Friday, 24 July 2020

दुनिया का अद्भुत सलाद है रैमोड़ी


दुनिया का अद्भुत सलाद है रैमोड़ी
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दिनेश कुकरेती
प्रकृति के करीब होने के कारण पहाड़ में हमेशा ही स्वास्थ्यवद्र्धक खानपान की परंपरा रही है। हालांकि, शहरी संस्कृति के प्रभाव में आकर लोगों ने इस परंपरा को भुला दिया, लेकिन अंतराल के गांवों में लोग आज भी प्राकृतिक खानपान का लुत्फ लेते हैं। पहाड़ की एक ऐसी ही डिश है रैमोड़ी। इसे आप दुनिया का अद्भुत सलाद भी कह सकते हैं। 'रै मोड़ीÓ या 'रै मुड़ीÓ यानी फूल-पत्ती व कलियों को छुरी से बिना काटे इस तरह तोडऩा-मरोडऩा, जैसे छाछ (मट्ठा) बिलोने की रै (मथनी) घूमती है। चलिए! इस बार हम भी रैमोड़ी का जायका लेते हैं।



चौपाल और रैमोड़ी एक-दूसरे के पूरक
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---------------------एक जमाने में गांवों में लोग मिल-जुलकर चौपाल में रैमोड़ी खाते थे। वसंत के आगमन पर खेतों के आसपास और जंगल में तरह-तरह की हरी कलियां और फूल खिल आते थे। तब महिलाएं व बच्चे इन्हें एक स्थान पर इकट्ठा कर बड़ी थाली (परात) में सजाते थे। इस सामग्री को मिश्रित करने का भी एक अलग तरीका हुआ करता था। इसे छुरी से काटने के बजाय, हाथ से ऐसे तोड़ा-मरोड़ा जाता था, जिससे सारी विविधता (फूल-पत्तियां व कलियों) का कीमा न बने। साथ ही स्वाद में भी विविधता रहनी चाहिए। यही है दुनिया का अद्भुत सलाद रैमोड़ी।


महिलाएं ही होती हैं रैमोड़ी की विशेषज्ञ
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रैमोड़ी बनाने की विशेषज्ञ महिलाएं ही होती थीं। इसमें जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च मिलाकर चटपटा बनाने के लिए लोग नींबू का खट्टा व थोड़ा-सा घर का चुलू या सरसों का कच्चा तेल भी डालते थे। सब लोग मिल-जुलकर बड़ी शांति, प्रेम व भाईचारे से आनंदित व उत्साहित होकर रैमोड़ी का जायका लेते थे। रैमोड़ी खाने की एक बड़ी वजह शरीर में पौष्टिक तत्वों की जरूरत को पूरा करना भी होता था। साथ ही हंसी-खुशी का माहौल बना रहता था, सो अलग।

रैमोड़ी में प्रयुक्त होने वाली सामग्री
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बुरांस के फूल, प्याज की हरी पत्तियां छोटे-छोटे प्याज सहित, लहसुन की हरी पत्तियां, हरा धनिया, मूली की छोटी एवं बहुत मुलायम पत्तियां, लाही (तोरिया) व मटर के पौधे, घाल्डा, घेंडुड़ी, तोमड़ी, कुरफली व गुरियाल के फूल की कलियां, मुलायम फलियां, साकिना व बुढ़णी के फूल, कंडरा की जड़ें, तिलण्या, चकोतरा, नींबू आदि।



सालभर बनी रहती है रोग प्रतिरोधक क्षमता
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रैमोड़ी से हालांकि पेट नहीं भरता, लेकिन हंसी-खुशी, मेल-मुलाकात के माहौल में मानसिक खुराक जरूर मिल जाती है। इन जैविक विविधतायुक्त वनस्पतियों के प्राकृतिक स्वाद से सालभर के लिए शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहती है। सबसे अच्छी बात यह कि आप हर नए सीजन में नियमित रूप से रैमोड़ी का जायका ले सकते हैं।

छछिंडा जैसा स्वाद कहां



छछिंडा जैसा स्वाद कहां
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दिनेश कुकरेती
कभी पहाड़ी खानपान में छछिंडा (छंचेरा) खास व्यंजन हुआ करता था। घर में जिस दिन ताजा छाछ (मट्ठा) बनती थी, उस दिन चटखारेदार खाने-पीने के शौकीन लोगों की जीभ छछिंडा खाने को मचली उठती थी। अब तो अंतराल के गांवों के चुनिंदा घरों में ही छछिंडा पकाया जाता है। कुमाऊं अंचल में इसे छसिया कहा जाता है। ...तो आइए! हम भी छछिंडा का जायका लें।
छछिंडा बनाने के लिए पहले डेगची या पतीली में पानी उबाल लें। फिर निर्धारित मात्रा में साफ किया हुआ झंगोरा अच्छी तरह धोकर खौलते पानी में डालें। साथ ही कौंचा या करछी को तेज गति से घुमाएं, क्योंकि झंगोरा बर्तन की तली में बहुत तेजी से चिपकता है। सो, करछी चलाने में लापरवाही बिल्कुल न करें। आंच न ज्यादा तेज हो, न बिल्कुल कम। इतनी कि उबाल रुके नहीं।
जब झंगोरा अधपका हो जाए और पानी कम होने लगे तो उसमें झंगोरा की मात्रा से दोगुना या अधिक छाछ डाल दें। साथ में लहसुन, नमक, मिर्च व हलके मसाले डालकर अच्छी तरह हिलाते रहें। आंच थोड़ी कम कर सकते हैं। छछिंडा थिरकने लगे तो समझिए पककर तैयार है। बस, अब एक-दो मिनट के लिए बर्तन को ढक लें और फिर आंच बंद कर दें। इसके बाद बर्तन चूल्हे से उतारकर थोड़ा-सा इंतजार कीजिए और फिर लीजिए स्वादिष्ट एवं पौष्टिक छछिंडा का जायका।
अपनी पुस्तक 'उत्तराखंड में खानपान की संस्कृतिÓ में विजय जड़धारी लिखते हैं, आप चाहें तो चावल का छछिंडा भी बना सकते हैं। यह भी वैसे ही बनता है, जैसे कि झंगोरे का छछिंडा। खास बात यह कि छछिंडा छाछ ही नहीं, दही के साथ भी बनाया जा सकता है। लेकिन, दही में पानी मथने के बाद ही उसे छछिंडा बनाने के उपयोग में लाएं।

