Friday, 18 September 2020

मानवीय अभिव्यक्ति का रसमय प्रदर्शन है लोक नृत्‍य


मानवीय अभिव्यक्ति का रसमय प्रदर्शन है लोक नृत्‍य
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दिनेश कुकरेती
नृत्य एक ऐसी सार्वभौम कला है, जो मानव जीवन के साथ ही अस्तित्व में आ गई थी। नृत्य मानवीय अभिव्यक्ति का रसमय प्रदर्शन है, जिसमें करण, अहंकार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों का समावेश देखने को मिलता है। पाषाण जैसे कठोर एवं दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति को भी मोम सदृश पिघलाने की क्षमता इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। नृत्य मनोरंजक तो है ही, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का साधन भी है। अगर ऐसा न होता तो कला की यह धारा पुराणों व श्रुतियों से होते हुई धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। यह कला देव, दानव, मनुष्य एवं पशु-पक्षियों को समान रूप से प्रिय है। इसीलिए भगवान शंकर को नटराज कहा गया। उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार का प्रतीक माना जाता है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण श्रीकृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे नटवर कहलाए। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता साबित होती है।

अभिनीत गीत है लोक नृत्य
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लोक नृत्य एक प्रकार का अभिनीत गीत है, जो सबके मन को मोह लेता है। इसमें हाव-भाव आदि के साथ जो शारीरिक गति दी जाती है, उसे ही नृत्य कहा गया है। जिसने इसे स्वीकारा और साधना से इसे सिद्ध किया, समझ लीजिए उसने जीवन का अमोध आनंद प्राप्त कर लिया।

चौसठ कलाओं में प्रमुख
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यूं तो भारतीय शास्त्र में चौसठ कलाओं का जिक्र हुआ है, लेकिन नृत्य इनमें प्रमुख है। हालांकि 'शिव तत्व रत्नाकरÓ में उल्लिखित चौसठ कलाओं में नृत्य को यथोचित स्थान नहीं मिल पाया। श्रीमद् भागवत के प्रसिद्ध टीकाकार श्रीधर स्वामी ने भागवत के दशम स्कंध में जिन कलाओं का उल्लेख किया है, उनमें नृत्य प्रमुख है।

पुराकाल से ही जीवन का हिस्सा
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भारत में पुराकाल से ही नृत्य की बड़ी मान्यता रही है। तब नृत्य की शिक्षा राजकुमारों तक के लिए अनिवार्य समझी जाती थी। पांडवों के अज्ञातवास काल में राजा विराट की पुत्री उत्तरा को अर्जुन का वृहन्नला रूप में नृत्य की शिक्षा देने का प्रसंग महाभारत में प्रसिद्ध है। दक्षिण भारत में यह कला अब भी मौजूद है।


जीवन एवं प्रकृति से गहरा संबंध
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लोक नृत्य को आम देहाती स्त्री-पुरुष लोकवाद्यों को सहारा लेकर करते हैं। यह वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है, जो हर क्षेत्र के लोक जीवन में परिलक्षित होता है। सभ्य से सभ्य कही जाने वाली जातियों में भी लोकमानस का अंश मौजूद रहता है। साधारण लोक नृत्य सामूहिक होते हैं। हालांकि, जीवन एवं प्रकृति से गहरे तक जुड़े होने के कारण लोकनृत्य का रूप वर्ग विशेष में अपने व्यवसाय के अनुकूल हो जाता है।

लोकनृत्य की विशेषताएं
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-ये नृत्य 19वीं सदी या उससे भी पहले के हैं, जिनका कोई पेटेंट नहीं है।
-इन नृत्यों का ढंग पारंपरिक होता है। यह किसी व्यक्ति विशेष ने नवाचार से सृजित नहीं किए।
-इनमें नर्तक आम आदमी होता है, न कि समाज का कुलीन वर्ग।
-इन्हें नियंत्रित करने वाली कोई एक संस्था नहीं होती।

लोकजीवन की अनुभूति समेटते नृत्य
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उत्तराखंडी लोकजीवन अलग ही सुर-ताल लिए हुए है, जिसकी छाप यहां के लोकगीत-नृत्यों में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उत्तराखंडी लोकगीत-नृत्य महज मनोरंजन का ही जरिया नहीं हैं, बल्कि वह लोकजीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों से सीख लेने की प्रेरणा भी देते हैं। हालांकि, समय के साथ बहुत से लोकगीत-नृत्य विलुप्त हो गए, लेकिन बचे हुए लोकगीत-नृत्यों की भी अपनी विशिष्ट पहचान है। उत्तराखंड में लगभग दर्जनभर लोक विधाएं आज भी अस्तित्व में हैं, जिनमें चैती गीत यानी चौंफला, चांचड़ी और झुमैलो जैसे समूह में किए जाने वाले गीत-नृत्य आते हैं। इन तीनों ही गीतों में महिला-पुरुष की टोली एक ही घेरे में नृत्य करती है। हालांकि, तीनों की नृत्य शैली भिन्न है, लेकिन तीनों में ही शृंगार एवं भाव की प्रधानता होती है।

उत्‍तराखंड के प्रमुख लोक नृत्‍य
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चौंफला
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चांचड़ी और झुमैलो आदिकाल से ही शरदकालीन त्योहारों का हिस्सा रहे हैं, लेकिन अब वासंती उल्लास का गीत चौंफला भी इनमें शामिल हो गया है। चौंफला का शाब्दिक अर्थ है, चारों ओर खिले हुए फूल। जिस नृत्य में फूल के घेरे की भांति वृत्त बनाकर नृत्य किया जाता है, उसे चौंफला कहते हैं। मान्यता है कि देवी पार्वती सखियों के साथ हिमालय के पुष्पाच्छादित मैदानों में नृत्य किया करती थीं। इसी से चौंफला की उत्पत्ति हुई। इस नृत्य में स्त्री-पुरुष वृत्ताकार में कदम मिला, एक-दूसरे के विपरीत खड़े होकर नृत्य करते है। जबकि, दर्शक तालियों से संगीत में संगत करते हैं।


थडिय़ा
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'थाड़Ó शब्द का अर्थ होता है आंगन यानी घर के आंगन में आयोजित होने वाले संगीत और नृत्य के उत्सव को थडिय़ा कहते हैं। इसका आयोजन वसंत पंचमी के दौरान किया जाता है। इस समय रातें लंबी होती हैं, लिहाजा मनोरंजन के लिए गांव के लोग मिलकर थडिय़ा का आयोजन करते हैं। जिन बेटियों का विवाह हो चुका है, उन्हें भी गांव में आमंत्रित किया जाता है। सुंदर गीतों और तालों के साथ सभी लोग कदम से कदम मिलाकर नृत्य का आनंद लेते है। इन गीतों की विशिष्ट गायन एवं नृत्य शैली को भी थडिय़ा कहा जाता है।

