़, हनुमान, अन्नपूर्णा व भगवान शिव के छोटे-छोटे मंदिर हैं। परिसर में राजस्थानी शैली की एक छतरी भी है, जहां समारोहों के दौरान प्रार्थना की जाती है।
सिंहद्वार पहुंचने को 101 सीढिय़ां
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मुख्य मंदिर के शीर्ष पर स्वर्ण कलश और गर्भगृह में श्रीराम की विशाल मूर्ति विराजमान है। मूर्ति के चरण व हाथों पर आभूषण और सिर पर स्वर्ण मुकुट सजा है। हाथों में धनुष-बाण और कमर में ढाल लिए श्रीराम के एक ओर माता सीता और दूसरी ओर लक्ष्मण की मूर्ति है। मंदिर के बाहर गरुड़ की पीतल की मूर्ति है, जबकि मंदिर के दाहिनी ओर बदरीनाथ, महादेव व कालभैरव विराजमान हैं। मंदिर के सिंहद्वार तक पहुंचने के लिए 101 सीढिय़ां बनी हुई हैं। वर्ष 1803 में आए भूकंप में रघुनाथ मंदिर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। तब ग्वालियर राजघराने के माधवराव सिंधिया के पितामह दौलतराव सिंधिया ने इसकी मरम्मत करवाई।
कत्यूरी नहीं, नागर शैली का मंदिर
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मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। मंदिर निर्माण के बाद जब हिमालयन शैली विकसित हुई, तब आमलक के पास चारों ओर खंभों वाली तिबारी बनाकर उसको तांबे की चद्दरों से ढक छतरीनुमा बनाया गया। फिर उसके मध्य में कलश रखे गए। यह कत्यूरी शिखर शैली का प्रभाव था, इसलिए छतरी पर लकड़ी का प्रयोग किया गया। इसी लकड़ी के शिखर को देखकर प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल 'चारणÓ ने इस मंदिर को कत्यूरी शिखर शैली के प्रधान मंदिरोंं में माना। जबकि, वास्तव में यह नागर शैली का मंदिर है। श्रीनारायण चतुर्वेदी ने भी ङ्क्षहदू मंदिरों के रूप विन्यास में नागर शैली के मंदिरों का जो वर्णन किया है, उसके मुताबिक इस मंदिर की बनावट नागर शैली की है। मात्र शिखर ही कत्यूरी शैली का है।
'स्कंद पुराणÓ में देवप्रयाग पर 11 अध्याय
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भारत व नेपाल के 108 दिव्य धार्मिक स्थलों में देवप्रयाग का नाम आदर से लिया जाता है। यहीं अलकनंदा व भागीरथी नदी के संगम पर गंगा का उद्भव होता है। इसी कारण देवप्रयाग को पंच प्रयागों में सबसे अधिक महत्व मिला। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने यहां दस हजार वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिए देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ व सुदर्शन क्षेत्र भी कहा गया। मान्यता यह भी है कि मुनि देव शर्मा के 11 हजार वर्षों तक तप करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा को त्रेतायुग में देवप्रयाग लौटने का वचन दिया और रामावतार में देवप्रयाग आकर उसे निभाया भी। कहते हैं कि श्रीराम ने ही मुनि देव शर्मा के नाम पर इस स्थान को देवप्रयाग नाम दिया। देवप्रयाग के पूर्व में धनेश्वर, दक्षिण में तांडेश्वर, पश्चिम में तांतेश्वर व उत्तर में बालेश्वर मंदिर और केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर स्थित हैं। ऐसी भी मान्यता है कि यहां गंगाजल के भीतर भी एक शिवलिंग मौजूद है।

एटकिंसन की नजर में देवप्रयाग
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वर्ष 1882 में 'द हिमालयन गजेटियरÓ में ईटी एटकिंसन लिखते हैं-देवप्रयाग गांव एक छोटी सपाट जगह पर खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित था। उसके पीछे 800 फीट ऊंचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से ऊपर पहुंचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर मवेशी भी चढ़ सकें। इसके अलावा रस्सी के दो झूला पुल भागीरथी और अलकनंदा नदी के उस पार जाने के लिए उपलब्ध हैं।
पाल वंश के अधीन रहा देवप्रयाग
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चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रह्मपुरी कहा है। सातवीं सदी में इसे ब्रह्मतीर्थ और श्रीखंड नगर नाम से भी जाना जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ 'अरावलÓ में इसे कंडवेणुकटि नगरम् माना गया है। 1000 से 1803 ईस्वी तक शेष गढ़वाल की तरह ही देवप्रयाग भी पाल वंश के अधीन रहा, जो बाद में पंवार वंश के शाह कहलाए।

आठवीं सदी में आए थे तिलंग भट्ट
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आठवीं सदी में आद्य शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत से तिलंग भट्ट ब्राह्मणों देवप्रयाग आगमन हुआ। कहते हैं कि तिलंग ब्राह्मण बदरीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्रपत्र के अनुसार पंवार वंश के 37वें वंशज अभय पाल ने तिलंग भट्टों को बदरीनाथ का तीर्थ पुरोहित होने का अधिकार दिया था।