फ्राय या भुड़का झंगोरा
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आपने झंगोरा बनाया और उसमें से कुछ हिस्सा बच गया तो उसे फेंके नहीं, बल्कि साफ-सुथरे बर्तन में फ्रिज या हवादार स्थान पर रख दें। दोबारा भूख लगने पर इसे बासी खाने के बजाय फ्राय करके खाया जाए तो मजा आ जाएगा। इसके लिए बासी झंगोरे को बारीक चूरकर उसमें जरूरत के हिसाब से नमक, हल्दी, मिर्च और धनिया पाउडर मिला लें। अब लोहे की कढ़ाई को गर्म कर उसमें घी या शुद्ध सरसों का तेल डालें। फिर जख्या, फरण व राई-सरसों में से कोई भी तड़का लगाकर झंगोरे के चूरे को उसमें छौंक लें। हां, तड़का के लिए जख्या, फरण, राई या सरसों की मात्रा सामान्य से अधिक हो। कौंचे या पलटा से झंगोरे को अच्छी तरह मिलाएं या कढ़ाई को दोनों हाथों से पकड़कर हिलाते हुए पलटें। हल्के पानी के छींटे भी मार सकते हैं। अब इसे थोड़ी देर ढक्कन रखकर हल्की भाप दें। फिर पलटें, ताकि कढ़ाई की तली में ज्यादा न लगे। तैयार है भुड़का झंगोरा। हालांकि, कढ़ाई में चिपकी झंगोरे की परत खाने में और भी मजेदार और कुरकुरी लगती है। इसके साथ साग या दाल की भी जरूरत नहीं पड़ती। बस! थोड़ी दही या छाछ डाल लीजिए, मन प्रसन्न हो जाएगा।

Thursday, 23 July 2020

प्रेम, लगाव एवं सहयोग की विरासत थडिय़ा/Legacy of love, attachment and cooperation

प्रेम, लगाव एवं सहयोग की विरासत थडिय़ा
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दिनेश कुकरेती
उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल का भूगोल जितना आकर्षक है, उतनी ही मनोहारी हैं यहां की लोक परंपराएं। ऐसा भी कह सकते हैं कि गढ़वाल की लोक संस्कृति, यहां के लोग और प्रकृति एक-दूसरे में समाए हुए हैं। इसकी झलक यहां के लोकगीत व  लोकनृत्यों में स्पष्ट देखी जा सकती है। गढ़वाल के लोक वाद्य, लोक गीत, लोक नृत्य और शिल्प इतने समृद्ध हैं कि उनमें डूब जाने को मन करता है। खासकर यहां के गीत-नृत्यों में तो
कमाल की विविधता और आकर्षण है। ऐसे ही एक प्रसिद्ध पारंपरिक गीत-नृत्य से हम आपका परिचय करा रहे हैं, जिसे थडिय़ा कहा जाता है। हालांकि, तेज रफ्तार जिंदगी में नई पीढ़ी इस पारंपरिक नृत्य से बहुत दूर चली गई है, लेकिन अंतराल के गांवों में थडिय़ा नृत्य आज भी उसी उत्साह से होता है, जैसा तीन दशक पूर्व तक हुआ करता था।

'थाड़Ó से हुई 'थडिय़ाÓ की उत्पत्ति
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'थडिय़ाÓ शब्द की उत्पत्ति 'थाड़Ó से हुई है, जिसका अर्थ है आंगन या चौक। थोड़ा बड़े अर्थों में इसे खलिहान भी बोल सकते हैं। यानी घर के आंगन में आयोजित होने वाले संगीत और नृत्य के उत्सव को थडिय़ा कहा जाता है। थडिय़ा उत्सव का आयोजन वसंत ऋतु में घरों के आंगन में किया जाता है। वसंत में रातें लंबी होती है, इसलिए गांव के लोग मनोरंजन के लिए मिल-जुलकर थडिय़ा का आयोजन करते हैं।

मंडाण का पूरक नहीं है थडिय़ा नृत्य
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कुछ लोग मंडाण को थडिय़ा नृत्य का पूरक मानते हैं। जबकि, दोनों नृत्य एक-दूसरे से भिन्न हैं। दरअसल, थडिय़ा नृत्य में जहां गांव के सभी लोग मिलकर गायन और नृत्य की जिम्मेदारी लेते हैं, वहीं मंडाण में गीत गाने और वाद्य यंत्रों का संचालन करने वाले विशेष लोग होते हैं, जिन्हें औजी (दास) कहा जाता है। बाकी लोग नृत्य में साथ होते हैं। मंडाण की एक विशेषता यह भी है कि इस आयोजन में शामिल होने के लिए गांव की ब्याहता बेटियों को भी मायके आमंत्रित किया जाता है। इस दौरान मनोहारी गीतों और तालों के साथ गांव के लोग कदम-से-कदम मिलाकर नृत्य का आनंद लेते हैं। जबकि, थडिय़ा नृत्य के साथ-साथ प्रेम, लगाव व सहयोग की सामूहिक विरासत को संजोए हुए है।
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Legacy of love, attachment and cooperation
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Dinesh Kukreti
The folk traditions of Garhwal region of Uttarakhand are as attractive as they are attractive.  It can also be said that the folk culture, people and nature of Garhwal are embedded in each other.  A glimpse of this can be seen clearly in folk songs and folk dances.  The folk instruments, folk songs, folk dances and crafts of Garhwal are so rich that one wants to drown in them.  Especially the song-dances here have amazing variety and charm.  We are introducing you to one such famous traditional song and dance, which is called Thadiya.  Although a new generation in fast-paced life has gone far away from this traditional dance, Thadiya dance in the interurban villages continues with the same enthusiasm as it used to be three decades ago.

