Tuesday, 20 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

Tuesday, 13 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

Thursday, 20 May 2021

रा-रा दा तुम हमेशा याद आओगे

 रा-रा दा तुम हमेशा याद आओगे

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दिनेश कुकरेती

शहूर रंगकर्मी, हास्य अभिनेता, गढ़वाली गायक और लोक के चितेरे रा-रा दा यानी रामरतन काला से मेरा आत्मीय रिश्ता रहा है। वैसे तो लोक से अनुराग होने के कारण मैं दो-ढाई दशक तक उनके करीब रहा, लेकिन तकरीबन चार साल हमारे साथ-साथ गुजरे। इस अवधि में मैंने रा-रा दा के साथ आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्रामजगतÓ अनुभाग में आकस्मिक कंपीयर के रूप में कार्य किया। कई यादें हैं इस कालखंड की, जिन पर ग्रंथ लिखा जा सकता है। रा-रा दा बेहद सरल एवं सहज इन्सान थे। बिल्कुल जमीन से जुड़े हुए। रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करने वाले, लेकिन दुनिया जहान की सभी चिंताओं से बेफिक्र। किसी चीज का लालच नहीं। हर हाल में खुश। इसलिए उनके साथ मेरी खूब जमती थी। जैसे वो, वैसा ही मैं भी। कोटद्वार शहर में कोई भी सांस्कृतिक आयोजन होता था तो उसमें रा-रा दा का होना अनिवार्य समझा जाता था।

रा-रा दा से मेरा परिचय रेडियो के जरिये हुआ। उस दौर टीवी चुनिंदा लोगों के घरों में हुआ करता था, वह भी ब्लैक एंड व्हाइट। रेडियो हर घर की पहुंच में होने के कारण मनोरंजन का प्रमुख साधन था। खासकर शाम साढ़े सात बजे आकाशवाणी नजीबाबाद से आने वाले 'ग्रामजगतÓ कार्यक्रम और शाम छह बजकर पांच मिनट पर आकाशवाणी लखनऊ से आने वाले 'उत्तरायणÓ कार्यक्रम के सब दीवाने हुआ करते थे। इन कार्यक्रमों में अक्सर एक गढ़वाली गीत बजा करता था, 'मितैं ब्योला बणै द्यावा, ब्योली खुज्ये द्याÓ। यह हास्य गीत गाया था रामरतन काला ने। तब लोग कहते थे कि कालाजी कोटद्वार में ही रहते हैं। गर्व की अनुभूति होती थी यह सुनकर।

धीरे-धीरे शहर में होने वाली सामाजिक गतिविधियों में मेरी भी हिस्सेदारी होने लगी। तभी रा-रा दा से प्रत्यक्ष मुलाकात हुई। फिर तो उनसे अक्सर मिलना-जुलना होने लगा। तब होली के पर्व से पूर्व उत्तराखंड लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक संस्था की ओर से पहाड़ की पारंपरिक होली को बढ़ावा देने के लिए होली उत्सव का आयोजन किया जाता था। मैं भी इसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी किया करता था। शाम के वक्त हम ढोल-मजीरे की थाप पर तीन-चार दिन तक शहरभर में होली गाते थे। इसका समापन झंडाचौक में होता था। रा-रा दा इस आयोजन की खास शान हुआ करते थे। उनका होली (होरी) गाने और होल्य़ार साथियों के साथ थिरकने का अंदाज मन मोह लेता था।

रा-रा दा साइकिल पर चला करते थे, लेकिन शहर के बीच से गुजरते वो साइकिल के साथ पैदल ही होते थे। रास्तेभर मित्र-परिचितों से मेल-मुलाकात करते हुए जाना उनको आनंद देता था। बीती सदी के आखिरी वर्षों में हमने नुक्कड़ नाटक 'कासीरामÓ का पूरे गढ़वाल में मंचन किया। इस नाटक को हमने हिंदी से  गढ़वाली में अनुदित किया था। नाटक में बताया गया था कि एक अनपढ़ व्यक्ति का रसूखदार लोग किस-किस तरह से शोषण करते हैं। कोटद्वार में रा-रा दा ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी आत्मीयता देखिए कि एक मंझे हुए रंगकर्मी होने के बावजूद वो हमसे पूछते थे कि अब मुझे क्या करना है।

