Monday, 17 August 2020

चटनी जो मुंह में पानी ला दे


चटनी जो मुंह में पानी ला दे

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दिनेश कुकरेती

उत्तराखंडी खान-पान की परंपरा में चटनी को विशेष महत्व दिया गया है। पहाड़ी प्रदेश होने के कारण यहां तकरीबन दस प्रकार की चटनियां प्रचलन में हैं। इनमें हरी पत्तियों की चटनी, भड़पकी (भाड़ या गर्म राख में पकाई गई) चटनी, फलों की चटनी व दलहन-तिलहन की चटनी खास पसंद की जाती हैं। आइए! कुछ खास तरह की चटनियों से आपका परिचय कराते हैं और यह भी बताते हैं कि इन्हें कैसे बनाया जाता है।

हरी चटनी
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हरी चटनी का जिक्र आते ही मुंह में पानी आ जाता है। इसका रंग जितना आकर्षक है, उतनी ही मनमोहक इसकी खुशबू भी होती है। इसके लिए हरा धनिया, पुदीना व लहसुन के पत्तों की जरूरत पड़ती है। चाहे तो अदरक भी मिला सकते हैं। पहले पत्तों को साफ करने के बाद अच्छी तरह धोकर सिल-बट्टे में पीस लें। एकाध टमाटर व लहसुन-प्याज भी इसमें मिला सकते हैं। साथ ही स्वादानुसार नमक, हरी मिर्च व मसाले भी मिला लें। वैसे मसाले न भी हों तो काम चल जाएगा। यह चटनी भूख बढ़ाती है और रोगियों के लिए भी उपयुक्त होती है।


भट की चटनी (घुरयुंट)
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लोहे की कढ़ाई या तवा अच्छी तरह गर्म कर उसमें दो-एक मुट्ठी काले या भूरे भट डाल लें। उन्हें सूती कपड़े से चट-पट हिलाते रहें और जब भट तड़-तड़ की आवाज करने लगें तो नीचे उतार लें। भुने भट को सिल-बट्टे या मिक्सी में पीस लें। साथ में थोड़ा हरा पुदीना भी मिला सकते हैं। नमक-मिर्च जरूरत के हिसाब से मिलाएं। चटनी न ज्यादा पतली हो, न ज्यादा सख्त ही। खट्टापन लाने के लिए इसमें नींबू, चेरी या छोटे टमाटर डाल सकते हैं। नाश्ते या खाने में जायका आ जाएगा। कुमाऊं में यह चटनी 'घुरयुंटÓ नाम से प्रसिद्ध है।


तिल की चटनी
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सफेद, काले या भूरे तिल की चटनी भी भट की तरह भूनकर बनाई जाती है। भूनने में सावधानी बरतने की जरूरत है, क्योंकि ज्यादा देर भूनने पर चटनी कड़वी हो जाएगी। जायका लाने के लिए इसमें हरा धनिया व पुदीना भी मिलाया जा सकता है।

भंगजीर की खास चटनी
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भंगजीर तिलहन प्रजाति में आती है, जो सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में ही पैदा होती है। इसकी चटनी भी भूनकर बनाई जाती है। कुमाऊं में इसे भंगीरा कहते हैं। भंगजीर काली भी होती है। भंगजीर आसानी से भुन जाती है, इसलिए इससे जलने से बचाना चाहिए। यह पीसने में भी आसन होती है और देखने में सफेद यानी नारियल की चटनी की तरह लगती है। हरा धनिया, पुदीना या अन्य पत्ते डालने पर चटनी का कलर अर्द्धसफेद हो जाता है। स्वाद एवं गुणवत्ता में इसका जवाब नहीं।

 

भांग की चटनी
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पहाड़ में खेतों में उगाई जाने वाली भांग के दाने मोटे-मोटे होते हैं। इसलिए इन्हें भूनने में तिल या भंगजीर की अपेक्षा ज्यादा समय लगता है। भांग का दाना सख्त होता है इसलिए उसे अच्छी तरह पीसना चाहिए। तासीर गर्म होने के कारण भांग की चटनी सर्दियों के लिए ही ज्यादा मुफीद है। वैसे तासीर ठंडी करने के लिए आप इसमें हरा धनिया व पुदीना मिला सकते हैं।

 

चुलू की चटनी 

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चुलू की चटनी गर्मियों में खाई जाने वाली मशहूर चटनी है। इसे बनाने के लिए पके चुलू या खुमानी का गूदा ढेलों से अलग कर लें। फिर उसमें पुदीना, लहसुन व प्याज मिलाकर सिल-बट्टे में अच्छे से पीस लें। इसके बाद हल्का नमक, मिर्च व सामान्य मसाला मिला लें। चटनी लसपसी बननी चाहिए। यदि चुलू ज्यादा खट्टे हैं तो खट्टापन दूर करने के लिए उसमें थोड़ा चीनी या गुड़ मिला लें। यह चटनी रोटी के साथ तो अच्छी लगती ही है, आप इसके साथ भात-झंगोरा भी खा सकते हैं। यानी दाल-सब्जी का काम भी चटनी कर लेती है।