राजा आते थे तो ढक दिया जाता था मंदिर
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वर्ष 1785 में पंवार राजा जयकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में अपनी जान दे दी थी। माना जाता है कि राजा की चार रानियां भी यहां सती हो गईं, जिन्हें रानी सती मंदिर समर्पित है। माना जाता है कि उन्होंने पंवार वंश को शापित कर दिया था। जिस कारण आज भी पंवार वंश की कोई सदस्य मंदिर की ओर नहीं झांकता। पूर्व में भी जब राजा देवप्रयाग आते थे तो मंदिर को पूरी तरह ढक दिया जाता था। मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में 19 लोगों के नाम खुदे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी।
हरि के पांच अवतारों का संबंध
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देवप्रयाग से भगवान विष्णु के श्रीराम समेत पांच अवतारों का संबंध माना गया है। जिस स्थान पर वे वराह के रूप में प्रकट हुए, उसे वराह शिला और जहां वामन रूप में प्रकट हुए, उसे वामन गुफा कहते हैं। देवप्रयाग के निकट नृसिंहाचल पर्वत के शिखर पर भगवान विष्णु नृसिंह रूप में शोभित हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहंता राजा सहस्रबाहु को मारने से पूर्व यहां तप किया। इसके निकट ही शिव तीर्थ में श्रीराम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिए तपस्या की थी। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही दशरथ को श्रीराम पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। श्रीराम के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे, जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं। गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गिद्धांचल कहते हैं। यह स्थान जटायु की तपोभूमि थी। पहाड़ी के आधार स्थल पर श्रीराम ने एक सुंदर स्त्री किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा के शाप से मकड़ी में परिवर्तित हो गई थी। इसी स्थान के निकट एक स्थान पर ओडिसा के राजा इंद्रद्युम ने भगवान विष्णु की आराधना की थी।

निजमुला घाटी में सात तालों का मनमोहक संसार



निजमुला घाटी में सात तालों का मनमोहक संसार

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दिनेश कुकरेती

लिए! आपको लिए चलते हैं सुदूर हिमालय की गोद में स्थित सात तालों (कुंड) के मनमोहक संसार में। सीमांत चमोली जिले के दशोली ब्लॉक की निजमुला घाटी में झींझी गांव से 24 किमी की दूरी पर स्थित सात तालों के इस दुर्लभ खजाने को 'सप्तकुंडÓ के नाम से जाना जाता है। नंदा घुंघटी पर्वत शृंखला की तलहटी में समुद्रतल से लगभग पांच हजार मीटर (16400 फीट)की ऊंचाई पर स्थित ये सातों ताल एक-दूसरे से लगभग आधे-आधे किमी के फासले पर मौजूद हैं। इन सात तालों को 'सप्तऋषिÓ भी कहते हैं। यहां पहुंचने के लिए एशिया के सबसे कठिन पैदल ट्रैक को पार करना पड़ता है। हालांकि, साहसिक पर्यटन और पहाड़ घूमने के शौकीन लोगों के लिए सप्तकुंड एक रोमांचित कर देने वाला ट्रैक है।

सात में से गर्म पानी का सिर्फ एक ताल 

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सप्तकुंड समूह के सात में से छह तालों पार्वती कुंड, गणेश कुंड, नारद कुंड, नंदी कुंड, भैरव कुंड व शक्ति कुंड का पानी इस कदर ठंडा है कि उनमें डुबकी लगाने का कोई साहस तक नहीं जुटा पाता। जबकि शिव कुंड नामक ताल का पानी बेहद गर्म है। इस ताल में स्नान करने से पर्यटकों की पूरी थकान पलभर में काफूर हो जाती है। इसी ताल में नंदा देवी की वार्षिक लोकजात संपन्न होती है।



हर छठे साल सप्तकुंड जाती है नंदा की लोकजात

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लोक मान्यताओं में सप्तकुंड को भगवान शिव का निवास स्थान माना गया है। हर छठे साल भाद्रपद शुक्ल अष्टमी (नंदाष्टमी) के दिन ईराणी, झींझी, पाणा, रामणी, दुर्मी व पगना गांव समेत पूरी निजमुला घाटी के ग्रामीण यहां पहुंचकर भगवान शिव और भगौती (भगवती) नंदा की पूजा करते हैं। नंदा कुरुड़ की दशोली डोली की वार्षिक लोकजात नंदाष्टमी के दिन सप्तकुंड में ही पराकाष्ठा को पहुंचती है। यहां देवी नंदा की पूजा के बाद लोकजात रामणी वापस लौटती है। जबकि, अन्य सालों में लोकजात बालपाटा बुग्याल जाती है। बदरी-केदार हिमालय के कोने-कोने का भ्रमण कर चुके प्रकृति प्रेमी एवं ट्रैकर मनीष नेगी व बृहषराज तडिय़ाल बताते हैं कि सप्तकुंड पहुंचकर जैसी शांति एवं सुकून मिलता है, वैसा कहीं और संभव नहीं है। 



26 किमी के ट्रैक पर सात किमी का खड़ा सफर

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सप्तकुंड पहुंचने के लिए चमोली से बिरही होते हुए निजमुला क्षेत्र के पगना गांव तक सड़क सुविधा उपलब्ध है। पगना से झींझी गांव तक आठ किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। झींझी से सप्तकुंड के लिए 26 किमी का पैदल ट्रैक है। इसमें झींझी से सात किमी दूर वन विभाग के टिन शेड तक एकदम खड़ी चढ़ाई है। इसके बाद दस किमी के फासले पर गौंछाल ओड्यार (गुफा) पड़ता है। यहां से तीन किमी दूर सिम्बे बुग्याल है, जबकि सिम्बे से सप्तकुंड पहुंचने के लिए छह किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। 