रा-रा दा और मैंने 'शैलनटÓ नाट्य संस्था में भी साथ-साथ काम किया। इस कालखंड में उनसे बहुत-कुछ सीखने को मिला। तब में 'शैलनटÓ का प्रचार मंत्री हुआ करता था। आकाशवाणी नजीबाबाद के निदेशक रहे स्व. सत्यप्रकाश हिंदवाण ने मुझे 'शैलनटÓ से जोडा़ था। वर्ष 2008 में मैं देहरादून आ गया, सो इसके बाद उनसे मिलना नहीं हो पाया। बड़ी इच्छा थी कि किसी दिन कोटद्वार में उनसे मुलाकात करूंगा। लेकिन, दुर्भाग्य से 20 मई 2021 को रा-रा दा हमसे रूठ गए और मेरी यह इच्छा धरी-की-धरी रह गई। काश! उनसे मुलाकात हो पाई होती...

परिस्थितियों ने बनाया कलाकार, संस्कृति ने संवारा

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मूलरूप से पौडी़ गढ़वाल जिले के द्वारीखाल ब्लाक की लंगूर पट्टी स्थित ग्राम कुडी़धार निवासी रामरतन काला यानी रा-रा दा का जन्म कोटद्वार क्षेत्र के पदमपुर गांव में 14 जनवरी 1950 को शाकंभरी देवी व महानंद काला के घर हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा कोटद्वार में ही हुई। उन्होंने इंटर तक पढा़ई की। पिता सेना में थे, इसलिए वो भी सेना में जाना चाहते थे, लेकिन परिस्थितियों ने कलाकार बना दिया। रा-रा दा स्वयं कहते थे, 'विद्यालय से ही मुझमें कलाकार के लक्षण पैदा होने लगे थे। मेरे अध्यापक भी मानने लगे थे कि यह लड़का कलाकार है। छात्र जीवन में ही मैं एक स्थापित कलाकार हो गया था। हालांकि, मैंने हास्य-व्यंग्य वाले गीत भी गाए हैं, लेकिन मूलरूप से मैं रंगकर्मी हूं। नाट्य विधा का आदमी हूं।Ó

अक्सर जब उनसे बातचीत होती थी तो वो कहते, आजीविका के लिए वह कहीं नहीं गए। उन्हेंं इस बात का डर रहता था कि घर से बाहर जाने पर कहीं पश्चिमी सभ्यता का रंग चढ़ गया तो उनके भीतर का कलाकार मर जाएगा। इसलिए उन्होंने संघर्ष किया और लोक के होकर ही रह गए। कोटद्वार में रहते हुए भी उनकी नजरें पहाडो़ं की ओर रहती थी। उन्होंने जो कुछ सीखा, जो कुछ किया, वह सब पहाड़ों से और पहाड़ों में। उन्होंने मां, बेटी, बहन व बुजुर्गों से सीखा और उन्हेंं ही लौटाने की कोशिश करते हैं।

रा-रा दा मूलत: किसान थे। इसलिए खेती के वक्त वो सिर्फ खेती पर ही ध्यान देते थे। इस बीच एक-दो जगह उन्होंने दुकान भी खोली। संयोग से दुकान चल पड़ी, लेकिन इधर-उधर जाने के लिए शटर डाउन करना पड़ता। नौकरी की तो वह सूट नहीं हुई। रा-रादा के ही शब्दों में, 'ओ! काला, ओ! फलाणे, ओ! ढिमकेÓ यह मुझे रास नहीं आया। आखिर 'ओ! कालाÓ क्या होता है। ऊपर वाले की कृपा है कि सांस्कृतिक गतिविधियों से पैसा मिलने लगा और धीरे-धीरे ही सही, लेकिन परिवार की गाड़ी चलने लगी।Ó

