किस्सागोई
किरायेदार
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दिनेश कुकरेती
अब तक के जीवन में मैं ज्यादातर समय किरायेदार की भूमिका में ही रहा। पहले परिवार के साथ और बाद में अकेले। कितनी ही जगह। सचमुच किरायेदार होना बडा़ कष्टदायी होता है और मेरे जैसे अंतर्मुखी इन्सान के लिए सुखदायी भी। फिलहाल मैं देहरादून में किरायेदार हूं, भरपूर गुडविल वाला किरायेदार। मालिक मकान मेरे बारे में बहुत सी बातें जानता है और बहुत सी नहीं। शायद जान भी न पाएगा। लेकिन फिलवक्त मुझे दिल्ली की किरायेदारी रह-रहकर याद आ रही है।
बात 1995 की है। कालेज कंपलीट हो चुका था और कलयुग की तरह सिर पर सवार हो चुका पत्रकार बनने का भूत। हालांकि पत्रकारिता की शुरुआत तो 1991 में ही हो गई थी, लेकिन अब मैं इसमें स्थायी ठौर तलाश रहा था। मन करता था दिल्ली चला जाऊं। दिसबंर के तीसरे हफ्ते की बात होगी। मेरा एक मित्र जो दिल्ली में रहता था, तब कोटद्वार आया हुआ था। मुलाकात हुई तो बातों-बातों में उसने मुझसे भी दिल्ली आने की गुजारिश की। वह रोहिणी सेक्टर-16 में किराये के फ्लैट पर रहता था। कहने लगा रहने की कोई दिक्कत नहीं और मेरा भी साथ हो जाएगा। फिर खर्चे का बोझ भी हल्का रहेगा। मुझे सुझाव पसंद आ गया और उससे 20 जनवरी को दिल्ली पहुंचने का वादा कर दिया।
अब मैं घर छोड़ने के लिए मन को मजबूत करने लगा और फिर 20 तारीख सुबह दस बजे वाली सोहराबगेट डिपो की बस से दिल्ली रवाना हो गया। सामान के नाम पर मेरे पास एक बडा़ सूटकेस और एक बैग था। कपड़े-लत्ते, बिस्तर-विस्तर सब इन्हीं में थे। शाम पांच बजे के आसपास मैं दिल्ली पहुंचा और फिर उत्तमनगर जाने वाली बस (शायद 883 नंबर) में सवार हो गया। साढे़ छह बजे के आसपास मैं रोहिणी सेक्टर-16 पहुंच चुका था। अंधेर घिर आया था और ठंडी हवाएं चल रही थीं। पास ही एक नाई की दुकान थी, जहां पर पूछताछ में पता चला कि मित्रवर शाम को कहीं निकल गए थे। संभवत: कुछ देर में लौट आएंगे।
मेरे पास उसकी इंतजारी के सिवा कोई विकल्प नहीं था, सो मैं नाई भाई के आग्रह पर दुकान में ही बैठ गया।
कुछ ही देर में तीन युवक वहां पहुंचे। उनसे नाई भाई ने मित्रवर के बारे में कुछ पूछा तो उनमें से एक बोला, वो तो देर में आते हैं। तब तक भाई साहब हमारे रूम में ठहर जाएंगे और मेरा सूटकेस उठाकर जाने लगे। मैं भी बिना कुछ विचार किए उनके साथ हो लिया, यह जाने बगैर कि वो कौन हैं, कहां के हैं और क्या करते हैं। वैसृवसे सच कहूं तो उस समय इससे बेहतर निर्णय लेने की क्षमता मुझमें नहीं थी।
बहरहाल! अब मैं उनके रूम में था। उन्होंने स्टोव में दाल चढा़ई हुई थी अब उनमें से एक तुरत-फुरत में राई की सब्जी काटने लगा तो एक आटा गूंथने में जुट गया। साथ ही बातचीत का सिलसिला भी चल पडा़। पता चला कि वे गाजियाबाद यूपी के रहने वाले हैं। तब उत्तराखंड नहीं बना था, सो कोटद्वार भी यूपी का हिस्सा हुआ। इस नाते हम सब एक ही प्रांत के हो गए। अब कोटद्वार व गाजियाबाद के बीच की दूरी सिमट गई और हम पडो़सी शहरों के हो गए। रिश्तों में भी अचानक आत्मीयता आ गई।