तांदी
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उत्तरकाशी और टिहरी जिले के जौनपुर क्षेत्र में तांदी नृत्य खुशी के मौकों और माघ के पूरे महीने में पेश किया जाता है। इसमें सभी लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर शृंखलाबद्ध हो नृत्य करते है। इस नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत सामाजिक घटनाओं पर आधारित होते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से रचा जाता है। विशेषकर इनमें तात्कालिक घटनाओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के कार्यों का उल्लेख होता है।
झुमैलो
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झुमैलो सामूहिक नृत्य है, जो बिना वाद्ययंत्रों के दीपावली और कार्तिक के महीने में पूरी रात किया जाता है। गीत की पंक्तियों के अंत में झुमैलो की आवृत्ति और नृत्य में झूमने की भावना या गति का समावेश होने के कारण इसे झुमैलो कहा गया है। एक तरह से यह नारी हृदय की वेदना और उसकेप्रेम की अभिव्यक्ति है। इसमें नारी अपनी पीड़ा को भूल सकारात्मक सोच के साथ गीत एवं संगीत की सुर लहरियों पर नृत्य करती है।


छोलिया
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छोलिया उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। इसमें पौराणिक युद्ध और सैनिकों का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। असल में छोलिया नृत्य युद्ध में विजय के पश्चात होने वाले उत्सव का दृश्य प्रस्तुत करता है। सभी नर्तक पौराणिक सैनिकों का वेशभूषा धारण कर तलवार और ढाल के साथ युद्ध का अभिनय करते है। विभिन्न लोक वाद्यों ढोल-दमाऊ, रणसिंगा, तुरही और मशकबीन के सुरमयी तालमेल से यह नृत्य जन-जन में उत्साह का संचार कर देता है।

सरौं व पौंणा
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गढ़वाल में सरौं, छोलिया और पौंणा नृत्य प्रसिद्ध हैं। तीनों की शैलियां अलग-अलग हैं, लेकिन वीर रस एवं शौर्य प्रधान सामाग्री का प्रयोग तीनों में ही किया जाता है। सरौं नृत्य में ढोल वादक मुख्य किरदार होते हैं, जबकि छोलिया और पौंणा नृत्य को वादक एवं नर्तक के साझा करतब पूर्णता प्रदान करते हैं। इन नृत्यों में सतरंगी पोशाक, ढोल-दमाऊ, नगाड़ा, भंकोरा, कैंसाल, रणसिंगा और ढाल-तलवार अनिवार्य हैं।


झोड़ा
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इसे हिंदी के 'जोड़ाÓ शब्द से लिया गया है। यह शादी-ब्याह और कौथिग (मेला) में हाथों को जोड़कर या जोड़े बनाकर किया जाने वाला सामूहिक नृत्य है। जिसके मुख्य रूप से दो रूप प्रचलन में हैं, एक मुक्तक झोड़ा और दूसरा प्रबंधात्मक झोड़ा। प्रबंधात्मक झोड़ा में देवी-देवताओं और एतिहासिक वीर भड़ों का चरित्र गान होता है। इसमें स्त्री-पुरुष गोल घेरा बनाकर एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रख पग आगे-पीछे करते हुए नृत्य करते हैं। घेरे के बीच में मुख्य गायक हुड़का वादन करते हुए गीत की पहली पंक्ति गाता है, जबकि अन्य लोग उसे लय में दोहराते हैं। कुमाऊं के बागेश्वर क्षेत्र में माघ की चांदनी रात में किया जाने वाला यह नृत्य स्त्री-पुरुष का शृंगारिक नृत्य माना गया है।

चांचरी (चांचड़ी)
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यह संस्कृत से लिया गया शब्द है, जिसका अर्थ है नृत्य ताल समर्पित गीत। मूलत: यह कुमाऊं के दानपुर क्षेत्र की नृत्य शैली है, जिसे झोड़े का प्राचीन रूप माना गया है। इसमें भी स्त्री-पुरुष दोनों सम्मलित होते हैं। इसका मुख्य आकर्षण रंगीन वेशभूषा व विविधता है। इस नृत्य में धार्मिक भावना की प्रधानता रहती है।

हुड़का नृत्य
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ढोल नृत्य की तरह प्राचीन इस नृत्य को भी कई नामों से जाना जाता है। मध्य युग में हुड़किये चारण कवि युद्ध भूमि में अपने स्वामी की प्रशंसा में इस नृत्य को किया करते थे। कुमाऊं में इस नृत्य को खास पसंद किया जाता है।

छपेली
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कुमाऊं के इस नृत्य को 'छबीलीÓ भी कहा जाता है। इसे प्रेमी युगल का नृत्य माना गया है। यह विशुद्ध लोकनृत्य न होकर नृत्य गीत है। जिस गीत में स्त्रियों का प्रसंग वर्णित हो, वहां इसे छपेली कहा जाता है। प्रेम एवं शृंगार प्रधान इस नृत्य में कभी-कभी पुरुष ही स्त्री वेशभूषा में अभिनय करता है। पुरुष के हाथ में हुड़की होती है, जिसे बजाते हुए वह नृत्य करता है और गीत गाता है। बदले में महिला शर्माने की भाव-भंगिमा बनाकर अपनी अभिव्यक्ति देती है।

जागर और पंवाड़ा
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जागर और पंवाड़ा लोकनृत्य देवी-देवताओं को नचवाने के लिए किए जाते हैं। देवी-देवताओं की कथाओं पर आधारित गायन और छंदबद्ध कथावाचन (गाथा) का प्रस्तुतीकरण इस विधा का रोचक पक्ष है। गायन-वादन के लिए विशेष रूप से गुरु-शिष्य परंपरा में प्रशिक्षित व्यक्ति ही आमंत्रित किए जाते हैं, जिनका आज भी यही मुख्य रोजगार है।

पंडावर्त
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पांडवों से जुड़ी घटनाओं पर आधारित पंडावर्त शैली के लोकनृत्य वास्तव में नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। ये लोकनृत्य 20 लोक नाट्यों में 32 तालों और सौ अलग-अलग स्वरलिपि में आबद्ध होते हैं। पांडव नृत्य पांच से लेकर नौ दिन तक का हो सकता है, जिसमें कई पात्र होते हैं।