मुंबई ने दिया मौका, बढ़ते चले गए कदम

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वर्ष 1985 की बात है। पढा़ई पूरी करने के बाद रा-रा दा को लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी एवं उनके दल के साथ मुंबई जाने का मौका मिला। दल में कुल 27 सदस्य थे। वहां प्रवासियों के बीच गढ़वाल से जाने वाली संस्कृति कॢमयों की यह पहला दल था। दल की प्रस्तुतियों को लोगों ने हाथोंहाथ लिया, खासकर रा-रा दा की। इससे पूर्व इस दल के साथ रा-रा दा इलाहाबाद कुंभ में भी प्रस्तुति दे चुके थे। मुंबई के बाद तो यह सिलासिला सा चल पडा़। विभागीय कार्यक्रम भी मिलने लगे। वर्ष 1991 में उन्होंने कौथगेर कला मंच के नाम से 18-20 कलाकारों को साथ लेकर अपना ग्रुप भी बना लिया, जिसे लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी व लोकगायक अनिल बिष्ट लगातार बुलाते रहे।

रा-रा दा रंगमंच तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने आंचलिक फिल्मों भी अपनी कला की छाप छोडी़। उनकी पहली फिल्म 'कौथीगÓ थी। इसमें उन्होंने चाचा की यादगार भूमिका निभाई। इससे पहले वो संस्कृत धारावाहिक 'शकुंतलाÓ में भी अभिनय कर चुके थे। एलबम के दौर में भी रा-रा दा सबसे पसंदीदा कलाकार बने रहे। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के तकरीबन 15 एलबम के गीतों में उन्होंने अभिनय का लोहा मनवाया। इनमें 'नया जमना का छोरों कन उठि बौल़, तिबरि-डंड्यल्यूं मा रौक एंड रोलÓ, 'तेरो मछोई गाड बौगिगे, ले खाले अब खा माछाÓ, 'समद्यूल़ा का द्वी दिन समल़ौण्या ह्वेगीनाÓ, 'दरौल्य़ा छौं न भंगल्या भंगल्वड़ा धोल्यूं छौं, कैमा न बुल्यां भैजी जननी को मर्यूं छौंÓ, 'कन लडि़क बिगडि़ म्यारु ब्वारी कैरि कीÓ,'तितरी फंसे, चखुली फंसे तू क्वो फंसे कागाÓ, 'सुदी नि बोनूÓ, 'सरू तू मेरीÓ, 'तेरी जग्वाल़Ó, 'स्याणीÓ, 'नौछमी नारेणाÓ, 'सुर्मा सरेलाÓ, 'बसंत ऐ ग्येÓ जैसे सुपरहिट गीत शामिल हैं।

रा-रा दा कैसे डूबकर अभिनय करते थे, इसका प्रमाण अपने दौर में सबसे चॢचत रहा नाटक 'खाडू लापताÓ है। नाटक को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे  प्रसिद्ध लेखक ललितमोहन थपलियाल ने यह नाटक उन्हीं को केंद्र में रखकर लिखा हो। आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्राम जगतÓ कार्यक्रम को भी रा-रा दा ने नई ऊंचाइयां दीं। दूरदर्शन देहरादून के 'कल्याणीÓ कार्यक्रम में वो 'मुल्की दाÓ की भूमिका में लंबे अर्से तक दर्शकों का मनोरंजन करते रहे।

रा-रा दा एक बेहतरीन गायक भी थे। उनका गाया गीत 'ब्योलि खुज्ये द्यावा, ब्योला बणै द्याÓ एक दौर में आकाशवाणी नजीबाबाद व लखनऊ से सर्वाधिक प्रसारित होने वाले गीतों में शुमार रहा। इसके अलावा उन्होंने 'कख मिलली नौकरी, कख मिलली चाकरीÓ जैसे कई गीत गाए। वर्ष 2008 में एक कार्यक्रम के दौरान मस्तिष्काघात के कारण रा-रा दा पैरालिसिस के प्रभाव में आ गए। काफी इलाज कराने पर भी वो इस बीमारी से पूरी तरह उबर नहीं  पाए, जिससे दोबारा रंगमंच की ओर लौटना संभव न हो सका। हालांकि, वो हमेशा कहते थे, 'अभी मुझे बहुत-कुछ करना हैÓ, लेकिन नियति पर कहां किसी का वश चलता है। आखिरकार उसने रा-रा दा को भी हमसे छीन लिया।