भड़पकी चटनी
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चूल्हे के भाड़ या गर्म राख के अंदर आलू के छोटे-छोटे दाने ढक दीजिए। 20 मिनट से भी कम समय में आलू पक जाएगा। आलू के एक चौथाई हिस्से के बराबर टमाटर भी इसी तरह भून लें। फिर दोनों चीजों का अच्छी तरह छिलका उतारकर उसमें हरी या भुनी मिर्च, नमक व हल्के मसाले मिला लें। यदि थोड़ा भुना हुआ अदरक भी हो तो सोने पे सुहागा। सभी को  सिल-बट्टे में पीस लें। तैयार है भड़पकी गैस नाशक चटनी।
 

सुंट्या
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सुंट्या एक प्रकार की खट्टी-मीठी चटनी है। इसके लिए गर्म तेल में धनिया या लाल मिर्च तलकर उसमें गुड़ या इमली का पानी उबाल लें। साथ ही छुआरा, अदरक, नारियल गिरी व किशमिश को बारीक काटकर तब तक कौंचे से घुमाते रहें, जब तक कि मिश्रण गाढ़ा होकर पक न जाए। सुंट्या गढ़वाल में पितृपक्ष के दौरान बनने वाला विशेष व्यंजन है। इसे लोग खूब चटखारे लेकर खाते हैं। यह पाचन के लिए अच्छा माना जाता है। हालांकि, शादी या अन्य अवसरों पर सुंट्या को वर्जित माना गया है।

काली खटाई 

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 खट्टे के शौकीन लोग गलगल के रस को खूब पकाकर रख लेते हैं। पकाने पर यह रस जम जाता है। इसी को काली खटाई कहते हैं। इसे लंबी अवधि तक रखा जा सकता है। खट्टे की जरूरत पडऩे पर इसके बहुत छोटे टुकड़े इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इसी तरह दालिमू (दाडि़म) के बीजों से भी खटाई बनाई जाती है। कुमाऊं के ग्रामीण इलाकों में काली खटाई को दाडि़म का चूक कहते हैं। यह कब्ज, उल्टी-दस्त रोकने में सहायक है।
 

Sunday, 16 August 2020

हर घर की पसंद कुमाऊंनी रायता

 

हर घर की पसंद कुमाऊंनी रायता
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दिनेश कुकरेती
ककड़ी (खीरे) का रायता पहाड़ की लोकप्रिय डिश है। वैसे तो रायता आमतौर पर पहाड़ के हर घर में बनता है, लेकिन कुमाऊंनी रायते की बात ही निराली है। खास टेस्ट होने के कारण कुमाऊंनी रायता गढ़वाल-कुमाऊं में समान रूप से पसंद किया जाता है। गढ़वाल में इसे 'रैलूÓ कहते हैं। इसके अलावा गढ़वाल में कद्दू का 'रैठूÓ भी खास पसंद किया जाता है। चलिए! इस बार हम भी 'रैलूÓ और 'रैठूÓ का जायका लेते हैं।


ऐस बनता है कुमाऊंनी रायता
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कुमाऊंनी रायता बनाने के लिए मिट्टी या लकड़ी के पारंपरिक बर्तन में दो-एक दिन पहले राई या सरसों के बीजों का पाउडर मिलाकर दही जमाने रख दी जाती है। इससे दही में जोरदार रासायनिक क्रिया होती है। दही जमने के बाद उसमें कद्दूकस की हुई ककड़ी डाल डालकर जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च और मसाले मिक्स कर लेते हैं। साथ ही राई व जंबू का छौंका भी लगा लिया जाता है। बस! कुमाऊंनी रायता बनकर तैयार है।


अपनी-अपनी परंपरा
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कुमाऊं में रायता शादी-समारोह में विशेष रूप से परोसा जाता है। जबकि, गढ़वाल में पितृपक्ष के दौरान रायता खाने की परंपरा है। हालांकि, अब हर मौके पर रायता खाने का हिस्सा बनने लगा है।


चिरमिरी महक के क्या कहने
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कुमाऊंनी रायते में एक खास किस्म की चिरमिरी महक होती है। राई व सरसों के दानों की इस महक को आप जीवनभर भूल नहीं पाओगे। इस रायते को घरों में नाश्ते के साथ विशेष रूप से खाया जाता है।


कद्दू के रैठू लाजवाब जायका
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रैठू पके हुए कद्दू से तैयार किया जाता है। इसके लिए कद्दू के अंदर से गूदा और बीज अलग कर उसके मोटे-मोटे टुकड़े काट लेते हैं। फिर इन्हें छिलके सहित बहुत कम पानी में उबालकर ठंडा करने रख दिया जाता है। खाने पर यह टुकड़े गुड़ जैसी मिठास देते हैं। उबले कद्दू की तासीर ठंडी होती है। अब शुरू होती है रैठू बनाने की प्रक्रिया। कद्दू के टुकड़े मसलकर उनमें दही मिला दी जाती है और फिर जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च व मसाले मिला लेते हैं। तैयार है कद्दू का रैठू। इसे आप मट्ठा के साथ भी बना सकते हैं।