'Thad' originated from 'Thadiya'
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The word 'Thadiya' derives from 'Thad', which means courtyard or chowk.  It can also be called a barn in a slightly larger sense.  That is, the festival of music and dance to be held in the courtyard of the house is called Thadiya.  Thadiya festival is organized in the courtyard of the houses in the spring.  The nights are long in the spring, so the villagers organize tadia together for entertainment.

 Thadiya dance is not a complement to Mandana
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Some consider Mandana to be a complement of Thadiya dance.  Whereas, the two dances are different from each other.  In fact, in Thadiya dance where all the people of the village take responsibility for singing and dancing together, in Mandana, there are special people who sing songs and perform musical instruments, called auji (slaves).  The rest are together in the dance.  Another feature of Mandana is that the married girls of the village are also invited to attend this event.  During this time, the villagers enjoy dancing together step by step with captivating songs and rhythms.  Whereas, Thadiya cherishes the collective legacy of love as well as love, affection and cooperation.


गढ़वाल के विलक्षण वाद्य डौंर-थाली/Garhwal's unique musical instrument Dounar-Thali

गढ़वाल के विलक्षण वाद्य डौंर-थाली
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दिनेश कुकरेती
ढोल-दमाऊ के बाद डौंर-थाली गढ़वाल के प्रमुख वाद्य माने गए हैं। डौंर (डमरू) शिव के डमरू का ही एक रूप है। जागर (घडियाला) यानी देवनृत्यों में जागरी (डौंर्या या वादक) ढोल की तरह ही डमरू को लाकड़ (सोटे) और हाथ से बजाता है। जबकि, डौंर्या का सहयोगी (जो कि कांसे की होती है) को बायें हाथ के अंगूठे पर थाली को टिकाकर दायें हाथ से उस पर लाकुड़ का प्रहार करता है। डौंर-थाली वादन से एक अद्भुत ध्वनि उत्पन्न होती है, जिससे देवी-देवता और पितर अपने पश्वों (खास महिला या पुरुष) पर अवतरित हो उठते हैं। महत्वपूर्ण यह कि डौंर कभी अकेला नहीं बजता, बल्कि इसके साथ संगत के लिए कांसे की थाली का होना अनिवार्य है।


दोनों घुटनों के बीच रखकर बजता है डौंर
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चर्म वाद्यों में डौंर ही एकमात्र ऐसा वाद्य है, जिसे ढोल की तरह कंधे से नहीं लटकाया जाता। डमरू से मिलते-जुलते इस वाद्य को दोनों घुटनों के बीच इस तरह स्थिर किया जाता है कि ऊपर की पुड़ी को दायें हाथ की यष्टिका और नीचे की पूड़ी को घुटने के नीचे से होते हुए बायें हाथ से बजाया जा सके। घुटनों के दबाव और यष्टिका के प्रकीर्ण प्रहार से डौंर से अमूमन गुरु गंभीर नाद उद्धृत होती है, जो सर्वथा रौद्र एवं लोमहर्षक होती है। खास बात यह कि डौंर-थाली वादन केवल पुरोहित ही करते हैं।

डौंर में 22 से लेकर 84 ताल बजने तक का उल्लेख
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चपटे वर्गाकार डमरूनुमा आकार वाला यह वाद्य सांदण या खमेर की लकड़ी से बनाया जाता है। इसके दोनों सिरों पर बकरे, घुरड़ या काकड़ की खाल मढ़ी जाती है। कुमाऊं में डौंर का प्रचलन कम है, लेकिन गढ़वाल का यह लोकजीवन में रचा-बसा प्रमुख वाद्य है। डौंर का प्रयोग स्थानीय देवी-देवताओं के जागर लगाने (आह्वान) में किया जाता है। लोक वाद्यों के जानकार डौंर में 22 तरह की तालों का उल्लेख करते हैं। जबकि, कुछ लोक वादकों ने डौंर में 36 और 84 ताल बजाए जाने का उल्लेख किया है।

डौंर का सहायक वाद्य कांसे की थाली
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कांसे की थाली को स्थानीय भाषा में लोक गायक 'कंसासुरी थालÓ नाम से पुकारते हैं। सहायक वाद्य के रूप में इसका प्रयोग मात्र जागरों में किया जाता है। डौंर की ताल पर इसे पयां की लकड़ी के पतले सोटों से बजाया जाता है। देवी-देवताओं के जागर (आह्वान गीत) के अलावा इसका अन्य अवसरों पर वाद्य के रूप में प्रयोग नहीं के बराबर देखा गया है। अभी तक इसे सिर्फ पुरुष ही बजाते आ रहे हैं।

अलग ही अंदाज में बजाई जाती है थाली
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गढ़वाल क्षेत्र में कांसे की थाली को बजाने का तरीका अलग ही है। इसके लिए पतीले के आकार वाली तांबे की तौली (बर्तन) में आधे से अधिक पानी भर लिया जाता है। तौली को जमीन पर मोटे कपड़े के गोल छल्ले के ऊपर रखा जाता है। ताकि हिलने या थाली को बजाते समय वह गिर न जाए। तौली के मुंह पर ऊपर से कांसे की थाली उल्टी रखी जाती है और फिर  बायें हाथ से पकड़कर उससे तौली पर प्रहार किया जाता है। इस ताल को पूर्णता देने के लिए थाली की पीठ पर दायें हाथ से लकड़ी के पतले सोटे से प्रहार करते हैं। इस प्रक्रिया से एक सम्मोहित करने वाली ताल उत्पन्न होती है।

पाथा पर रखकर भी बजती है थाली
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कई इलाकों को कांसे की थाली को तांबे के बर्तन की बजाय पाथा (पुराने समय में अनाज तौलने वाला लकड़ी का बर्तन) के ऊपर रखा जाता है। पाथा में चावल भरे जाते हैं, ताकि वह पलटे नहीं।
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Garhwal's unique musical instrument Dounar-Thali
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Dinesh Kukreti
After Dhol-Damau, Dounar-Thali is considered to be the principal instrument of Garhwal.  Dounar (damru) is a form of Shiva's damru.  In Jagran (Ghadiyala) i.e. devotionals, the Jagari (dounarya or maestro) plays the drum with lacquer (sote) and hands like a drum.  Whereas, Daundya's colleague (who is of bronze) hits the plate on the thumb of the left hand with the right hand to hit Lakud.  A wonderful sound is produced by the recitation of the plate, due to which the deities and ancestors are incarnated on their bodies (special women or men).  The important thing is that the horn never rings alone, but it is mandatory to have a bronze plate to be compatible with it.