Wednesday, 21 April 2021

नमामि रामं रघुवंश नाथम



 

नमामि रामं रघुवंश नाथम

दिनेश कुकरेती

रामनवमी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के आठ दिन बाद पड़ती है। इस तिथि को श्रीराम के जन्मदिन की स्मृति में मनाया जाता है। राम श्रीविष्णु के अवतार माने गए हैं। अगस्त्य संहिता के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र व कर्क लग्न में जब सूर्य अन्यान्य पांच ग्रहों की शुभ दृष्टि के साथ मेष राशि पर विराजमान थे, तब राम ने असुरों का संहार करने के लिए धरा पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी राम पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गए। धार्मिक दृष्टि से चैत्र शुक्ल नवमी का विशेष महत्व है। इस तिथि को दिन के बारह बजे जैसे ही सौंदर्य निकेतन, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए चतुर्भुजधारी श्रीराम प्रकट हुए, माता कौशल्या विस्मित हो गईं। राम के सौंदर्य व तेज को देखकर उनके नेत्र तृप्त नहीं हो रहे थे। देवलोक भी अवध के सामने श्रीराम के जन्मोत्सव को देख फीका-सा लग रहा था। देवता, ऋषि, किन्नर, चारण सभी जन्मोत्सव में शामिल होकर आनंद उठा रहे थे। इसीलिए हम प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल नवमी को राम जन्मोत्सव मनाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामनवमी के दिन ही रामचरितमानस की रचना का शुभारंभ किया था।

जहां अनंत मर्यादाएं, वहां राम

भारतीय संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं, जिसे राम के समक्ष खड़ा किया जा सके। राम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं, धीर-वीर हैं और इस सबसे बढ़कर प्रशांत (स्थिर या आडंबर रहित) हैं। इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि भास, कालीदास, भवभूति और तुलसीदास तक न जाने कितनों ने अपनी लेखनी और प्रतिभा से राम के चरित्र को संवारा। वाल्मीकि के राम जहां लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष हैं। वहीं, भास, कालिदास और भवभूति के राम कुलरक्षक, आदर्श पुत्र, पति, पिता व प्रजापालक राजा का चरित्र सामने रखते हैं। कालिदास ने 'रघुवंशÓ महाकाव्य में इक्ष्वाकुवंश का वर्णन किया, तो भवभूति ने 'उत्तर रामचरितमÓ में अनेक मार्मिक प्रसंग जोड़ डाले। लेकिन, तुलसीदास ने रामचरित्र का कोई प्रसंग नहीं छोड़ा। यानी रामकथा को संपूर्णता वास्तव में तुलसीदास ने ही प्रदान की।

मान चेतना के आदि पुरुष

तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं। वे दुराचारियों, यज्ञ विध्वंसक राक्षसों का नाश कर लौकिक मर्यादाओं की स्थापना के लिए ही जन्म लेते हैं। वे सामान्य मनुष्य की तरह सुख-दुख का भोग करते हैं और जीवन-मरण के चक्र से होकर गुजरते हैं। लेकिन आखिर में अपनी पारलौकिक छवि की छाप छोड़ जाते हैं। इसलिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही, मान चेतना के आदि पुरुष भी हैं।

सबके अपने-अपने राम

तुलसीदास, रैदास, नाभादास, नानकदास, कबीरदास आदि के राम अलग-अलग हैं। किसी के राम दशरथ पुत्र हैं तो किसी के लिए सबसे न्यारे। तभी तो तुलसीदास कहते हैं, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिंंह तैसी।Ó जबकि, इकबाल कहते हैं कि 'है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज, अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद।Ó

आत्माओं को आनंदित करने वाले

राम कौन हैं। वे लोक जीवन में इतने प्रिय क्यों हैं। उनके बाद भी बहुत से धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, प्रजा हितैषी, न्याय प्रिय व नीति निपुण राजा हुए, फिर राम राज्य की महिमा का इतना गायन क्यों। असल में राम दो हैं। एक  वह जो अयोध्या में जन्मे, जिनके दैहिक जन्म का नाम राम है। दूसरे निराकार परमात्मा, जिन्हें राम का नाम इसलिए दिया गया, क्योंकि वह रमणीय और लुभाने वाला है। वह आत्माओं को आनंदित करने वाला है। ज्ञानवान और योगयुक्त आत्मा ही सीता है, क्योंकि वह निराकार राम का वरण करना चाहती है। लेकिन, निराकार राम से मिलने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है यानी पवित्रता का व्रत लेना होता है।

