Sunday, 6 March 2022

रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ















रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ

--------------------------------------

होली के जैसे रंग ब्रजमंडल में हैं, कमोवेश वैसे ही देवभूमि उत्तराखंड में भी। बावजूद इसके पर्वतीय अंचल में होली गीतों के प्रस्तुतिकरण और उनके गायन-वादन में पहाड़ की मूल सुंगध साफ महसूस की जा सकती है। शास्त्रीयता और गीतों की विविधता उत्तराखंड की होली को विशिष्टता प्रदान करती है। यहां होली गायक की अवधि सबसे लंबी होती है, खासकर पिथौरागढ़ में तो यह रामनवमी तक गाई जाती है। आइए! आपको भी होली के इसी बहुरंगी स्वरूप से परिचित कराएं-

दिनेश कुकरेती

होली वसंत का यौवनकाल है और ग्रीष्म के आगमन का सूचक भी। ऐसे में कौन भला इस उल्लास में डूबना नहीं चाहेगा। फिर भारतीय परंपरा में तो त्योहार चेतना के प्रतीक माने गए हैं। वे जीवन में आशा, आकांक्षा, उत्साह व उमंग का ही संचार नहीं करते, बल्कि मनोरंजन, उल्लास व आनंद देकर उसे सरस भी बनाते हैं। वसंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु अमृतप्राण हो उठती है। इसलिए होली को 'मन्वंतरांभÓ भी कहा गया है। यह 'नवान्नवेष्टिÓ यज्ञ भी है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं व जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे, जिसे कर्मकांड परंपरा में 'यवग्रहणÓ यज्ञ का नाम दिया गया। संस्कृत में अन्न की बाल को होला कहते हैं। जिस उत्सव में नई फसल की बालों को अग्नि पर भूना जाता है, वह होली है। अग्नि जलाकर उसके चारों ओर नृत्य करना आदिकालीन प्रथा है।

होली से अनेक कथाएं जुड़ी हैं। एक है प्रह्लाद एवं होलिका की कथा। सुप्रसिद्ध कवियत्री महादेवी वर्मा इसकी व्याख्या इस तरह करती हैं, 'प्रह्लाद का अर्थ परम आह्लाद या परम आनंद है। किसान के लिए नए अन्न से अधिक आनंददायी और क्या हो सकता है। अपनी फसल पाकर और मौसम की प्रतिकूलताओं से मुक्त होकर आत्मविभोर किसान नाचता है, गाता है और अग्निदेव को नवान्न की आहुति देता है।Ó दूसरी कथा ढूंडा नामक राक्षसी की है, जो बच्चों को बहुत पीड़ा पहुंचाती थी। एक बार वह पकड़ी गई और लोगों ने क्रोध में आकर उसे जिंदा जला दिया। इसी घटना की स्मृति में होली जलाई जाती है। यदि ढूंडा को ठंड नामक राक्षसी मान लें तो बच्चों के कष्ट और राक्षसी के जलने की खुशी की बात सहज समझ में आ जाती है।














बहरहाल! कारण कुछ भी हों, लेकिन होली का उत्सव आते ही संपूर्ण देवभूमि राधा-कृष्ण के प्रणय गीतों से रोमांचित हो उठती है। होली प्रज्ज्वलित करने से लेकर रंगों के खेलने तक यही उसका रूप जनमानस को आकर्षित करता है। आज भी रंगों की टोली प्रेयसी के द्वार पर आ धमकती है तो वही गीत मुखरित हो उठता है, जो कहते हैं कृष्ण ने राधा के द्वार खड़े होकर उनसे कहा था, 'रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ।Ó

अध्यात्म से उल्लास की ओर 

--------------------------------

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में शास्त्रीय संगीत पर आधारित बैठकी होली गायन की परंपरा 150 साल से चली आ रही है। यह होली विभिन्न रागों में चार अलग-अलग चरणों में गाई जाती है, जो होली के टीकेतक चलती है। पहला चरण पौष के प्रथम रविवार को आध्यात्मिक होली 'गणपति को भज लीजे मनवाÓ से शुरू होकर माघ पंचमी के एक दिन पूर्व तक चलता है। माघ पंचमी से महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व तक के दूसरे चरण में भक्तिपरक व शंृगारिक होली गीतों का गायन होता है। तीसरे चरण में महाशिवरात्रि से रंगभरी एकादशी के एक दिन पूर्व तक हंसी-मजाक व ठिठोली युक्त गीतों का गायन होता है। रंगभरी एकादशी से होली के टीके तक मिश्रित होली की स्वरलहरियां चारों दिशाओं में गूंजती रहती हैं। विदित रहे कि पहले से तीसरे चरण तक की होली सायंकाल घर के भीतर गुड़ के रसास्वादन के बीच पूरी तन्मयता से गाई जाती है। चौथे चरण में बैठी होली के साथ ही खड़ी होली गायन का भी क्रम चल पड़ता है। इसे चीर बंधन वाले स्थानों अथवा सार्वजनिक स्थानों पर वाद्य यंत्रों के साथ लयबद्ध तरीके से गाया जाता है। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि पहाड़ में बैठकी होली गीत गायन का जनक रामपुर के उस्ताद अमानत उल्ला को माना जाता है। उन्होंने ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1860 में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से इसकी शुरुआत की थी। तब से अब तक लोक के संवाहक इस परंपरा का बदस्तूर निर्वहन करते आ रहे हैं। 














इन शास्त्रीय रागों पर होता है गायन

----------------------------------------

पहाड़ में बैठकी होली का गायन शास्त्रीय रागों पर आधारित होता है। यह होलियां पीलू, भैरवी, श्याम कल्याण, काफी, परज, जंगला काफी, खमाज, जोगिया, देश विहाग, जै-जैवंती आदि शास्त्रीय रागों पर विविध वाद्य यंत्रों के बीच गाई जाती हैं।


















