Tuesday, 22 September 2020

श्रीमहंत लक्ष्मण दास की देन है दून की फुटबाल

 


एक दौर में दून के फुटबाल की देशभर में धाक रही है। तब फुटबाल की बंगाल जैसी लोकप्रियता दून में भी हुआ करती थी। यह हो पाया था श्री गुरु राम राय दरबार साहिब के तत्कालीन श्रीमहंत लक्ष्मण दास के प्रयासों से। उन्हीं की पहल पर वर्ष 1924 में पहली बार दून में प्रांतीय स्तर के फुटबाल मैच खेले गए। यह मैच दून में उसी स्थान पर होते थे, जहां वर्तमान में पवेलियन ग्राउंड है।

श्रीमहंत लक्ष्मण दास की देन है दून की फुटबाल
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श्री गुरु राम राय दरबार साहिब का दून को बसाने व संवारने ही नहीं, यहां फुटबाल को लोकप्रिय बनाने में भी अहम योगदान रहा। पवेलियन ग्राउंड के अस्तित्व में आने से पूर्व ही वर्ष 1924 में दरबार साहिब के तत्कालीन श्रीमहंत लक्ष्मण दास यहां प्रांतीय स्तर के फुटबाल टूर्नामेंट आयोजित करवाकर फुटबाल के बीज रोपित कर चुके थे। इसके बाद ठीक दस वर्ष तक वे निजी प्रयासों से यहां प्रांतीय व राष्ट्रीय स्तर के फुटबाल टूर्नामेंट आयोजित कराते रहे। लेकिन, धन व संगठन के अभाव में वर्ष 1934 में उन्हें कदम पीछे खींचने को बाध्य होना पड़ा। बाद में देहरादून डिस्ट्रिक्ट स्पोर्ट्स एसोसिएशन का गठन होने पर महंतजी ने हालांकि संगठन में तो अपनी भागीदारी सुनिश्चित नहीं की, लेकिन फुटबाल टूर्नामेंट को अनवरत जारी रखने के लिए सालाना 500 रुपये सहयोग करने का वचन जरूर दे दिया। इस वचन का उन्होंने जीवनभर निर्वाह भी किया।

ऐसे बनी देहरादून डिस्ट्रिक्ट स्पोर्ट्स एसोसिएशन
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वर्ष 1936 में जब अपनी विश्वविद्यालय की शिक्षा पूरी कर फुटबाल प्रेमी एनके गौर देहरादून आए तो उन्हें यहां फुटबाल टूर्नामेंट बंद होने का पता चला। तब उन्होंने श्रीमहंत लक्ष्मण दास महाराज से परामर्श कर वर्ष 1937 में समस्त फुटबाल प्रेमियों को एकत्र कर देहरादून डिस्ट्रिक्ट स्पोर्ट्स एसोसिएशन (डीडीएसए) नाम से एक संगठन बनाया। इसमें भगवान दास बैंक के लाला नेमिदास, सेठ प्रीतम सेन जैन, महाराज प्रसाद जैन, दून स्कूल के हेडमास्टर आर्थर ई. फुट, एपी मिशन ब्वायज हाईस्कूल के प्रधानाचार्य आरएम इविंग आदि शामिल थे। इसी डीडीएसए की बदौलत कालांतर में दून ने राष्ट्रीय स्तर की अनेक फुटबाल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया। वर्ष 1953 में आइएमए देहरादून ने डूरंड कप फाइनल खेला, हालांकि उसे पराजय का सामना करना पड़ा। जबकि, गोरखा ब्रिगेड देहरादून ने वर्ष 1966 में सिख रेजीमेंट को 2-0 से हराकर और फिर वर्ष 1969 में सीमा सुरक्षा बल को 1-0 से हराकर डूरंड कप अपने नाम किया।