स्वादिष्ट और सुपाच्य डिश
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आप रैठू को जायकेदार बनाना चाहते हो तो इसमें लोहे की करछी मेथी, जीरा या राई का तड़का लगा लें। इसे झंगोरा, भात व रोटी के साथ भी खाया जा सकता है। रैठू बेहद स्वादिष्ट और सुपाच्य डिश है। इसे खाने के बाद भूख बड़ी जल्दी लगती है। 

Friday, 14 August 2020

जैसा रायता, वैसा मजा


जैसा रायता, वैसा मजा
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दिनेश कुकरेती

पहाड़ में मारसा, चौलाई या रामदाना के हरे साग (पत्तों) का रायता खाने की परंपरा पीढिय़ों से चली आ रही है। अपनी पुस्तक 'उत्तराखंड में खानपान की संस्कृतिÓ में विजय जड़धारी लिखते हैं कि यह रायता स्वादिष्ट होने के साथ ही पौष्टिक भी होता है। लौह तत्व इसमें काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है। उस पर यह पहाड़ का बेहद सस्ता एवं आसान भोजन है। कारण, मारसा खेतों में अपने आप उग जाता है और इसका रायता बनाने के लिए अतिरिक्त साधन भी नहीं जुटाने पड़ते। इसके अलावा बथुवा, पहाड़ी आलू और साकिना की कलियों के रायते का भी अपना अलग ही मजा है।

बेहद आसान है मारसा का रायता बनाना

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मारसा का रायता बनाने के लिए उसकी हरी-मुलायम पत्तियों और अग्रभाग को अच्छी तरह साफ कर लें। फिर इन्हें इन्हें पतीले में ढक्कन रखकर उबालें और उबलने पर चिमटे से ढक्कन हटा लें। जब साग ठंडा हो जाए तो इसे दोनों हाथों से निचोड़कर पानी को निथार लें। अब इस साग को सिल-बट्टे में पीस लें या फिर हाथ से ही अच्छी तरह मसलकर और करछी से घोंटकर महीने बना लें। इस घुटे हुए साग को ताजा दही के साथ अच्छी तरह मिलाएं और इसमें स्वादानुसार नमक, मिर्च व मसाले डाल लें। तैयार है मारसा का जायकेदार हरा रायता। आप इसमें हींग व जीरे का तड़का भी लगा सकते हैं। फिर देखिए झंगोरा, चावल या रोटी के साथ खाने में मजा आ आएगा। आप चाहें तो उबले हुए मारसा को छौंककर सूखे साग के रूप में भी इसका लुत्फ ले सकते हैं।


खून बढ़ाने वाला बथुवा का रायता
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बथुवा का रायता बनाने की विधि भी मारसा का रायता बनाने जैसी ही है। बथुवा भी पहाड़ में बहुतायत में मिल जाता है। अब तो शहरों में भी इसकी खूब बिक्री होती है। पहाड़ में जंगली बथुवा के अलावा हिमालयी बथुवा का भी रायता बनाया जाता है। इसकी पत्तियां बहुत बड़ी होती हैं और यह ज्यादा स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें भी लौह तत्व की बहुतायत है।

जख्या के तड़के वाला आलू का रायता
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पहाड़ी तोमड़ी, खोपटी या सामान्य आलू के रायते का भी अपना अलग ही जायका है। इसके लिए सबसे पहले आलू को साफ कर कम पानी में उबाल लें। फिर छिलके निकालकर इनका चूरा बना लें। लेकिन, ध्यान रहे कि यह चूरा मसीटा न बने। फिर ताजा दही में आलू के चूरे को अच्छी तरह मिलाएं। साथ ही स्वादानुसार लहसुन, मुर्या (मोरा) व धनिये का हरा नमक भी इसमें मिला लें। चाहें तो राई या जख्या के तड़के साथ इसे छौंक भी सकते हैं। तैयार है आलू का जायकेदार रायता। आप भात, झंगोरा या रोटी के साथ इसका जायका ले सकते हैं, मजा आ जाएगा। हां, अगर पहाड़ी आलू की पारंपरिक किस्म उपलब्ध न हो तो किसी भी आलू से रायता बनाया जा सकता है।

 साकिना की कलियों का रायता
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साकिना (सकिन या सकीना) की कलियों को फूल आने से पहले या अद्र्धफूल सहित उबाल लें। इसके बाद कलियों की छोटी-छोटी डंडियों को अलग कर इन्हें सिलबट्टे या मिक्सी में महीन पीस लें। फिर इस मसीटे को दही के साथ मिलाकर इसमें जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च व अन्य मसाले मिला लें। तैयार है साकिना का स्वादिष्ट रायता। गढ़वाल में इसे 'कथेलीÓ कहते हैं। यह पेट संबंधी बीमारियों की रामबाण औषधि है। पहाड़ में तो महिलाएं साकिना की कलियों को धूप में सुखाकर सुरक्षित रख लेती हैं। इन सूखी कलियों का रायता भी बहुत स्वादिष्ट एवं औषधीय गुणों वाला होता है।