ब्रज के गीतों में पहाड़ की सुगंध

-----------------------------------

पर्वतीय अंचल में गाए जाने वाले होली गीत हालांकि ब्रज से आए प्रतीत होते हैं, लेकिन यहां आकर ये लोक के रंग में इस कदर रचे-बसे कि स्थानीय लोक परंपरा का अभिन्न अंग बन गए। यही विशेषता उत्तराखंड खासकर कुमाऊं की बैठ (बैठकी) होलियों की भी है। शास्त्रीय रागों पर आधारित होने के बावजूद इनके गायन में शिथिलता दिखाई देती है। जिससे शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक के सुर में अपना सुर जोड़ देता है। गढ़वाल अंचल के श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उससे लगे इलाकों में भी होली का कुमाऊं जैसा स्वरूप ही नजर आता है। यहां की होली में भी मेलू (मेहल) के पेड़ की डाली को होलिका के प्रतीक रूप में जमीन में गाड़कर प्रतिष्ठित करने और होली गाने का चलन है। एक जमाने में गढ़वाल की राजधानी रहे श्रीनगर और पुरानी टिहरी के राजदरबारों में भी होली गायन की समृद्ध परंपरा विद्यमान रही है। गढ़वाल में होली को होरी कहा जाता है और सभी होरी गीतों में ब्रजमंडल के ही गीतों का गढ़वालीकरण किया हुआ लगता है। अमूमन सभी होली गीतों में कहीं-कहीं गढ़वाली शब्द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ी बोली की रहती है। हालांकि, गढ़वाल में प्रचलित होली गीतों में ब्रज की तरह कृष्ण-राधा या कृष्ण ही मुख्य विषय नहीं होते। यहां अंबा, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण आदि कई विषयवस्तु के रूप में प्रयुक्त होते हैं और सबका समान आदर गढ़वाली होली के नृत्यगीतों में होता है।

 

खड़ी-बैठ होली के रंग

-----------------------

कुमाऊं की होली में ब्रज और उर्दू का प्रभाव साफ झलकता है। मुगलों, राजे-रजवाड़ों के मेल-मिलाप से ये परंपरा बनी। कुमाऊं की होली गायकी को लोकप्रिय बनाने में जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दाÓ का अहम योगदान रहा। यहां प्रचलित होली के तीन भेद बताए गए हैं। जैसे बैठ होली बैठकों में शास्त्रीय ढंग से गाई जाती है, तो खड़ी होली में ढोल-नगाड़ा होता है और पूरा समूह झोंक के साथ नाचता है। महिला होली इन दोनों का मिश्रित रूप है। इसमें स्वांग भी है, ठुनक-मुनक भी है और गंभीर अभिव्यक्तियां भी। लेकिन, सबसे ज्यादा जो दिखता है, वो है देवर-भाभी का मजाक। जैसे-'मेरो रंगीलो देवर घर ऐरों छो, कैं होणी साडी कैं होणी जंफर, मी होणी टीका लैंरो छो, मेरो रंगीलो देवर।Ó हालांकि समय के साथ पीढिय़ों से चली आ यह परंपरा अब कुछ सिमट सी गई है। 

श्रृंगार व दर्शन का उल्लास

-----------------------------

गढ़वाल में जब होल्यार किसी गांव में प्रवेश करते हैं तो गाते हुए नृत्य करते हैं, 'खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दरसन दीज्यो माई अंबे, झुलसी रहो जी। तीलू को तेल कपास की बाती, जगमग जोत जले दिन-राती, झुलसी रहो जी।Ó इष्ट देव व ग्राम देवता की पूजा के बाद होल्यार गोलाकार में नाचते-गाते हैं। यह अत्यंत जोशीला नृत्य गीत है, जिसमें उल्लास के साथ श्रृंगार का भी समावेश दिखाई देता है। ऐसा ही नृत्य-गीतेय शैली का एक भजन गीत है, जिसमें उल्लास के साथ मां भवानी की स्तुति की जाती है। यथा, 'हर हर पीपल पात, जय देवी आदि भवानी, कहां तेरो जनम निवास, जय देवी आदि भवानी।Ó श्रृंगार व दर्शन प्रधान यह गीत भी होली में प्रसिद्ध है, 'चंपा-चमेली के नौ-दस फूला, पार ने गुंथी हार शिव के गले में बिराजे।Ó श्रृंगार व उत्साह से भरे इस गीत में होल्यार ब्रज की होली का दृश्य साकार करते हैं। यथा-'मत मारो मोहनलाला पिचकारी, काहे को तेरो रंग बनो है, काहे की तेरी पिचकारी, मत मरो मोहन पिचकारी।Ó जब होल्यारों की टोली होली खेल चुकी होती है, तब आशीर्वाद वाला यह नृत्य-गीत गाया जाता है, 'हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष।Ó
















यह गीत भी हैं प्रसिद्ध

------------------------

-ऐ गे बसंत ऋतु, ऐगेनी होली, आमू की डाली में कोयल बोली।

-उडिगो छो अबीर-गुलाल, हिमाला डाना लाल भयो, केसर रंग की बहार, हिमाला डाना लाल भयो।

-बांज-बुरांश का कुमकुम मारो, डाना-काना रंग दे बसंती नारंगी। 

-तुम विघ्न हरो महाराज, होली के दिन में।

-मुबारक हो मंजरी फूलों भरी, ऐसी होली खेलें जनाब अली।

-चंद्रबदन खोलो द्वार, कि हर मनमोहन ठाडे।

माघ पंचमी से शुरू हो जाती है होली

---------------------------------------

होली का पर्व फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है। पहले दिन होलिका दहन होता है, जबकि दूसरा दिन धुलेंडी के नाम है। इस दिन लोग एक-दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं और ढोल की थाप पर होली के गीत गाते हुए घर-घर जाकर लोगों को रंग लगाते हैं। एक-दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है।

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग यानी संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपने चरम पर होती है। फाल्गुन में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। इसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है और शुरू हो जाता है फाग एवं धमार का गायन। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा बिखरने लगती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूं की बालियां इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी सारे संकोच और रूढिय़ां भूलकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन पर नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी और चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा महात्म्य माना गया है।

अनूठा था होली का मुगलिया अंदाज

----------------------------------------

इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था, लेकिन अधिकांशत: यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। जैमिनी के 'पूर्वमीमांसा सूत्रÓ और कथा गार्ह सूत्र, 'नारद पुराणÓ और 'कथा गाह्र्य सूत्रÓ 'नारद पुराणÓ, 'भविष्य पुराणÓ आदि प्राचीन ग्रंथों में भी होली का उल्लेख मिलता है। संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। प्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। 

सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की। इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। इस काल में बादशाह अकबर का जोधाबाई और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल चुका था। उस दौर में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।

विजयनगर की राजधानी रही हंपी के 16वीं सदी के एक चित्रफलक पर भी होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमार- राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दंपती को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। 16वीं सदी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपती को बगीचे में झूला झूलते दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएं नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। 17वीं सदी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है।

