Saturday, 1 January 2022

#संकल्प एवं सपनों का नया साल



संकल्प एवं सपनों का नया साल

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नए वर्ष का समय बहुत अनुकूल होता है, किसी नए संकल्प के लिए, दृढ़ निश्चय से किसी नई शुरुआत के लिए। वैसे तो जीवन को सुधारने की शुरुआत कभी भी की जा सकती है, मगर मनोवैज्ञानिक रूप से नए साल के आरंभ से थोड़ा पहले या बाद में इस तरह की सोच के लिए अधिकांश तैयार रहते हैं। पिछले वर्ष भी गलतियां हुईं, उनके परिणाम भुगत लिए, चलो अब नए वर्ष के लिए तय करें कि इन गलतियों को नहीं दोहराएंगे और जीवन को बेहतर बनाएंगे। इस तरह की सोच केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन की कुछ कमजोरियों को दूर करने पर आधारित हो सकती है। लेकिन, इसे व्यापकता देने के लिए अपने, अपने परिवार के, आसपास के जीवन को अधिक उद्देश्यपूर्ण बनाने से भी जोड़ा जा सकता है। बहुत से लोग यह सोचते हैं कि हम किन्हीं एक-दो लक्ष्यों को नए साल के लिए अपना लें, तो यही बहुत है। बहुत लंबी-चौड़ी बातें सोचने में कुछ नहीं रखा है। लेकिन, यदि हम अपने जीवन को समाज के व्यापक सरोकारों और सार्थक उद्देश्यों से जोड़ें तो हो सकता है, वहीं से हमें वह शक्ति मिल जाए, जो हमें अपनी कुछ व्यक्तिगत कमजोरियों और समस्याओं में ऊपर उठने का सामथ्र्य दे सके। यह तो स्पष्ट है कि पृथ्वी पर जो लाखों जीव रूप मौजूद हैं, उनमें मनुष्य की बहुत विशिष्ट स्थिति है। मनुष्य में ही वह क्षमता है कि वह पर्यावरण की, पेड़-पौधों की, जीवन के लाखों रूपों की रक्षा के लिए नियोजित ढंग से कदम उठा सके, असरदार कार्रवाई कर सके। यही मनुष्य की मुख्य पहचान और सबसे सार्थक उद्देश्य है, जिसके साथ हमें अपने जीवन को जोडऩा है। बहुत छोटे-छोटे स्तर पर हो रहे लाखों-करोड़ों सार्थक प्रयास ही आज दुनिया की सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यह करोड़ों की संख्या में जलने वाले छोटे-छोटे दीप ही अंधकारमय हो रही दुनिया को रोशन करेंगे।












ऐसे हुई एक जनवरी से नए साल की शुरुआत

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दिनेश कुकरेती

वैसे तो भारत में हिंदू कैलेंडर के मुताबिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा के दिन से नए साल की शुरुआत होती है, लेकिन पूरे विश्व में सर्वग्राह्य रूप से नया साल एक जनवरी से मनाने का चलन है। यह परंपरा कैसे अस्तित्व में आई, इसका भी रोचक इतिहास है। ऐसी मान्यता है कि जनवरी महीने का नाम रोमन देवता 'जानूसÓ के नाम पर रखा गया था। कहते हैं कि जानूस दो मुख वाले देवता थे, जिसमें एक मुख आगे और दूसरा पीछे की ओर था। दो मुख होने की वजह से जानूस को अतीत और भविष्य की सारी जानकारियां रहती थीं। इसलिए उनके नाम पर जनवरी को साल का पहला महीना और एक जनवरी को साल की शुरुआत मानी गई। कहते हैं कि नया साल आज से लगभग 4000 साल पहले बेबीलोन में मनाया गया था। असल में एक जनवरी को मनाया जाने वाला नया वर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर पर आधारित है। इसकी शुरुआत रोमन कैलेंडर से हुई। हालांकि पारंपरिक रोमन कैलेंडर का नया साल एक मार्च से शुरू होता है। रोम के प्रसिद्ध सम्राट जूलियस सीजर ने 47 वर्ष ईसा पूर्व इस कैलेंडर में परिवर्तन किया था। उन्होंने इसमें जुलाई का महीना और इसके बाद अपने भतीजे के नाम पर अगस्त का महीना जोड़ दिया। तब से नया साल एक जनवरी को ही मनाया जाता है। 