मंडाण
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उत्तराखंड के प्राचीन लोकनृत्यों में मंडाण सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। शादी-ब्याह अथवा धार्मिक अनुष्ठानों के मौके पर गांव के खुले मैदान (खलिहान) या चौक के बीच में अग्नि प्रज्ज्वलित कर मंडाण नृत्य होता है। इस दौरान ढोल-दमौ, रणसिंगा, भंकोर आदि पारंपरिक वाद्यों की धुनों पर देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। इसमें ज्यादातर गीत महाभारत कालीन प्रसंगों पर आधारित होते हैं। इसके अलावा लोक गाथाओं पर आधारित गीत भी गाए जाते है। देखा जाए तो यह पंडौं नृत्य का ही एक रूप है।

हंत्या (अशांत आत्मा नृत्य)
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दिवंगत आत्मा की शांति के लिए अत्यंत कारुणिक गीत रांसो का गायन होता है और डमरू व थाली (डौंर-थाली) के सुरों पर नृत्य किया जाता है। ऐसे छह नृत्य हैं, चर्याभूत नृत्य, हंत्या भूत नृत्य, व्यराल नृत्य, सैद नृत्य, घात नृत्य और दल्या भूत नृत्य।

रणभूत नृत्य
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गढ़वाल क्षेत्र में किया जाने वाला यह नृत्य युद्ध में मारे गए वीर भड़ों को देवता के समान आदर देने के लिए किया जाता है, ताकि वीर की आत्मा को शांति मिले। इसे 'देवता घिरनाÓ भी कहते हैं और यह दिवंगत वीर के वंशजों द्वारा करवाया जाता है। गढ़वाल व कुमाऊं का पंवाड़ा या भाड़ौं नृत्य भी इसी श्रेणी का नृत्य है।

भागनौली नृत्य
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यह कुमाऊं अंचल का नृत्य है, जिसे मेलों में किया जाता है। इस नृत्य में हुड़का और नागदा जैसे वाद्ययंत्र प्रमुख होते हैं।

लांग (लांगविर) नृत्य
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यह गढ़वाल का उत्साहवद्र्धन करने वाला नृत्य है, जिसमें पुरुष को एक सीधे खंभे के शीर्ष पर पेट के सहारे संतुलन बनाकर नाचना होता है। नीचे लोक वादक ढोल-दमाऊ की सुरलहरियों से नृत्य को और भी दिलचस्प बना देते हैं। यह नृत्य टिहरी जिले में काफी प्रसिद्ध है।

हारुल
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महाभारत की गाथा पर आधारित यह जौनसार का प्रमुख लोकनृत्य है। जौनसार क्षेत्र में पांडवों का अज्ञातवास होने के कारण यहां उनके कई नृत्य प्रसिद्ध हैं। इस नृत्य में रामतुला (वाद्ययंत्र) बजाना अनिवार्य होता है।

बुडिय़ात
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जौनसार बाबर में यह नृत्य शादी-ब्याह, जन्मोत्सव जैसे खुशी के मौकों पर किया जाता है।

नाटी
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यह देहरादून जिले की चकराता तहसील का पारंपरिक नृत्य है। जौनसार क्षेत्र के हिमाचल प्रदेश से जुड़े होने के कारण यहां की नृत्य शैली भी हिमाचल से काफी मिलती-जुलती है। महिला-पुरुष रंगीन कपड़े पहनकर इस नृत्य को करते हैं।

Wednesday, 16 September 2020

बहुत पछताए एजेंट बनकर

 



 (व्यंग्य)

बहुत पछताए एजेंट बनकर

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दिनेश कुकरेती

र व्यक्ति जीवन में कुछ-न-कुछ बनने की तमन्ना दिल में संजोए रखता है। कोई नेता तो कोई अभिनेता, कोई डाक्टर तो कोई इंजीनियर, कोई शिक्षक, कोई बिजनेमैन, कोई चोर-डकैत, कोई गिरहकट, कोई कातिल वगैरह-वगैरह। यानी हरेक व्यक्ति के जीवन में वह समय जरूर आता है, जब वह किसी-न-किसी मुकाम पर पहुंच जाता है। जो कुछ नहीं बन पाता, उसे भी लोग बव्वा, क्वद्या, निट्ठला, बेकार, आवारा, लफंगा जैसे अलंकरणों से सुशोभित कर देते हैं। कहने का मतलब कुछ-न-कुछ तो हरेक को बनना ही पड़ता है, गोया मैं ही इससे कब तक बचा रहता।।

मेरी समाज में अच्छी छवि है (थी), लोगों को मुझ पर भरोसा भी है (था)। बल्कि कइयों से तो मैंने ये भी सुना है कि ईमानदार भी हूं (था)। सो, मैंने भी सोचा कि क्यों न इस छवि को भुनाया जाए। पढा़-लिखा भी हूं ही और अवगुण भी कुछ नहीं हैं, तो क्यों न एजेंट बन लिया जाए। वैसे भी देश में बेरोजगारी बहुत है। फिर ऐजेंटगीरी का धंधा भी चोखा है। इसके लिए न किसी डिग्री-डिप्लोमा की जरूरत, न पैसा-पल्ली की ही। हां, थोडा़ चिपकू प्रवृत्ति का होना जरूरी है। कार्य यह है कि किसी की राशि में सवार हो जाओ तो तब तक सवार रहो, जब तक कि वह जेब ढीली न कर दे।यही खूबी एक सफल एजेंट की पहचान भी है और शायद मैं इस खूबी से सरावोर था।



 

फिर सोचना क्या था, मेरे सधे कदम एजेंट बनने की राह पर अग्रसर हो गए। इसके लिए सबसे पहले मैंने एक बीमा कंपनी का रुख किया। सोचा भरोसे का महकमा है, केस लेने में किसी तरह की समस्या नहीं होगी। सो, अगले दिन मैं एक मित्र के साथ बीमा कंपनी के दफ्तर जा पहुंचा। वहां पर डीओ से मिला। उसने मुझे एक फार्म दिया और कहा, इसे भरकर तीस रुपये फीस समेत जमा करा दो।इसके साथ ही उसने कुछ पालिसी फार्म और जानकारी के लिए एक पुस्तक भी थमा दी और एक बात विशेष रूप से समझाई कि एजेंट बनने की शर्त पूरी करने के लिए कम-से-कम चार केस देना जरूरी है।