मिठास, मिजाज और अल्हड़पन

-------------------------------------

देश के विभिन्न हिस्सों में होली का गायन अमूमन मार्च-अप्रैल तक होता है। इस समय काफी राग को गाने का प्रचलन है। बनारस घराने की विशिष्टता पूर्वी अंग है, जहां दादरा गाया जाता है। इसमें ज्यादा मिठास, मिजाज और अल्हड़पन का समावेश दिखता है। पीलू व काशी धुनें भी यहां गाई जाती हैं। अवधी होली में उलारा धुनों की खास अहमियत है। इसी पर आधारित होली गीत 'होरी खेले रघुवीरा अवध मेंÓ काफी प्रचलित है। 'रंग डारूंगी नंद के लालन पेÓ, 'कैसी धूम मचाईÓ, 'आंखें भरत गुलाल रसिया ना मारे रेÓ जैसे गीत भी पूर्वी अंग में प्रचलित होली गीतों में से हैं। जबकि, ब्रज में होली गीत कृष्ण पर ही केंद्रित होते हैं। वहां के गीतों में खुलापन है और लीला वर्णन ज्यादा है। रसिया होली धुनों पर ही गीत गाए जाते हैं। 'आज बिरज में होरी रे रसियाÓ जैसे होली गीत ब्रज में प्रसिद्ध हैं। राजस्थान में परंपरा एवं उत्साह को तवज्जो दी जाती है। यहां के होली गीत ब्रज से मिलते-जुलते हैं। इसी समय से गांवों में फाग और चैती गायन शुरू हो जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में जोगीरा का गायन होता है। यहां शब्दों में खुलापन मिलता है। 

साहित्य में होली

------------------

-श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है।

-हर्ष की 'प्रियदर्शिकाÓ, कालीदास के 'कुमारसंभवÓ और 'मालविकाग्निमित्रमÓ में रंग नामक उत्सव का वर्णन है।

-चंदवरदाई की 'पृथ्वीराज रासोÓ में होली का वर्णन है।

-संस्कृत के भारवि और माघ जैसे प्रसिद्ध कवियों ने वसंत की खूब चर्चा की है।

-महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर 78 पद लिखे हैं।

-सूफी संत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफर जैसे कवियों ने भी होली पर खूब लिखा है।

संगीत में होली

-----------------

-शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है। धु्रपद, छोटा व बड़ा खयाल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है।

-कथक नृत्य के साथ धमार, धु्रपद और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली कई सुंदर बंदिशें होली के गीतों पर हैं। इनमें चलो गुइंयां आज खेलें होरी कन्हैया घर और खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होली सखी जैसी बंदिशें काफी लोकप्रिय हैं।

-बसंत, बहार, हिंडोल जैसे कई राग हैं, जिनमें होली के गीत प्रमुखता से गाए जाते हैं।

-उपशास्त्रीय संगीत के अंतर्गत चैती, दादरा, ठुमरी आदि में भी होली गीत खूब गाए जाते हैं।






















Saturday, 12 February 2022

जैसा वसंत, वैसा वेलेंटाइन

शीत के आगोश से मुक्त होने के साथ धरती के पोर-पोर में उल्लास छलकने लगा है। भ्रमरों का मधुर गुंजन हृदय के तारों को झंकृत कर रहा है। वसंत जो आ रहा है और साथ में ला रहा है वेलेंटाइन का मखमली अहसास। ऐसे में कौन होगा, जो शृंगार रस में भीगना न चाहेगा। आइए! वसंत और वेलेंटाइन के इसी लौकिक एवं आत्मीय स्वरूप से हम भी परिचित हो लें।

जैसा वसंत, वैसा वेलेंटाइन

-----------------------------

दिनेश कुकरेती

चमुच! धरा पर वसंत सरीखी कोई ऋतु नहीं। यह न सिर्फ विद्या एवं बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अनुकंपा प्राप्त करने की, बल्कि मन के मौसम को परख लेने, रिश्तों को नवसंस्कार-नवप्राण देने, गीत की, संगीत की, हल्की-हल्की शीत की और नर्म-गर्म प्रीत की ऋतु भी है। वसंत ऋतु का संदेश भी यही है कि 'देवी-देवताओं की तरह सज-धजकर, शृंगारित होकर रहो। प्रबल आकर्षण में भी पवित्रता का प्रकाश संजोकर रखो और उत्साह, आनंद एवं उत्फुल्लता का बाहर-भीतर संचार करो।Ó इसीलिए गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं,  समस्त महीनों में मैं मार्गशीष (अगहन) और समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसंत ऋतु हूं। ऐसा माना गया है कि माघ शुक्ल पंचमी से वसंत ऋतु का आरंभ होता है। फाल्गुन और चैत्र वसंत के महीने माने गए हैं। फाल्गुन विक्रमी वर्ष का अंतिम महीना है और चैत्र पहला। इस तरह सनातनी पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ वसंत में ही होता है। 


वेलेंटाइन-डे मनाएं, पर वसंत की धड़कन भी सुनें

------------------------------------------------------

यह भी संयोग ही है कि पश्चिम से उपजा 'वेलेंटाइन-डेÓभी वसंत के सुखद आगमन की पंचमी के आसपास ही पड़ता है। लेकिन, संस्कृति का अंतर देखिए, एक ओर प्रेम की अभिव्यक्ति का सिर्फ एक दिन है, जबकि दूसरी ओर पूरा मौसम ही शृंगार रस में भीगने और एक-दूसरे को जानने-समझने का है। हालांकि, हम जिस दौर में हैं, वह सहजता से, शांति से और सौम्यता से प्रेम की अभिव्यक्ति का दौर नहीं है। लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि डिस्कोथेक पर धूम-धड़ाका करते हुए हम न तो वसंत की धड़कन सुन सकते हैं और न उसकी सादगी का अहसास ही कर सकते हैं। हम वेलेंटाइन-डे जरूर मनाएं, लेकिन यह भी न भूलें कि हमारा वसंत मदोन्मत्त नहीं, मदनोत्सुक है। वसंत सिर्फ कामना की ही ऋतु नहीं, बुद्धि, ज्ञान एवं विवेक की भी ऋतु है और यह चीजें बाजार में नहीं मिला करती। हमें प्रेम की और पूजा की पवित्रता को तो कायम रखना ही होगा, क्योंकि वसंत बिगड़ैल प्यार का पोषक नहीं है। लेकिन, यह अहसास हमें तभी हो पाएगा, जब प्रेम के असली मायने समझने लगेंगे।