शरीर क्षेत्र, आत्मा क्षेत्रज्ञ

गीता अथवा ज्ञान की भाषा में शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। जब मनुष्यता (क्षेत्रज्ञ) के बुद्धि रूपी क्षेत्र में ज्ञान का हल चलाया जाता है, तब उन लकीरों से यानी ज्ञान की पक्की धारणा से सीता का जन्म होता है। यह जन्म माता के गर्भ से नहीं होता, क्योंकि यह तो स्वयं आत्मा का जन्म यानी जागरण अथवा पुनरुद्धार है।

पंचतत्वों ने निर्मित शरीर ही पंचवटी

यह संसार ही कांटों का वन है और पंच भौतिक तत्वों से निर्मित यह शरीर ही पंचवटी है। इसी में आत्मा रूपी सीता (वैदेही यानी देह से न्यारी) रहती है। मन में लक्ष्य को धारण करने की जो आज्ञा है, वही लक्ष्मण की खींची हुई लकीर है। इसका उल्लंघन करना आत्मा रूपी सीता के लिए मना है।

सभी व्यक्तियों का शासन है रामराज्य

राम जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादाओं से बंधे हुए हैं और उनका कहीं भी उल्लंघन नहीं करते। वे पूरी तरह अपने समाज और देश के प्रति समर्पित हैं। इसीलिए वे रघुकुल भूषण हैं, समाज के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय हैं। राम के वीतरागी स्वभाव के अनेक उदाहरण रामायण में भरे पड़े हैं। रामराज्य में यद्यपि राजतंत्रीय व्यवस्था थी, मगर वह मर्यादित राजतंत्र था, निरंकुश नहीं। आधुनिक जनतंत्र केवल बहुमत का शासन है, मगर रामराज्य तो सभी व्यक्तियों का शासन था। जिसमें एक साधारण धोबी की आवाज भी उपेक्षित नहीं रह पाती। उसके शंका व्यक्त करने पर भी राम अपनी प्राणप्रिया पत्नी को बीहड़ वनों में भेज देते हैं। राम राज्य में केवल संन्यासी को ही नहीं, राजा को भी योगी कहा जाता था, जो प्रजा के लिए अपना सब-कुछ त्यागने के लिए तत्पर रहता था। राम इसके साक्षात प्रतीक हैं। 

समझाई संगठन की अहमियत 

राम ने मानवता से ओतप्रोत एक ऐसे समाज की रचना की, जो अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहे। राम अनुसूचित जातियों व जनजातियों में अत्यंत लोकप्रिय ही नहीं बन गए, बल्कि अपने आत्मीय भाव से उन्हें संगठित कर और बुराइयों से निकाल उनमें संगठन का स्वभाव पैदा करते रहे। इतिहास में कहीं भी जिक्र नहीं आता कि अयोध्या, जनकपुर व अन्य किन्हीं भी राजवंशों से संपर्क कर रावण को मारने के लिए राम ने संदेश भेजे या संपर्क किया। रामसेतु निर्माण में उन्होंने जन-जन को एक प्रबल संदेश दिया। सेतु के निर्माण में गिलहरी भी जुटी, क्योंकि पीडि़त, दुखी, गरीब व पंक्ति के अंत में खड़े व्यक्ति को भी राम प्यार करते हैं।