Saturday, 8 August 2020

चलते-फिरते भूख शांत करने वाला भोजन बुखणा

चलते-फिरते भूख शांत करने वाला भोजन बुखणा

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दिनेश कुकरेती

एक दौर में मां जब किसी व्यक्ति के माध्यम से अपनी दूर ब्याही बेटियों को मायके की राजी-खुशी का रैबार (संदेश) देती थी तो उसके हाथ समौण (याद) के रूप में मौसम के अनुसार बुखणा (खाजा) जरूर भेजती थी। बेटी को जब मां के भेजे बुखणा मिलते थे तो उसे लगता था, मानो सारे संसार की खुशियां मिल गई हैं। इसी तरह घसियारियां (बहू-बेटी) जब घास-लकड़ी लेने जंगल जाती थीं तो उनके सिर पर बुखणा की पोटली जरूर होती थी। असल में बुखणा पहाड़ का ऐसा भोजन है, जिसे भूख शांत करने के लिए चलते-फिरते, काम करते हुए या क्षणिक विश्राम के दौरान सुकून के साथ खाया जा सकता है। हालांकि, आज यह परंपरा लगभग क्षीण हो चली है। आइए! हम भी बुखणा का लुत्फ लें।

चावल के बुखणा

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चावल के बुखणा बनाने के लिए धान की फसल काटते समय अधपकी बालियों को अलग कर दिया जाता है। इन बालियों को कढ़ाई या अन्य किसी बड़े बर्तन में हल्की आंच पर भूना जाता है। लेकिन, यदि बाली पूरी तरह सूख चुकी हो तो उसे नरम करने के लिए भूनने से पहले पानी में भिगोया जाता है। भूनने के बाद बालियों के ठंडा होने पर उन्हें ओखली में कूटा जाता है। कूटते समय धान के साथ भंगजीर के पत्ते भी डालते हैं और फिर सूप से अच्छी तरह फटककर भूसा अलग कर लिया जाता है। बस! तैयार हैं चावल के बुखणा। 


चावल के मीठे बुखणा

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मीठे बुखणा बनाने के लिए चावल के वजन का आधा गुड़ कम पानी में उबालकर रख लिया जाता है। फिर कढ़ाई में चावल को भूनकर फटाफट गुड़ के पानी में डाल देते हैं। अच्छी तरह मिलाने के बाद बर्तन को थोड़ी देर ढककर रख देते हैं। फिर बर्तन से ढक्कन हटाकर चावल को हल्का सूखने देते हैं। लो जी! तैयार हैं मीठे बुखणा। 

 

चीणा के बुखणा

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एक जमाने में चीणा (वानस्पतिक नाम पेनिकम मैलेशियम) के बुखणा (चिन्याल) पहाड़ में काफी प्रचलित रहे हैं। उत्तरकाशी जिले में एक कस्बे का 'चिन्यालीसौड़Ó नाम तो चीणा की फसल के कारण ही पड़ा। उस दौर में कुछ लोग तो सिर्फ बुखणा बनाने के लिए ही चीणा की खेती किया करते थे। चीणा के बुखणा भी धान की तरह ही भूनकर बनाए जाते हैं। लेकिन, इनकी महक धान के बुखणा की अपेक्षा कई गुणा अधिक होती है। भंगजीर के हरे पत्ते मिलाने पर तो इनका स्वाद लाजवाब हो जाता है। हालांकि, खेती के तौर-तरीकों में आए बदलावों के साथ अब चीणा की खेती भी चुनिंदा इलाकों में ही हो रही है।

कौणी-झंगोरा के बुखणा

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चावल और चीणा के साथ झंगोरा और कौणी के बुखणा बनाने की परंपरा भी पहाड़ में रही है। कौणी के बुखणा को कौन्याल कहा जाता है। इन्हें बनाने का तरीका भी चावल और चीणा के बुखणा बनाने जैसा ही है। लेकिन, स्वाद में थोड़ा अंतर है। पहाड़ में बुखणों के शौकीन खास प्रजाति के उखड़ी चावल और अन्य मोटी चावल प्रजातियों से भी बुखणा बनाते हैं।

 

मुंह में मिठास और तन में स्फूर्ति घोल देता है बुखणा

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बुखणा पहाड़ का चलता-फिरता फॉस्ट फूड है। यह 'रेडी टू ईटÓ जरूर है, लेकिन आधुनिक फास्ट फूड की तरह सिर्फ पेट भरने वाला भोजन नहीं। एक पंक्ति में कहें तो यह नारियल की तरह आहिस्ता-आहिस्ता चबा-चबाकर खाया जाने वाला ऐसा खाद्य है, जो मुंह में मिठास और तन में स्फूर्ति घोल देता है। बुखणा दांतों को भी मजबूती प्रदान करता है। एक परफैक्ट फूड बनाने के लिए इसमें अखरोट, सिरोला (चुलू की मीठी गिरी), तिल, भंगजीर आदि मिलाए जाते हैं। इनसे बुखणा का स्वाद ही नहीं, पौष्टिकता भी बढ़ जाती है। अखरोट ग्लूकोज को नियंत्रित करता है और हृदय रोग व डायबिटीज नहीं होने देता। 