मित्र का कहीं अता-पता नहीं था, लौटेगा भी या नहीं, कुछ भी कहना मुश्किल था। रात के नौ बज चुके थे। तीनों भाई भोजन करने की तैयारी कर रहे थे। सो मुझसे भी बोले, भाई साहब! वो न जाने कब आते हैं, इसलिए आप तो भोजन कर ही लो। हमें भी अच्छा लगेगा।
उनकी बातों में कोई बनावट नहीं थी और रोटी भी उन्होंने चार आदमियों के हिसाब से ही बनाई थी। मैंने भी सुबह से कुछ नहीं खाया था और उस पर थकान से चूर हुआ जा रहा था। हालांकि, एक संस्कारी पहाडी़ की तरह मैंने उनकी बात का विनम्रता पूर्वक इनकार ही में जवाब दिया। लेकिन, वो भी अतिथि सत्कार में पारंगत ठेठ देहाती ठैरे। बोले, भाई साहब! हम पराये हैं क्या, जो ना कर रहे हो। भोजन तो हम साथ ही करेंगे। और...उनको देर भी हो जाए तो चिंता वाली बात नी। चारों भाई यहीं बिस्तर डाल देंगे।
अब मैं खुद के वश में नहीं था, सो कोई जवाब दिए बिना चुपचाप थाली ली और भोजन करने लगा। यकीन जानिए, मुझे लग रहा था, जैसे न जाने कितने दिनों बाद खाना मिला है। राई की सब्जी तो...मेरे पास शब्द नहीं हैं उस स्वाद को बयां करने के लिए।
अब मेरी चिंता काफी हद तक दूर हो गई थी। लग रहा था अपनों के बीच हूं।
खैर! साढे़ बजे के आसपास मित्र का पदार्पण हुआ। आते हुए नाई भाई से शायद उसे मेरे पहुंचने की सूचना मिल गई थी, सो वह सीधा भाई लोगों के ठिकाने पर आ पहुंचा। हालांकि, वह यह बात भूल चुका था कि मेरा उससे 20 जनवरी को दिल्ली पहुंचने का कमिटमेंट हुआ था। मुझे देखकर ही उसे यह बात याद आई। उस जमाने में मोबाइल-वोबाइल तो होते थे नहीं, जो आने से पहले मैं उसे इत्तिला करता। बहरहाल! रात चढी़ जा रही थी और भाई लोगों को भी सोने की जल्दी थी। सो मुझसे मुखातिब हो विनम्रता से बोले, भाई साहब! अब आप भी सो जाइए, सुबह मिलते हैं।
अब मैं मित्रवर के रूम में था। उसने भोजन किया या नहीं, मुझे नहीं मालूम। क्योंकि मेरे पूछने पर उसने भोजन कर आने की बात कही थी। मुझे नींद आ रही थी, इसलिए इस मुद्दे का पटाक्षेप करने में ही बेहतरी समझी और जमीन पर बिस्तर डालकर नींद के आगोश में चला गया।
सुबह नींद देर से खुली। रविवार का दिन था, इसलिए मित्रवर को भी शायद बेफ्रिकी थी। लेकिन, मैं बेफ्रिक नहीं था। मुझे काम की तलाश करनी थी। इसलिए नाश्ता करने के बाद मैंने मित्रवर को कुरेदना शुरू कर दिया। उसने आश्वस्त किया कि दो-चार दिन में काम बन जाएगा, बस! हमें अंग्रेजी अखबार में मंगलवार और शनिवार को छपने वाले क्लासीफाइड पर नजर रखनी है।
अब मैं थोड़ा कम्फर्टेबल फील कर रहा था, सो विषय बदलते हुए लगे हाथ किराया और मालिक मकान के बारे भी पूछ लिया। मित्रवर ने जानकारी दी कि फ्लैट किसी हिमाचली का है, जो प्रकारांतर से उसकी भी रिश्तेदारी में है। लेकिन, उसके दिल्ली से बाहर रहने के कारण किराया बुआ लोग वसूलते हैं। किराया फिलहाल आठ सौ रुपये महीना है, इसलिए हम पर कोई खास बोझ नहीं पड़ने वाला।