Sunday, 18 April 2021

नागा संन्यासियों का रहस्‍यलोक, कैसे बनते हैं नागा


दिनेश कुकरेती

र तीन साल के अंतराल में हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन व नासिक में होने वाले कुंभ मेले का सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं दशनामी (दसनामी) संन्यासी अखाडो़ं से जुडे़ नागा संन्यासी यानी अवधूत। यह दशनामी संबोधन संन्यासियों को आदि शंकराचार्य का दिया हुआ है। इसकी भी एक लंबी कहानी है। असल में आदि शंकराचार्य ने पूरब में जगन्नाथपुरी गोवर्धन पीठ, पश्चिम में द्वारका-शारदा पीठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में शृंगेरी पीठ की स्थापना के बाद देशभर में विभिन्न पंथों में बंटे साधु समाज को दस पदनाम देकर संगठित किया। ये दस पदनाम हैं- तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी। इसके उपरांत शंकराचार्य ने इनमें से ‘वन’ ‘अरण्य’ पद गोवर्धन पीठ ‘तीर्थ’ ‘आश्रम’ पदनाम शारदा पीठ, ‘गिरि’ ‘पर्वत’ ‘सागर’ पदनाम ज्योतिर्पीठ और पुरी’ ‘भारती’ ‘सरस्वती’ पदनाम शृंगेरी पीठ से संबद्ध कर दिए। यह संपूर्ण व्यवस्था उन्होंने बिखरे हुए संत समाज को व्यवस्थित करने के लिए की। कालांतर में इन्हीं दशनामी संन्यासियों के बीच से नागा संन्यासियों का अभ्युदय हुआ। 

नागा, जो आकाश को अपना वस्त्र मानते हैं, शरीर पर भभूत (भस्म) मलते हैं, दिगंबर रूप में रहना पसंद करते हैं और युद्ध कला में उन्हें महारथ हासिल है। देखा जाए तो नागा सनातनी संस्कृति के संवाहक हैं और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा का निर्वाह करते हुए विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं। हरिद्वार समेत दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों, हिमालय की कंदराओं, प्राकृतिक गुफाओं आदि स्थानों पर ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं। कहते हैं दुनिया चाहे कितनी भी क्यों न बदल जाए, लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे। 

अब मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि नागा संन्यासी शीत को कैसे बर्दाश्त करते होंगे। असल में नागा तीन प्रकार के योग करते हैं, जो उन्हें शीत से निपटने को शक्ति प्रदान करते हैं। नागा अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। देखा जाए तो नागा भी एक सैन्य पंथ है। आप इनके समूह को सनातनी सैन्य रेजीमेंट भी कह सकते हैं। इतिहास में आततायियों के विरुद्ध ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का उल्लेख मिलता है, जिनमें हजारों नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया और अपनी जान की बाजी लगाकर भी सनातनी संस्कृति की रक्षा की। ऐसा नहीं कि नागा साधु सिर्फ पुरुष ही होते हैं। कुछ महिलायें भी नागा साधु होती हैं और गेरुवा वस्त्र धारण करती हैं। इन्हें अवधूतानी कहा जाता है। 

कठिन परीक्षाओं से गुजरकर बनते हैं नागा

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नागा संन्यासी बनना आसान नहीं है। इसके लिए कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जब भी नागा बनने का इच्छुक कोई व्यक्ति किसी भी संन्यासी अखाड़े में जाता है तो उसे पहले कई तरह की परीक्षा देनी पड़ती है। सर्वप्रथम संबंधित अखाड़े के प्रबंधक यह पड़ताल करते हैं कि वह नागा क्यों बनना चाहता है। उसकी पूरी पृष्ठभूमि और मंतव्यों को जांचने के बाद ही उसे अखाड़े में शामिल किया जाता है। श्री पंचदशनाम जूना अखाडे़ के श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि अखाड़े में शामिल होने के बाद तीन साल तक उसे अपने गुरुओं की सेवा करनी पड़ती है। सभी प्रकार के कर्मकांडों को समझने के साथ स्वयं भी उनका हिस्सा बनना होता है। जब संबंधित व्यक्ति के गुरु को अपने शिष्य पर भरोसा हो जाता है तो उसे अगली प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यह प्रक्रिया कुंभ के दौरान शुरू होती है। इस अवधि में संबंधित  व्यक्ति को संन्यासी से महापुरुष के रूप में दीक्षित किया जाता है। उसे गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। फिर भस्म, भगवा और रुद्राक्ष की माला दी जाती है। 