तीन हजार की क्षमता, दर्शक पहुंचते थे आठ हजार
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अपनी पुस्तक ‘गौरवशाली देहरादूनÓ’ में देवकी नंदन पांडे लिखते हैं कि उस दौर में राष्ट्रीय स्तर की फुटबाल प्रतियोगिताओं के आयोजन को डा. सोम मेमोरियल टूर्नामेंट, श्रीमहंत लक्ष्मण दास मेमोरियल, लाला दर्शनलाल, नगर पालिका व नार्दर्न रेलवे जैसी ख्यातिनाम संस्थाएं थीं। तब लाला दर्शनलाल साइकिल का व्यवसाय चलाते थे। वह ऐसे एकमात्र आयोजक थे, जिन्होंने स्वयं अपने नाम से फुटबाल टूर्नामेंट आयोजित कराए। कभी-कभी तो वे गेट पर खड़े होकर टिकट तक फाड़ते देखे जा सकते थे। तब पवेलियन ग्राउंड में दर्शकों के बैठने की क्षमता लगभग 3,000 थी। लेकिन, जब भी यहां कोलकाता के मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब या मोहन बागान जैसी प्रसिद्ध फुटबाल टीम किसी टूर्नामेंट में आमंत्रित की जातीं, दर्शकों की संख्या 8,000 या इससे अधिक पहुंच जाती थी।



मैच देखते को लगता था दो रुपये का प्रवेश शुल्क
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मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब, मोहन बागान आदि के बीच होने वाले रोमांचक मुकाबलों को देखने के लिए तब दर्शकों से मात्र दो रुपये प्रवेश शुल्क लिया जाता था। वर्ष 1960 से वर्ष 1970 के बीच आयोजित इन फुटबाल मुकाबलों के प्रति दूनवासियों का असीम लगाव था। इसलिए जो फुटबाल प्रेमी दो रुपये प्रवेश शुल्क देने में असमर्थ होते थे, वे पवेलियन ग्राउंड के दोनों ओर खड़े वृक्षों पर चढ़कर ही पूरे मैच का आनंद लिया करते थे।

फ्री स्टाइल कुश्ती में भिड़े दारा सिंह और गामा पहलवान

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पवेलियन ग्राउंड दो बार अंतरराष्ट्रीय स्तर की फ्री स्टाइल कुश्ती के आयोजन का गवाह भी बना। इनमें रुस्तम-ए-हिंद दारा सिंह व पाकिस्तान के नामी पहलवान गामा के बीच हुआ मुकाबला इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। रात में आयोजित इन कुश्ती मुकाबलों के दौरान पवेलियन ग्राउंड में पैर रखने को भी जगह नहीं बचती थी। टिकट महंगा होने के कारण तब कई दर्शक पवेलियन ग्राउंड के दक्षिण भाग में खड़े बरगद और पीपल के वृक्षों पर चढ़कर कुश्ती का आनंद लेते थे।


इनकी बदौलत फुटबाल का सिरमौर बना दून

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डीडीएसए के संगठनात्मक स्वरूप के अलावा डा. एसके सोम, कर्नल ब्राउन के नरेंद्र सिंह, वजीर चंद कपूर, एनके गौर, मिस्टर मार्टिन, सेंट जोजफ्स अकेडमी के ब्रदर डूले व ब्रदर डफी, जीएन श्रीवास्तव, आरएम शर्मा, एमएल साहनी, जेडी बटलर व्हाइट, पीबी सक्सेना, मास्टर केशव चंद्र, डा. मोहन, डा. राममूर्ति शर्मा, डा. एसएल गोयल, एकके पुरी, जीसी नागलिया, एनआर गुप्ता, सईदुद्दीन, गुरु चरण सिंह, दीनानाथ सलूजा आदि।

अंतरराष्ट्रीय फलक पर चमके दून के 11 खिलाड़ी

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एक दौर में देहरादून के दो से तीन खिलाड़ी भारतीय टीम के प्लेइंग इलेवन में रहते थे। इन्होंने देश के साथ विदेश में भी अपने खेल का जलवा बिखेरा। पचास से सत्तर के दशक में करीब 11 खिलाड़ी ऐसे रहे, जो दून के मैदानों में पसीना बहाते हुए अंतरराष्ट्रीय फलक पर चमके। इनमें से एक नाम तो ऐसा भी था, जिसने मशहूर ब्राजीलियन फुटबाल प्लेयर और 'ब्लैक पर्ल' के नाम से मशहूर पेले के साथ भी मैच खेला। देहरादून के पहले अंतरराष्ट्रीय फुटबालर चंदन सिंह रावत (चंदू दा) थे, जो भारत की उस टीम के सदस्य रहे, जिसने वर्ष 1952 में ग्रीष्मकालीन हेलसिंकी ओलिंपिक में हिस्सा लिया। वर्ष 1951 और वर्ष 1954 के एशियन गेम्स का भी वे हिस्सा बने। वर्ष 1951 के एशियन गेम्स में तो उन्होंने भारतीय टीम को स्वर्ण पदक भी दिलाया था। वर्ष 1997 में काठमांडू सैफ गेम्स में फुटबाल चैंपियनशिप जीतने वाली टीम के वे मैनेजर थे।