मन मोह लेता है सिम्बे बुग्याल 

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सप्तकुंड ट्रैक की विशेषता यह है कि आप ओर से छोर तक हिमालय की मनोहारी चोटियों का दीदार कर सकते हैं। साथ ही ट्रैक के दोनों ओर खड़े बांज, बुरांश, देवदार, कैल, खोरू, भोज सहित नाना प्रकार के वृक्षों की शीतल छांव थकान का अहसास ही नहीं होने देती। सप्तकुंड ट्रैक पर झींझी गांव से 20 किमी दूर पडऩे वाले सिम्बे बुग्याल में सैकड़ों प्रजाति के रंग-बिरंगे फूल पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे हम फूलों की घाटी में पहुंच गए हों। औषधीय वनस्पतियां, दर्जनों प्रकार के हिमालयी जीव-जंतु और पङ्क्षरदों का दीदार भी यहां कदम-कदम पर किया जा सकता है। पूरे ट्रैक पर फेन-सा बिखेरते झरने अंतर्मन को आल्हादित कर देते हैं।



नंदा घुंघुटी के करीब से नहीं गुजरते जहाज

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सप्तकुंड समूह नंदा घुंघुटी की तलहटी में स्थित है। नंदा घुंघुटी पर्वतमाला की विशेषता यह है कि इसके करीब से कभी भी कोई जहाज नहीं गुजरता, क्योंकि इसकी चुंबकीय क्षमता काफी अधिक है। 

मां काली के खप्पर से जुड़ी लोक मान्यता 

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मां काली ने अपने खप्पर पर महाभारत के युद्ध में मारे जाने वाले लोगों के नाम लिखे थे। इनमें अर्जुन का नाम भी शामिल था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को यह बात बताई और उनसे माता पार्वती की तपस्या करने के लिए कहा। द्रोपदी की तपस्या से प्रसन्न होकर माता पार्वती ने उन्हें दर्शन दिए। तब द्रोपदी ने उनसे मां काली के खप्पर के बारे में पूछा। माता ने उन्हें बताया कि यह खप्पर सप्तकुंड में मौजूद है। इसके बाद माता पार्वती स्वयं सप्तकुंड पहुंचीं और खप्पर से अर्जुन का नाम मिटाकर उसे दो हिस्सों तोड़ डाला। मान्यता है कि इस खप्पर का आधा हिस्सा कोलकाता और आधा सप्तकुंड में मौजूद है। हर साल काफी संख्या में बंगाली ट्रैकर सप्तकुंड पहुंचते हैं।



ईराणी की राह बेहद दुर्गम

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निजमुला घाटी का झींझी गांव सप्तकुंड का बेस कैंप है। हालांकि, सप्तकुंड ईराणी गांव से भी पहुंचा जा सकता है। लेकिन, यहां से रास्ता बेहद दुर्गम है। ईराणी से दुग्ध कुंड होते हुए सप्तकुंड पहुंचा जाता है।

एक लोक मान्यता यह भी 

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स्थानीय लोगों का मानना है कि निजमुला घाटी में सात नहीं, बल्कि 11 ताल हैं। लेकिन, लोगों को जानकारी सिर्फ सात तालों के बारे में ही है। शेष चार ताल कहां हैं, यह किसी को नहीं मालूम।

सप्तकुंड का परिचय

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पार्वती कुंड: सप्तकुंड समूह में सबसे पहले पार्वती कुंड पड़ता है, जो करीब 500 मीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।



गणेश कुंड: यह कुंड लगभग 800 मीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।



नारद कुंड: यह कुंड 200 मीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।



शिव कुंड: यह समूह का सबसे बड़ा कुंड है, जो लगभग एक किमी क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इस कुंड के पास वार्षिक लोकजात के दौरान भगवती नंदा की डोली का पूजन होता है। यहां एक छोटा-सा मंदिर भी बना हुआ है।



नंदी कुंड: यह कुंड लगभग 500 मीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।



भैरव कुंड: यह सप्तकुंड समूह का सबसे छोटे आकार वाला कुंड है। यह सौ मीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।



शक्ति कुंड: लगभग 200 मीटर क्षेत्रफल में फैला यह कुंड बिल्कुल चोटी के पास स्थित है। अन्य छह कुंड इससे काफी नीचे हैं। 