सुपाच्य, पौष्टिक एवं ऊर्जा का स्रोत

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बुखणा के साथ यदि अखरोट, भंगजीर, सिरोला, तिल आदि भी मिला लिए जाएं तो इनका स्वाद और पौष्टिकता, दोनों ही बढ़ जाते हैं। यह सुपाच्य एवं शरीर को ऊर्जा प्रदान करने वाला भोजन है।

Tuesday, 4 August 2020

करिश्माई पेय है चावल का मांड/Rice is a charismatic drink

करिश्माई पेय है चावल का मांड
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दिनेश कुकरेती
मांड यानी राइस वॉटर (उबले चावल का बचा हुआ पानी) अपने आप में एक स्वादिष्ट व्यंजन है। एक बार कोई मांड का स्वाद चख ले तो उसका मुरीद बन जाएगा। प्रेशर कूकर के चलन में आने से पहले पहाड़ में जब लोग डेगची या पतीले में चावल पकाया करते थे, तब मांड जरूर पसाया (निकाला) जाता था। ग्रामीण इलाकों में तो आज भी मांड लोगों का प्रिय पेय है। बच्चों में मांड पीने के लिए झगड़ा तक हो जाता है।

खास चावल का खास मांड
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जैसे चावल, वैसा मांड। मसलन उखड़ी (असिंचित खुशबूदार चावल) या बासमती जैसे चावल का मांड लाजवाब होता है। अगर ज्वाटू, कफल्या या कल़ौ प्रजाति के चावल का मांड हो तो कहने ही क्या। यह मांड इतना गाढ़ा होता है कि ठंडा होने पर थाली में जम जाता है। आप इसे छुरी से पनीर की तरह छोटे-छोटे टुकड़ों में काट सकते हैं।

विटामिन, फाइबर व कॉर्बोहाइड्रेट से भरपूर
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मांड को गुड़ या चीनी मिलाकर पिया जाए तो ज्यादा मजा आता है। लेकिन, अगर आप नमकीन मांड पीना चाहते हैं तो धनिया व लहसुन वाला नमक मिलाकर सूप की तरह पियें। पौष्टिकता से लवरेज इस मांड में स्टार्च व विटामिन की भरमार होती है। विटामिट 'बीÓ, 'सीÓ व 'ईÓ के अलावा इसमें कॉर्बोहाइड्रेट समेत अन्य खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।

कई व्याधियों की रामबाण औषधि
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सामान्य पेचिश, मरोड़ व आंव में मांड को रामबाण औषधि माना गया है। इसके लिए एक चौड़े बर्तन में गर्मागर्म मांड निकालकर उसमें गुड़, मिश्री व थोड़ा-सा घर का शुद्ध घी मिला लें। बर्तन को कुछ देर इस तरह ढककर रखें कि भाप की बूंदें उसी में गिरें। जब मांड लगभग ठंडा हो जाए तो ढक्कन को हटा दें। आप देखेंगे कि ढक्कन से कटोरे में भाप की बूंदें टपक रही हैंं। इस मांड को पीने से दो-तीन दिन में पेचिश व आंव की शिकायत बिल्कुल दूर हो जाती है।

मां का दूध बढ़ाने में सहायक
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प्रसूति के बाद मां का दूध बढ़ाने में भी मांड का उपयोग पीढिय़ों से होता आया है। इसके लिए सभी तरह के लाल चावल, उखड़ी व बासमती चावल का मांड निकाल लें। इसमें घी व गुड़ डालकर जच्चा को पिलाने से उसके स्तनों में दूध बढ़ जाता है।

सूप की तरह ला सकते हैं उपयोग में
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मांड में नमक और भुना जीरा मिलाने से अच्छा स्वास्थ्यवद्र्धक पेय तैयार हो जाता है। सूप की तरह उपयोग में लाने के लिए इसमें सूखा पुदीना और सामान्य नमक की जगह काला नमक मिला लें।

ऐसे तैयार करें मांड
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मांड बनाने के लिए बड़ी पतीली में चावल को उससे दोगुना ज्यादा पानी में उबाल लें। अच्छी तरह उबाल आने पर पतीली को ढककर आंच धीमी कर दें। करीब दस-बारह मिनट बाद चावल के एक दाने को मसलकर चेक करें। यदि वह आसानी से दब जाए तो उबले पानी यानी मांड को किसी दूसरे बर्तन में निकाल लें। इसे आप गुड़, चीनी अथवा नमक मिलाकर पी सकते हैं।
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Rice is a charismatic drink
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Dinesh Kukreti
Mand water, rice water (leftover water of boiled rice) is a delicious dish in itself.  Once someone tastes the earth, it will become a murid.  Before the pressure cooker entered the mountain, when the people used to cook rice in Daigachi or pot, the Mand was definitely cooked.  Even in rural areas, Mand is the favorite drink of the people.  In children, there is a fight to drink the pot.