Daughter














बेटी
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पहली बेटी के आते ही
खुशियों से भर जाता है घर
उल्लास में डूब जाता है परिवार
आकार लेने लगते हैं सपने
बलवती होने लगती हैं
दादी की उम्मीदें
जब पोती की किलकारियां सुन
उससे बतियाती है दादी
कहती है,
घर की लक्ष्मी है मेरी लाडली
इसके शुभ कदम
मेरे पोते को लेकर आएंगे 
इस घर में
पोती के मन में कूट-कूटकर
भर देती है यह बात
कि
अब उसके भाई को आना है
धीरे-धीरे बोझिल होने लगता है
घर का खुशियों भरा माहौल
बहू भी रहने लगती है चिंतित
अगर ऐसा न हुआ तो...?
हे भगवान!
तेरे ही हाथों में है
मेरा सुखी संसार
फिर वह पति से शेयर करती है
अपनी चिंता
देख रहे हो ना-
कितनी बेताब है
खुशी की दादी
पोते का मुंह देखने को।
पति उसे समझाना चाहता है
पर, शब्द घुटकर रह जाते हैं
कंठ में सूझता नहीं कि
कैसे ढाढस बंधाए पत्नी को
समझ आने लगता है कि
खोखली हैं...
बराबरी की बातें
और...
अब उसके पास
इंतजार के सिवा
कोई जवाब नहीं है
क्योंकि-
वह बहादुर तो है
पर...
हारे हुओं के लश्कर में है।
          ***
@दिनेश कुकरेती
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Daughter
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As soon as the first daughter arrives
The house is filled with happiness
Family drowns in glee
Dreams take shape
Starts to force
Grandma's expectations
When the granddaughter listened
Grandmother tells her
She says
Home's laxmi is my dear
Auspicious steps
Bring my grandson
In this house
Grand-heartedly
Heals it
That
Now his brother has to come
Slowly becomes cumbersome
Happy atmosphere at home
Daughter-in-law also starts worried
If it doesn't happen ...?
Oh God!
In your hands
My happy world
Then she shares it with her husband
Your concern
Are you looking?
How desperate
Khushi's grandmother
To see the grandson's mouth.
Husband wants to convince her
But the words remain suffocating
I do not understand that
How to bind your wife
Understand that
Are hollow ...
On par
And...
now with
Except wait
There is no answer
Because-
He is brave
On...
It is in the let of the losers.

***

@ Dinesh Kukreti

देहरादून स्थित श्री गुरु राम राय दरबार साहिब : शिल्प का अद्भुत सम्मोहन

 
दरबार साहिब : शिल्प का अद्भुत सम्मोहन
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दिनेश कुकरेती
ऐतिहासिक श्री दरबार साहिब (झंडा साहिब) दून की पहचान ही नहीं, आन-बान-शान का भी प्रतीक है। बल्कि यूं कहें कि दरबार साहिब में दून की आत्मा बसती है तो अत्युक्ति न होगी। उदासीन परंपरा के गुरु राम राय महाराज ने धामावाला में दरबार साहिब की नींव डाली थी। यहां गुरुद्वारे का निर्माण वर्ष 1699 में शुरू हुआ और इसे वर्ष 1707 में उनकी पत्नी माता पंजाब कौर ने भव्य स्वरूप प्रदान किया। यह इमारत मुगल वास्तुकला की अनूठी प्रतिकृति है। ऊंची मीनारें और गोल बुर्ज मुगल वास्तुकला के ऐसे नमूने हैं, जो दून की शान-औ-शौकत में चार चांद लगाते हैं। गुरुद्वारे की सबसे खास बात इसके भित्ति चित्र हैं। मुगल लघु चित्रों, पंजाबी व राजस्थानी शैली और स्थानीय पहाड़ी शैली में उकेरे गए ये भित्ति चित्र हर किसी को सम्मोहित सा कर देते हैं। इन भित्ति चित्रों को बनाने का सिलसिला करीब सौ साल तक चलता रहा। यही वजह है कि पौराणिक चित्रों में जहां मुगल बादशाह औरंगजेब और उसके दरबार के चित्र हैं, तो बाद के चित्रों में ब्रिटिश हुकूमत का प्रभाव भी साफ झलकता है। माना जाता है कि देश में इतनी बड़ी तादाद में भित्ति चित्र और कहीं नहीं बचे हैं। खास बात यह कि कई चित्रों पर मुख्य शिल्पकार तुलसी राम का नाम हिंदी व उर्दू में तुलसीराम मिस्त्री तस्वीर बनाने वाला खुदा हुआ है। 