श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि महापुरुष बन जाने के बाद उसे अवधूत बनाए जाने की तैयारी शुरू होती है। अखाड़ों के आचार्य अवधूत बनाने के लिए सबसे पहले महापुरुष बन चुके संन्यासी का जनेऊ संस्कार करते हैं और इसके बाद उसे संन्यासी जीवन की शपथ दिलवाई जाती है। साथ ही उसके परिवार और स्वयं का पिंडदान करवाया जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वो परिवार और संसार के लिए मर चुका है। पिंडदान करने के बाद दंडी संस्कार होता है और उसे पूरी रात पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करना पड़ता है। रातभर चले इस जाप के बाद भोर होने पर अखाड़े ले जाकर उससे विजया हवन करवाया जाता है और फिर गंगा में 108 डुबकियों का स्नान होता है। गंगा में डुबकियां लगाने के बाद उसे अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है। 

श्रीमहंत मोहन भारती के आनुसार नागा पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया के दौरान इन संन्यासियों को सिर्फ एक लंगोट में रहना पड़ता है। उन्हें दिगंबर कहा जाता है। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट का भी परित्याग कर देते हैं और और श्रीदिगंबर कहलाते हैं। इसके बाद वो ताउम्र इसी श्रीदिगंबर अवस्था में रहते हैं।

'कालÓ के उपासक बने शांति के पुजारी

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इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि 14वीं सदी के आरंभ में आततायी शासकों ने सनातनी परंपरा को आघात पहुंचाना शुरू कर दिया था। तब परमहंस संन्यासियों को लगने लगा कि उनकी इस राक्षसी प्रवृत्ति पर शास्त्रीय मर्यादा के अनुकूल विवेक शक्ति से विजय पाना असंभव है। सो, एक कुंभ पर्व में दशनामी संन्यासियों और सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वानों ने तय किया कि क्यों न शस्त्र का जवाब शस्त्र से ही दिया जाए। नतीजा, दशनामी संन्यासियों के संगठन की सामरिक संरचना फील्ड फॉरमेशन आरंभ हुई। असल में स्थिति भी ऐसी ही थी। सनातनी परंपरा की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करना ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था। लिहाजा, ऐसा निश्चय हो जाने पर सर्वानुमति से निर्णय लिया गया कि आगामी कुंभ पर्व के सम्मेलन में पूर्वोक्त चारों आम्नायों (शृंगेरी, गोवर्धन, ज्योतिष व शारदा मठ) से संबंधित दसों पदों के संन्यासियों की मढिय़ों के समस्त मठ संचालकों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाए। 

इस निर्णय के अनुसार उससे अग्रिम कुंभ पर्व के सम्मेलन में देश के समस्त भागों से हजारों मठों के संचालक, विशिष्ट संत-संन्यासी व सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वान इकट्ठा हुए। उन्होंने एकमत से फैसला लिया कि अब परमात्मा के कल्याणकारी शिव स्वरूप की उपासना करते हुए सनातन धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए परमात्मा रुद्र के संहारक भैरव स्वरूप की उपासना करते हुए हाथों में शस्त्र धारण कर दुष्टों का संहार किया जाए। ऐसा निश्चिय हो जाने के बाद शस्त्रों से सज्जित होने के लिए समस्त दशनामी पदों का आह्वान किया गया। इनमें विरक्त संन्यासियों के अलावा ऐसे सहस्त्रों नवयुवक भी सम्मिलित हुए, जिनके हृदय में सनातन धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रबल भावना थी। हजारों की संख्या में नवयुवक संन्यास दीक्षा लेकर धर्म रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गए। 

परमात्मा के भैरव स्वरूप की अविच्छिन्न शक्ति प्रचंड भैरवी (मां दुर्गा) का आह्वान कर उनके प्रतीक के रूप में भालों की संरचना हुई। इन्हीं भालों के सानिध्य में दशनाम संन्यासियों को युद्धकला का प्रशिक्षण देकर शस्त्रों से सज्जित किया गया। इसके बाद प्रशिक्षित एवं शस्त्र सज्जित संन्यासियों ने वस्त्र आदि साधनों का परित्याग कर दिया। आदि शंकराचार्य से पूर्व जैसे परमहंस संन्यासी वस्त्र त्यागकर दिगंबर अवस्था में रहते थे, वैसे भी वे भी शरीर में भस्म लगाए दिगंबर अवस्था में रहने लगे। इसी दिगंबर रूप ने उन्हें नागा संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित किया। कालांतर में नागा संन्यासी संज्ञा ही उनकी पहचान हो गया।