जीवन में उल्लास का वसंत लाने वाले संत वेलेंटाइन

----------------------------------------------------------

जरा सोचिए जिस विवाह नामक संस्था की रक्षा के लिए संत वेलेंटाइन ने अपने प्राण गंवाए, आज की खिलंदड़ पीढ़ी क्या उसमें विश्वास रखती है। रोम में तीसरी सदी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था, जिसकी मान्यता थी कि विवाह करने से पुरुषों की शक्ति एवं बुद्धि कम होती है। लिहाजा, उसने फरमान निकाला कि उसका कोई भी सैनिक या अफसर विवाह नहीं करेगा। संत वेलेंटाइन ने इस अमानवीय आदेश का विरोध किया और उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों एवं अधिकारियों ने ब्याह रचाए। नतीजा, क्लॉडियस ने 14 फरवरी वर्ष 269 को वेलेंटाइन को फांसी पर चढ़वा दिया। तब से उनकी स्मृति में 'प्रेम दिवसÓ मनाया जाता है। देखा जाए तो संत वेलेंटाइन का यह बलिदान जीवन में उल्लास का वसंत लाने के लिए ही तो था। 


अंतर्मन में महसूस करें वसंत की कच्ची-करारी सुगंध

-----------------------------------------------------------

एक सुहानी-सजीली ऋतु हमारे जीवन में दस्तक देती है और हमें उसकी कच्ची-करारी सुगंध को अपने भीतर उतारने की भी फुर्सत नहीं। क्या  प्रकृति की रूमानी छटा देखकर हमारे मन की कोमल मिट्टी अब सौंधी होकर नहीं महकती। क्या अनुभूतियों की बयार नटखट पछुआ की तरह अब हृदय में नहीं बहती। देखा जाए तो मन के इसी मुरझाए-कलुषाए मौसम को खिला-खिला रूप देने के लिए ही तो  खिलखिलाता-खनकता वसंत आता है। सो, क्यों ने झरते केसरिया टेसू को अंजुरियों में भरकर इस वसंत का स्वागत करें। फिर देखिए खुलकर सरसरा उठेगी उमंगों की पछुआ पवन और फिर मुस्करा उठेगा वसंत।

दुनिया के हर कोने में ऐसे ही आता होगा वसंत

----------------------------------------------------

लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक प्रसिद्ध गीत है, 'मेरी डांडी-कांठियूं का मुलुक जैल्यु, बसंत ऋतु मा जैई, हैरा बणु मा बुरांशी का फूल, जब बणांग लगाणा होला, भीटा-पाखों थैं फ्यूंली का फूल, पिंगल़ा रंग मा रंगाणा होला, लय्या-पय्यां ग्वीराल फुलू ना, होली धरती सजीं देखि ऐई..., बसंत ऋतु मा जैई।Ó इसका भावार्थ है, 'मेरे पहाड़ों में जब भी जाना चाहो, बसंत ऋतु में ही जाना। जब हरे-भरे जंगलों में सुर्ख बुरांश के फूल जंगल की आग की तरह नजर आ रहे हों, घाटियों को फ्योंली के फूल बासंती रंग में रंग रहे हों और धरती सरसों, पय्यां और कचनार के फूलों से रंगी अपनी सुंदरता का बखान कर रही हो।Ó देखा जाए तो वसंत की ये छटा एक पहाड़ और एक भूगोल की नहीं है। संभवत: दुनिया के हर कोने में अपनी-अपनी भाषा-बोली और अपने-अपने फूलों व पेड़ों में वसंत ऐसे ही आता होगा। इसलिए मितरों, वसंत को क्यों न उसके इस कोमल और मीठे दर्द से भरे आह्वान के साथ ही रहने दिया जाए। यही तो उसके रंग हैं।

जो वसंत का सार, वही वेलेंटाइन का ध्येय भी

--------------------------------------------------

वसंतोत्सव कहें या वेलेंटाइन, दोनों का संदेश यही है कि धरती सूर्य से मिलने और उससे एकाकार होने को आतुर है। इसलिए प्रकृति के कण-कण से संगीत फूट रहा है। ऋतु स्वयं छंद हो गई है और उसका प्रभाव इतना मादक है कि सारी प्रकृति खिल गई है। कविवर पद्माकर कहते हैं, 'कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में, क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है। कहे पद्माकर परागन में पौनहू में, पानन में पीक में पलासन पगंत है। द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में, देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है। बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में, बनन में बागन में बगरयो बसंत है।Ó वसंत का आगमन जहां सिर्फ ऋतु का परिवर्तन नहीं है, वहीं वेलेंटाइन भी एक विशेष दिवस के रूप में सचमुच विशेष है। इसलिए स्वागत करें इस प्यारी ऋतु का। पूरी ऊष्मा और पूरी ऊर्जा से प्रकृति के साथ यह पर्व मनाएं। प्रेम की निर्मल-पावन अनुभूतियों को जीवन का आधार बनाएं। हंसे, मुस्कराएं, खिलखिलाएं, जीवन को जीवंत बनाएं। यही वसंत का सार है और प्रकारांतर से वेलेंटाइन का ध्येय भी यही है।