It rings between two knees
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In leather instruments, the only instrument which is not hung from the shoulder like a drum is the instrument.  Similar to Damru, this instrument is stabilized between the two knees in such a way that the upper forearm can be played with the right hand and the lower puri under the knee with the left hand.  The pressure of the knees and the jab of the Yashtika is quoted from the door by Guru, a serious sound, which is utterly rougher and waxy.  The special thing is that only the priests perform the double-plate playing.

Mention of 22 to 84 rhythm in the Dounar
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This flat-shaped, flat-shaped drum is made from sandal or Khmer wood.  On both its ends, goat, grunt or Kakad skins are worn.  In Kumaon, the prevalence of horn is low, but in Garhwal, it is a prominent instrument in folk life.  Doors are used to awaken (invoke) the local deities.  Knowledgeable folk folk refer to 22 types of locks in the Dounar.  Whereas, some folk players have mentioned playing 36 and 84 rhythms in the Dounar.

Brass plate
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Folk singers call Kansa Thali in the local language under the name 'Kansasuri Thal'.  As an auxiliary instrument, it is used only in the conscious.  It is played with thin wooden pieces of pian on the rhythm of the drum.  Apart from the Jagar (invocation song) of the Gods and Goddesses, it has been seen as not being used as an instrument on other occasions.  So far only men have been playing it.


The plate is played in a different style
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The method of playing the bronze plate in the Garhwal region is different.  For this, more than half the water is filled in a pot shaped copper towel.  The towels are placed on the ground on top of round rings of coarse cloth.  So that it does not fall while moving or while playing the plate.  The bronze plate is placed vomit on the mouth of the towel and then holding it with the left hand, it strikes the towel.  In order to give fullness to this rhythm, with the right hand on the back of the plate, we hit it with a thin string of wood.  This process produces a hypnotic rhythm.

The plate rings even after placing it on the path
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In many areas, a bronze plate is placed over a patha (an old grain wooden weighing vessel) rather than a copper vessel.  Rice is filled in the path so that it does not turn.

Tuesday, 21 July 2020

अनुपम वास्तु शिल्प : पैठाणी का राहु मंदिर

अनुपम वास्तु शिल्प : पैठाणी का राहु मंदिर
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दिनेश कुकरेती
यह सनातनी संस्कृति की खूबसूरती ही है कि उसमें जिस आदर भाव के साथ देवताओं की पूजा होती है, उसी भाव से असुरों की भी। चलिए! आपको उत्तराखंड के एक ऐसे ही अद्भुत मंदिर के दर्शन कराते हैं, जहां छाया ग्रह माने जाने वाले राहु की पूजा होती है। पौड़ी जिले में थलीसैण ब्लॉक की कंडारस्यूं पट्टी के पैठाणी गांव में स्योलीगाड (रथ वाहिनी) व नावालिका (पश्चिमी नयार) नदी के संगम पर स्थित यह मंदिर संपूर्ण गढ़वाल में अपने अनुपम वास्तु शिल्प के लिए जाना जाता है। गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार से लगभग 150 किमी और जिला मुख्यालय पौड़ी से महज 46 किमी की दूरी पर स्थित यह संभवत: देश का इकलौता मंदिर है, जहां राहु की पूजा होती है और वह भी भगवान शिव के साथ। जनश्रुतियों के अनुसार आद्य शंकराचार्य ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। कहते हैं कि जब शंकराचार्य दक्षिण से हिमालय की यात्रा पर आए तो उन्हें इस क्षेत्र में राहु के प्रभाव का आभास हुआ। इसके बाद उन्होंने पैठाणी में राहु मंदिर का निर्माण शुरू किया। कुछ लोग इसे पांडवों द्वारा निर्मित भी मानते हैं। पर्वतीय अंचल में स्थित यह मंदिर बेहद भव्य एवं खूबसूरत है, जिसके दीदार को देश-दुनिया से पर्यटक एवं श्रद्धालु पैठाणी पहुंचते हैं।


इसी स्थान पर गिरा था राहु का सिर
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पुराणों में कथा आती है कि राहू ने समुद्र मंथन से निकले अमृत का छल से पान कर लिया था। यह देख भगवान विष्णु ने सुदर्शन से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। कहते हैं राहु का कटा हुआ सिर उत्तराखंड के पैठाणी नामक गांव में जिस स्थान पर गिरा, वहां एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ राहु की धड़विहीन मूर्ति स्थापित है। मंदिर की दीवारों के पत्थरों पर आकर्षक नक्काशी की गई है, जिनमें राहु के कटे हुए सिर व सुदर्शन चक्र उत्कीर्ण हैं। इसी वजह से इसे राहु मंदिर नाम दिया गया।


'राष्ट्रकूटÓ पर्वत से बना राठ, 'पैठीनसिÓ गोत्र से पैठाणी
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 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में उल्लेख है कि राष्ट्रकूट पर्वत की तलहटी में रथ वाहिनी व नावालिका नदी के संगम पर राहु ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, जिस वजह से यहां राहु मंदिर की स्थापना हुई।राष्ट्रकूट पर्वत के नाम पर ही यह राठ क्षेत्र कहलाया। साथ ही राहु के गोत्र 'पैठीनसिÓ के कारण कालांतर में इस गांव का नाम पैठाणी पड़ा।