हिमालय में पंच केदार दर्शन


हिमालय में पंच केदार दर्शन 
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दिनेश कुकरेती
हिमालय में स्थित शैव संप्रदाय के शिव को समर्पित पांच मंदिरों के समूह को पंच केदार कहा गया है। माना जाता है कि इन सभी मंदिरों को पांडवों ने बनाया था, जो गढ़वाल हिमालय में काफी ऊंचाई पर स्थित हैं। इनमें से चार तीर्थ केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ व मध्यमेश्वर तो सिर्फ अप्रैल से अक्टूबर तक ही खुलते है। कल्पेश्वर एकमात्र धाम है, जो सालभर तीर्थ यात्रियों के लिए खुला रहता है। इनमें से केदारनाथ मुख्य मंदिर है, जो हिमालय के प्रसिद्ध छोटे चार धामों में से एक है। 
केदारनाथ देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में भी शामिल है। एक कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें महादेव का आशीर्वाद लेने की सलाह दी। इसके लिए पांडव भगवान भोलेनाथ की नगरी काशी पहुंचे। लेकिन, भगवान पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए हिमालय में गुप्तकाशी आकर छिप गए। पांडव यह जान चुके थे, इसलिए भगवान उनके गुप्तकाशी पहुंचने से पहले ही केदारनाथ पहुंच गए और बैल का रूप धारण कर अन्य पशुओं के बीच चले गए। पांडवों को संदेह हुआ तो भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिए। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए पर भगवान शिव रूपी बैल पैरों के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बैल पर झपटे तो बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भोलेनाथ पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प से प्रसन्न हुए और दर्शन देकर उन्हें पाप मुक्त कर दिया। 
तभी से भगवान बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जाते हैं। अंतर्ध्‍यान होते समय भगवान के धड़ से ऊपर का हिस्सा काठमांडू नेपाल में प्रकट हुआ और वह पशुपतिनाथ कहलाए। शिव की भुजाएं तृतीय केदार तुंगनाथ, मुख चतुर्थ केदार रुद्रनाथ, नाभि द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, पृष्ठ भाग यानी पीठ प्रथम केदार केदारनाथ और जटा पंचम केदार कल्पेश्वर में प्रकट हुई। 
 
पंचकेदार में श्रेष्ठ केदारनाथ धाम 
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समुद्रतल से 11750 फीट की ऊंचाई पर केदारनाथ मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। बारह ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ धाम का सर्वोच्च स्थान है। केदारनाथ धाम में भगवान शिव के बैल रूप में पृष्ठ भाग के दर्शन होते हैं। त्रिकोणात्मक स्वरूप में यहां पर भगवान का विग्रह है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली के केदारनाथ मंदिर के बारे में मान्यता है कि इसका निर्माण पांडवों ने कराया था, जबकि आद्य शंकराचार्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। मंदिर की विशेषता यह है कि 2013 की भीषण आपदा में भी उसे आंच तक नहीं पहुंची। 
 
मध्यमेश्वर धाम में मध्य भाग के दर्शन 
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द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर का धाम 9700 फीट की ऊंचाई पर चौखंभा शिखर की तलहटी में स्थित है। यहां बैल रूप में भगवान शिव के मध्य भाग के दर्शन होते हैं। दक्षिण भारत के शैव पुजारी केदारनाथ की तरह यहां भी पूजा करते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार नैसर्गिक सुंदरता के कारण ही शिव-पार्वती ने मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मान्यता है कि यहां  के जल की कुछ बूंदें ही मोक्ष के लिए पर्याप्त हैं। शीतकाल में छह माह यहां कपाट बंद रहते हैं। 
 
भारत का सबसे ऊंचा शिवधाम तुंगनाथ 
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तृतीय केदार भगवान तुंगनाथ का धाम भारत का सबसे ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिर है। समुद्रतल से 12235 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस धाम में महिष रूपी शिव का धड़ प्रतिष्ठित है। चंद्रशिला चोटी के नीचे काले पत्थरों से उत्तराखंड शैली में निर्मित यह मंदिर बेहद रमणीक स्थल पर निर्मित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए पांडवों ने इस मंदिर का निर्माण कराया। वर्तमान मंदिर को एक हजार वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है। मक्कूमठ के मैठाणी ब्राह्मण यहां के पुजारी होते हैं। शीतकाल में यहां भी छह माह के लिए कपाट बंद रहते हैं। तब मक्कूमठ में भगवान तुंगनाथ की पूजा होती है। 
 
भगवान रुद्रेश्वर के एकानन दर्शन 
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चतुर्थ केदार के रूप में भगवान रुद्रनाथ जगप्रसिद्ध हैं। यह मंदिर समुद्रतल से 10670 फीट की ऊंचाई पर एक गुफा में स्थित है। बुग्यालों के बीच गुफा में भगवान शिव के मुखारबिंद यानी मुख दर्शन में होते हैं। भारत में यह अकेला स्थान है, जहां भगवान शिव के मुख की पूजा होती है। एकानन के रूप में रुद्रनाथ, चतुरानन के रूप में पशुपतिनाथ नेपाल और पंचानन विग्रह के रूप में इंडोनेशिया में भगवान शिव के मुख दर्शन होते हैं। रुद्रनाथ के लिए एक रास्ता उर्गम घाटी के दमुक गांव से गुजरता है, लेकिन बेहद दुर्गम होने के कारण श्रद्धालुओं को यहां पहुंचने में दो दिन लग जाते हैं। सो, ज्यादातर श्रद्धालु गोपेश्वर के निकट सगर गांव से यहां के लिए यात्रा शुरू करते हैं। शीतकाल में कपाट बंद होने पर गोपेश्वर में भगवान रुद्रनाथ की पूजा होती है। 
 