एक जनवरी से लंबे होने लगते हैं दिन

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नया साल एक जनवरी से मनाए जाने के पीछे कई खगोलीय कारण भी हैं। एक जनवरी को पृथ्वी सूर्य के बेहद करीब होती है, इसलिए भी इसे साल की शुरुआत कहा जाता है। एक जनवरी को नया साल मनाने का तार्किक कारण यह भी है कि 31 दिसंबर को साल का सबसे छोटा दिन होता है और इसकेबाद दिन लंबे होने लगते हैं। इसलिए एक जनवरी को ही नए साल की शुरुआत मानी जाती है। 
















23 मार्च 2000 बीसी को हुआ था पहला न्यू ईयर सेलिब्रेशन 

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दुनिया में सबसे पहले न्यू ईयर सेलिब्रेशन की बात करें तो वह 23 मार्च 2000 बीसी को किया गया था। हालांकि, इजिप्ट और पर्सिया जैसे देशों में 20 सितंबर को नया साल मनाया जाता है। जबकि, ग्रीक में 20 दिसंबर को नए साल के जश्न मनाने का रिवाज है।














हर जगह अपने-अपने नववर्ष

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भारत में नया साल विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। ये तिथियां अमूमन मार्च और अप्रैल में पड़ती हैं। पंजाब में नया साल बैशाखी के रूप में 13 अप्रैल को मनाया जाता है। जबकि, सिख धर्म के अनुयायी इसे नानकशाही कैलेंडर के अनुसार मार्च में होली के दूसरे दिन मनाते हैं। जैन धर्मावलंबी नववर्ष को दीवाली के अगले दिन मनाते हैं। यह तीर्थांकर महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन से शुरू होता है। ङ्क्षहदू नववर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। ङ्क्षहदू मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मास मोहर्रम की पहली तारीख को नया साल हिजरी शुरू होता है।














इनकी पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मान्यता

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ईसाइयों का एक अन्य पंथ ईस्टर्न आर्थोडॉक्स चर्च और इसके अनुयायी ग्रेगोरियन कैलेंडर को मान्यता न देकर पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मानते हैं। इस कैलेंडर के अनुसार जॉर्जिया, रूस, यरूशलम, सर्बिया आदि में नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। 

Thursday, 23 December 2021

सबका अपना-अपना क्रिसमस

सबका अपना-अपना क्रिसमस

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क्रिसमस ऐसा त्योहार है, जिसकी शुरुआत तो रोम से हुई, लेकिन कालांतर में क्रिश्चियनिटी के प्रसार के साथ यह पूरी दुनिया में फैल गया। खास बात यह रही कि क्रिसमस जहां भी गया, वहीं के रंग में रंग गया। क्रिसमस ने न केवल संबंधित क्षेत्र की लोक परंपराओं को आत्मसात किया, बल्कि कैरल के गीतों में भी लोक का वास हो गया। आइए! हम भी जानते हैं कि क्रिसमस के इसी बहुरंगी को...