Monday, 31 January 2022

फिजाओं में वासंती बयार

फिजाओं में वासंती बयार
*******************

दिनेश कुकरेती
वातावरण में गर्माहट घुलने के साथ दून घाटी में भी मौसम सुहावना हो गया है। पेड़ों एवं लताओं के पोर-पोर पर हरियाली फूटने लगी है और बौरों से लद गई हैं आम की डालियां। खेतों में फूली सरसों और कंदराओं में महकती फ्योंली सम्मोहन सा बिखेर रही है। कोयल की कूक मन को उद्वेलित कर वातावरण में मादकता घोल रही है। चारों दिशाओं में नया रंग, नई उमंग, उल्लास एवं उत्साह का माहौल है। बागों में बहती मंद-मंद सुगंधित बयार प्रकृति से अठखेलियां करती प्रतीत होती है। कहने का मतलब ऋतुचक्र के परिवर्तन का इससे रंगीन पड़ाव अन्य कोई हो ही नहीं सकता। शायद इसीलिए भारतीय चिंतन परंपरा में वसंत को ऋतुओं का राजा माना गया है और जैसे राजा के आगमन पर उत्सव मनाया जाता है, ठीक वैसे ही ऋतुराज के स्वागत की रीत भी है।
वसंत उत्तर भारत के अलावा समीपवर्ती देशों की छह ऋतुओं में से एक ऋतु है, जो फरवरी से शुरू होकर अप्रैल मध्य तक इस क्षेत्र में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ शुक्ल पंचमी से वसंत ऋतु का आगमन होता है। फाल्गुन और चैत्र वसंत ऋतु के महीने माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम महीना है और चैत्र पहला। इसीलिए भारतीय नववर्ष का शुभारंभ वसंत से ही होता है। वैसे देखा जाए तो भारतीय ऋतु चक्र में चैत्र व वैशाख वसंत के मास हैं, किंतु सृष्टि में वसंत अपनी निर्धारित तिथि से 40 दिन पूर्व माघ में आता है। आए भी क्यों न, ऋतुराज जो ठैरा।
'मत्स्य सूक्तÓ में उल्लेख है कि अन्य पांच ऋतुओं हेमंत, शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ने अपने राजा के सम्मान में उसके अभिषेक एवं अभिनंदन के लिए स्वयं के कालखंड से आठ-आठ दिन समर्पित कर दिए। इसीलिए धरती पर वसंत ऋतु का पदार्पण चैत्र कृष्ण प्रथमा के स्थान पर 40 दिन पूर्व माघ शुक्ल पंचमी को हो जाता है। वसंत को प्रकृति का उत्सव भी कहा गया है। तभी तो 'ऋतुसंहारÓ में महाकवि कालिदास ने इसे 'सर्वप्रिये चारुतर वसंतेÓ कहकर अलंकृत किया है। जबकि, गीता में भगवान श्रीकृष्ण 'ऋतूनां कुसुमाकर:Ó अर्थात् 'मैं ऋतुओं में वसंत हूंÓ कहकर वसंत को अपना स्वरूप बताते हैं। पौराणिक कथाओं में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है।
कवि देव वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं, 'रूप एवं सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है। पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, फूल वस्त्र पहनाते हैं, पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।Ó 'कालिका पुराणÓ में वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए इसे सुदर्शन, अति आकर्षक, संतुलित शरीर वाला, तीखे नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम्र मंजरियों को हाथ में पकड़े रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला जैसे तमाम गुणों से भरपूर बताया गया है।

शीत व उष्णता का संधिकाल वसंत ऋतु
******************************

ऋतुराज वसंत शीत व उष्णता का संधिकाल है। इसमें शीत ऋतु का संचित कफ सूर्य की संतप्त किरणों से पिघलने लगता है। इससे जठराग्नि मंद हो जाती है और सर्दी-खांसी, उल्टी-दस्त जैसे अनेक रोग उत्पन्न होने लगते हैं। लिहाजा, इस समय आहार-विहार की विशेष सावधानी रखना जरूरी है। आहार: 'अष्टांगहृदयÓ में उल्लेख है कि इस ऋतु में देर से पचने वाले शीतल पदार्थ, दिन में सोना, स्निग्ध यानी घी-तेल में बने और अम्ल व मधुर रस प्रधान पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। ये सभी कफवर्धक हैं। इसके अलावा मिठाई, सूखे मेवे, खट्ठे-मीठे फल, दही, आइसक्रीम और गरिष्ठ भोजन का सेवन भी इस ऋतुत में वर्जित है।
इन दिनों में शीघ्र पचने वाले, अल्प तेल व घी में बने, तीखे कड़वे, कसैले, उष्ण पदार्थों जैसे लाई, मुरमुरे, जौ, भुने हुए चने, पुराना गेहूं, चना, मूंग, अदरक, सौंठ, अजवायन, हल्दी, पीपलामूल, काली मिर्च, हींग, सूरन, सहजन की फली, करेला, मेथी, ताजी मूली, तिल का तेल, शहद, गोमूत्र का सेवन लाभदायी माना गया है। इनसे कफ नहीं बढ़ता। विहार: 'योग सूत्रÓ में कहा गया है कि ऋतु परिवर्तन से शरीर में उत्पन्न भारीपन और आलस्य को दूर करने के लिए सूर्योदय से पूर्व उठना, व्यायाम, दौड़, तेज चलना, आसन और प्राणायाम (विशेषकर सूर्यभेदी) लाभदायी हैं। तिल के तेल से मालिश कर सप्तधान्य उबटन से स्नान करने को स्वास्थ्य की कुंजी माना गया है।

ऊर्जा, आशा एवं विश्वास की ऋतु
************************

मौसम का बदलाव हमें जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह का संदेश देता है। जब भी प्रकृति अपना स्वरूप बदलती है तो यह संकेत भी करती है कि समय के साथ-साथ बदलाव जरूरी है। पतझड़ के बाद वसंत ऋतु का आगमन भी इसी का प्रतीक है। इस ऋतु में जीवन प्रबंधन के कई सूत्र छिपे हैं। बस! जरूरत है उन्हें समझने की। पतझड़ में पेड़ों से पुराने पत्तों का गिरना और इसके बाद नए पत्तों का आना जीवन में सकारात्मक भाव, ऊर्जा, आशा एवं विश्वास जगाता है। वसंत ऋतु फूलों के खिलने का मौसम है, जो हमें हमेशा मुस्कराने का संदेश देता है।
वसंत को शृंगार की ऋतु भी माना गया है, जो व्यक्ति को व्यवस्थित और सजे-धजे रहने की सीख देती है। वसंत का रंग वासंती (केसरिया) होता है, जो त्याग और विजय का रंग है। यह बताता है कि हम अपने विकारों का त्याग कर कमजोरियों पर विजय प्राप्त करें। वसंत में सूर्य उत्तरायण होता है, जो संदेश है कि सूर्य की भांति हम भी प्रखर और गंभीर बनें। वसंत को ऋतुओं का राजा भी कहा गया है, क्योंकि इस ऋतु में उर्वरा शक्ति यानी उत्पादन क्षमता अन्य ऋतुओं की अपेक्षा बढ़ जाती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को ऋतुओं में वसंत कहा। जैसे वे समस्त देवताओं और परमशक्तियों में सबसे ऊपर हैं, वैसे ही वसंत ऋतु भी सभी मौसमों में सबसे श्रेष्ठ है।

मन प्रफुल्लित कर देता है राग वसंत
***************************

भारतीय संगीत, साहित्य और कला में भी वसंत ऋतु को महत्वपूर्ण स्थान मिलाहै। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है, जिसे राग वसंत (बसंत) कहते हैं। यह शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी पद्धति का राग है। इसके गायन का समय वैसे तो रात्रि काअंतिम प्रहर है, किंतु इसे दिन या रात में किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है। इसके आरोह में पांच और अवरोह में सात स्वर होते हैं। इसलिए यह औडव-संपूर्ण जाति का राग है। रागमाला में इसे राग हिंडोल का पुत्र माना गया है। यह पूर्वी थाट का राग है। शास्त्रों में इससे मिलते जुलते एक अन्य राग वसंत हिंडोल का उल्लेख भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि राग वसंत के गाने व सुनने से मन प्रफुल्लित हो जाता है।

यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार करता है वसंत
************************************ 

वसंत ऋतु हर साल आती है और पीछे छोड़ जाती है यह संदेश कि जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए। निराशा, नीरसता व निष्क्रियता को त्यागकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ताकि जीवन में यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार हो। शायद तभी प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल कहते हैं कि 'अब छाया में गुंजन होगा वन में फूल खिलेंगे, दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे, जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे, अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगेÓ।

वसंत के यौवन का प्रतिबिंब है बुरांश
***************************
























उत्तराखंड के हरे-भरे जंगलों में बुरांश के सुर्ख फूलों का खिलना पहाड़ में वसंत ऋतु के यौवन का सूचक है। वसंत आते ही पहाड़ के जंगल बुरांश के फूलों से लकदक हो जाते हैं। बुरांश को वसंत में खिलने वाला पहला फूल माना गया है। इसके खिलते ही जंगलों में बहार आ जाती है। ऐसा आभास होने लगता है, मानो प्रकृति ने लाल चादर ओढ़ ली हो। उत्तराखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बुरांश की महत्ता महज एक पेड़ और फूल की नहीं, बल्कि वह तो यहां के लोक जीवन में रचा-बसा है।
हिमालय के अनुपम नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन, पे्रयसी की उपमा, प्रेमाभिव्यक्ति, मिलन अथवा विरह, सभी प्रकार के लोकगीतों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बुरांश ही है। कहीं यह फूल पुत्र के रूप में दर्शाया गया है तो कहीं पर इसकी तुलना ससुराल गई बेटी से की गई है। यह फूल लोकगीतों में प्रेमी और प्रेमिका का संदेशवाहक भी बना है। इसमें किसी ने अपनी लाडली का प्रतिबिंब देखा तो किसी ने इसे अपनी प्रियतमा के रूप में स्वीकार किया।
बुरांश का खिलना प्रसन्नता का द्योतक है तो प्रेम एवं उल्लास की अभिव्यक्ति भी। क्योंकि, बुरांश ने लाल होकर भी क्रांति के गीत नहीं गाए, बल्कि हिमालय की तरह प्रशंसाओं से दूर एक आदर्शवादी बना रहा। बुरांश ने लोक रचनाकारों को कलात्मक उन्मुक्तता, प्रयोगशीलता और सौंदर्यबोध दिया। होली से लेकर प्रेम, सौंदर्य और विरह सभी प्रकार के लोकगीतों के भावों को व्यक्त करने का जरिया बुरांश बना।
प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रा नंदन पंत ने अपनी कुमाऊंनी कविता में बुरांश के सौंदर्य को कुछ इस तरह प्रतिबिंबित किया, 'सार जंगल में त्वीज क्वै न्हा रे, क्वै न्हा। फुलन छै कैबुरूंश जंगल जस जलि जां। सल्ल छ, द्यार छ, पईं छ, अंयार छ। सबनाक फागन में पुग्नक भार छ। पै त्वि में ज्वानिक फाग छ। रंगन में तेर ल्वे छ, प्यारक खुमार छ।Ó अर्थात सारे वन क्षेत्र में तेरा जैसा कोई नहीं है, कोई नहीं। जब तू फूलता है, संपूर्ण वन क्षेत्र के जलने का सा भ्रम होता है। जंगल में साल है, देवदार है, पईंया है और अंयार समेत विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं। सबकी शाखाओं में कलियों का भार है, पर तुझमें जवानी का फाग है। तेरे रंगों में लहू है, प्यार का खुमार है।

Friday, 7 January 2022

ओंकारेश्वर में विराजते हैं पांचों केदार

ओंकारेश्वर में विराजते हैं पांचों केदार
----------------------
-------------------

दिनेश कुकरेती
प जानते हैं कि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर अति प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर है। जिला मुख्यालय रुद्रप्रयाग से 41 किमी दूर समुद्रतल से 1311 मीटर की ऊंचाई पर ऊखीमठ में स्थित यह मंदिर न केवल प्रथम केदार भगवान केदारनाथ, बल्कि द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर का शीतकालीन गद्दीस्थल भी है। पंचकेदारों की दिव्य मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित होने के कारण इसे पंचगद्दी स्थल भी कहा गया है। मान्यता है कि इस मंदिर में ओंकारेश्वर महादेव के दर्शनों से पंचकेदार यात्रा का पुण्य प्राप्त हो जाता है। कथा है कि वानप्रस्थ की अवस्था प्राप्त होने पर राजा मान्धाता ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें प्रणव स्वरूप अर्थात ओंकार रूप में दर्शन दिए। इसीलिए यहां अधीष्ठित भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को ओंकारेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा। 
ओंकारेश्वर अकेला मंदिर न होकर मंदिरों का समूह है। इस समूह में वाराही देवी मंदिर, पंचकेदार लिंग दर्शन मंदिर, पंचकेदार गद्दीस्थल, भैरवनाथ मंदिर, चंडिका मंदिर, हिमवंत केदार वैराग्य पीठ, विवाह वेदिका व अन्य मंदिरों समेत समेत संपूर्ण कोठा भवन शामिल हैं। उत्तराखंड के मंदिरों में क्षेत्रफल और विशालता के लिहाज से यह सर्वाधिक विशाल मंदिर समूह है। पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार प्राचीनकाल में ओंकारेश्वर मंदिर के अलावा सिर्फ काशी विश्वनाथ (वाराणसी) और सोमनाथ मंदिर में ही धारत्तुर परकोटा शैली उपस्थित थी। हालांकि, बाद में आक्रमणकारियों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। उत्तराखंड में भी अधिकांश प्रसिद्ध मंदिर या तो कत्यूरी शैली में निर्मित हैं या फिर नागर शैली में।