कल्पेश्वर धाम : जटा रूप में विराजमान हैं शिव 
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 पंचम केदार के रूप में कल्पेश्वर धाम विख्यात है। समुद्रतल से 2134 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए दस किमी का सफर पैदल तय करना पड़ता है। कल्पेश्वर धाम को कल्पनाथ नाम से भी जाना जाता है। यहां सालभर भगवान शिव के जटा रूप में दर्शन होते हैं। कहते हैं कि इस स्थल पर दुर्वासा ऋषि ने कल्प वृक्ष के नीचे घोर तप किया था। तभी से यह स्थान कल्पेश्वर या 'कल्पनाथÓ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अन्य कथा के अनुसार देवताओं ने असुरों के अत्याचारों से त्रस्त होकर कल्पस्थल में नारायण स्तुति की और भगवान शिव के दर्शन कर अभय का वरदान प्राप्त किया था। मंदिर के गर्भगृह का रास्ता एक गुफा से होकर जाता है। 
 
एक केदार बूढ़े भी 
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उत्तराखंड हिमालय के ऐतिहासिक- पौराणिक मंदिरों की श्रेणी में एक है बूढ़ा केदार (वृद्ध केदारेश्वर) धाम। टिहरी जिले में समुद्रतल से 4400 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर हालांकि पंचकेदार समूह का हिस्सा नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक-पौराणिक दृष्टि से इसका महत्व भी पंचकेदार सरीखा ही है। वृद्ध केदारेश्वर की चर्चा स्कंद पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रूप में मिलती है। मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने को पांडव इसी मार्ग से स्वर्गारोहण यात्रा पर गए थे। यहीं बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर भगवान शिव ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में पांडवों को दर्शन दिए थे। इसलिए बूढ़ा केदारनाथ कहलाए। बूढ़ा केदार मंदिर के गर्भगृह में विशाल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शिव की मूर्ति और लिंग विराजमान है। इतना बड़ा शिवलिंग शायद ही देश के किसी मंदिर में हो। इस पर उभरी पांडवों की मूर्ति आज भी रहस्य बनी हुई है। बगल में ही भू-शक्ति, आकाश शक्ति और पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। बूढ़ा केदार मंदिर के पुजारी नाथ जाति के राजपूत होते हैं। वह भी, जिनके कान छिदे हों। 
 
षष्ठम केदार पशुपतिनाथ 
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 पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू से तीन किमी उत्तर-पश्चिम में बागमती नदी के किनारे देवपाटन गांव में स्थित है। पशुपतिनाथ दरअसल चार मुखों वाला लिंग हैं। पूर्व दिशा की ओर वाले मुख को तत्पुरुष, पश्चिम दिशा वाले मुख को सद्ज्योत, उत्तर दिशा वाले को वामवेद और दक्षिण दिशा वाले मुख को अघोरा कहते हैं। इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था। लेकिन, उपलब्ध ऐतिहासिक दस्तावेज 13वीं सदी केही हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ और इसे वर्तमान स्वरूप नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया। यह मंदिर यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में भी शामिल है। 15वीं सदी के राजा प्रताप मल्ल से शुरू हुई परंपरा है कि मंदिर में चार पुजारी (भट्ट) और एक मुख्य पुजारी (मूल-भट्ट) दक्षिण भारत से आते हैं। मान्यता है कि जब बैल रूप में भगवान शिव केदारेश्वर में अंतर्ध्यान हुए तो उनका मुख नेपाल में प्रकट हुआ। यहां वे पशुपतिनाथ कहलाए। 
 
विल्व केदार में किरात संग अर्जुन का युद्ध
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कोटद्वार-पौड़ी-श्रीनगर मोटर मार्ग पर खंडाह नामक स्थान के पास मंजुमती नदी के किनारे खांडव मुनि ने तप किया था। तब से इसका नाम खांडव नदी पड़ा। महाभारत आदिपर्व के अध्याय-95 व वनपर्व के अध्याय-90 में उल्लेख है कि राजर्षि ययाति और महर्षि भृगु ने खांडव व अलकनंदा नदी के संगम शिवप्रयाग पर पूर्व काल में तप किया था। इसी के ठीक विपरीत अलकनंदा के दायें किनारे, जहां ढुंढि ऋषि ने तप किया, उसे ढुंढि प्रयाग कहा जाता है। इसके उत्तर की ओर का पर्वत इंद्रकील पर्वत है। शिवप्रयाग में शिव माया से निर्मित मृग के वध के लिए अर्जुन और किरात रूपी शिव के बीच घनघोर युद्ध हुआ और अर्जुन को परास्त होना पड़ा। तब अर्जुन ने यहां शिवलिंग की स्थापना कर विल्वपत्र व कमल माल्य से शिव की आराधना की। इसलिए यहां स्थापित शिवलिंग विल्व केदार नाम से प्रसिद्ध हुआ। विल्व केदार महादेव का यहां प्राचीन मंदिर है।

Monday, 23 November 2020

'देहरादूनीÓ हो गई अफगानिस्तान से आई बासमती


 'देहरादूनीÓ हो गई अफगानिस्तान से आई बासमती
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दून की बात चले और यहां की बासमती का जिक्र न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लेकिन, संभवत: अधिकांश लोगों को मालूम नहीं होगा कि जिस 'देहरादूनीÓ बासमती की देश-दुनिया में धाक रही है, वह अफगानिस्तान से यहां आई थी। हां! यह जरूर है कि दून पहुंचने पर न केवल इसकी गुणवत्ता में निखार आया, बल्कि यह अपनी मिठास, महक और स्वाद के कारण दुनियाभर की पसंद बन गई। इस बासमती को दून लाने का श्रेय अफगानिस्तान के शासक रहे दोस्त मोहम्मद खान बरकजई को जाता है। 