Special rice rice
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Like rice, like wheat.  For example, rice flour such as ukhadi (non-irrigated aromatic rice) or basmati is excellent.  What to say if there is rice malt of Jwatu, Kaflya or Kalau species.  This pot is so thick that it cools in the plate when it is cold.  You can cut it into small pieces like cheese with a knife.

Rich in vitamins, fiber and carbohydrates
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Drinking mixed with jaggery or sugar is much more enjoyable.  But, if you want to drink salty morsels then mix salt with coriander and garlic and drink it as a soup.  Lavage, nutritiously, this pot is full of starch and vitamins.  In addition to Vitamit 'B', 'C' and 'E', other mineral substances including carbohydrates are found in abundance in it.

Panacea
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In normal dysentery, torsion, and gooseberry, it is considered a panacea.  For this, take out hot pot in a wide pot, mix jaggery, sugar candy and a little pure ghee in it.  Keep the vessel covered for some time in such a way that the drops of steam fall into it.  When the starch is almost cool, remove the lid.  You will see drops of steam dripping from the lid into the bowl.  By drinking this pot, the problem of dysentery and amoe in two to three days is completely removed.

Helpful in increasing breast milk
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After maternity, it has been used by generations to increase breast milk.  For this, take out all the products of red rice, unripe and basmati rice.  By adding ghee and jaggery to it, feeding the mother milk increases milk in her breasts.

Can be used as a soup
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A good healthy drink is prepared by adding salt and roasted cumin seeds to the starch.  To use as a soup, add dry mint and black salt instead of normal salt.

Prepare Mand like this
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Boil rice in a large pot of water twice as much to make a pan.  After boiling well, cover the pan and reduce the flame.  After about ten to twelve minutes, mash a grain of rice and check.  If it is easily suppressed then take out the boiled water in some other vessel.  You can drink it by mixing jaggery, sugar or salt.

Monday, 3 August 2020

Real freedom is spiritual happiness/असल आजादी तो आत्मिक सुख है


असल आजादी तो आत्मिक सुख है
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दिनेश कुकरेती
एक कहानी है कि किसी राजा ने बोलते तोते को सोने के पिंजरे में बंद कर दिया। वह उसे खाने को अच्छे-अच्छे व्यंजन देता, लेकिन कुछ दिन बाद तोता मर गया। मंत्री ने राजा  को तोते की मृत्यु का कारण उसकी आजादी छीन लेना बताया। राजा को अपने किए पर पछतावा हुआ और उसका हृदय परिवर्तन हो गया।
अब वह रोजाना सुबह-सुबह जंगल में जाता, पक्षियों को दाना-पानी देता और उनको चहचहाते हुए सुनता। पहले पक्षी उससे दूर रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे वह राजा के समीप बैठने लगे और कुछ दिन बाद तो पक्षी कभी राजा के सिर पर बैठ जाते तो कभी कंधे और भुजाओं पर।
राजा को अब लगने लगा कि यही है आत्मिक सुख और किसी के साथ रहकर उनके विचारों को जानने एवं समझने का सही तरीका। सच कहें तो यह आत्मिक सुख ही असली आजादी है। इतिहास के पन्ने पलटें तो आजादी मिलने से पहले आजादी के यही मायने हुआ करते थे, लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं।

हर व्यक्ति के लिए आजादी का अलग अर्थ
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प्रसिद्ध कथाकार जितेन ठाकुर कहते हैं कि आज गरीब आदमी के लिए आजादी का अर्थ गरीबी से आजादी है, तो अशिक्षित व्यक्ति के लिए अशिक्षा से आजादी। कहने का मतलब हर वर्ग और व्यक्ति के लिए आजादी के अलग-अलग मायने हैं। लेकिन, वर्तमान में जिस आजादी की सबको सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है बेकारी, महंगाई व भ्रष्टाचार से आजादी। असल में जिस अर्थ एवं भाव के साथ हमने आजादी की लड़ाई लड़ी और हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें जो 'अर्थÓ दिया, हम कहीं-न-कहीं उससे भटक गए हैं। कुव्यवस्था की विडंबना ने उसे विद्रूप बना दिया है।

हमारी सोच तो अभी भी गुलाम है
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कथाकार मुकेश नौटियाल कहते हैं, एक दौर वह भी था, जब वीर योद्धाओं में दीवानों की तरह मंजिल पा लेने का हौसला तो था, लेकिन बर्बादियों का खौफ न था। दीवानों की तरह आजादी के ये परवाने भी मंजिलों की ओर बढ़ते चले गए। बड़े से बड़े जुल्म-औ-सितम भी उनके कदमों को न रोक सके। अपने हौसलों से हर मुश्किल का सीना चीरते हुए वे आजादी की मंजिल की तरफ बढ़ते ही चले गये। हम आजाद हुए तो कितना कुछ बदल गया। लेकिन, क्या ही अच्छा होता कि हमारी समाज को गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अज्ञानता और अंधविश्वास की गुलामी से आजाद करने वाली भी सोच होती।