इसलिए है विशेष महत्व
-
---------
शीतकाल में केदारनाथ के कपाट बंद होने पर बाबा की भोग मूर्ति को डोली, छत्र, त्रिशूल आदि प्रतीकों के साथ ऊखीमठ लाकर ओंकारेश्वर मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित किया जाता है। इसी तरह द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर की चल विग्रह उत्सव मूर्ति भी शीतकाल में यहीं विराजती है। इसके अलावा ओंकारेश्वर मंदिर पंचकेदारों का गद्दी स्थल भी है।
ऐसे पड़ा ऊखीमठ नाम
---------
-
पौराणिक कथा के अनुसार इस स्थान पर बाणासुर की पुत्री उषा एवं भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का विवाह संपन्न हुआ था। इसलिए इस तीर्थ को देवी उषा के नाम पर उषामठ कहा जाने लगा। कालांतर में उषामठ का अपभ्रंश होकर पहले इसका उखामठ और फिर ऊखीमठ नाम पड़ा। देवी उषा के आगमन से पूर्व इस स्थान का नाम 'आसमाÓ था। राजा मान्धाता की तपस्थली होने के कारण इसे मान्धाता भी कहा जाता है। इसलिए केदारनाथ की बहियों का प्रारंभ 'जय मान्धाताÓ से ही होता है। 

बदरीनाथ के बाद सबसे खूबसूरत सिंहद्वार
--------------------------------
ओंकारेश्वर मंदिर चारों ओर से प्राचीन भव्य भवनों से घिरा हुआ है, जिनकी छत पठाल निर्मित है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए बाहरी भवन पर एक विशाल सिंहद्वार बना हुआ है, जो मंदिर में प्रवेश का एकमात्र मार्ग है। बेहतरीन नक्काशी वाला यह द्वार खूबसूरती में बदरीनाथ धाम के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद उत्तराखंड में दूसरा स्थान रखता है।

सबसे प्राचीन एवं मजबूत मंदिर
----------ब्रिटेन के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् सर ऑर्थर जॉन इवान्स ने जुलाई 1892 को इस मंदिर का सर्वेक्षण किया था। इस दौरान जो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए, उनका उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'लैंड्स ऑफ गॉड्स एंड ऑर्किटेक्चर स्टाइल ऑफ हिंदू टैंपलÓ के अध्याय-523 में विस्तार से वर्णन किया है। शोध के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह मंदिर विश्व के सबसे प्राचीन एवं मजबूत मंदिरों में से एक है।

आक्रांताओं ने पहुंचाया नुकसान
------------------------
इतिहासकारों के अनुसार 1027 ईस्वी में मुस्लिम शासक महमूद ने ओंकारेश्वर मंदिर के सभामंडप की छत को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन, वह सभामंडप की दीवारों और गर्भगृह को ध्वस्त नहीं कर सका। इसके बाद क्षेत्रीय लोगों ने सभामंडप की छत पठालों से निर्मित की। वर्तमान में यह छत सीमेंट-कंक्रीट की बनी हुई है।

विलुप्त हुई धारत्तुर परकोटा शैली
-------------------------
धारत्तुर परकोटा शैली आज से 4702 वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में रही है। इसके बाद यह धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। ओंकारेश्वर मंदिर का निर्माण इस शैली में होने के कारण इसके गर्भगृह के बाहर से 16 और भीतर से आठ कोने हैं। जिन्हें विभिन्न अट्टालिकाओं से आवेष्टित स्तंभ एक दूसरे से पृथक करते हैं। मंदिर पर जो भव्य प्रभाएं निर्मित हैं, उन्हें इस शैली के अनुसार अंगूर के पत्रों के सदृश मंदिर की मध्यांतक प्रभा पर उकेरा गया है। इस प्रभा के नीचे गवाक्ष रंध्रों से ऊपर की ओर जाती स्मलिक पट्टिकाएं उभरी हुई हैं, जिनके मध्य में अति भव्य मृणाल पिंड विराजमान है। मंदिर की सभी स्मलिक पट्टिकाओं पर शांडिल्य श्रुतक उकेरे गए हैं, जिनसे होकर पट्टियां गर्भगृह के शिखर तक जाती हैं और एक विशाल चबूतरे के साथ मिलकर खत्म हो जाती हैं। गर्भ के मध्यांतक दीर्घप्रभा के नीचे की ओर प्रत्येक खंड पर कृतांतक पटल के साथ भूमि तक जाती भौमिक रेखाएं हैं। जबकि, गर्भगृह के शिखर पर चारों दिशाओं से छेनमल्लमत्रिकाएं उकेरी गई हैं।

धारत्तुर परकोटा शैली की विशेषता
--------------------------
इसमें पाषाणों को भीतर से घुमाकर स्टोन वेल्डिंग करकेलगाया जाता था। प्रत्येक शिला के गुरुत्व केंद्र में स्थित एक शिला को सीधा रखा जाता था। इससे संपूर्ण मंदिर का गुरुत्व केंद्र एक ही स्थान पर रहता है। भीतर से घुमाकर लगाए गए पट्टीनुमा पाषाण मंदिर को लचीला बनाते हैं। इससे कंपन्न के अनुरूप ही मंदिर भी कंपन्न करता है। इसके गुरुत्व केंद्र पर लगाए पाषाण बाहरी ढांचे को आपस में जोड़े रखते हैं।

वक्त के थपेड़े सहकर भी अडिग
------------------------
इस मंदिर पर जो पाषाण लगे हैं, उन पर ग्रेनाइट की मात्रा अधिक है। इसी कारण यह मंदिर प्रकृति के अनेकों थपेड़े सहकर भी अपने स्थान पर अडिग बना हुआ है। जबकि कत्यूरी शैली के अधिकांश मंदिरों के पाषाणों पर स्फटिक सिल्ट की मात्रा अधिक थी, जिससे विकृत होने के कारण समय-समय पर इनका जीर्णोद्धार करवाया गया। प्रामाणिक तथ्यों के अनुसार आज तक इस मुख्य मंदिर के जीर्णोद्धार की जरूरत महसूस नहीं हुई।

28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत
--------------------------------
वैदिक वास्तुकला से सुसज्जित इस मंदिर का निर्माण ग्रेनाइट पत्थरों से किया गया है। इन पत्थरों को पांच वर्षों तक मूंगा की चट्टानों कैल्शियम कॉर्बोनेट के चूर्ण और यव (जौ) से बने घोल में भिगोकर रखा गया था। मंदिर की दीवारें इतनी विशिष्टता के साथ निर्मित हैं कि यह अन्य मंदिरों की 28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत हैं।

कहीं नहीं हैं ब्रह्मा-विष्णु द्वारपाल
--------------------------
यह एकमात्र प्राचीन मंदिर है, जिसके द्वारपाल के रूप में ब्रह्मदेव व श्रीहरि विराजमान हैं। अन्य किसी भी मंदिर में ब्रह्मदेव व श्रीहरि की प्रतिमाएं द्वारपाल के रूप में स्थापित नहीं है।