राहु के साथ शिव मंदिर के रूप में भी मान्यता
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 मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्राचीन शिवलिंग और मंदिर की शुकनासिका पर भगवान शिव के तीनों मुखों का अंकन इसके शिव मंदिर होने की ओर इशारा करते हैं। महाशिवरात्रि और सावन के प्रत्येक सोमवार को महिलाएं यहां बेलपत्र चढ़ाकर भगवान शिव की पूजा करती हैं। सबसे अहम बात यह कि यहां पर राहु से संबंधित किसी भी पुरावशेष की प्राप्ति नहीं हुई। वहीं, केदारखंड के कर्मकांड भाग में वर्णित श्लोक 'ú भूर्भुव: स्व: राठेनापुरादेभव पैठीनसि गोत्र राहो इहागच्छेदनिष्ठÓ के अनुसार कई विद्वान इसके राहु मंदिर होने का प्रबल साक्ष्य मानते हैं। मान्यता है कि राहु ने ही इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी।


महेश्वर महावराह जैसी है त्रिमुखी हरिहर की दुर्लभ प्रतिमा
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मंदिर के शिखर शीर्ष पर विशाल आमलसारिका स्थापित है। अंतराल के शीर्ष पर निर्मित शुकनासिका के अग्रभाग पर त्रिमूर्ति का अंकन और शीर्ष में अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक गज व सिंह की मूर्ति स्थापित की गई है। मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर स्थित मंदिरों का शिखर क्षितिज पट्टियों से सज्जित पीढ़ा शैली में निर्मित है। शिवालय के मंडप में वीणाधर शिव की आकर्षक प्रतिमा के साथ त्रिमुखी हरिहर की एक दुर्लभ प्रतिमा भी स्थापित है। प्रतिमा के मध्य में हरिहर का समन्वित मुख सौम्य है, जबकि दायीं ओर अघोर और बायीं ओर वराह का मुख अंकन किया गया है। इस प्रतिमा की पहचान पुरातत्वविद महेश्वर महावराह की प्रतिमा से करते है। अपने आश्चर्यजनक लक्षणों के कारण यह प्रतिमा गढ़वाल हिमालय ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारत की दुर्लभ प्रतिमाओं में से एक है।




आठवीं-नवीं सदी के बीच का प्रतीत होता है मंदिर
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वास्तु शिल्प एवं प्रतिमाओं की शैली के आधार पर पैठाणी का यह शिव मंदिर और प्रतिमाएं आठवीं-नवीं सदी के बीच के प्रतीत होते हैं। मंदिर की पौराणिकता के साथ आज तक कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। हां! मंदिर की ऊपरी शिखा कुछ झुकी हुई जरूर प्रतीत होती है। मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है।


पश्चिमाभिमुखी है यह मंदिर
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पत्थरों से बने एक ऊंचे चबूतरे पर मुख्य मंदिर का निर्माण किया गया है। इसके चारों कोनों पर एक-एक कर्ण प्रासाद बनाए गए हैं। पश्चिम की ओर मुख वाले मुख्य मंदिर की तलछंद योजना में वर्गाकार गर्भगृह के सामने कपिली या अंतराल की ओर मंडप का निर्माण किया गया है। कला पट्टी वेदीबंध के कर्णों पर ही गोल गढ़ी गई है और उत्तर-पूर्वी व दक्षिण कर्णप्रासादों की चंद्रालाओं के मध्य पत्थरों पर नक्काशी की गई है। मंदिर के बाहर व भीतर गणेश, चतुर्भुजी चामुंडा आदि देवी-देवताओं की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं स्थापित हैं।


मूंग की खिचड़ी का लगता है भोग
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ग्रह दोष निवारण में विश्वास रखने वाले लोग बड़ी संख्या में राहु की पूजा के लिए यहां पहुंचते हैं। खास बात यह कि राहु को यहां मूंग की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। भंडारे में श्रद्धालु भी मूंग की खिचड़ी को ही प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।