अब मुझ पर एजेंट का लेबल लग चुका था। सो, मैंने ग्राहकों की खोज में भटकना शुरू कर दिया। इसके लिए मित्रों ने भी मेरा उत्साहवर्द्धन किया। मैं सुबह से शाम तक मैं ग्राहक तलाशता रहता, लेकिन शुरुआत कहां से करूं, इसी उधेड़बुन में पांच-छह दिन गुजर गए। अब मैं थोडा़ खिन्न सा हो गया था। सफलता न मिलने पर ऐसा होना लाजिम है। खैर! जब कोई राह न सूझी तो मैं सीधे अपने एक दुकानदार मित्र के पास जा पहुंचा। उसे समझाया और बताया कि एजेंटगीरी को मैंने कैरियर बना लिया है, गोया, उसे मेरी मदद करनी ही पडे़गी। थोडी़ मशक्कत के बाद वह बीमा कराने के लिए तैयार हो गया। मेंने हाथों-हाथ उससे पहली किश्त भी ले ली।

एक पालिसी के बाद मेरा उत्साह दोगुना हो गया था, सो अब मैंने अन्य लोगों को घेरना शुरू कर दिया। कइयों को तो होटलों में चाय भी पिलानी पडी़, लेकिन हासिल सिफर रहा। कुछ लोग तो ऐसे भी टकरे, जो कहते, हमें अपनी जिंदगी पर पूरा भरोसा है, सो भला बीमा करने से क्या फायदा। कुछ पहली किस्त जमा करने के लिए कहते। बताइए, अगर ऐसा संभव होता तो कौन कमबख्त भला इस झमेले में पड़ता। खैर! एक महीना यूं ही गुजर गया। पहली वाली पालिसी के पैसे भी खर्च हो गए, क्योंकि उन्हें अब तक जमा ही नहीं किया था। इधर, घरवाले अलग कोसते कि मैं क्या कर रहा हूं। जब मैंने उनकी भी नहीं सुनी तो वे कुछ घबराये-से रहने लगे। उनके मन में यह बात घर कर गई कि मेरा दिमाग फिर गया है। कई दिनों तक तो मैं उन्हें किसी तरह मनाता रहा, लेकिन आखिर में मुझे हथियार डालने ही पडे़ और मैंने एजेंटगीरी से तौबा कर ली। इससे घरवालों ने भी चैन की सांस ली।


 

कुछ दिन तो मैं खामोश रहा, लेकिन फिर एजेंटगीरी का भूत मुझे कोसने लगा कि बरखुरदार! इतनी जल्दी हिम्मत हार गए। जबकि मैं हिम्मत हारने वाला प्राणी कभी रहा ही नहीं। हां, घरवालों के डर से कुछ दिन ढीला जरूर पड़ गया था। सो, एक बार फिर मैं नए सिरे से एजेंट बनने की राह पर चल पडा़। लेकिन, अब मेरा टारगेट चिटफंड कंपनियां थी। साथ ही मैंने अब यह भी तय कर लिया कि घरवालों के कानों में भनक तक नहीं लगने दूंगा कि उनका लाडला एक बार फिर एजेंट बन चुका है। एक-न-एक दिन मेरी एजेंटगीरी की चमक उन्हें स्वयं चौंधिया देगी।

अब एक रोज मैं अपने शहर में स्थित एक चिटफंड कंपनी के दफ्तर जा पहुंचा। वहां पर ब्रांच मैनेजर कहे जाने जीव से मुलाकात की और बताया कि मैं एजेंट बनने का इच्छुक हूं, सो मेहरबानी कर मेरा मार्गदर्शन करें। अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें। मैनेजर गदगद हो  गया। उसने मुझे अपनी समस्त योजनाएं बताईं और समझाया कि मुझे किस प्रकार लोगों की जेब से पैसे निकालने हैं। उस दिन मैं खुद को काफी गौरवान्वित महसूस कर रहा था। क्योंकि अगले दिन से मुझे अपनी एजेंटगीरी का शुभारंभ जो करना था।

अगले दिन मैं तड़के उठ गया और नित्य क्रिया से निवृत्त होने के बाद अपने ईष्ट का स्मरण कर निकल पड़ा कंपनी के लिए धन एकत्र करने। इस बार भी शुरुआत मैंने अपने उसी मित्र से की, जिससे बीमा करवाया था। हालांकि, मित्र को भली-भांति ज्ञात था कि उसकी पालिसी की किस्त मैं उडा़ चुका हूं। फिर भी मरता क्या न करता, मेरे कैरियर की खातिर उसने खाता खोल ही दिया। धीरे-धीरे मुझे सफलता भी मिलने लगी और महीनेभर में मैंने तकरीबन 55 हजार रुपये कंपनी के लिए जुटा लिए। इस कार्य में मुझे अपेक्षाकृत उतनी परेशानी का सामना भी नहीं करना पडा़, जितनी बीमा कंपनी की एजेंटगीरी में करना पड़ता था। उस पर अच्छा-खासा कमीशन मिलने के कारण मेरे हौसले भी बुलंद हो गए। लेकिन, मैंने फिर भी घरवालों को इसकी हवा तक नहीं लगने दी।

अगले माह से मैंने दिनभर मेहनत करनी शुरू कर दी। अच्छे-खासे खाते खुलने लगे। लोगों का मुझ पर विश्वास भी जम गया। अब मैं एक रेपुटेडेट एजेंट था। कितने ही लोगों को तो मैंने गारंटी भी दे दी कि अगर उनके पैसे कंपनी वापस नहीं करती तो मैं खुद लौटाऊंगा। वैसे मैं भली-भांति जानता था कि यदि मेरी औकात ऐसे पैसे लौटानी की होती तो अपना ही कोई अच्छा-खासा कारोबार न शुरू कर देता। लेकिन, इतनी गहरी बातें भला किसके दिमाग में आती हैं। फिर मुझे तो येन-केन-प्रकारेण लोगों की जेब से पैसे निकालने थे।

छह-साथ माह में मैं शहर का एक नामी एजेंट बन चुका था। लोग मुझ पर आंख मूंदकर भरोसा करने लगे। मेरा कमीशन भी बढ़ने लगा। सो, मैंने अपने नाम से भी एक खाता खुलवा दिया। सोचा, संचित धन कहां जाने वाला है, जमा करके तो उसे बढ़ना ही है। अब मेरे घरवालों को भी यह बात मालूम पड़ गई थी कि उनका पुत्र पैसा और नाम, दोनों ही कमा रहा है।


 