Saturday, 1 January 2022

#संकल्प एवं सपनों का नया साल



संकल्प एवं सपनों का नया साल

------------------------------------

नए वर्ष का समय बहुत अनुकूल होता है, किसी नए संकल्प के लिए, दृढ़ निश्चय से किसी नई शुरुआत के लिए। वैसे तो जीवन को सुधारने की शुरुआत कभी भी की जा सकती है, मगर मनोवैज्ञानिक रूप से नए साल के आरंभ से थोड़ा पहले या बाद में इस तरह की सोच के लिए अधिकांश तैयार रहते हैं। पिछले वर्ष भी गलतियां हुईं, उनके परिणाम भुगत लिए, चलो अब नए वर्ष के लिए तय करें कि इन गलतियों को नहीं दोहराएंगे और जीवन को बेहतर बनाएंगे। इस तरह की सोच केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन की कुछ कमजोरियों को दूर करने पर आधारित हो सकती है। लेकिन, इसे व्यापकता देने के लिए अपने, अपने परिवार के, आसपास के जीवन को अधिक उद्देश्यपूर्ण बनाने से भी जोड़ा जा सकता है। बहुत से लोग यह सोचते हैं कि हम किन्हीं एक-दो लक्ष्यों को नए साल के लिए अपना लें, तो यही बहुत है। बहुत लंबी-चौड़ी बातें सोचने में कुछ नहीं रखा है। लेकिन, यदि हम अपने जीवन को समाज के व्यापक सरोकारों और सार्थक उद्देश्यों से जोड़ें तो हो सकता है, वहीं से हमें वह शक्ति मिल जाए, जो हमें अपनी कुछ व्यक्तिगत कमजोरियों और समस्याओं में ऊपर उठने का सामथ्र्य दे सके। यह तो स्पष्ट है कि पृथ्वी पर जो लाखों जीव रूप मौजूद हैं, उनमें मनुष्य की बहुत विशिष्ट स्थिति है। मनुष्य में ही वह क्षमता है कि वह पर्यावरण की, पेड़-पौधों की, जीवन के लाखों रूपों की रक्षा के लिए नियोजित ढंग से कदम उठा सके, असरदार कार्रवाई कर सके। यही मनुष्य की मुख्य पहचान और सबसे सार्थक उद्देश्य है, जिसके साथ हमें अपने जीवन को जोडऩा है। बहुत छोटे-छोटे स्तर पर हो रहे लाखों-करोड़ों सार्थक प्रयास ही आज दुनिया की सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यह करोड़ों की संख्या में जलने वाले छोटे-छोटे दीप ही अंधकारमय हो रही दुनिया को रोशन करेंगे।












ऐसे हुई एक जनवरी से नए साल की शुरुआत

--------------------------------------------------

दिनेश कुकरेती

वैसे तो भारत में हिंदू कैलेंडर के मुताबिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा के दिन से नए साल की शुरुआत होती है, लेकिन पूरे विश्व में सर्वग्राह्य रूप से नया साल एक जनवरी से मनाने का चलन है। यह परंपरा कैसे अस्तित्व में आई, इसका भी रोचक इतिहास है। ऐसी मान्यता है कि जनवरी महीने का नाम रोमन देवता 'जानूसÓ के नाम पर रखा गया था। कहते हैं कि जानूस दो मुख वाले देवता थे, जिसमें एक मुख आगे और दूसरा पीछे की ओर था। दो मुख होने की वजह से जानूस को अतीत और भविष्य की सारी जानकारियां रहती थीं। इसलिए उनके नाम पर जनवरी को साल का पहला महीना और एक जनवरी को साल की शुरुआत मानी गई। कहते हैं कि नया साल आज से लगभग 4000 साल पहले बेबीलोन में मनाया गया था। असल में एक जनवरी को मनाया जाने वाला नया वर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर पर आधारित है। इसकी शुरुआत रोमन कैलेंडर से हुई। हालांकि पारंपरिक रोमन कैलेंडर का नया साल एक मार्च से शुरू होता है। रोम के प्रसिद्ध सम्राट जूलियस सीजर ने 47 वर्ष ईसा पूर्व इस कैलेंडर में परिवर्तन किया था। उन्होंने इसमें जुलाई का महीना और इसके बाद अपने भतीजे के नाम पर अगस्त का महीना जोड़ दिया। तब से नया साल एक जनवरी को ही मनाया जाता है। 













एक जनवरी से लंबे होने लगते हैं दिन

------------------------------------------

नया साल एक जनवरी से मनाए जाने के पीछे कई खगोलीय कारण भी हैं। एक जनवरी को पृथ्वी सूर्य के बेहद करीब होती है, इसलिए भी इसे साल की शुरुआत कहा जाता है। एक जनवरी को नया साल मनाने का तार्किक कारण यह भी है कि 31 दिसंबर को साल का सबसे छोटा दिन होता है और इसकेबाद दिन लंबे होने लगते हैं। इसलिए एक जनवरी को ही नए साल की शुरुआत मानी जाती है। 
















23 मार्च 2000 बीसी को हुआ था पहला न्यू ईयर सेलिब्रेशन 

------------------------------------------------------------------

दुनिया में सबसे पहले न्यू ईयर सेलिब्रेशन की बात करें तो वह 23 मार्च 2000 बीसी को किया गया था। हालांकि, इजिप्ट और पर्सिया जैसे देशों में 20 सितंबर को नया साल मनाया जाता है। जबकि, ग्रीक में 20 दिसंबर को नए साल के जश्न मनाने का रिवाज है।














हर जगह अपने-अपने नववर्ष

---------------------------------

भारत में नया साल विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। ये तिथियां अमूमन मार्च और अप्रैल में पड़ती हैं। पंजाब में नया साल बैशाखी के रूप में 13 अप्रैल को मनाया जाता है। जबकि, सिख धर्म के अनुयायी इसे नानकशाही कैलेंडर के अनुसार मार्च में होली के दूसरे दिन मनाते हैं। जैन धर्मावलंबी नववर्ष को दीवाली के अगले दिन मनाते हैं। यह तीर्थांकर महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन से शुरू होता है। ङ्क्षहदू नववर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। ङ्क्षहदू मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मास मोहर्रम की पहली तारीख को नया साल हिजरी शुरू होता है।














इनकी पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मान्यता

----------------------------------------------------

ईसाइयों का एक अन्य पंथ ईस्टर्न आर्थोडॉक्स चर्च और इसके अनुयायी ग्रेगोरियन कैलेंडर को मान्यता न देकर पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मानते हैं। इस कैलेंडर के अनुसार जॉर्जिया, रूस, यरूशलम, सर्बिया आदि में नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है।