Saturday, 14 October 2017

कमल दा और मैं

कमल दा और मैं 
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दिनेश कुकरेती
"आकार", यही नाम तो था कमल दा के पुस्तकालय का। कोटद्वार में गोखले मार्ग स्थित कमल दा के मकान के भूतल पर हुआ करता था यह पुस्तकालय। आलमारियों में करीने से सजी पुस्तकें, जिनमें पूरा पहाड़ समाया हुआ था। देश-दुनिया को जानने के लिए भी यहां वह सारी पुस्तकें मौजूद थीं, जिन्हें देखने को एक पुस्तक प्रेमी तरस जाता है। इसके अलावा पहाड़ की तमाम भूली-बिसरी स्मृतियां भी यहां कमल दा ने संजोयी हुई थीं। तब शेखर भाई (चंद्रशेखर बेंजवाल) इसी पुस्तकालय में अड्डेबाजी किया करते थे। 
यह 1989 की बात होगी। इसी साल मैंने बीकाम प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने के साथ छात्र राजनीति में पर्दापण किया था और दुनियाभर के प्रगतिशील छात्र आंदोलनों को समझने की कोशिश कर रहा था। शेखर भाई तब कोटद्वार के लोकप्रिय छात्रनेता हुआ करते थे। सो, उनसे जुडा़व स्वाभाविक था। उन्हीं की बदौलत मैंने पहली बार "आकार" की देहरी पर कदम रखा। किताबों की यह दुनिया मुझे इस कदर भा गई कि फिर कदम अक्सर आकार में पड़ने लगे। वहां किताबें पढा़ने की पूरी आजादी थी। लेकिन, कमल दा घर ले जाने के लिए किताब तभी देते थे, जब उन्हें भरोसा हो जाता था कि वह तय समय पर लौट आएगी। एक भी दिन का विलंब हुआ तो खैर नहीं। मैंने उनका विश्वास अर्जित कर लिया था, सो मुझे आसानी से किताब मिल जाती थी। 
पहाड़ के बारे में जानना मुझे अच्छा लगता था, इसलिए ज्यादातर किताबें पहाड़ से संबंधित ही कमल दा इश्यू करवाता था। शहर में कोई गोष्ठी या परिचर्चा होती तो उसमें कमल दा को अवश्य आमंत्रित किया जाता। कुछ अच्छा सुनने के लिए मैं भी इन कार्यक्रमों में चला जाता। हालांकि, अंतर्मुखी होने के कारण मेरी भूमिका इनमें श्रोता की ही होती। पर, जिम्मेदार एवं गंभीर श्रोता की। समय गुजर रहा था और राजनीति में मेरी सोच भी परिपक्व होती जा रही थी। सो, अभिव्यक्ति के लिए धीरे-धीरे पत्रकारिता की ओर भी अग्रसर होने लगा। 
तब कोटद्वार से साप्ताहिक "सत्यपथ" का निरंतर प्रकाशन हो रहा था। गुरुजी पीतांबर दत्त डेवरानी "सत्यपथ" के संपादक हुआ करते थे। अब कमल दा के साथ उनसे भी अच्छी दोस्ती हो गई। कमल दा जब भी मिलते, छूटते ही बोलते, "क्या कर रहा है बे गुंडे।" इस "गुंडे" शब्द में कितना स्नेह था, मेरे पास व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं। 23 मार्च 1993 को मेरा पहला बाई लाइन लेख सत्यपथ में प्रकाशित हुआ। शीर्षक था "स्थितियां बदलनी होंगी"। पूरे पन्ने यह लेख मैंने साथी भगत सिंह पर लिखा था। गुरुजी के साथ कमल दा और दिवंगत साथी अश्वनी कोटनाला ने भी मुझे इस लेख के लिए बधाई दी। कमल दा ने तो यहां तक कहा कि "गुंडे नैनीताल समाचार के लिए भी लिखा कर। तेरी लेखनी में दम है।" 
कमल दा की बदौलत ही मेरा नैनीताल समाचार से परिचय हुआ और मैं उसका नियमित पाठक बन गया। कहीं नैनीताल समाचार की पुरानी प्रति दिखती थी तो मैं उसे टिपाने में भी गुरेज नहीं करता था। एक दिन कमल भाई बोले, "अबे तू नैनीताल समाचार क्यों नहीं लगा लेता।" मैंने कहा, "सोच तो ऐसा ही रहा हूं भाई साहब।" वो बोले, "सोच मत, तू सौ रुपये मुझे दे दे, मैं नैनीताल ही जा रहा हूं।" मेरी समस्या हल हो गई थी। अब नियमित रूप से मुझे नैनीताल समाचार मिलने लगा। इस बीच रंगमंच की ओर भी मेरा रुझान हो गया था। भारतीय ज्ञान विज्ञान जत्थे से जुड़कर गढ़वाल के बडे़ हिस्से में नाटक किए। 