दोस्त मोहम्मद खान ने मंगवाया था बासमती का बीज

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किस्सा कुछ यूं है। वर्ष 1839 से वर्ष 1842 तक चले तमाम उतार-चढ़ावों वाले ब्रिटिश-अफगान युद्ध में अफगान शासक दोस्त मोहम्मद खान की हार हुई और अंग्रेजों ने उसके पूरे परिवार को देश निकाला दे दिया। तब दोस्त मोहम्मद खान निर्वासित जीवन बिताने के लिए परिवार के साथ मसूरी (देहरादून) आ गया। वैसे तो इस परिवार को यहां की आबोहवा बहुत रास आई, पर यहां के चावल से संतुष्टि नहीं मिली। ऐसे में दोस्त मोहम्मद ने अफगानिस्तान से बासमती धान के बीज मंगवाए और उन्हें देहरादून की हसीन वादियों में बो दिए। मजा देखिए कि इस धान को न केवल दून की मिट्टी रास आई, बल्कि बासमती की जो पैदावार हुई, उसकी गुणवत्ता पहले की बनिस्बत और उम्दा थी। यह चावल जब गांव के किसी एक घर में पकता तो पूरे गांव को खबर हो जाती। इसकी खूशबू पूरे गांव की फिजा को महका देती थी।

खेत से ही उठा ले जाते थे दूर-दूर के व्यापारी

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धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की चर्चा पूरे भारत में होने लगी। व्यापारी देहरादून आते, खड़ी फसल की बोली लगाते और धान पकने पर उसे खेत से ही उठा ले जाते। एक दौर ऐसा भी आया, जब बासमती की खेती से पूरा इलाका महकने लगा। देहरादून के अलावा अब हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर और नैनीताल में भी बासमती की बेशुमार खेती होने लगी। लेकिन, हर जगह इसे देहरादूनी बासमती ही कहा गया। इसे पूरी दुनिया में अपनी खास खुशबू के लिए जाना जाने लगा। लेकिन, समय के साथ शहरीकरण की मार देहरादूनी बासमती पर पड़ी। बाकी रही-सही कसर हाईब्रीड करने के चक्कर में पूरी हो गई। जिससे देहरादूनी बासमती को पहचानना भी मुश्किल हो गया। आज तो देहरादूनी बासमती की शुद्धता की पहचान करना केवल प्रयोगशाला में ही संभव है। 





















शहरीकरण में गुम हुई बासमती की महक

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एक दौर में 2200 एकड़ में देहरादूनी बासमती की खेती होती थी। लेकिन, कालांतर में खेतों की जगह कंक्रीट के जंगल उगते चले गए। नतीजा, धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की खेती सिमटने लगी। बीज प्रमाणीकरण कंपनियों की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 तक देहरादून जिले में करीब छह हजार एकड़ में देहरादूनी बासमती की पैदावार होती थी। वर्ष 1990 में घटकर यह 200 एकड़ रह गई। वर्ष 2010 आते-आते यह केवल 55 एकड़ और वर्ष 2019 में मात्र 11 एकड़ के आसपास सिमट गई। जबकि एक दौर में देहरादून के सेवला, माजरा और मोथरावाला इलाकों में जब बयार चलती थी तो बासमती के खेतों से उठती महक हवा में घुल जाती। दूर से ही पता चल जाता कि यहां बासमती धान लगा है। वर्तमान में जो बासमती उगाई भी जा रही है, उसमें टाइप थ्री दून बासमती बेहद कम है। देहरादूनी बासमती का नाम तो अब सिर्फ ब्रांड के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। हकीकत यह है कि दूसरी जगह से आ रहे बारीक चावल को देहरादूनी बासमती का ठप्पा लगाकर बेचा जा रहा है।

अन्य प्रदेशों में बदल जाते हैं इसके गुण

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देहरादूनी बासमती की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि देश-प्रदेश के दूसरे हिस्सों में इसकी उपज में यहां जैसी मिठास, महक और स्वाद पैदा नहीं हो पाता। परीक्षण के तौर पर देहरादूनी बासमती को देश के दूसरे हिस्सों में बोया भी गया, लेकिन सार्थक नतीजे सामने नहीं आए।

प्रमुख अफगान शासकों में से एक था दोस्त मोहम्मद खान

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दोस्त मोहम्मद खान (23 दिसंबर 1793-नौ जून 1863) बरकजई वंश का संस्थापक और अफगानिस्तान के प्रमुख शासकों में से एक था। वह सरदार पाइंदा खान (बरकजई जनजाति के प्रमुख) का 11वां बेटा था, जो वर्ष 1799 में जमान शाह दुर्रानी के हाथों मारा गया था। दोस्त मोहम्मद का दादा हाजी जमाल खान था।

Saturday, 14 November 2020

जीवन में जलें शांति एवं समृद्धि के दीप






जीवन में जलें शांति एवं समृद्धि के दीप

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सनातनी संस्कृति में पर्व-त्योहारों की  वही अहमियत है, जो जीवन में हवा और पानी की। पर्व-त्योहार हमारे ऐसे सनातनी उपक्रमहैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना का भाव भी जगाते हैं। दीपावली (बग्वाल) ऐसा ही मौका है, जो संपूर्ण मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। आइए! आपका परिचय दीपावली के इसी पारंपरिक, सांस्कृतिक और लोक कल्याणकारी स्वरूप से कराते हैं...