बीस साल पहले आठ सौ रुपये की रकम कोई छोटी-मोटी रकम नहीं थी, लेकिन मित्रवर के बोझ न पड़ने वाले इशारे से मैं समझ गया कि वह इसे बडी़ रकम क्यों मान रहा है। स्पष्ट था कि किरायेदारी में अब मेरी भी 400 रुपये की हिस्सेदारी हो चुकी थी। यानी अब मैं दिल्ली में किरायेदार होने का तमगा हासिल कर चुका था, जिसे बरकरार रखने के लिए जल्द से जल्द काम तलाशना था।
अगली सुबह पहला काम मैंने यही किया कि अंग्रेजी अखबार खरीद लाया। मंगलवार का दिन होने के कारण अखबार क्लासीफाइड विज्ञापनों से लबालब था। दोनों ने ऊपर से नीचे तक नजर दौडा़नी शुरू कर दी। दो-तीन विज्ञापन मन मुताबिक मिले, सो दस्तावेजों की फाइल थामी और चल पड़े संबंधित पतों पर भाग्य की परीक्षा लेने।
मित्रवर के साथ होने से संबंधित कंपनियों के पते तलाशने को भटकना नहीं पडा़। पर, अफसोस! बात भी नहीं बनी। मित्रवर ने फिर हौसलाफजाई की, टेंशन नहीं यार! इतनी बडी़ दिल्ली है, कल फिर देखते हैं। मैंने भी सहमति में सिर हिलाया और कमरे की राह पकड़ ली। रास्तेभर वो मुझे दिल्ली का भूगोल समझाता रहा और मैं हूं-हां में जवाब देता रहा।
रूम में पहुंचते-पहुंचते अंधेरा घिर आया था। खैर! हमने पास ही लगने वाले मंगल बाजार से सब्जी वगैरह खरीदी और पेट पूजा के अनुष्ठान में जुट गए।
भोजन करने के बाद मित्रवर तो सीधे बिस्तर के हवाले हो गए, मगर मेरी आंखों में नींद नहीं थी। रह-रहकर मन में एक सवाल कौंध रहा था कि आखिर वह कौन सी नौकरी करता है, जिसमें दफ्तर जाने की बाध्यता न हो। और...अगर ऐसा नहीं है तो मित्रवर के दफ्तर न जाने की क्या वजह हो सकती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि महाशय के पास कोई काम ही न हो। आशंका सच निकली तो मेरे भी पैर दिल्ली में जमने से पहले ही उखड़ सकते हैं। पर, उस वक्त सोए हुए व्यक्ति से तो कुछ पूछा नहीं जा सकता था। इसके लिए तो सुबह होने तक इंतजार करना मजबूरी था।
सुबह नींद जल्दी ही टूट गई। बाहर देखा तो दिल्ली ने कोहरे की चादर ओढी़ हुई थी। हालांकि, मुझे कहीं जाना नहीं था, फिर भी मैं मन ही मन कोहरे के छंटने की कामना कर था। मित्रवर अभी भी निश्चंतता के खर्राटे ले रहे थे, लेकिन मैंने जगाने की चेष्टा नहीं की। खैर! जब महाशय की नींद टूटी, तब तक मौसम खुल चुका था। सो मैंने बिना मुहूर्त के ही सवाल दागा, ड्यूटी जाना है क्या?
मित्रवर बोले, पहले वाली कंपनी मनमाफिक नहीं थी, उसे छोड़ दिया। इन दिनों दोपहृर बाद पार्ट टाइम काम कर रहा हूं। साथ ही फुलटाइम की भी खोज जारी है।
मैंने बात आगे नहीं बढा़ई। कुछ देर की चुप्पी के बाद फिर मित्रवर बोले, यार! थोडी़ देर में किराया दे आते हैं।
पर, अभी तो महीना खत्म होने में हफ्ता बाकी है, मैंने कहा।
इस पर मित्रवर बोले, इस महीने नहीं दे पाया और पिछले महीने का भी बकाया है। कुछ पैसे तो होंगे ना?