दिनेश कुकरेती

क्रिसमस मनाने की परंपरा ईसा के जन्म से बहुत पुरानी है। क्रिसमस एक रोमन त्योहार सैटर्नेलिया का अनुकरण है, जो मध्य दिसंबर से जनवरी तक मनाया जाता था। सैटर्नस रोमन देवता हैं। इस दौरान लोग तरह-तरह के पकवान बनाते थे और मित्र-परिचितों के साथ उपहारों का आदान-प्रदान करते थे। फूलों व हरे वृक्षों से घर सजाए जाते और स्वामी एवं सेवक अपना स्थान बदलते थे। कालांतर में यह त्योहार बरुमेलिया (सर्दियों के बड़े दिन) के रूप में मनाया जाने लगा। तब सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था और मान्यता थी कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ। बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मान इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे। हालांकि, तब ईसाइयों में इस प्रकार के किसी पर्व का सार्वजनिक आयोजन नहीं होता था। कहते हैं कि ईस्वी वर्ष की चौथी सदी में सूर्य उपासना का पर्व क्रिसमस में विलय हुआ। वैसे यह त्योहार ईसा मसीह के जन्मोत्सव के रूप में वर्ष 98 से मनाया जा रहा है। वर्ष 137 में रोम के बिशप ने इसे मनाने की विधिवत घोषणा की और वर्ष 350 में रोम के ही एक अन्य बिशप यूलियस ने इसके लिए 25 दिसंबर का दिन नियत किया। हालांकि, इसके पीछे भी रोचक कहानी है। दरअसल 16 दिसंबर के बाद दिन बड़े होने लगते हैं और 25 दिसंबर को रात-दिन बराबर। इसीलिए प्राचीन रोम में 25 दिसंबर को 'सूरज की विजयÓ के दिन के रूप में मनाया जाता था। धीरे-धीरे पूरा रोम क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में आ गया और इस पर्व को 'स्टेट रिलीजनÓ घोषित कर 'क्राइस्ट द सनÓ का रूप प्रदान कर दिया गया। तभी से क्रिसमस को प्रभु यीशु के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

विश्वास से उल्लास तक 

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25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म हुआ, इस संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसे तथ्य भी मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि ईसा का जन्म सर्दियों में नहीं हुआ था। दरअसल उस जमाने में मैसोपोटामिया के लोग अनेक देवताओं पर विश्वास करते थे, लेकिन उनका प्रधान देवता मार्डुक था। मान्यता थी कि सर्दियों के आगमन पर मार्डुक अव्यवस्था के दानवों से युद्ध करता है। इसी के निमित्त नववर्ष का त्योहार मनाया जाता था। मैसोपोटामिया का राजा मार्डुक के मंदिर में देव प्रतिमा के सामने वफादारी की सौगंध खाता था। परंपराएं राजा को वर्ष के अंत में युद्ध का आमंत्रण देती थीं, ताकि वह मार्डुक की तरफ से युद्ध करता हुआ वापस लौट सके। अपने राजा को जीवित रखने के लिए मैसोपोटामिया के लोग किसी अपराधी का चयन कर उसे राजसी वस्त्र पहनाते और उसे राजा का सम्मान एवं सभी अधिकार दिए जाते। आखिर में वास्तविक राजा को बचाने के लिए उसकी हत्या कर दी जाती। क्रिसमस में भी मुख्य ध्वनि परमात्मा को प्रसन्न करने की ही है।

क्रिसमस का एक रूप 'सैसियाÓ

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पर्शिया और बेबिलोनिया में ऐसा ही एक त्योहार 'सैसियाÓ नाम से मनाया जाता था। शेष सभी रस्मों के साथ इसमें दासों को स्वामी और स्वामियों को दास बनाने की रस्म भी निभाई जाती थी। प्राचीन यूरोपियन दुष्ट आत्माओं में विश्वास रखते थे। जैसे ही सर्दी के छोटे दिनों की लंबी-ठंडी रातें आतीं, उनके मन में भय समा जाता कि सूर्य देवता वापस नहीं लौटेंगें। सूर्य को वापस लाने के लिए इन्हीं दिनों विशेष रीति-रिवाजों का पालन होता और समारोह का आयोजन होता।

प्रकृति का पर्व

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स्कैंडिनेविया में सर्दियों के दौरान महीनों तक सूर्य के दर्शन नहीं होते थे। इसलिए सूर्य की वापसी के लिए 35 दिन के बाद पहाड़ की चोटी पर लोग स्काउट भेज देते। प्रथम रश्मि के आगमन की शुभ सूचना के साथ ही स्काउट वापस लौटते। इसी अवसर पर यूलटाइड नामक त्योहार मनाया जाता। प्रज्ज्वलित अग्नि के आसपास खान-पान का आयोजन चलता। अनेक स्थलों पर लोग वृक्षों की शाखाओं पर सेब लटका देते। इसका अर्थ है कि वसंत और ग्रीष्म अवश्य आएंगे। पहले यूनान में भी इससे मिलता-जुलता त्योहार मनाया जाता था। इसमें लोग देवता क्रोनोस की सहायता करते, ताकि वह ज्यूस और उसकी सहयोगी दुष्टात्माओं से लड़ सके।