हां! एजेंटगीरी का एक नुकसान मुझे जरूर हुआ। हालांकि, यह नुकसान आर्थिक नहीं था। नातेदार, रिश्तेदार, दोस्त वगैरह मुझसे दूर रहने लगे। किसी की नजर दूर से मुझ पर पड़ जाती तो वहीं से हाथ हिलाकर कन्नी काट देता। भूलवश कोई दो-चार हो भी जाता तो जल्दी-जल्दी पल्लू झाड़ने की फिराक में रहता। क्योंकि उसे प्रायः यह डर लगा रहता कि कहीं मैं खाता खोलने का जिक्र न कर दूं। कालेज के दौर में मेरे इर्द-गिर्द रेंगने वाले दोस्त, जिन पर मैं यदा-कदा सामर्थ्यानुसार पैसे भी खर्च कर दिया करता था, मुझसे कन्नी काटने लगे। कारण मैं ऐसे प्रभावशाली एजेंट के रूप में विख्यात हो चुका था कि जिसकी राशि पर सवार हो जाता,  उसकी जेब से पैसे निकालकर ही दम लेता।

एजेंटगीरी करते-करते दो साल कब गुजर गए, पता ही न चला। कुछ लोगों का धन भी इस अवधि में राजी-खुशी लौट गया। फलतः उन्होंने दोगुनी रकम के खाते मुझे दे दिए। मेरा हौसला और भी बुलंद हो गया। लोगों का अंधाधुंध पैसा मेरे जरिये कंपनी में जमा होने लगा।

कहते हैं, होनी बलवान है। उसे कोई नहीं टाल सकता और उसका पूर्वाभास भी बहुत कम लोगों को ही हो पाता है। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। होनी अपना काम कर गई और मैं असहाय-सा टुकुर-टुकुर देखता रह गया। हुआ यूं कि अचानक मेरा स्वास्थ्य गड़बडा़ गया, जिस कारण आठ-दस दिन मैं कंपनी के दफ्तर नहीं जा पाया। एक सुबह मैं नहा-धोकर मुहल्ले की दुकान पर अखबार पढ़ रहा था कि तभी मेरी नजर मेरे ही शहर से छपी एक खबर पर पडी़। मोटे-मोटे हरफों में छपा था, "...कंपनी ग्राहकों के करोडो़ं रुपये लेकर चंपत, आफिस पर ताला पडा़।" इस खबर पढ़ते ही मैं चेतनाशून्य हो गया।

उसके बाद क्या हुआ और क्या नहीं,  अवर्णनीय है। आज भी जब सोचता हूं तो रोंगटे खडे़ हो जाते हैं। मैं एजेंट से चोर बन गया। लोग मुझे ऐसी नजरों से देखते, मानो मैं कोई हलाल होने वाला बकरा होऊं। यही वजह है कि आज भी मैं लोगों से मुंह छिपाए फिर रहा हूं। लाखों का कर्ज़ अब तक सिर पर चढा़ है। जब अकेला होता हूं तो बार-बार घरवालों के कहे हिदायतभरे शब्द दिमाग में कौंधने लगते हैं। सोचता हूं, क्यों नहीं अमल किया तब घर वालों की सलाह पर। तब ऐसा लगता है, मानो ये पंक्तियां मेरे लिए ही लिखी गई हैं कि, "चौबे जी छबे बनने गए थे, दुबे होके आए, थे केक की फिक्र में, रोटी भी गई, चाही थी बडी़, छोटी भी गई, वाइज की नसीहत, क्यों न मानी आखिर, पतलून की ताक में, लंगोटी भी गई।"



Tuesday, 15 September 2020

Asan lake of Doon is the home of Siberian birds



Asan lake of Doon is the home of Siberian birds

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Dinesh Kukreti

Situated at a distance of 42 km from Dehradun and only six km from Paonta Sahib, the Asan Lake (Asan Conservation Reserve), which connects Uttarakhand and Himachal Pradesh, has a different history.  This artificial lake (barrage) at the confluence of the Asan River and the East Yamuna Canal is located near the Dhalipur Power Plant (Dakpathar) in the north-west of Dehradun city.  Hence it is also known as Dhalipur Lake.  The Assan Lake, spread over an area of ​​444 hectares of the country's first Conservation Reserve, is famous as a site of stagnation of Siberian birds.  Every year, thousands of tourists turn to Asan Barrage to see these foreign guests.  The birds seen here are listed as endangered species in the IUCN's Red Data Book (International Union for Conservation of Nature).  Built in the year 1967, this lake is considered an ideal place for bird lovers, ornithologists and naturalists.


 

Bird lovers are drawn

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The river floor of the 287.5 meter long Asan reservoir is spread over an area of ​​four sq km to a height of 389.4 meters above sea level.  Its maximum water level is 403.3 meters.  The area around the reservoir is muddy and there is an abundance of avifaunal species that inspire bird lovers to come here. 



Dedicated to the nation in 2005

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The beautiful green mountains, waterfalls and lake cliffs surrounding the beautiful green mountains, waterfalls and lake in the vicinity of the Asan Nammand area along the banks of river Yamuna at the distance of six km from Vikasnagar is the first choice of birds.  In view of this, the region was declared the first Conservation Reserve of the country.  It was dedicated to the nation on 14 August 2005 by the then President APJ Abdul Kalam.


 

These birds increase the glory of the seat

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Every year, foreign birds arrive at a number of hundreds by traveling more than two thousand km in the Asan Nambhoomi region.  You can see more than 250 bird species here, including about 80 water birds.  These include Wooly Nected, Painted Stark, Rudy Shelduck, Black Ibis (Red Capt. Ibis), Pallas Fish Eagle, Great Crested Grab, Gray Leg Goose, Rudy Shelduck, Gadwall, Erosion Vision, Mallard, Spot Build Duck, Common Pochard, Tuffed Duck,  Purple Sweep Hen, Kamen Morehen, Kamen Code, Black Wing Skilled, River Loping, Black Headed Gal, Pallas Fish Eagle, Erosian Mark Herrier, Little Grab, Darter, Little Cormorant, Little I Great, Great I Great, Gray Heron, Purple Heron  , Parmen, Common Kingfisher, White Throated Kingfisher, Parched Kingfisher etc.  Asan lake is the home of these councils from mid-October to mid-March.  Most of these migrants reach here from countries like Siberia, China, Nepal, Bhutan, Thailand, Pakistan, Bangladesh etc.


 

Adventure tourists can take water ski training

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GMVN provides paddle boat facilities to the Asan Reserve for tourists who want to see the domestic and foreign guests who come here.  AC and deluxe hut facilities are also available for tourists who want to stay here for night.  It is an extra attraction for tourists who like adventure.  Water ski training is imparted here to the adventurous tourists between April to June and September to October.


 

Fun of water sports

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Water sports activities are conducted by Garhwal Mandal Vikas Nigam (GMVN) Water Sports Complex at Asan Barrage.  GMVN established this water sports venue in the year 1994.  It has facilities of water skiing, paddle boating, rowing, kayaking, motor boating and canoeing which attract adventure tourists.