कांगड़ा-गुलेर और मुगल शैली का अनूठा दरबार
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श्री दरबार साहिब में गुरुद्वारा किलेनुमा प्राचीर के अंदर है। इसके चारों ओर प्रवेश द्वार खुलते हैं। उनके ऊपर मीनारें बनी हैं। पश्चिमी छोर पर विशाल फाटक के सामने सफेद सीढ़ीनुमा गोल चबूतरा नजर आता है। इसी चबूतरे पर खड़ा है सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विजय का प्रतीक झंडा साहिब। गुरुद्वारा निर्माण की एक और विशिष्टता यह है कि इसकी छत पर कई कलश एवं कलश के ऊपर कलश का प्रयोग किया गया है। यह भव्य गुरुद्वारा श्वेत पत्थर तो तराशकर से बना है। चीड़ या देवदार की प्रचुर उपलब्धता के कारण परंपरागत रूप से इन लकडिय़ों का प्रयोग गुरुद्वारा निर्माण में किया गया है। दरवाजे व खिड़कियों पर लकडिय़ों का सुंदर प्रयोग हुआ है। लकड़ी पर बेहद खूबसूरत और बारीक नक्काशी की गई है। दरबार साहिब के मेहराबों पर फूल-पत्तियां, पशु-पक्षी, वृक्ष केचित्र अंकित हैं और उनकी रंग योजना कांगड़ा-गुलेर और मुगल शैली का मिश्रण है।

ऐसे हुआ देहरादून नामकरण
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श्री गुरु राम राय महाराज सातवीं पातशाही (सिखों के सातवें गुरु) श्री गुरु हर राय के पुत्र थे। छोटी सी उम्र में वैराग्य धारण करने के बाद गुरु राम राय संगतों के साथ भ्रमण पर निकल पड़े। वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन उनकेकदम दून की धरती पर पड़े। जब वे खुड़बुड़ा के पास पहुंचे तो उनके घोड़े का पैर जमीन में धंस गया और उन्होंने संगत को वहीं डेरा डालने का आदेश दिया। मुगल बादशाह औरंगजेब श्री गुरु राम राय महाराज से बेहद प्रभावित था। जब उसे पता चला कि गुरु राम राय दूनघाटी में आए हैं, तो उसने गढ़वाल के तत्कालीन राजा फतेह शाह को उनकी हरसंभव सहायता करने को कहा। आलमगीर औरगंजेब की आज्ञा से गढ़वाल के राजा फतेह शाह बाबा के लिए बहुमूल्य वस्तुएं भेंट लेकर स्वयं उपस्थित हुए। बाबा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्होंने उनसे सदैव यहीं रहने की प्रार्थना की। साथ ही उन्हें तीन गांव खुड़बुड़ा, राजपुर व चामासारी दान में दिए। राजा की प्रार्थना को स्वीकार कर बाबा ने यहां डेरा स्थापित किया। बाद में राजा फतेह शाह के पोते प्रदीप शाह ने चार और गांव धामावाला, मियांवाला, पंडितवाड़ी व धर्तावाला गुरु महाराज को दिए। धामावाला में श्री गुरु राम राय के डेरा स्थापित करने पर इस स्थान के चारों ओर नगर आबाद हो गया और इस पवित्र भूमि को 'डेरा दूनÓ कहा जाने लगा। कालांतर में इसका अपभ्रंश 'देहरादूनÓ हो गया।