66 पुस्तकों का संग्रह है बाइबल

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बाइबल यहूदियों और ईसाइयों का साझा धर्मग्रंथ है, जिसके ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट दो भाग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म से पूर्व के हालात का ब्यौरा है। इसमें 39 पुस्तकें हैं। न्यू टेस्टामेंट में ईसा का जीवन, शिक्षाएं एवं विचार हैं। इसमें 27 पुस्तकें हैं। कहने का मतलब बाइबल एक पुस्तक न होकर 66 पुस्तकों का संग्रह है, जिसे 1600 वर्षों में 40 लेखकों ने लिखा। 


जहां गया, वहीं का हो गया क्रिसमस

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रोम से शुरू हुई इस परंपरा ने आज पूरी दुनिया के उत्सव का स्वरूप ले लिया है। लेकिन, हर जगह इसका स्वरूप स्थानीयता का पुट लिए हुए है। यही वजह है कि हर जगह क्रिसमस के दौरान होने वाले करोल (कैरल) के आयोजन में लोकधुनों की गूंज सुनाई पड़ती है। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं अंचल में कैरल के अधिकांश गीत गढ़वाली-कुमाऊंनी में ही गाए जाते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इस आयोजन में सभी धर्म-जाति के लोग बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं। 

देहरादून के ऐतिहासिक चर्च

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सेंट थॉमस चर्च

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178 साल पुराने देहरादून के सेंट थॉमस चर्च के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। व्यस्ततम राजपुर रोड पर दिलाराम बाजार में स्थित यह चर्च लंबे अर्से तक बंद पड़ा रहा। वर्ष 2012 में इसे दोबारा खोला गया। सेंट थॉमस चर्च की सबसे बड़ी खासियत इसका सेना से जुड़ा इतिहास है। वर्ष 1840 में बने इस चर्च की इमारत और लंबे-चौड़े गार्डन की भव्यता देखते ही बनती है। पॉप म्यूजिक के दीवानों की तो यह खास जगह है। यह वही चर्च है, जहां ब्रिटिश संगीतकार, कलाकार एवं अभिनेता सर क्लिफ रिचर्ड का बपतिस्मा हुआ था। सर क्लिफ रिचर्ड का जन्म लखनऊ में हुआ था और बाद में उनका परिवार देहरादून शिफ्ट हो गया। यह चर्च सीएनआइ (चर्च ऑफ नार्थ इंडिया) के अधीन है। इस चर्च को सेना के लिए बनाया गया था और यहां सेना के जवान और सर्वे ऑफ इंडिया से जुड़े लोग प्रार्थना करने आते थे। इसीलिए यह चर्च आर्मी (गैरिसन) चर्च के रूप में जाना जाता था।