Kamal da and me

Articles written in the year 2017 after Kamal Da's departure

Kamal da and me
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 Dinesh Kukreti
 "Aakaar", this was the name of Kamal Da's library.  This library used to be on the ground floor of Kamal Da's house located in Gokhale Marg in Kotdwar.  Books adorned in shelves, in which the whole mountain was covered.  To know the country and the world too, all those books were present here, which are loved by a book lover.  Apart from this, all the forgotten memories of the mountain were also cherished here by Kamal Da.  Then Shekhar Bhai (Chandrashekhar Benzwal) used to do hostelings in this library.
It will be a matter of 1989.  In the same year, I joined BCAM first year with student politics and was trying to understand the progressive student movements around the world.  Shekhar Bhai was then a popular student of Kotdwar.  So, it was natural to relate to them.  It was for him that I first stepped on the "shaped" wall.  I loved the world of books so much that the steps often started to take shape.  There was complete freedom to read books there.  However, Kamal Da used to give the book to take home only when he was confident that she would return on time.  Well, if there is a delay of even one day.  I had gained their trust, so I could easily get the book.  I loved to know about the mountain, so most of the books related to the mountain were made by Kamal Da Issues.
If there was a seminar or discussion in the city, Kamal da would have been invited in it.  I would go to these programs to hear something good.  However, being introverted, my role would have been that of the listener.  But, responsible and serious listeners.  Time was passing and my thinking in politics was also maturing.  So, for the sake of expression, it also gradually moved towards journalism.  Then the weekly "Satyapath" was constantly being published from Kotdwar.  Guruji Pitambar Dutt Deorani used to be the editor of "Satyapath".  Now he also became good friends with Kamal Da.  Whenever he met, Kamal Da exclaimed, "What are you doing, goons."  I have no words to express how much affection was in this "goon" word.  My first byline article was published in Satyapath on 23 March 1993.  The title was "Conditions must change".  Entire pages I wrote this article on fellow Bhagat Singh.  Kamal da and late partner Ashwani Kotnala along with Guruji also congratulated me for this article.  Kamal Da even went so far as to say, "Goons write for the Nainital news as well. Your pen has power."  It was due to Kamal Da that I got introduced to Nainital news and I became a regular reader of it.  If I saw an old copy of the Nainital news, then I would not even hesitate to tip it.
One day Kamal Bhai said, "Abe, why don't you take up Nainital news."  I said, "Thinking like this, brother."  He said, "Don't think, give me a hundred rupees, I am going to Nainital."  My problem was solved.  Now I started getting Nainital news regularly.  Meanwhile, I had a tendency towards theater as well.  Connected with the Indian knowledge science group and did plays in a large part of Garhwal.
Then a big development happened in the country.  The government led by Vishwanath Pratap Singh drove Mandal's genie out of the command.  The country became engulfed in the anti-reservation movement.  But this movement started with the protest against reservation in Uttarakhand turned into Uttarakhand state movement.  The round of meetings and seminars has started.  The Mulayam Singh government of Uttar Pradesh has announced to speak out against the newspapers.  One advantage of this was that Amar Ujala and Dainik Jagran became dear to the common man.  Both these newspapers took over the reins of the state movement.  I had become a part of the journalistic fraternity then.  At that time, our meetings were often on the shape of lotus da.
We used to participate in processions and demonstrations under the banner of the Citizen Forum.  Kamal da lived in the role of a pioneer.  Curfew was imposed in the entire Uttarakhand after the Rampur tiraha scandal.  Then we used to stay up at night by changing.  So that the police can not get caught.  When the curfew relaxed, it would quietly reach the shape of the streets and sit on the door from inside and discuss the strategy ahead.  There was dead mortal in the city, it was also necessary to get out of it.
 The date is not well remembered, but the curfew was lifted then.  We sat in shape and decided to take out a silent procession.  For a whole day we kept preparing placards with slogans in the shape.  The next day, all the journalists gathered at Kamal da's residence in the afternoon and took out a silent procession to the tehsil.  Due to this, the current ran in the city and people again started fuming and came out of the houses.  Now I was determined to do journalism in my life.  Hopefully!  Then today's situation would be blamed ...?
Well!  I had become a staunch journalist due to misuse.  Sometimes poetry was also used.  Kamal Da not only liked my poems, but also gave feedback to encourage me.  I remember when my poem written after the attack on the World Trade Center appeared in Yugavani magazine, Kamal Da's response was, "Goons I didn't take you so seriously. I kept writing like that."  He also wanted me to get out of Kotdwar somehow so that the path of progress in life could be opened.  But at the same time, I would also advise you to never leave the land.
The wheel of time kept spinning and one day I literally left Kotdwar.  This time I became Dehradun.  I started a new innings of life here by connecting with Dainik Jagran.  Due to the experience of cities like Delhi, Meerut, Lucknow, Haldwani etc., I did not have any particular problem here.
I have no hesitation in saying that Kamal Da stayed close to me in Dehradun even while away.  Whenever I used to write something good, I would definitely call Kamal da and give it to me.  Especially the Haridwar Kumbh in 2010, Kedarnath disaster in 2013 and Shri Nanda Devi Rajajat's live reporting in 2014, Kamal da was so impressed that whenever I meet, I must pat my shoulder.  They used to say, "I expect such a goon from you."  In Nanda Devi Rajajat, I and Kamal da were virtual hikers till the arrow.  Due to health problems, Kamal Da could not travel further from here.
Kamal Da always encouraged me on social media.  He would also praise the satire written during the assembly elections in every meeting.  He met me on the same day that he got away from the world.  Five-seven minutes as usual, we discussed the concerns of the world and then I walked my way.  Did you know that after a few hours, they are about to leave on the track from where there is no way back.  Hopefully...!

Sunday, 19 July 2020

सात रूपों में विराजमान हैं भगवान बदरी विशाल


सात रूपों में विराजमान हैं भगवान बदरी विशाल
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड हिमालय में सप्त बदरी समूह के पौराणिक तीर्थों का बदरीनाथ धाम जितना ही माहात्म्य है। बदरीनाथ धाम की तरह इन तीर्थों में भी भगवान नारायण विभिन्न रूपों में वास करते हैं। 'स्कंद पुराणÓ के 'केदारखंडÓ में कहा गया है कि 'इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्, समूलहमस्य पांसुरे स्वाहाÓ (सर्वव्यापी परमात्मा विष्णु ने इस जगत को धारण किया है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अंतरिक्ष और तीसरे द्युलोक में तीन पदों को सुशोभित करते है अर्थात वे ही सर्वत्र व्याप्त है)। सप्त बदरी समूह के इन सभी मंदिरों का स्थापना काल भी कमोबेश वही है, जो बदरीनाथ धाम का माना जाता है। इनमें कर्णप्रयाग के निकट आदि बदरी, पांडुकेश्वर में योग-ध्यान बदरी, जोशीमठ के निकट सुभांई गांव में भविष्य बदरी, उर्गम घाटी में ध्यान बदरी, जोशीमठ के निकट अणीमठ में वृद्ध बदरी, जोशीमठ में नृसिंह बदरी और बदरीशपुरी में विशाल बदरी यानी बदरीनाथ धाम स्थित हैं।

सप्त बदरी समूह के कुछ मंदिर सालभर दर्शनार्थियों के लिए खुले रहते हैं, जबकि बाकी में चारधाम सरीखी ही कपाट खुलने व बंद होने की परंपरा है। कहते हैं कि प्राचीन काल में जब बदरीनाथ धाम की राह बेहद दुर्गम एवं दुश्वारियों भरी थी, तब अधिकांश भक्त आदि बदरी धाम में भगवान नारायण के दर्शनों का पुण्य प्राप्त करते थे। लेकिन, कालांतर में सड़क बनने से बदरीनाथ धाम की राह आसान हो गई। एक मान्यता यह भी है किनृसिंह मंदिर जोशीमठ में भगवान नृसिंह के बायें हाथ की कलाई निरंतर कमजोर हो रही है। कलयुग की पराकाष्ठा पर जिस दिन यह कलाई टूटकर जमीन पर गिर जाएगी, उस दिन नर-नारायण (जय-विजय) पर्वत आपस में जुड़ जाएंगे। इसके बाद बदरीनाथ धाम की राह सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। तब भगवान बदरी नारायण सुभांई गांव स्थित भविष्य बदरी धाम में अपने भक्तों को दर्शन देंगे।