तभी देश में एक बडा़ घटनाक्रम हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने कंमडल से मंडल का जिन्न बाहर निकाल दिया। देश आरक्षण विरोधी आंदोलन में सुलग उठा। लेकिन उत्तराखंड में आरक्षण के विरोध से शुरू हुआ यह आंदोलन उत्तराखंड राज्य आंदोलन में तब्दील हो गया। बैठकों-गोष्ठियों का दौर शुरू हो गया। उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार ने अखबारों के खिलाफ हल्ला बोलने का ऐलान कर दिया। इसका एक फायदा यह हुआ कि अमर उजाला व दैनिक जागरण आमजन के प्रिय हो गए। राज्य  आंदोलन की बागडोर एक तरह से इन दोनों अखबारों ने संभाल ली। 
मैं तब पूरी तरह पत्रकारी बिरादरी का हिस्सा बन चुका था। तब हमारी बैठकें अक्सर आकार यानी कमल दा के ठीये पर ही हुआ करती थीं। हम लोग नागरिक मंच के बैनर तले जुलूस-प्रदर्शनों में शिरकत करते। कमल दा पथ-प्रदर्शक की भूमिका में रहते थे। रामपुर तिराहा कांड के बाद पूरे उत्तराखंड में कर्फ्यू लगा दिया गया। तब हम रात को ठीया बदल-बदलकर रहते थे। ताकि पुलिस की पकड़ में न आ सकें। जब कर्फ्यू में ढील होती तो खामोशी से गलियों के रास्ते आकार में पहुंच जाते और अंदर से दरवाजे पर सिटकनी चढा़कर आगे की रणनीति पर चर्चा करते। शहर में मुर्दानिगी पसरी हुई थी, उससे बाहर निकलना भी जरूरी था। 
तारीख ठीक से याद नहीं, पर तब कर्फ्यू हट चुका था। हम आकार में बैठे और मौन जुलूस निकालने का निर्णय लिया। एक पूरे दिन हम आकार में ही नारे लिखी तख्तियां तैयार करते रहे। अगले दिन सारे पत्रकार दोपहर बाद कमल दा के ठीये पर एकत्र हुए और तहसील तक मौन जुलूस निकाला। इससे शहर में करंट दौड़ गया और लोग फिर मुट्ठियां तानकर घरों से बाहर निकलने लगे। अब मैंने ठान लिया था कि जीवन में पत्रकारिता ही करनी है। काश! तब आज के हालात का इल्म होता...? खैर! दुर्योग से मैं पक्का पत्रकार बन चुका था। यदा-कदा कविता भी हो जाया करती थी। 
कमल दा मेरी कविताओं को न सिर्फ पसंद करते थे, बल्क मुझे प्रोत्साहित करने के लिए उन पर प्रतिक्रिया भी देते थे। मुझे याद है, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद लिखी मेरी कविता जब युगवाणी पत्रिका में छपी तो कमल दा की प्रतिक्रिया थी, "गुंडे मैं तुझे इतनी गंभीरता से नहीं लेता था। ऐसे ही लिखता रहा कर।" वो यह भी चाहते थे कि मैं किसी तरह कोटद्वार से बाहर निकल जाऊं, ताकि जीवन में तरक्की की राह खुल सके। लेकिन, साथ में यह सलाह भी जरूर देते कि कभी जमीन मत छोड़ना। समय का पहिया घूमता रहा और एक दिन मैंने सचमुच कोटद्वार छोड़ दिया। इस बार मेरा ठौर बना देहरादून। 
यहां दैनिक जागरण से जुड़कर मैंने जीवन की नई पारी शुरू की। दिल्ली, मेरठ, लखनऊ, हल्द्वानी आदि शहरों के अनुभव की बदौलत मुझे यहां कोई खास परेशानी नहीं हुई। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि कमल दा दूर रहकर भी देहरादून में मेरे करीबी रहे। मैं जब भी कुछ अच्छा लिखता, कमल दा फोन कर हौसलाफजाई जरूर करते। खासकर 2010 में हरिद्वार कुंभ, 2013 में केदारनाथ आपदा और 2014 में श्री नंदा देवी राजजात की लाइव रिपोर्टिंग से तो कमल दा इस कदर प्रभावित थे कि जब भी मिलते मेरा कंधा जरूर थपथपाते। कहते, "गुंडे तुझसे ऐसी ही उम्मीद रहती है मुझे।" 
नंदा देवी राजजात में तो बाण तक मैं और कमल दा आभासी सहयात्री रहे। स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण यहां से आगे कमल दा यात्रा नहीं कर सके। सोशल मीडिया पर भी कमल दा मुझे हमेशा प्रोत्साहित करते रहे। विधानसभा चुनाव के दौरान लिखे व्यंग्यों की भी वे हर मुलाकात में तारीफ करते। जिस दिन वे दुनिया-ए-फानी से रुखसत हुए, उस सुबह भी मुझसे मिले थे। हमेशा की तरह पांच-सात मिनट हमने दुनिया जहान की चिंताओं पर चर्चा की और फिर मैं अपनी राह चलता बना। क्या मालूम था कि कुछ घंटों बाद वे उस ट्रैक पर निकलने वाले हैं, जहां से वापसी का रास्ता नहीं है। काश...!

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