मॉरीसन मेमोरियल चर्च

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सीएनआइ द्वारा संचालित राजपुर रोड स्थित मॉरीसन मेमोरियल चर्च 25 अगस्त 1884 को बनकर तैयार हुआ था। अंग्रेजों का बनाया यह दून का सबसे बड़ा एवं खूबसूरत चर्च है। यह उत्तर भारत के सबसे पुराने चर्चों में से एक है। इस चर्च का मूल नाम देहरा प्रेस्बायटेरियन था, जिसे वर्ष 1890 में एपी मिशन ङ्क्षहदुस्तानी चर्च कर दिया गया। इसके बाद यहां के प्रमुख पास्टर रेवरेन जॉन मॉरीसन और उनकी पत्नी के नाम पर इस चर्च को मॉरीसन नाम दिया गया। इस चर्च में पहली बार बपतिस्मा रेवरेन थैंकवैल के सानिध्य में 26 अक्टूबर 1884 को हुआ था। यहां पहले भारतीय पास्टर के रूप में रेवरेन प्रभुदास ने अपनी सेवाएं दी। अब तक  कुल नौ मिशनरी और 22 पास्टर चर्च में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। चर्च के मुख्य हॉल की फर्श टेराजो की बनी है और छत से लगा खूबसूरत बोर्ड बिल्डिंग की शोभा को और अधिक बढ़ाता है। छत के रिज पर कई सारे सजावटी बोर्ड लगे हैं। आंतरिक भाग में उभरा हुआ छत तिकोन चर्च के सौंदर्य में चार चांद लगाता है। 

सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च

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कॉन्वेंट रोड पर स्थित सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च का निर्माण 1856 में आर्च बिशप कार्लि आगरा के विकेरिएट अपोसतोलिक ने शुरू किया था। 1897 से यहां पुरोहितों ने रहना शुरू कर दिया। चार अप्रैल 1905 को आए भूकंप ने चर्च को भारी नुकसान पहुंचाया। इसके बाद 1910 तक यहां एक बड़े कमरे का प्रयोग चर्च के रूप में होता रहा। 1910 में चर्च का नया भवन बनकर तैयार हुआ, जिसका उद्घाटन आगरा के आर्च बिशप और इलाहबाद व लाहौर के बिशप ने किया था। पल्ली पुरोहित फादर लूकस ओएफएम कपुचिन के अनुरोध पर इटली के चित्रकार निनोला सिमीटाटा ने चर्च की दीवारों पर सेंट फ्रांसिस आसिसी के उद्देश्य एवं जीवन की घटनाओं को चित्रित किया। निनोला सिमीटाटा द्वितीय विश्व युद्ध का बंदी था और उसे देहरादून के प्रेमनगर में बंदी बनाकर रखा गया था। फादर लूकस ने इस कार्य के लिए उसे बंदीगृह से छुड़वाया। इस चर्च में कई बार मदर टेरेसा भी आती रही हैं। 

Monday, 30 August 2021

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

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दिनेश कुकरेती

सावन-भादों प्रकृति के उल्लास के महीने हैं। जंगल हरियाली से लकदक हो गए हैं। धरती के गर्भ से जगह-जगह जलस्रोत फूट चुके हैं। गाड-गदेरों, नदियों और झरनों का कोलाहल वातावरण में संगीत घोल रहा है। इस अनुपम छटा को देख भला कौन होगा, जो प्रकृति के इस सृजनकाल से रू-ब-रू नहीं होना चाहेगा। लेकिन, इस मनोहारी परिदृश्य के बीच विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में सावन-भादों का दूसरा पहलू भी है। पहाडिय़ों ने कोहरे की सफेद चादर ओढ़ी हुई है। यदा-कदा आसमान खुलने पर कोहरे के आगोश से झांकती पहाडिय़ां न केवल मन की अकुलाहट (व्याकुलता) बढ़ा रही हैं, बल्कि इस अंधियारे मौसम में लोग घरों से बाहर तक नहीं निकल पा रहे। ऐसे में खुद (याद) तो लगेगी ही। इसीलिए पहाड़ में सावन-भादों को खुदेड़ महीना कहा गया है। इसकी अभिव्यक्ति यहां लोक गीतों में हुई है। 

लोकगीतों में छलकती है 'खुदÓ

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पर्वतीय समाज में बिछोह ज्यादा है। पहले अभाव भी काफी अधिक था। बावजूद इसके आज भी पहाड़ के लोग एक-दूसरे के प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। ऐसे में समय, स्थान और वातावरण के चलते खुद की व्युत्पत्ति होती है। सावन-भादों में जब थोड़ा-सा अभाव होता है तो एक-दूसरे के प्रति स्नेह 'खुदÓ (नराई) के रूप में सामने आ जाता है। यही वजह है कि यह खुद लोकगीतों में छलक पड़ी। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का गाया ऐसा ही एक गीत है, जिसमें वह बड़े चुटीले अंदाज में बोडी-ब्वाडा (ताई-ताऊ) की परेशानियों को माध्यम बनाकर पहाड़वासियों की दुश्वारियों को बयां करते हैं। देखिए, 'गरा-रा-रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे, सरा-रा-रा डांड्यूं में कन कुयेडि़ छैगे।Ó (बारिश की झड़ी लग गई है और पहाडिय़ां कोहरे के आगोश में छिप गई हैं)। 

पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा

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एक अन्य गीत में नेगी उस नव विवाहिता के मन की थाह ले रहे हैं, जो अपने मायके के उल्लास एवं उमंगभरे दिनों को याद करते हुए उनकी याद में घुली जा रही है। तब वह कहती है, 'सौणा का मैना ब्वे कनु कै रैणा, कुयेड़ी लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालिÓ (मां! सावन के महीने में मैं कैसे रहूं। चारों दिशाएं कोहरे के आगोश में हैं। अंधेरी रात है और बारिश की झड़ी लगी हुई है। ऐसे में मुझे लगातार तेरी याद आ रही है)। नेगी के गीतों में पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा कुछ इस तरह भी अभिव्यक्ति मिली है, देखिए- 'हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासीÓ (चातुर्मास की बारिश, वनों में कोहरा घिर रहा है तो मन में उदासी)। 

इसी उदासी के बीच नवविवाहिता गा रही है, 'भादों की अंधेरी झकझोर, न बास-न बास, पापी मोर, ग्वेरै की मुरली तू-तू बाज, भैंस्यूूं की घांड्योंन डांडू गाज, तुम तैं मेरा स्वामी कनी सूझी, आंसुन चादरी मेरी रूझी।Ó (भादों का अंधेरा छाया है, हे मोर तू मेरे पास न बोल, न बोल। चरवाहों की मुरली तू-तू बज रही है और भैंसों की घंटियों से पर्वत गूंज रहा है। तुम्हें मेरे पति कैसी कठोरता सूझी, आंसूओं से मेरी धोती भीग गई है)।

लोक में सावन की फुहारों का इंतजार

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हालांकि, यह भी सच है कि सावन की इन्हीं फुहारों का पहाड़वासियों को हमेशा बेसब्री से इंतजार रहता है। इसकी अभिव्यक्ति नेगी अपने गीत में इस तरह करते हैं, 'बरखा हे बरखा, तीस जिकुडि़ की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूझै जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजाÓ (बारिश हे बारिश, मेरे हृदय की प्यास बुझा जा, मेरे सुलगते तन-मन को भिगो जा, प्रकृति में संगीत बिखेरते हुए आ जा)। दरअसल, पहाड़ में खेती बारिश पर ही निर्भर है, इसलिए जब समय से बारिश नहीं होती तो पहाड़वासियों के कंठ से गीतों के रूप में यह पीड़ा छलक पड़ती है।

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

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दिनेश कुकरेती

शिक्षा महज किताबी ज्ञान हासिल कर अच्छी पद-प्रतिष्ठा पा लेने का नाम नहीं है। विषय विशेषज्ञ बन जाने को भी शिक्षा नहीं माना जा सकता। शिक्षा को डिग्रियों में भी नहीं तौला जा सकता। शिक्षा तो जीवन चलाने की ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य के जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। व्यापक दृष्टि से देखें तो शिक्षा में मनुष्य के वह सभी अनुभव समाहित हैं, जिनका प्रभाव उस पर जन्म से लेकर मृत्यु तक पड़ता है। 