कौन आजाद हुआ, किसके माथे से...
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अली सरदार जाफरी लिखते हैं, 'कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी, खंजर आजाद है सीनों में उतरने के लिए, मौत आजाद है लाशों पे गुजरने के लिए।Ó वर्तमान का परिदृश्य ऐसा ही तो है। जरा इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं, 15 अगस्त 1947 को भारत न सिर्फ विदेशी कर्जों से मुक्त था, बल्कि इसके उलट ब्रिटेन पर उसका 16.62 करोड़ रुपये का कर्ज था। लेकिन, आज देश पर 50 अरब रुपये से भी ज्यादा का विदेशी कर्ज है। आजादी के समय जहां एक रुपये के बराबर एक डॉलर होता था, वहीं आज एक डॉलर की कीमत 61 रुपये तक पहुंच गई है। महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है और जल्द ही इस स्थित में सुधार को प्रयास नहीं हुए तो हम मानसिक गुलामी के साथ आर्थिक गुलामी के चंगुल में भी फंस जाएंगे।

कुसंस्कारों के बंधन से कब होंगे आजाद
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साहित्यकार सुनील भट्ट कहते हैं कि हम अंग्रेजों के बंधनों से तो आजाद हो गए, लेकिन कुसंस्कारों के बन्धन से कब आजाद होंगे। हमारी आजादी का अर्थ केवल अंग्रेजों के चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं था। सही मायने में आजादी तो उस पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है, जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहें। तभी हम दिमागी गुलामी से भी आजाद हो पाएंगे।

वर्ग विशेष तक सिमटकर रह गई आजादी
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साहित्यकार डॉ. कुटज भारती कहते हैं कि हम अंगे्रजों के गुलाम भले ही न हों, लेकिन आज भी आम आदमी को भूख से आजादी है न बीमारी से ही। शिक्षा के अभाव में आबादी का बड़ा हिस्सा अंधेरे का गुलाम बना हुआ है। हम न तो कन्या भ्रूण हत्या रोक पाए हैं, न बाल विवाह और दहेज को लेकर महिलाओं का उत्पीडऩ ही। इससे पूरा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का सवाल है, इसके लिए दिखाने को कानून तो बहुत से हैं, पर हकीकत में ये तबके आजादी से कोसों दूर हैं।
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Real freedom is spiritual happiness
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Dinesh Kukreti
There is a story that a king kept a talking parrot in a sleeping cage.  He would give him good dishes to eat, but a few days later the parrot died.  The minister told the king the death of the parrot was to take away his freedom.  The king regrets his actions and has a change of heart.
 Now he used to go to the forest every morning, give food and water to birds and listen to them chirping.  At first the birds used to stay away from him, but gradually he started sitting near the king and after a few days, the birds would sometimes sit on the head of the king, sometimes on the shoulders and arms.
The king now felt that this is spiritual happiness and the right way to know and understand his thoughts by being with someone.  To be true, this spiritual happiness is the real freedom.  Turn the pages of history, before independence, this was the meaning of independence, but now the situation has changed.

Different meaning of freedom for every person
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Famous narrator Jiten Thakur says that today freedom for poor man means freedom from poverty, and for illiterate person freedom from illiteracy.  To say that freedom means different things for every class and person.  But, the freedom that everyone needs most at present is freedom from unemployment, inflation and corruption.  In fact, we have lost some sense of the meaning and sentiment with which we fought for freedom and the meaning that our great freedom fighters gave us.  The irony of mismanagement makes him a squid.

Our thinking is still a slave
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The narrator, Mukesh Nautiyal, says that there was a time when brave warriors had the courage to reach the destination like Diwans, but the fear of ruin was not there.  Like the Diwans, these freedom spirits also moved towards the floors.  Even the biggest oppressors could not stop his steps.  With the help of his spirits, he went on moving towards the destination of freedom while tearing every difficulty.  When we were free, much changed.  But, what good would it be to think that our society would be free from the slavery of poverty, corruption, unemployment, ignorance and superstition.

Who became independent, from whose forehead 
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Ali Sardar Jafri writes, "Who is liberated, from whose forehead the slavery is untouched, the dagger is free to enter the seins, death is free to pass over the corpses." The present scenario is like that.  Consider these figures, on 15 August 1947, India was not only free from foreign debts, but on the contrary Britain had a debt of Rs 16.62 crore.  But, today the country has foreign debt of more than 50 billion rupees.  Where one dollar was equal to one rupee at the time of independence, today the value of one dollar has reached 61 rupees.  The government has no control over inflation.  The entire Indian economy has collapsed and if efforts are not made to improve this situation soon, we will be caught in the clutches of economic slavery along with mental slavery.