स्थानीय लोगों का कहना है यह मान्यता धीरे-धीरे सार्थक सिद्ध हो रही है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि नृसिंह बदरी को छोड़कर बाकी अन्य सभी मंदिरों में भक्तों को भगवान नारायण के ही दर्शन होते हैं। जबकि, नृसिंह मंदिर में नारायण अपने चतुर्थ अवतार नृसिंह रूप में विराजमान हैं। हालांकि, अपने आसन पर वह भगवान बदरी नारायण की तरह ही देव पंचायत के साथ बैठते हैं।

आस्था ही नहीं, आर्थिकी के केंद्र भी
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सप्त बदरी समूह के मंदिर महज आस्था के केंद्र ही नहीं, बल्कि पहाड़ के जीवन की धुरी भी हैं। इन मंदिरों से हजारों लोगों की आर्थिकी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जुड़ी हुई है। यात्राकाल के छह महीने वे यहां पूजा-पाठ समेत विभिन्न आर्थिक गतिविधियां संचालित कर सालभर के लिए जीविकोपार्जन के साधन जुटा लेते हैं। देखा जाए तो इन मंदिरों का पहाड़ से पलायन रोकने में भी बहुत बड़ा योगदान है। इसके अलावा पहाड़ की संस्कृति एवं परंपराओं के प्रचार-प्रसार में भी सप्त बदरी और पंच केदार समूह के मंदिर पीढिय़ों से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं।

नारायण के नाना रूप
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कलयुग में श्रेष्ठ विशाल बदरी
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नर-नारायण पर्वत के आंचल में समुद्रतल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित बदरीनाथ धाम देश के चार धामों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि आद्य शंकराचार्य ने आठवीं सदी में बदरीनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान नारायण की चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। शालिग्राम शिला से बनी बनी यह मूर्ति ध्यानमुद्रा में है। कथा है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुंड से निकालकर मंदिर में स्थापित की थी। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तो उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरंभ कर दी। शंकराचार्य की प्रचार-यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनंदा में फेंक गए। शंकराचार्य ने उसकी पुनस्र्थापना की। लेकिन, मूर्ति फिर स्थानांतरित हो गई, जिसे तीसरी बार तप्तकुंड से निकालकर रामानुजाचार्य ने स्थापित किया। मंदिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखंड दीप प्रज्ज्वलित रहता है, जो अचल ज्ञान-ज्योति का प्रतीक है। मंदिर के पश्चिम में 27 किमी की दूरी पर बदरीनाथ शिखर के दर्शन होते हैं, जिसकी ऊंचाई 7138 मीटर है।


योग-ध्यान बदरी
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पांडुकेश्वर नामक स्थान पर भगवान नारायण का ध्यानावस्थित तपस्वी स्वरूप का विग्रह विद्यमान है। अष्टधातु की यह मूर्ति बेहद चित्ताकर्षक और मनोहारी है। जनश्रुति है कि भगवान योग-ध्यान बदरी की मूर्ति इंद्रलोक से उस समय लाई गई थी, जब अर्जुन इंद्रलोक से गंधर्व विद्या प्राप्त कर लौटे थे। प्राचीन काल में रावल भी शीतकाल में इसी स्थान पर रहकर भगवान बदरी नारायण की पूजा करते थे। सो, यहां पर स्थापित भगवान नारायण का नाम योग-ध्यान बदरी हो गया। योग-ध्यान बदरी का पंच बदरी में तीसरा स्थान है। शीतकाल में जब नर-नारायण आश्रम में बदरीनाथ धाम के पट बंद हो जाते हैं, तब भगवान के उत्सव विग्रह की पूजा इसी स्थान पर होती है। इसलिए इसे 'शीत बदरीÓ भी कहा जाता है।

वृद्ध बदरी
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जोशीमठ से सात किमी की दूरी पर अणिमठ (अरण्यमठ) में भगवान विष्णु का अत्यंत सुन्दर विग्रह विराजमान है, जिसकी नित्य-प्रति पूजा और अभिषेक होता है। यहां भगवान बदरी नारायण का प्राचीन मंदिर है, जिसमें वे 'वृद्ध बदरीÓ के रूप में विराजमान हैं। जनश्रुति है कि एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में विचरण करते हुए बदरीधाम की ओर जाने लगे। मार्ग की विकटता देखकर थकान मिटाने को वे अणिमठ नाम स्थान पर रुके। यहां उन्होंने कुछ समय भगवान विष्णु की आराधना व ध्यान कर उनसे दर्शनों की अभिलाषा की। तब भगवान बदरीनारायण ने वृद्ध के रूप में नारदजी को दर्शन दिए। तबसे इस स्थान में बदरी-नारायण की मूर्ति स्थापना हुई, जिन्हें वृद्ध बदरी कहा गया।

भविष्य बदरी
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स्कंद पुराण के केदारखंड में कहा गया है कि कलयुग की पराकाष्ठा होने पर जोशीमठ के समीप जय-विजय नाम के दोनों पहाड़ आपस में जुड़ जाएंगे। राह अवरुद्ध होने से तब भगवान बदरी विशाल के दर्शन असंभव हो जाएंगे। ऐसे में भक्तगण समुद्रतल से 2744 मीटर की ऊंचाई पर स्थित भविष्य बदरी में ही भगवान के विग्रह का दर्शन-पूजन कर सकेंगे। भविष्य बदरी धाम जोशीमठ-मलारी मार्ग पर तपोवन से आगे सुभांई गांव के पास स्थित है। यहां पहुंचने के लिए तपोवन से चार किमी की खड़ी चढ़ाई देवदार के घने जंगल के बीच से तय करनी पड़ती है। कहते हैं कि यहां पर महर्षि अगस्त्य ने तपस्या की थी। वर्तमान में यहां पर पत्थर में अपने-आप भगवान का विग्रह प्रकट हो रहा है। इस मंदिर के कपाट बदरीनाथ के साथ ही खोलने की परंपरा है।