 

The unique biodiversity of wetlands

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Water-saturated (wetland) terrain is called wetland.  Many terrain is humid throughout the year and many in particular climates.  The wetlands are extremely sensitive from biodiversity point of view.  Only special types of vegetation are adapted to grow and thrive on wetlands.  According to a convention passed in 1971 in the city of Ramsar, Iran, the wetland is a place where water is filled for at least eight months in a year.  Places with natural or artificial, permanent or temporary, full-time wet or short-term, stagnant water or unstable water, clean water or unhygienic, saline and muddy waters are covered under wetland.  Each wetland has its own ecosystem (biodiversity), and biodiversity.  These wetlands are habitat for aquatic animals, birds, etc.



 

Winter season most thrilling for bird lovers

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The winter season is the most exciting time for bird lovers to visit the Asan Barrage.  During this time 11 species of migratory birds can be seen here.  Apart from this, about 90 percent of the rare waterfowl are present here.  May to September is the best time to visit for serious birdwatchers.


Monday, 14 September 2020

उत्‍तराखंड हिमालय में है फूलों की एक गुमनाम घाटी

चलिए! आपको फूलों की ऐसी जन्नत की सैर कराएं, जिसके बारे में देश-दुनिया तो छोडि़ए, उत्तराखंड के लोगों को भी ठीक से जानकारी नहीं है। चमोली जिले में समुद्रतल से 13 हजार फीट की ऊंचाई पर 'चेनापÓ नाम से पहचान रखने वाली यह घाटी पांच वर्ग किमी क्षेत्र में फैली हुई है। अब तक यहां 315 प्रजाति के दुर्लभ हिमालयी फूल चिह्नित किए जा चुके हैं।

उत्‍तराखंड हिमालय में है 

फूलों की एक गुमनाम घाटी
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दिनेश कुकरेती
प जानते हैं कि सीमांत चमोली जिले में विश्व धरोहर फूलों की घाटी के अलावा भी एक और फूलों की घाटी मौजूद है ? ब्लॉक मुख्यालय जोशीमठ से 28 किमी दूर समुद्रतल से 13 हजार फीट की ऊंचाई पर सोना शिखर के पास पांच वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैली फूलों की इस जन्नत को लोग 'चेनाप घाटीÓ के नाम से जानते हैं। यह घाटी विश्व प्रसिद्ध हिमक्रीड़ा स्थल औली के ठीक सामने हिमाच्छादित चोटियों की तलहटी में स्थित है। जून से लेकर अक्टूबर तक यहां लगभग 315 प्रजाति के दुर्लभ हिमालयी फूल खिलते हैं, बावजूद इसके उत्तराखंड के पर्यटन मानचित्र पर इस घाटी का जिक्र तक नहीं है।


प्रकृति ने संवारी फूलों की क्यारियां
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चेनाप घाटी का सबसे बड़ा आकर्षण है, वहां प्राकृतिक रूप से बनी एक से डेढ़ मील लंबी मेड़ और क्यारियां। देव पुष्प ब्रह्मकमल की क्यारियों को देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे किसी कुशल शिल्पी ने इन्हें करीने से सजाया हो। इन क्यारियों को 'फुलानाÓ कहते हैं। स्थानीय लोगों में किवदंती प्रचलित आंछरियां (परी) यहां फूलों की खेती करती हैं। इसके अलावा यहां दुर्लभ प्रजाति के वन्य जीवों और औषधीय जड़ी-बूटियों का भी समृद्ध भंडार मौजूद है।



जुलाई से सितंबर के बीच निखरती है रंगत
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वैसे तो चेनाप घाटी की सुंदरता बारहों महीने बनी रहती है। लेकिन, जुलाई से सितंबर के मध्य यहां खिलने वाले नाना प्रकार फूलों का सौंदर्य अभिभूत कर देने वाला होता है। सितंबर के बाद धीरे-धीरे फूल सूखने लगते हैं। हालांकि, हरियाली का आकर्षण फिर भी बना रहता है।


बंगाली पर्यटकों की खास पसंद
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भले ही चेनाप घाटी के बारे में देश-दुनिया को जानकारी न हो, लेकिन पश्चिम बंगाल के पर्यटकों का यह पसंदीदा ट्रैक है। सुविधाएं न होने के बावजूद बंगाल के पर्यटक हर साल काफी संख्या में चेनाप घाटी के दीदार को पहुंचते हैं। 


तीन दिन का रोमांचक ट्रैक
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चेनाप घाटी के लिए मुख्य रास्ता जोशीमठ के समीप मारवाड़ी पुल से होकर जाता है। यह तीन दिन का ट्रैक है। पहले दिन मारवाड़ी से करीब आठ किमी की दूरी तय कर थैंग गांव और दूसरे दिन यहां से छह किमी दूर धार खर्क पहुंचा जाता है। यहां से चार किमी के फासले पर चेनाप घाटी है। यह दूरी तीसरे दिन तय होती है।


2013 की आपदा के बाद नजरों में आई घाटी
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चेनाप घाटी जाने के लिए विकासखंड मुख्यालय जोशीमठ से दो रास्ते जाते हैं। इनमें एक रास्ते से चेनाप घाटी जाकर दूसरे से वापस लौटा जा सकता है। एक रास्ता थैंग गांव के घिवाणी तोक और दूसरा मेलारी टॉप से होकर जाता है। मेलारी टॉप से हिमालय की दर्जनों पर्वत शृंखलाओं का नजारा देखते ही बनता है। इसके अलावा बदरीनाथ हाइवे पर बेनाकुली से खीरों व माकपाटा होते हुए भी चेनाप घाटी पहुंचा जा सकता है। यह 40 किमी लंबा ट्रैक है, जो खासतौर पर बंगाली पर्यटकों की पसंद माना जाता है। वर्ष 2013 की आपदा में जब फूलों की घाटी जाने वाला रास्ता ध्वस्त हो गया तो प्रकृति प्रेमी यहां पहुंचने लगे। इसके बाद ही लोगों ने इस घाटी के बारे में जाना।


चेनाप घाटी के खास आकर्षण
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चनाण हल: चेनाप बुग्याल में मौजूद फूलों की प्राकृतिक क्यारी को 'चनाण हलÓ नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि हर साल देवी नंदा के धर्म भाई लाटू देवता यहां हल लगाने आते हैं और यह क्यारी तैयार करते हैं।


लाटू कुंड:
चेनाप बुग्याल के बायीं ओर एक विशाल कुंड है, जो अब दलदल का रूप ले चुका है। इस कुंड को लाटू कुंड के नाम से जाना जाता है।