When will you be free from the bondage of mischiefs
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Writer Sunil Bhatt says that we were free from the shackles of the British, but when will we be free from the bondage of Kusankars.  Our freedom was not merely meant to get rid of the clutches of the British.  Freedom in the true sense is the name of that complete freedom, when people live together.  Only then will we be free from mind slavery.

Freedom was reduced to a special category
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Writer Dr. Kutaj Bharti says that we may not be slaves of the British, but even today the common man has freedom from hunger or from disease.  Due to lack of education, a large part of the population remains a slave of darkness.  We have neither been able to stop female feticide, nor the harassment of women for child marriage and dowry.  Due to this, the whole social fabric is being disintegrated.  As far as exploitation and reproach of Dalits and tribals is concerned, there are many laws to show for this, but in reality these sections are far from independence.

Sunday, 2 August 2020

सिर्फ फसलें नहीं, पूरी कृषि संस्कृति

सिर्फ फसलें नहीं, पूरी कृषि संस्कृति
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दिनेश कुकरेती
बारहनाजा का शाब्दिक अर्थ 'बारह अनाजÓ है। लेकिन, इसमें सिर्फ बारह अनाज ही नहीं, बल्कि तरह-तरह के रंग-रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा मिलाकर २०-२२ प्रकार के अनाज आते हैं। यह सिर्फ फसलें नहीं हैं, बल्कि पहाड़ की एक पूरी कृषि संस्कृति है। स्वस्थ रहने के लिए मनुष्य को अलग-अलग पोषक तत्वों की जरूरत होती है, जो इस पद्धति में मौजूद हैं। उत्तराखंड में १३ प्रतिशत सिंचित और ८७ प्रतिशत असिंचित भूमि है। सिंचित खेती में विविधता नहीं है, जबकि असिंचित खेती विविधता लिए हुए है। यह खेती जैविक होने के साथ ही पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। इसके तहत पहाड़ में किसान ऐसा फसल चक्र अपनाते हैं, जिसमें संपूर्ण जीव-जगत के पालन का विचार समाया हुआ है। इसमें न केवल मनुष्य के भोजन की जरूरतें पूरी होती हैं, बल्कि मवेशियों के लिए भी चारे की कमी नहीं रहती। इसमें दलहन, तिलहन, अनाज, मसाले, रेशा, हरी सब्जियां, विभिन्न प्रकार के फल-फूल आदि सब-कुछ शामिल हैं। मनुष्य को पौष्टिक अनाज, मवेशियों को फसलों के डंठल या भूसे से चारा और जमीन को जैव खाद से पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। इससे मिट्टी बचाने का भी जतन होता है।

जैसी सृष्टि, वैसी दृष्टि
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बारहनाजा का एक और फायदा यह है कि अगर किसी कारण एक फसल न हो पाए तो दूसरी से उसकी पूर्ति हो जाती है। जिस तरह प्रकृति विविधता लिए हुए है, उसी तरह की विविधता बारहनाजा फसलों में भी दिखाई देती है। कहीं गरम, कहीं ठंडा, कहीं कम गरम और ज्यादा ठंडा। रबी की फसलों में इतनी विविधता नहीं है, लेकिन खरीफ की फसलें विविधतापूर्ण हैं।

बारहनाजा में समाया परंपरा का विज्ञान
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बारहनाजा प्रणाली पर वैज्ञानिक दृष्टि डालें तो इसके कई वैज्ञानिक पहलू उजागर होते हैं। जैसे दलहनी फसलों में राजमा, लोबिया, भट, गहत, नौरंगी, उड़द और मूंग के प्रवर्धन के लिए मक्का बोई जाती है। जो बीन्स के लिए स्तंभ या आधार की जरूरत पूरा करती है। दलहनी फसलों में वातावरणीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण का भी अद्भुत गुण होता है, जो मिट्टी की उर्वरकता बनाए रखने और नाइट्रोजन को फिर से भरने में मदद करती हैं। इसे अन्य सहजीवी फसलें भी उपयोग करती हैं। जबकि, फलियां प्रोटीन का समृद्ध स्रोत हैं। इनमें पोषण सुरक्षा के अलावा कैल्शियम, लोहा, फॉस्फोरस और विटामिन भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते हैं।


सब्जियों में कद्दू, लौकी, ककड़ी आदि भूमि पर फैलकर सूरज की रोशनी को अवरुद्ध करने के साथ ही  खरपतवारों को रोकने में मदद करते हैं। इनकी बेलों की पत्तियां मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए माइक्रोक्लाइमेट का निर्माण करती हैं। जबकि, बेल के कांटेदार रोम कीटों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। मक्का, सेम और टेनड्रिल वाइन्स में जटिल कॉर्बोहाइड्रेट, आवश्यक फैटी एसिड और सभी आठ आवश्यक अमीनो अम्ल इस क्षेत्र के लोगों की आहार संबंधी जरूरतें पूरी करने में सहायक सिद्ध होते हैं।