ध्यान बदरी
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पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस स्थान पर इंद्र ने कल्पवास की शुरुआत की थी। कहते हैं कि जब देवराज इंद्र दुर्वासा के शाप से श्रीहीन हो गए, तब उन्होंने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए इस स्थान पर कल्पवास किया। तब से यहां कल्पवास की परंपरा चल निकली। कल्पवास में चूंकि साधक भगवान के ध्यान में लीन रहता है, इसलिए यहां पर भगवान का विग्रह भी आत्मलीन अवस्था में है। इसी कारण नारायण के इस विग्रह को ध्यान बदरी नाम से संबोधित किया गया। नारायण भक्तों के लंबे प्रवास ने यहां पर विष्णु मंदिर को जन्म दिया और इस मंदिर को सप्त बदरी के अंग के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। प्राचीन काल में इस स्थान पर देवताओं ने भगवान की तपस्या की। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने देवताओं को कल्पवृक्ष प्रदान किया। यह स्थान उर्गम धाटी के कल्पेश्वर क्षेत्र में स्थित है।

श्रीहरि का आदिकालीन निवास आदि बदरी
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गढ़वाल राज्य की राजधानी रही चांदपुरगढ़ी से तीन किलोमीटर आगे रानीखेत मार्ग पर प्राचीन मंदिरों का समूह दिखाई देता है, जो सड़क के दायीं ओर स्थित है। यही है सप्त बदरी में शामिल आदि बदरी धाम। कथा है कि इन मंदिरों का निर्माण स्वर्गारोहिणी यात्रा के दौरान पांडवों ने किया था। यह भी कहते हैं कि आठवीं सदी में शंकराचार्य ने यह मंदिर बनवाए थे। जबकि, एएसआइ (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) के अनुसार इनका निर्माण आठवीं से 11वीं सदी के बीच कत्यूरी राजाओं ने किया। कुछ वर्षों से एएसआइ ही इन मंदिरों की देखभाल कर रहा है। आदि बदरी मंदिर समूह कर्णप्रयाग से दूरी 11 किमी है। मूलरूप से इस समूह में 16 मंदिर थे, जिनमें अब 14 ही बचे हैं। प्रमुख मंदिर भगवान विष्णु का है, जिसकी पहचान इसका बड़ा आकार और एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित होना है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु एक मीटर ऊंची शालीग्राम की काली प्रतिमा विराजमान है। जो अपने चतुर्भुज रूप में खड़े हैं। इसके सम्मुख एक छोटा मंदिर गरुड़ महाराज का है। अन्य मंदिर सत्यनारायण, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, चकभान, कुबेर (मूर्तिविहीन), राम-लक्ष्मण-सीता, काली, शिव, गौरी व हनुमान को समर्पित हैं। इन प्रस्तर मंदिरों पर गहन एवं विस्तृत नक्काशी हुई है और हर मंदिर पर नक्काशी का भाव विशिष्ट एवं अन्य मंदिरों से अलग भी है। आदि बदरी धाम के पुजारी थापली गांव के थपलियाल होते हैं। इस मंदिर के कपाट साल में सिर्फ पौष मास में बंद रहते हैं और मकर संक्रांति पर्व पर श्रद्धालुओं दर्शनार्थ खोल दिए जाते हैं।

नारायण के प्रतिरूप नृसिंह बदरी
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चमोली जिले के ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में स्थित नृसिंह मंदिर भगवान विष्णु के 108 दिव्य तीर्थों में से एक है। सप्त बदरी में से एक होने के कारण इस मंदिर को नृसिंह बदरी भी कहा जाता है। मान्यता है कि आद्य गुरु शंकराचार्य ने स्वयं यहां नृसिंह शालिग्राम की स्थापना की थी। यहां भगवान नृसिंह की लगभग दस इंच ऊंची शालिग्राम शिला से स्व-निर्मित प्रतिमा स्थापित है। इसमें भगवान नृसिंह कमल पर विराजमान हैं। उनके साथ बदरी नारायण, उद्धव और कुबेर के विग्रह भी स्थापित हैं। भगवान के दायीं ओर श्रीराम, माता सीता, हनुमानजी व गरुड़ महाराज और बायीं तरफ मां चंडिका (काली) विराजमान हैं। मान्यता है कि भगवान नृसिंह के बायें हाथ की कलाई निरंतर कमजोर हो रही है। जिस दिन कलाई टूटकर जमीन पर गिर जाएगी, उस दिन नर-नारायण (जय-विजय) पर्वत के आपस में मिलने से बदरीनाथ की राह सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। तब भगवान बदरी नारायण भविष्य बदरी में दर्शन देंगे। बदरीनाथ के कपाट बंद होने पर शंकराचार्य की गद्दी नृसिंह मंदिर में ही स्थापित होती है। कपाट खुलने से पूर्व हर साल मंदिर में एक विशेष अनुष्ठान संपन्न होता है।

बदरीनाथ और आसपास के दर्शनीय स्थल
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अलकनंदा के तट पर तप्त-कुंड, ब्रह्म कपाल, सर्प का जोड़ा, शेषनाग की छाप वाला शिलाखंड 'शेषनेत्रÓ, चरणपादुका, बर्फ से ढका नीलकंठ शिखर, माता मूर्ति मंदिर, देश का अंतिम गांव माणा, वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा, भीम पुल, अष्ट वसुओं की तपोस्थली वसुधारा, लक्ष्मी वन, सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी), अलकनंदा नदी का उद्गम एवं कुबेर का निवास अलकापुरी, सरस्वती नदी, बामणी गांव में भगवान विष्णु की जंघा से उत्पन्न उर्वशी का मंदिर। विशेषकर बदरीनाथ धाम में नारायण पर्वत की चोटी को निहारो तो लगता है कि मंदिर के ऊपर पर्वत की चोटी शेषनाग के रूप में अवस्थित है। शेषनाग के प्राकृतिक फन स्पष्ट देखे जा सकते हैं।