जाख भूत धारा (झरना):
चेनाप बुग्याल के ठीक सामने काला डांग (ब्लैक स्टोन) नामक चोटी से निकलने वाले विशाल झरने को जाख भूत धारा नाम से जाना जाता है।


मस्क्वास्याणी: चेनाप बुग्याल के बायीं ओर ब्रह्मकमल की एक विशाल क्यारी है, जो जुलाई से लेकर सितंबर तक हरी-भरी रहती है। इसे मस्क्वास्याणी नाम दिया गया है।

फुलाना बुग्याल:
चेनाप बुग्याल से 400 मीटर दूर 130 डिग्री के ढलान पर जड़ी-बूटियों (कड़वी, अतीस, हाथ जड़ी) एवं फूलों की एक विशाल क्यारी है। इसे ग्रामीण फुलाना बुग्याल नाम से जानते हैं।




काला डांग: चेनाप बुग्याल के ठीक सामने एक विशाल काले पत्थर की चोटी है, जो सितंबर तक हिमाच्छादित रहती है। काली होने के कारण यह चोटी बेहद आकर्षक नजर आती है।

फाइलों में 'ट्रैक ऑफ द ईयरÓ
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दो वर्ष पूर्व चेनाप घाटी को 'ट्रैक ऑफ द ईयरÓ घोषित करने के लिए पर्यटन विभाग की ओर से शासन को कार्ययोजना भेजी गई थी। लेकिन, विडंबना देखिए कि इसे आज तक मंजूरी नहीं मिल पाई। जबकि, स्थानीय लोगों को इससे बड़ी उम्मीदें थीं। हालांकि, अब वन विभाग का दावा है कि चेनाप घाटी को देश-दुनिया की नजरों में लाने के लिए विभाग ने कार्ययोजना तैयार की है। जल्द ही इस पर कार्य शुरू कर दिया जाएगा।


पौराणिक मान्यता
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पुराणों में उल्लेख है कि उतनी खुशबू गंधमादन पर्वत और बदरीवन के फूलों में नहीं पाई जाती, जितनी कि चेनाप बुग्याल के फूलों में। कहा गया है कि राजा विशाला ने हनुमान चट्टी में विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। जिस कारण बदरीवन और गंधमादन पर्वत के फूलों की खुशबू खत्म हो गई।











फिर भी नहीं मिल पाई पहचान
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-वर्ष 1987 में हिमक्रीड़ा स्थल औली में पहले राष्ट्रीय खेलों के शुभारंभ अवसर पर तत्कालीन जिला पंचायत अध्यक्ष रामकृष्ण उनियाल ने केंद्रीय पर्यावरण सचिव के समक्ष इस जन्नत को पर्यटन मानचित्र से जोडऩे की मांग की थी।

-वर्ष 1989 में बदरी-केदार क्षेत्र के विधायक कुंवर सिंह नेगी ने चेनाप घाटी पहुंचकर इसे पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की बात कही थी।

-वर्ष 1997 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन पर्यटन महानिदेशक सुरेंद्र सिंह पांगती ने भी यहां कदम रखे, लेकिन कहानी फिर भी आगे नहीं बढ़ पाई।

-बाद में भी वन विभाग व स्थानीय प्रशासन की टीमें समय-समय पर चेनाप घाटी का दौरा करती रहीं। बावजूद इसके आज तक घाटी पहचान को तरस रही है।

Sunday, 13 September 2020

Kanwashram then and now

Kanwashram then and now
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Dinesh Kukreti
Before saying anything on the ashram of Maharishi Kanva located on the banks of the Malini River in the Kedarkhand region, I consider it necessary to mention the letter of Dr. Hazari Prasad Dwivedi, which he wrote to the then Chief Minister of Uttar Pradesh Hemwati Nandan Bahuguna on October 4, 1975  Was.  The letter was somewhat like - 'Respected Bahuguna ji, I went to see Kanwashram near Kotdwar on 24 October 1971.  I was accompanied by Pt. Banarsidas Chaturvedi, Naithanji and many other writers.  Very beautiful place.  With this is the connection of Kalidasa's "Abhigyanashakuntalam".  I went back to that place and got overwhelmed.  The banks of the Malini River are truly calm and captivating as Kalidas describes.  The path is fine, but due to the instability of the river flow in the middle, it is a bit bumpy, which reminds us of Kalidasa's newly-landscaped land.  This place is very little in the knowledge of the people, the tourist department can make good use of it.  I pray that you take note of this a little personally.  Later this place will prove to be very suitable for Kalidas ceremony.  ... I had many literary friends from Garhwal and Bijnor that day, all of whom showed deep affinity towards this ashram.  ... I am sure that after getting a little bit of devotion from your people, the people here will take this ceremony themselves enthusiastically.

Mitars (friends), a lot has changed in this four-decade span, but the circumstances of Kanwashram are more or less the same as Dwivedi had said in his letter.  Yes!  Then there was both possibility and thinking, whereas today there is an absolute lack of both.  Far from preserving the Kanwashram, we could not even preserve the ruins of the Malini civilization.  Seeing whom Dr. Sampurnanand had said, "What would have happened if Kanwashram had been in other countries." The greatness of Kanwashram is described in 'Skandhapurana', 'Mahabharata' and the world famous drama 'Shakuntala' by Mahakavi Kalidas.  From the religious point of view also, Kanwashram had the same importance till the time of Kalidas, which is that of Kedarnath and Badrinath.  It is mentioned in the Puranas, 'A wise man should go to Kanwashram in the holy region of Badrinath and go to Kedarnath after a ceremonial bath there, and after worshiping well in Kedarnath, he should visit Mangalakari Badri Vishal.  Despite this, there is evidence of some travelers going to Badrinath from Kanwashram via Vyasaghat (Vyaschatti) till the end of 19th century.

It will hardly be known to the present generation that Kanwashram has been the first university in the world, whose vice-chancellor was Maharishi Kanva.  Thousands of students were studying in this university, who were taught in Gurukul system.  In his book 'Ruins of Malini Civilization', Lalita Prasad Naithani, editor of the prestigious weekly paper Satyapatha of his era, writes, "Shakuntala and her son Bharat (after whom our country is named Bharatvarsha) were studied in this university."  It is also mentioned in Mahabharata that Kanvashram was a university, which had special arrangements for the education of Vedas and Vedanta.  Historian Dr. Madan Chandra Bhatt is of the opinion that the more famous Vedic University Kanwashram, from Taxila, Varanasi and Nalanda, fell in the 13th century.  Though this university continued to exist even after Maharishi Kanva, but when the movement of Buddhists against the Vedas intensified, it is estimated that Kanva University was also attacked.  It seems that then the Buddhists made Moradhwaja (located near Kotdwar) their center.  Cunningham, who was the Director General of the Archaeological Department of India, has also accepted this.