उत्तराखंड का पंचकल्याणी पर्व

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दिनेश कुकरेती

दीपावली यानी दीपों का उत्सव उल्लास एवं उमंग का ही प्रतीक नहीं, समृद्धि एवं खुशहाली का सूचक भी है। जब आत्मा में ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित होने लगेे, समझो जीवन में दीपावली का प्रवेश हो गया है। इसमें भौतिक सुखों की लालसा भी है तो आध्यात्मिकता में डूब जाने की उत्कंठा भी। कहने का तात्पर्य समस्त संसारिक भाव इसमें समाए हुए हैं। इसीलिए ज्योति पर्व का आरंभ धनतेरस होता है तो परिणति भैया दूज के रूप में। देखा जाए तो ज्योतिपर्व त्योहार मात्र न होकर त्योहारों का भरा-पूरा समूह है।  शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो दीपावली का पूजन धनतेरस से शुरू हो जाता है। यह ऐसा दिन है जब घर में किसी नई वस्तु का प्रवेश होता है। आशय यही है कि वर्षभर घर-परिवार में सुख, शांति एवं समृद्धि को स्थायित्व मिले और तन की निर्मलता एवं मन की पवित्रता बनी रहे। उत्तराखंड पर्वतीय अंचल में इस दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा की जाती है। इसके उपरांत ही घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। धनतेरस के बाद आती है नरक चतुर्दशी यानी छोटी दीपावली। सही मायने में यह मां लक्ष्मी के आगमन की प्रतीक्षा का दिन है, इसलिए इस दिन घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौक (द्वार) की पूजा की जाती है। आप मां लक्ष्मी की आगवानी को तैयार हैं, तो वह आएंगी ही। इसीलिए यह छोटी बग्वाल है, जो बड़ी बग्वाल यानी दीपावली के स्वागत में मनाई जाती है। दीपावली के बाद गोवद्र्धन पूजा और भैयादूज का पर्व आता है।



जीवन में स्वच्छता का भाव जगाता ज्योति पर्व

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घोर निराशा के इस दौर में जब सामाजिक मान्यताएं भरभराकर ढह रही हैं, तब तीज-त्योहार ही हैं, जो काफी हद तक इन्हेंं बचा पाने में सफल रहे हैं। यही ऐसे सनातनी उपक्रम हैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना भी जगाते हैं। शायद इसी वजह से त्योहार भारतीय जीवन पद्धति में गहरे से रचे-बसे हैं। हम समाज की खुशियों में कैसे शामिल हों, इसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन तो होना ही चाहिए। दीपावली ऐसा ही मौका है, जो पूरे मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। दीपावली की तैयारियां शारदीय नवरात्र के साथ ही शुरू हो जाती हैं। नवरात्र जहां प्रकृति एवं उसकी रचनाओं के प्रति सम्मान का बोध कराते हैं, वहीं दीपावली जीवन में स्वच्छता का भाव जगाती है। असल में इस पर्व की बाहरी चकाचौंध इसके भीतर छिपे दर्शन को ही प्रकाशित करती है। तन की निर्मलता, मन की पवित्रता और परिवेश की स्वच्छता का असल मकसद विचारों का प्रवाह समाज की उन्नति की ओर मोडऩा ही है। परिवेश की सफाई से आरंभ होने वाला यह त्योहार पराकाष्ठा पर पहुंचते-पहुंचते भाई-बहन के स्नेह का प्रतिरूप बन जाता है। महालक्ष्मी का पूजन इसका मुख्य सोपान है, लेकिन लक्ष्मी की कृपा तभी बरसती है, जब इसके पीछे मानव के कल्याण और प्रकृति के संरक्षण का भाव निहित हो। भारतीय संंस्कृति का असली स्वरूप भी यही है।



'बग्वालÓ का एक रूप 'इगासÓ भी

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पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने की परंपरा है। दरअसल ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को इगास-बग्वाल नाम दिया गया। मान्यता है कि अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती हैं, इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। जबकि, हरिबोधनी एकादशी यानी इगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। सो, इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है। देखा जाए तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास-बग्वाल कहा जाता है। इन दोनों दिनों में सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है। मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुवे के आटे का हलुवा) और जौ का पींडू (आहार) तैयार किया जाता है। भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डू तैयार कर उन्हें परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं। बग्वाल और इगास को घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाकर उन सभी परिवारों में बांटे जाते हैं, जिनकी बग्वाल नहीं होती। इस पर्व पर भी रात में पूजन के बाद गांव के सभी लोग भैलो खेलते हैं।



उत्सव में परंपराओं का समावेश

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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली। इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया। मान्यता यह भी है कि गढ़वाल राज्य के सेनापति वीर भड़ माधो सिंह भंडारी जब दीपावली पर्व पर लड़ाई से वापस नहीं लौटे तो जनता इससे काफी दुखी हुई और उसने उत्सव नहीं मनाया। इसके ठीक ग्यारह दिन बाद एकादशी को वह लड़ाई से लौटे। तब उनके लौटने की खुशी में दीपावली मनाई गई। जिसे इगास पर्व नाम दिया गया।