अग्नि वस्त्र धारण करती हैं

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अब थोडा़ महिला नागा संन्यासियों के बारे में भी जान लें। जूना अखाडे़ की साध्वी श्रीमहंत साधना गिरि बताती हैं कि नागा संन्यासी यानी अवधूतानी बनने के लिए सबसे पहले महिलाओं को संन्यासी बनना पड़ता है। इसके लिए वह पंच संस्कार धर्म का पालन करती हैं। इसके तहत सभी को अपने-अपने पांच गुरु-कंठी गुरु, भगौती गुरु, भर्मा गुरु, भगवती गुरु व शाखा गुरु (सतगुरु) बनाने पड़ते हैं। इनके अधीन ये सभी संन्यास के कठोर नियमों का पालन करती हैं। इसके बाद जहां-जहां कुंभ होते हैं, वहां इससे संबंधित संस्कार में भाग लेती हैं। अवधूतानी बनने की प्रक्रिया के तहत सभी साध्वी पूरी रात धर्मध्वजा के नीचे पंचाक्षरी मंत्र 'ॐ नम: शिवाय' का जाप करती हैं। सभी को यह कड़ी चेतावनी होती है कि इस प्रक्रिया में किसी किस्म का कोई व्यवधान न होने पाए। यही वजह है कि जब प्रक्रिया चल रही होती है, तब वहां किसी का भी प्रवेश करने की अनुमति नहीं होती।संन्यास दीक्षा में कुंभ पर्व के दौरान गंगा घाट पर मुंडन व पिंडदान होता है। रात में अखाड़े की छावनी में स्थापित धर्मध्वजा के नीचे 'ॐ नम: शिवाय' का जाप किया जाता है। यहीं पर ब्रह्ममुहूर्त में अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर 'विजया होम' के बाद संन्यास दीक्षा देते है। इसके बाद उन्हें स्त्री व धर्म की मर्यादा के लिए तन ढकने को पौने दो मीटर कपड़ा (अग्नि वस्त्र) दिया जाता है। फिर सभी संन्यासी गंगा में 108 डुबकियां लगाकर अग्नि वस्त्र धारण करती हैं और आचार्य महामंडलेश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। अब उन पर और उनके जन्म पर परिवार व माता-पिता का कोई अधिकार नहीं रह जाता। उसका जन्म धर्म, लोक कल्याण और मानव मात्र की सेवा को समर्पित हो जाता है। संन्यास दीक्षा के उपरांत आत्मा और परमात्मा के मिलन का एहसास होता है।

करती हैं 'अभ्रत' या 'मूसल वस्त्र' स्नान

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कुंभ पर्व के दौरान सभी अवधूतानी संबंधित अखाड़े के शाही स्नान, शाही जुलूस और पेशवाई का अभिन्न हिस्सा होती हैं। वह अखाड़े के शाही स्नान के दौरान अपने क्रम के अनुसार एकल वस्त्र यानी अग्नि वस्त्र के साथ स्नान करती हैं। इसे अभ्रत स्नान या मूसल वस्त्र स्नान भी कहते हैं। शाही जुलूस और पेशवाई के समय भी यह सभी अवधूतानी धर्म की मर्यादा में रहती हैं और अग्नि वस्त्र के साथ शामिल होती हैं।

जमीन का बिछौना, एक वक्त का भोजन

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नागा संन्यासी को केवल जमीन पर ही सोते हैं और इस नियम का पालन हर नागा साधु को करना होता है। इसके साथ वह 24 घंटे में केवल एक ही बार भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के लिए वो एक दिन में सिर्फ सात घरों से ही भिक्षा ले सकते हैं। अगर इन सात बार में भिक्षा न मिले तो उन्हें भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी अगर वस्त्र धारण करना चाहे तो सिर्फ गेरुवा वस्त्र ही पहन सकता है और केवल भस्म का ही उसका शृंगार है।