माता पंजाब कौर ने चलाई चेला प्रथा
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श्री गुरु राम राय महाराज जी की चार पत्नियां थीं। चार सितंबर 1687 को श्री गुरु रामराय महाराज परमात्मा का ध्यान करते हुए ब्रह्मलीन हो गए। तब उनकी सबसे छोटी पत्नी पंजाब कौर ने कार्यभार संभाला, लेकिन वह कभी महाराज की गद्दी पर नहीं बैठीं। उन्होंने पूरी उम्र दीन-दुखियों की सेवा में लगा दी। माता पंजाब कौर ने ही चेला प्रथा शुरू की और औद दास महाराज को श्रीमहंत नियुक्त किया। इसके बाद श्रीमहंत हर प्रसाद, श्रीमहंत हर सेवक, श्रीमहंत स्वरूप दास, श्रीमहंत प्रीतम दास, श्रीमहंत नारायण दास, श्रीमहंत प्रयाग दास, श्रीमहंत लक्ष्मण दास व श्रीमहंत इन्दिरेश चरण दास ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। वर्तमान में श्रीमहंत देवेंद्र दास गद्दीनसीन हैं।
 
कुमाऊंनी नथ में नूरजहां
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श्री दरबार साहिब में जहां पर झंडे जी विराजमान हैं, उसी अहाते के मुख्य द्वार पर नूरजहां को पहाड़ी नारी के रूप में दर्शाया गया है। लोक शैली पर आधारित इस चित्र में नूरजहां कुमाऊंनी नथ पहने हुए है। कला विशेषज्ञों का मानना है कि जहांगीर की सुंदर रानी का यह चित्र भारत में अनोखा है। इस भित्ति चित्र की दूसरी विशेषता यह है कि इसे एक उदासीन संप्रदाय के उपासना स्थल में स्थान दिया गया है। यह भारत की धार्मिक सहिष्णुता का बेहतरीन नमूना है। माना जाता है कि इस चित्र को नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल में बनवाया गया था। इसके अलावा झरोखों से एक-दूसरे को निहारते राधा-कृष्ण, भगवान गणेश को स्तनपान करातीं माता पार्वती जैसे न जाने कितने दुर्लभ चित्र श्री दरबार साहिब में देखे जा सकते हैं। गुरुद्वारे की दीवारों पर उकेरे गए मुगल, पंजाबी, राजस्थानी और पहाड़ी शैली के वृत्त व भित्ति चित्र मुगल साम्राज्य और दरबार साहिब की निकटता के प्रमाण हैं। गुरुद्वारे की दीवारों पर राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंगों को उद्धृत करते चित्र पूरे भारत में कहीं ओर देखने को नहीं मिलेंगे। हीर-रांझा, लैला-मजनू व कुछ अंग्रेजों के चित्रों को भी दरबार साहिब की दीवारों पर स्थान मिला है।

बारादरी शैली में बनी समाधियां
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दरबार साहिब परिसर में गुरु राम राय महाराज की समाधि के अलावा चार और समाधियां भी हैं, जिन्हें माता की समाधि कहा जाता है। यह समाधियां फूल और पशु-पक्षियों के चित्रों से समृद्ध है पर एक समाधि साधारण है। समाधियों का निर्माण बारादरी शैली में हुआ है। इन समाधियों को 1780 से 1817 तक पूर्ण किया गया, जैसा कि इन पर अंकित है। इन समाधियों का चित्रण पूर्ण होने में आधी शताब्दी से भी अधिक समय लगा पर कहीं भी कोई मूर्ति चित्रण नहीं है।
शीशे की परत में सुरक्षित रहेगा इतिहास
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चित्रकला विशेषज्ञ एवं भारतीय ललित कला अकादमी के तत्कालीन चेयरमैन प्रो. बीआर कांबोज लिखते हैं कि शुरुआती दौर के भित्ति चित्रों में जहां मुगल शैली साफ झलकती है, वहीं बाद में राजस्थानी और गढ़वाली शैलियों के चित्र भी बनाए गए। इनमें रामायण, महाभारत और कृष्ण लीला समेत अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं उकेरा गया है। इन चित्रों के महत्व और विशेषज्ञों की चिंता को देखते हुए एएसआइ की मदद से इनके संरक्षण की कवायद शुरू की गई है। इसके तहत इनके बाहर शीशे की परत चढ़ाने के साथ ही खराब होते चित्रों को बचाने की कोशिश हो रही है।


Monday, 21 September 2020

वास्तु शिल्प की अद्भुत कृति चौरासी कुटिया



अगर आप शांति एवं सुकून की तलाश में हैं तो ऋषिकेश के शंकराचार्य नगर स्थित चौरासी कुटिया से बेहतर कोई स्थान नहीं। वास्तु शिल्प की अद्भुत कृतियों वाले इस नगर को योग साधना एवं ध्यान के लिए महर्षि योगी ने बसाया था। आइए! हम भी चौरासी कुटिया का दीदार करें...