इस सवाल का जवाब ना में दे पाना मेरे लिए संभव नहीं था। कारण, मुझे दिल्ली आए हुए अभी तीन दिन ही हुए थे। जाहिर था, खाली तो आया नहीं हूंगा। सो बोला, कितने?
पूरे ही दे देते हैं यार! बाकी देख लेंगे, मित्रवर का जवाब था।
फिलहाल मेरे सामने कोई विकल्प नहीं था, लिहाजा सोलह सौ रुपये उसके हाथ में थमा दिए।
भोजन कर हम पैदल ही किराया देने निकल पडे़। मधुवन चौक के पास ही एक सरकारी कालोनी में उसकी बुआ का परिवार रहता था। अजीब सा माहौल था वहां का। किसी ने पानी तक के लिए नहीं पूछा। मुझे तो छोडि़ए, उसे भी नहीं। ऐसे माहौल में पलभर भी वहां ठहरना मेरे लिए असह्य होता जा रहा था। लिहाजा, मैंने उससे चलने का इशारा कर दिया। हालांकि, उसकी नातेदारी का मामला था, लेकिन आत्मसम्मान तो सबका होता है। सो, उसने भी किराया बुआ के हाथ में थमाया और हमने वहां से विदा ली। बस स्टाप के पास एक स्टाल से हमने अखबार खरीदा और पैदल ही घर की राह पकड़ ली।
रूम में पहुंचते ही सबसे पहला काम हमने अखबार के पन्ने पलटने का किया और संयोग से रोजी का एक ठौर भी मिल गया। किसी कंपनी के एक साप्ताहिक अखबार का इस्तहार छपा था। मुझे तो अखबार के सिवा कहीं काम करना ही नहीं था, इसलिए लगा जैसे मन की मुराद पूरी हो गई। अगली सुबह मैं मित्रवर के साथ बरफखाने के पास स्थित कंपनी के दफ्तर में इंटरव्यू के लिए मौजूद था। संपादक-कम-मालिक से मुलाकात हुई और 1500 रुपये में बात भी बन गई। उस दौर में भी यह बहुत अच्छी रकम तो नहीं थी, मगर दिल्ली में पैर जमाने का सहारा तो मिल ही गया था। इसलिए मन में संतुष्टि के भाव थे।
अगली सुबह से नौकरी शुरू हो गई और दो-एक दिन में मित्रवर का भी एक कंपनी में जुगाड़ हो गया।
अब हम सुबह चार बजे उठ जाते और ठीक आठ बजे रैट-पैट होकर बस स्टाप पर होते। मुझे दफ्तर तक तीन बस बदलनी पड़ती। पहली सेक्टर सोलह से मधुवन चौक, दूसरी मधुवन चौक से माल रोड-कैंप और तीसरी कैंप से बरफखाना। किराया सात रुपये बैठता। अब दिल्ली में रहते हुए धीरे-धीरे मुझमें भी चतुराई आने लगी थी। चूंकि, मेरा रूट माल रोड वाला था, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी का भी रूट है, इसलिए खुद को स्टूडेंट शो कर मैं तीन के बजाय एक रुपये का ही टिकट लेने लगा। टिफिन मैं ले जाता था नहीं, इसलिए बेफिक्री रहती थी। शाम को लौटते हुए मुझे सीधे उत्तमनगर वाली बस मिल जाती, सो एक रुपये में मधुवन चौक पहुंच जाता। एक रुपया वहां से कमरे तक पहुंचने में खर्च होता था। लेकिन, डीटीसी की बस में सफर करने के दौरान थोडा़ सतर्क रहना पड़ता, क्योंकि कहीं पर भी टिकट चैकर आ धमकता था।
एक दिन मेरा भी पाला टिकट चैकर से पड़ गया और मुझे पूरे बीस रुपये का अर्थदंड भुगतना पडा़। दरअसल, हमेशा की तरह उस दिन भी मैंने मधुवन चौक से एक रुपये का ही टिकट लिया था। लेकिन यह बस डीटीसी की थी, जिसे जहांगीरपुरी में टिकट चैकर ने रोक दिया। मैंने चालाक बनने की कोशिश यह कि टिकट चैकर के सामने ही बस से उतर गया, ताकि उसे लगे कि यहीं तक की सवारी है। लेकिन, दुर्भाग्य से वह मेरी स्थिति भांप गया। उसने मुझसे टिकट मांगा तो मैंने एक रुपये का टिकट उसके हाथ में थमा दिया। बस! फिर क्या था, बिना कुछ कहे उसने मेरा बीस रुपये का चालान काट दिया। उस दिन मेरी जेब में मात्र बीस रुपये ही थे, सोचिए उन्हें गंवाकर क्या हालत हुई होगी मेरी। मूड पूरी तरह उखड़ चुका था।