Thursday, 5 November 2020

इसलिए खास है उत्‍तराखंड की पारंपरिक दीपावली

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उत्‍तराखंड की पारंपरिक दीपावली पर विशेष
 


भैलो की रोशनी में मंगल का गान 
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दिनेश कुकरेती 
देवभूमि उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में पंचकल्याणी पर्व दीपावली को मनाने का अंदाज ही निराला है। यहां दीपावली का उत्सव कार्तिक त्रयोदशी यानी धनतेरस से शुरू होकर कार्तिक कृष्ण अमावस्या के ११ दिन बाद देवोत्थान (देवउठनी) एकादशी को विराम लेता है। इसीलिए यहां दीपावली को लोग 'इगास-बग्वालÓ नाम से जानते हैं। भैलो (बेलो) परंपरा दीपावली (बड़ी बग्वाल) का मुख्य आकर्षण है। बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है, जिसे सांस्कृतिक क्षरण के इस दौर में भी सुदूर अंचल में देखा जा सकता है।

























'बेलोÓ पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हैं। इसमें एक निश्चित दूरी पर चीड़ की लकडियां (छिल्ले) फंसाई जाती हैं। इसके बाद सभी लोग गांव के किसी ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान (चौंर) पर एकत्र होते हैं। जहां पांच से सात की संख्या में तैयार बेलो में फंसी लकडिय़ों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है। फिर ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर सावधानी से उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य की छटा बिखेरते हैं। इसे भैलो खेलना कहा जाता है। लोक मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के आरिष्टों का निवारण करती हैं। 
लोक के सरोकारों से जुड़े साहित्यकार नरेंद्र कठैत बताते हैं कि गांव की खुशहाली एवं सुख-समृद्धि के लिए बेलो को गांव की चारों दिशाओं में भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के छिल्लों को जलाकर ग्रामीण समूह नृत्य भी करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप है। इसके अलावा दीपोत्सव पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता की भी पूजा होती है। 

लगता है गऊ पूड़ी का भोग 
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धनतेरस के दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर गोपूजा होती है। फिर घर के सभी सदस्य 'गऊ पूड़ीÓ का भोग लगाते हैं। 

इसलिए प्रथम पूजनीय है गाय 
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बग्वाल तक खरीफ की फसल तैयार होकर घरों तक भी पहुंच जाती है। फसल को तैयार करने में पशुओं की भूमिका भी अहम होती है। इसीलिए अन्न का पहला ग्रास गो को देने का प्रचलन शुरू हुआ। 

महकने लगते हैं पकवानों से घर 
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छोटी बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन को बुहार (साफ-सफाई) कर चौक (द्वार) की पूजा होती है और उस पर 'शुभ-लाभÓ अथवा 'स्वास्तिकÓ का चिह्न अंकित किया जाता है। इस दिन सुबह से ही स्वाले व दाल की पकौडिय़ों की खुशबू से घर महकने लगते हैं। साथ ही गाय के लिए पींडो यानी झंगोरा, भात व बाड़ी (मंडुवे का फीका हलवा) बनना शुरू हो जाता है। बच्चे नजदीक के जंगल से फूल तोड़कर लाते हैं और उन्हें पींडो में रोप देते हैं। इसके बाद परिवार के सभी लोग छानी (गोशाला) में जाकर पहले गोवंश के सींगों पर सरसों का तेल लगाते हैं और फिर उनका तिलक कर पींडो खिलाते हैं।

गांवभर में बंटता है कलेऊ 
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दिन के वक्त कलेऊ (स्वाले-पकौड़े) गांवभर में बांटा जाता है। अंधेरा घिरने पर घर, छज्जे, आले के भीतर, चौक, यहां तक कि छानी में भी तेल के दीये जलाए जाते हैं। और...चारों दिशाओं में गूंजने लगता है सुमधुर गीत, 'झिलमिल-झिलमिल दिवा जलि गैना, फिर बौडि़ ऐ ग्ये बग्वाल...।Ó 

गो, वृक्ष, पर्वत और नदी की पूजा 
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दीपावली का अगला दिन पड़वा गोवर्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत व नदी की पूजा की जाती है। कहते हैं कि पड़वा को निद्रा त्यागकर बिना मुख धोए मीठा ग्रहण करने से सालभर घर-परिवार में मिठास घुली रहती है। 

शुरू होता है इगास का इंतजार 
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बग्वाल के तीसरे दिन पडऩे वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है। इस दिन बहन घर आए भाई का टीका कर उसे मिष्ठान खिलाती है। फिर शुरू हो जाता है इगास का इंतजार। 


























खिलखिला उठते हैं घर-आंगन 
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अंतराल के गांवों में बग्वाल पर दरवाजों, देहरी की चौखट और तिबारी के खंभों को हल्दी (पीला रंग), रोली (लाल रंग) और आटे (सफेद रंग) की बिंदियों से सजाया जाता है। दरवाजे के दोनों कोनों पर थोड़ा सा गोबर लगाकर उसे रंगों और जौ की हरियाली से सजाने की परंपरा है। जबकि, दरवाजे और पूजा घर को फूल मालाओं से सजाया जाता है।