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वास्तु शिल्प की अद्भुत कृति चौरासी कुटिया
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दिनेश कुकरेती

हर्षि महेश योगी ने बीती सदी के साठ के दशक में तीर्थनगरी ऋषिकेश के स्वर्गाश्रम क्षेत्र में शंकराचार्य नगर की स्थापना की थी। योग साधना और ध्यान के लिए यहां उन्होंने चौरासी कुटियों का निर्माण भी किया। 15 एकड़ परिक्षेत्र में फैले वास्तुकला की अद्भुत कृतियों वाले इस नगर से महर्षि की ख्याति क्या जुड़ी कि तीर्थनगरी विदेशी पर्यटक व साधकों के लिए योग की राजधानी बन गई। वर्ष 1980 में इस क्षेत्र के राजाजी नेशनल पार्क (अब राजाजी टाइगर रिजर्व) की सीमा में आने के बाद वर्ष 1985 में इसे बंद कर दिया गया। लिहाजा, तीन दशक तक योग-ध्यान एवं साधना का यह केंद्र भी आम लोगों की पहुंच से दूर रहा। इन वर्षों में यह धरोहर खंडहर में तब्दील हो गई। आठ दिसंबर 2015 को राजाजी टाइगर रिजर्व ने चौरासी कुटी को नेचर ट्रेल व बर्ड वॉचिंग के लिए खोला। इसके पीछे मकसद महर्षि महेश योगी और यहां से जुड़े रहे पश्चिम के मशहूर बैंड बीटल्स ग्रुप की स्मृतियों को भी नई पहचान देना था। आज यह स्थान पर्यटन के साथ अध्यात्म का भी महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका है। तीर्थनगरी आने वाले विदेशी सैलानी यहां आकर अपनी जिज्ञासाएं शांत करना नहीं भूलते।



गुरु को शिष्य ने दी थी एक लाख डॉलर की धनराशि दान
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चौरासी कुटिया के निर्माण को 38 सालों के लिए लीज पर ली गई भूमि के लिए महर्षि की शिष्य अमेरिकन महिला डोरिक ड्यूक ने उन्हें एक लाख डॉलर की धनराशि दान में दी थी। यहां गुफाओं के आकार में बनी चौरासी कुटियों के बीच में ध्यान केंद्र बना हुआ है। साधकों के रहने के लिए केंद्र में 135 गुंबदनुमा कुटिया भी बनी हुई हैं। अथितियों के लिए तीन मंजिला अथिति गृह, एक बड़ा सभागार, महर्षि ध्यान विद्यापीठ और महर्षि का आवास बना हुआ है। 84 कुटियों और अन्य आवासों को गंगा नदी के छोटे पत्थरों से सजाया गया है और गुफाओं की दीवारों पर इन्ही पत्थरों से 84 योग आसनों की मुद्राएं अंकित की गई हैं।



बीटल्स ग्रुप ने दी नई पहचान
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चौरासी कुटिया महर्षि महेश योगी और भावातीत ध्यान के कारण ही नहीं, मशहूर इंग्लिश रॉक बैंड द बीटल्स के कारण भी चर्चाओं में रही। इंग्लैंड के लिवरपूल के 4 युवकों जॉन लेनन, पॉल मैक-कार्टने, रिंगो स्ट्रार्र व जॉर्ज हैरिसन ने वर्ष 1960 में इस बैंड की स्थापना की थी। 16 फरवरी 1968 को ये युवक अपनी पत्नियों और महिला मित्र के साथ पहली बार ऋषिकेश महर्षि महेश योगी के ध्यान केंद्र में आए थे। नशे के आदी ये चारों युवक नशे के जरिये शांति तलाशने यहां आए थे, लेकिन यहां महर्षि के संपर्क में आने के बाद योग और अध्यात्म के अनुभव ने उनकी जिंदगी और जीने का नजरिया ही बदल डाला। 


 