मैंने आफिस जाने का प्लान कैंसिल कर दिया। रूम में लौटने से कोई फायदा नहीं था, क्योंकि चाभी मित्रवर के पास थी। सो, चालान को जेब में रखकर मैं मुद्रिका में सवार हो गया। इस चालान से उस दिन डीटीसी की बस में मैं कहीं घूमा जा सकता था। मैंने भी यही किया। पूरे दिन प्लस-माइनस मुद्रिका में दिल्ली घूमता रहा। कुछ खाने-पीने का तो सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि जेब खाली थी। इसका फायदा यह जरूर हुआ कि दिल्ली के बारे में बहुत-कुछ जान-समझ गया। और...हां! इस चालान को अगले माह इसी तारीख पर मैंने फिर इस्तेमाल किया। क्योंकि महीना उसमें ठीक-ठीक पढ़ने में नहीं आ रहा था।
धीरे-धीरे जिंदगी की गाडी़ खिसकने लगी। पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन से भी कुछ पैसे मिल जाते थे। संपर्क बढ़ने पर बडे़ समाचार पत्रों में दफ्तरों में भी आना-जाना हो गया। खासकर राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स व दिल्ली प्रेस के दफ्तर में। एक दिन मित्रवर ने बताया कि वह ऐसे सज्जन को जानता है, जो साहित्यकार टाइप के हैं और उनके संपर्क भी अच्छे हैं। इन सज्जन का नाम उसने जयपाल सिंह रावत बताया। साथ ही इतवार को उनसे मुलाकात कराने की बात भी कही। मुझे भी लगा कि मुलाकात करने में कोई बुराई नहीं है। मन में गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई कौंधने लगी कि ना जाने किस वेश में नारायण मिल जाएं। फिर क्या था, इतवार को हम उत्तरी पीतमपुरा स्थित उनके ठीये पर जा धमके।
पहली ही मुलाकात इस कदर आत्मीय रही कि जयपाल दा और उनके परिवार से मेरा मन का रिश्ता जुड़ गया। जयपाल दा ने गढ़वाली में लिखी अपनी कई कविताएं भी इस दौरान सुनाईं। संयोग देखिए कि उनकी कविताएं सुनने वाले पहले गंभीर श्रोता होने का श्रेय भी मुझे ही जाता है। उन दिनों मैंने भी गढ़वाली में लिखना शुरू कर दिया था, इसलिए हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होने के संकेत मिलने लगे। जयपाल दा ने गढ़कवि कन्हैया लाल डंडरियाल से मुलाकात कराने का भी भरोसा दिलाया। वे डंडरियाल जी को पिता तुल्य सम्मान देते थे। उस रात हम उनके यहां से भोजन करके ही रूम पर लौटे।
धीरे-धीरे मुझे दिल्ली रास आने लगी थी, लेकिन साथ में दिक्कतें भी बढ़नी शुरू हो गईं। तब हमारे जैसे प्रवासियों का चूल्हा केरोसिन से ही जला करता था, लेकिन हमारे पास अब दो-एक दिन के लिए ही केरोसिन बचा था। व्यवस्था ब्लैक में ही हो सकती थी, जो फिलहाल संभव नहीं थी। संयोग देखिए कि रात को न जाने किधर से जयपाल दा रूम में आ गए। मैंने उनके सामने यह चिंता रखी तो बोले, व्यवस्था हो जाएगी, टेंशन लेने की जरूरत नहीं। अगले दिन वे दस लीटर केरोसिन लेकर हाजिर थे। मैंने पैसे का जिक्र छेडा़ तो उन्होंने मुझे चुप करा दिया। उस रात मैं उन्हीं के घर रहा। वहां डंडरियाल जी भी आए हुए थे, सो मुझे भी उनके दर्शनों का सौभाग्य मिल गया। आधी रात तक साहित्यिक चर्चा होती रही।