शिक्षा शब्द संस्कृत की 'शिक्षÓ धातु से बना है। इसका अर्थ है सीखना या ज्ञान प्राप्त करना। सीखने की प्रक्रिया शिक्षक, छात्र व पाठ्यक्रम के माध्यम से संपादित होती है। इसका अंग्रेजी पर्याय एड्यूकेशन है, जो लैटिन के 'एड्यूकेटमÓ शब्द से बना है। इसमें 'ईÓ का अर्थ है 'अंदर सेÓ और 'ड्यकोÓ का अर्थ है 'बाहर निकालनाÓ। यानी एड्यूकेशन का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का प्रकटीकरण है। इस प्रकार शिक्षा अथवा एड्यूकेशन का अर्थ चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक और अंतर्निहित शक्तियों का व्यवस्थित रूप से विकास करना है। 

व्यापक अर्थ में देखें तो शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में निरंतर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। दुनिया के विभिन्न विचारकों ने समय-समय पर शिक्षा को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया। मसलन विवेकानंद मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति को शिक्षा मानते हैं। जबकि, गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के शब्दों में उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती, बल्कि हमारे जीवन को समूचे अस्तित्व के अनुकूल बनाती है। शिक्षा से गांधीजी का अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण प्रकटीकरण से है। 













प्लेटो के विचार से बालक की क्षमता के अनुरूप शिक्षा उसके शरीर और आत्मा का विकास करती है, जबकि रूसो ने शिक्षा को विचारशील, संतुलित, उपयोगी एवं प्राकृतिक जीवन के विकास की प्रक्रिया माना है। कमेनियस ने संपूर्ण मानव के विकास को शिक्षा की संज्ञा दी है। जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यक्ति की क्षमताओं का विकास है। जिसके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रख सकता है और संभावनाओं को पूरा कर सकता है। टी रेमांट के अनुसार शिक्षा मानव जीवन के विकास की वह प्रक्रिया है, जो शैशवास्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है। 

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा बच्चे की अंतर्निहित शक्तियों (योग्यताओं) को बाहर निकालकर उसके व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन करती है। शिक्षा को समझने के दो दृष्टिकोण हैं, संकुचित और व्यापक। संकुचित सबसे प्राचीन दृष्टिकोण है, जो वर्ष 1879 तक अस्तित्व में रहा। इसमें शिक्षा के सैद्धांतिक, ज्ञानात्मक व औपचारिक स्वरूप पर बल दिया गया। लेकिन, इसका फलक विद्यालयी शिक्षा तक ही सीमित था। जबकि, व्यापक दृष्टिकोण बीसवीं सदी में आया। इसमें शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष यानी सर्वांगीण विकास और अनौपचारिक शिक्षा पर बल दिया गया।

शिक्षा का महत्व

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शिक्षा व्यक्ति के प्रत्येक पहलू को विकसित कर उसके चरित्र का निर्माण करती है। साथ ही उसके अंदर राष्ट्रीय एकता, भावनात्मक एकता, सामाजिक कुशलता, राष्ट्रीय अनुशासन जैसी भावनाएं विकसित करती है। ताकि वह राष्ट्रीय हित को केंद्र में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व का पूरे मनोयोग से निर्वहन कर सके।

शिक्षा के कार्य

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व्यक्ति संबंधी

- आंतरिक शक्तियों और संपूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण विकास

- भावी जीवन की तैयारी

- नैतिक उत्थान

- मानवीय गुणों का विकास

- आत्मनिर्भर बनाना

- आवश्यकता की पूर्ति में सक्षम

- जन्मजात प्रकृतियों में सुधार

समाज संबंधी

- सामाजिक नियमों का ज्ञान

- प्राचीन साहित्य का इतिहास

- कुरीतियों के निवारण में सहायक

- सामाजिक भावना का विकास

- सामाजिक उन्नति में सहायक

- धर्मों के विषय में तात्विक ज्ञान

- उदार दृष्टिकोण

राष्ट्र संबंधी

- भावनात्मक एकता

- कुशल नागरिक

- राष्ट्रीय विकास

- राष्ट्रीय एकता

सार्वजनिक हित संबंधी

सार्वजनिक आय संबंधी

- राष्ट्रीय अनुशासन

- अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान

वातावरण संबंधी

- वातावरण से समायोजन

- वातावरण का अनुकूलन

Tuesday, 20 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

Tuesday, 13 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...