करीब 45 दिन महर्षि के आश्रम में रहे बीटल्स से जुड़े ये चारों युवा 'फेब फोरÓ के नाम से मशहूर हुए। जिस नशे के जरिये फेब फोर शांति की खोज कर रहे थे, वही अब नशे की दुनिया छोड़ योग और अध्यात्म की दुनिया में इस कदर लीन हो गए कि यहां के शांत वातावरण में उन्होंने 'ú शांतिÓ का जाप करते हुए 48 गीतों की रचना कर डाली। इन गीतों ने व्हाइट एलबम और ऐबी रोड नामक पाश्चात्य एलबम में जगह पाकर दुनियाभर में धूम मचाई। 80 के दशक में चौरासी कुटिया के राजाजी नेशनल पार्क के अधीन आने के कारण महर्षि महेश योगी यहां से चले गए।

 

फिर पुराने अंदाज में नजर आ रही धरोहर

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अब गुंबदनुमा 84 कुटियोंं, योग हॉल व अन्य इमारतों का उनके मूल स्वरूप और पर्यावरण से छेड़छाड़ किए बिना जीर्णोद्धार कर दिया गया है। ईको पर्यटन समिति के माध्यम से यहां योग-ध्यान की कक्षाएं भी संचालित की जा रही है। उद्देश्य है यहां आने वाले पर्यटक महर्षि महेश योगी और बीटल्स के उस दौर को उसी अंदाज में महसूस करने के साथ योग-ध्यान और साधना भी कर सकें।



आज भी दुनिया की पसंद है बीटल्स
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दुनियाभर में अपने गीतों से धूम मचा देने वाले प्रसिद्ध रॉक बैंड बीटल्स को लेकर आज भी विश्वभर की खासी रुचि है। इस ग्रुप की चौरासी कुटिया से जुड़ी 50 साल पुरानी यादों को लेकर पर्यटन विभाग की ओर से वर्ष 2018 में लंदन में आयोजित कार्यक्रम इसका प्रमाण है।




दुनिया को अनुभवातीत ध्यान से जोड़ा
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पश्चिम में जब हिप्पी संस्कृति का बोलबाला था, तब दुनियाभर में लाखों लोग महर्षि महेश योगी के दीवाने हो रहे थे। वो महर्षि महेश योगी ही थे, जिन्हें योग और ध्यान को दुनिया के कई देशों में पहुंचाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने ट्रान्सेंडैंंटल मेडिटेशन (अनुभवातीत ध्यान) के जरिये दुनियाभर में अपने लाखों अनुयायी बनाए थे।

महेश प्रसाद से महर्षि योगी तक का सफर
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महर्षि महेश योगी (महेश प्रसाद वर्मा) का जन्म 12 जनवरी 1918 को छत्तीसगढ़ के राजिम शहर के पास पांडुका गांव में हुआ था। महर्षि ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक की उपाधि अर्जित की। 13 वर्ष उन्होंने ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के सानिध्य में रहकर दीक्षा ली। इसी दौरान शंकराचार्य की मौजूदगी में उन्होंने रामेश्वरम में दस हजार बाल ब्रह्मचारियों को आध्यात्मिक योग और साधना की दीक्षा दी। हिमालय क्षेत्र में दो वर्ष का मौन व्रत करने के बाद वर्ष 1955 में उन्होंने टीएम (ट्रान्सेंडैंंटल मेडिटेशन) की तकनीकी शिक्षा देने की शुरुआत की और वर्ष 1957 में टीएम आंदोलन शुरू कर विश्व के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। 


 

महर्षि के इस आंदोलन ने तब जोर पकड़ा, जब रॉक ग्रुप बीटल्स ने उनके आश्रम का दौरा किया। इसी के बाद महर्षि का ट्रान्सेंडैंंटल मेडिटेशन पूरी पश्चिमी दुनिया में लोकप्रिय हुआ। उनके शिष्यों में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर आध्यात्मिक गुरु दीपक चोपड़ा तक शामिल रहे। महर्षि ने वेदों में निहित ज्ञान पर अनेक पुस्तकों की रचना की। अपनी शिक्षाओं एवं उपदेशों के प्रसार के लिए वह आधुनिक तकनीकों का सहारा लेते थे। उन्होंने महर्षि मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसके माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा दी जाती है। महर्षि वर्ष 1990 में हॉलैंड (नीदरलैंड) में एम्सटर्डम के पास एक छोटे-से गांव व्लोड्राप में अपनी सभी संस्थाओं का मुख्यालय बनाकर वहीं स्थायी रूप से बस गए। वहीं से वे संगठन से जुड़ी गतिविधियों का संचालन करते थे। 5 फरवरी 2008 को यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।