अब डंडरियाल जी भी मेरी आत्मीयजनों की सूची में शामिल हो चुके थे। वो जयपाल दा के यहां बराबर आया करते थे। कभी किसी कारणवश नहीं आ पाते तो हम उनके घर चले जाते। तब उनका परिवार गुलाबी बाग में किराये के मकान पर रहता था और उस दौरान वे अपने सुप्रसिद्ध खंडकाव्य नागरजा (भाग तीन) पर काम कर रहे थे।
मित्रवर की साहित्य में कोई रुचि नहीं थी, इसलिए वह अपनी ही दुनिया में रहता। नौकरी भी उसकी अटक-अटक कर चल रही थी, इसलिए खर्चा मेरी ही जेब से होने लगा। मुफलिसी के इस दौर का एक फायदा यह जरूर हुआ कि मैंने दिल्ली के बड़े हिस्से को पैदल नाप डाला। बीसियों दफा तो आफिस आना-जाना भी पैदल ही हुआ। एक बार जब जेब पूरी तरह तरह खाली हो गई तो एक दोस्त से पैसे उधार भी मांगने पडे़।
ऐसी स्थिति में किसी को भी उकताहट होने लगना स्वाभाविक है, पर यहां धैर्य मेरा साथ दे रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढाल सकता हूं। इसके लिए मैं लगातार प्रयास भी कर रहा था। इसी का नतीजा रहा कि कुछ समय बाद नवभारत टाइम्स में नौकरी मिल गई। पगार थी 2700 रुपये। उस दौर के हिसाब से यह बहुत अच्छी रकम थी। हालांकि, इसमें से 800 रुपये तो सीधे किराये के चले जाते थे।
इधर, मित्र भी सहयोगी की बजाय बोझ की भूमिका में आ गया था। शायद उसने कोटद्वार अपने घर पर बता दिया था कि दिल्ली बहुत दिनों तक रुकने की इजाजत नहीं देने वाली।
एक दिन उसने बताया कि पिताजी दिल्ली आने वाले हैं। पर, यह नहीं बताया कि क्यों आने वाले हैं।
कुछ दिन वो सचमुच आ भी गए, लेकिन रूम पर नहीं, बल्कि अपनी बहन यानी उसकी बुआ के घर। वहीं उसे भी बुलाया गया। शाम को लौटने पर उसने बताया कि पिताजी ने कोटद्वार में रोड हेड पर दुकान ले ली है, अब वहीं कुछ होगा। साथ ही मुझे सलाह दी कि चाहूं तो फ्लैट अपने पास रख सकता हूं। हालांकि मकान मालिक इसे बचने का मन भी बना रहा है। प्रकारांतर से शायद वह नहीं चाहता कि मैं वहीं रहूं और सच तो यह है कि मैं खुद भी वहां रहने का इच्छुक नहीं था। इसलिए मैंने उससे कह दिया कि मैं अपनी व्यवस्था देख लूंगा।
साथ ही उससे यह भी कह दिया कि वह अपना कोई भी सामान रूम में न छोड़े, मुझे किसी भी वस्तु की जरूरत नहीं है। यहां तक मैंने अपनी एक पैंट, एक जोडी़ जूते और एक स्वेटर भी उसी के हवाले कर दी, क्योंकि पिछले कुछ समय से इन्हें वही इस्तेमाल कर रहा था।
वह यहीं नहीं रुका, सामान वगैरह पैक करने के बाद उसने मुझे रूम से बाहर बुलाया और बोला, यार कुछ पैसे होंगे।
मैं चाहकर भी ना न बोल सका और बोला, कितने?
पांच सौ हों तो..., उसने कहा।
यह राशि बहुत बडी़ और फिर इसे लौटना भी नहीं था। सो, मैंने कहा, पांच सौ तो नहीं, हां! दो सौ दे सकता हूं।
उसने दो सौ रुपये भी गिद्ध की तरह लपक लिए। किराया मैं चुकता कर ली चुका था। इसलिए बोरिया-बिस्तर समेटकर उसके दिल्ली छोड़ने से पहले जयपाल दा के घर आ गया।
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