Dr. Bhatt writes, 'It is known from the awareness of sage Kanva prevalent in Kotdwar Bhabar that Maharishi Kanva did penance on Malan coast in Kotdwar forest in Satyuga and later started an ashram and started teaching Vedas and scriptures to his disciples right here.  .  While wandering in the Aranya for Samidha, Maharishi once found Shakuntala, the daughter of Brahmarshi Vishwamitra and Apsara Maneka, whom he made his adopted daughter.  Once Kanva went to Haridwar on the occasion of Uttarayani.  In his absence Chandravanshi King Dushyant of Hastinapur came to the ashram and went back to marry Gandharva with Shakuntala.  This marriage gave birth to Chakravarti Emperor Bharata, who after Dushyant was anointed at the throne of Hastinapur.  This saga of sage Kanva, sung in Garhwali Janboli in the villages of Bhabar, has a close resemblance to the plot described in the epic drama titled 'Mahabharata' composed by Krishnadvapayan Vyas and 'Abhigyanashakuntalam' composed by Mahakavi Kalidasa.  Keeping in mind the folk traditions of Kotdwar, on the left bank of the Malini River in Chowchighata, former Forest Minister Jagmohan Singh Negi laid the foundation stone of modern Kanwashram on the day of Vasant Panchami in 1956, on the orders of the then Chief Minister of Uttar Pradesh, Dr. Sampurnanand.  Also, marble statues of Maharishi Kanva, Shakuntala, Bharata etc. were installed there.  From this day onwards, Basant Mela is being organized here every year on the occasion of Vasant Panchami.

Friends!  This is the only achievement we have in the name of Kanwashram in all these years.  Although there have been announcements of metamorphosis from time to time, but everyone had their own interests behind them, so nothing came out.  Sadly, even after the formation of Uttarakhand, the governments did not look in this direction.  Despite showing the dream of tourism state.  Otherwise what is the reason that even today Kanwashram is not in the tourist map of Uttarakhand.  ... and, except for the temporary capital Dehradun, people do not know about Kanwashram properly.

कोटद्वार में है एक ऐसा स्‍थान जहां चकवर्ती सम्राट भरत का जन्‍म हुआ

कण्‍वाश्रम तब और अब
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दिनेश कुकरेती
केदारखंड क्षेत्र में मालिनी नदी के तट पर अवस्थित महर्षि कण्व के आश्रम पर कुछ कहने से पहले मैं डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उस पत्र का उल्लेख करना जरूरी समझता हूं, जो उन्होंने चार अक्टूबर 1975 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को लिखा था। पत्र का मजमून कुछ यूं है- 'आदरणीय बहुगुणा जी, मैं 24 अक्टूबर 1971 को कोटद्वार के पास स्थित कण्वाश्रम देखने गया था। मेरे साथ पं.बनारसीदास चतुर्वेदी, नैथानी जी और अन्य अनेक साहित्यकार भी थे। बहुत ही सुंदर स्थान है। इसके साथ कालीदास के "अभिज्ञानशाकुंतलम" का संबंध है। मैं वस्तुत: उस स्थान पर जाकर अभिभूत होकर लौटा। मालिनी नदी का तट सचमुच कालीदास के वर्णन के अनुरूप शांत एवं मनोरम है। रास्ता ठीक है, पर बीच में नदी के बहाव की अस्थिरता के कारण थोड़ा ऊबड़-खाबड़ है, जो कालीदास के नतोन्नत भूमिभाग की याद दिला देता है। यह स्थान लोगों की जानकारी में बहुत कम आया है, टूरिस्ट विभाग इसका सदुपयोग कर सकता है। मेरी प्रार्थना है कि आप थोड़ा व्यक्तिगत रूप से इस पर ध्यान दें। आगे चलकर यह स्थान कालीदास समारोह के लिए बहुत ही उपयुक्त सिद्ध होगा। ... मेरे साथ उस दिन गढ़वाल और बिजनौर के अनेक साहित्यिक मित्र थे, सब में इस आश्रम के प्रति गहरी आत्मीयता दिखाई पडी़। ... मुझे विश्वास है कि आपका थोडा़ सा करावलंबन मिलने से यहां की जनता इस समारोह को स्वयं उत्साहपूर्वक अपना लेगी।Ó
मितरों, चार दशक के इस अंतराल में बहुत-कुछ बदल गया, लेकिन कण्वाश्रम के हालात कमोबेश वैसे ही हैं, जैसे द्विवेदी जी ने अपने पत्र में बयां किए थे। हां! तब संभावना और सोच दोनों ही थे, जबकि आज दोनों का नितांत अभाव दिखाई देता है। कण्वाश्रम का संरक्षण तो दूर, हम तो मालिनी सभ्यता के खंडहरों को भी सुरक्षित नहीं रखा पाए। जिन्हें देखकर ही डा. संपूर्णानंद ने कहा था, 'कण्वाश्रम दूसरे देशों में होता तो न जाने वहां क्या-क्या बन गया होता।Ó कण्वाश्रम की महानता का वर्णन 'स्कंधपुराणÓ, 'महाभारतÓ एवं महाकवि कालीदास के विश्वविख्यात नाटक 'शकुंतलाÓ में हुआ है। धार्मिक दृष्टि से भी देखें तो कण्वाश्रम का कालिदास के समय तक वही महत्व था, जो केदारनाथ एवं बदरीनाथ का है। पुराणों में उल्लेख है कि, 'बुद्धिमान मनुष्य को बदरीनाथ के पवित्र प्रदेश में कण्वाश्रम जाकर वहां विधिपूर्वक स्नान के बाद केदारनाथ जाना चाहिए और केदारनाथ में भलीभांति पूजन करने के उपरांत ही मंगलदायक बदरी विशाल के दर्शन करने चाहिएं।Ó हालांकि, कालांतर में यह महत्व जाता रहा, बावजूद इसके कुछ यात्रियों के 19वीं शताब्दी के अंत तक भी कण्वाश्रम से व्यासघाट (व्यासचट्टी) होते हुए बादरीनाथ जाने के प्रमाण मिलते हैं।

 यह जानकारी भी शायद ही वर्तमान पीढ़ी को होगी कि कण्वाश्रम विश्व का सर्वप्रथम विश्वविद्यालय रहा है, जिसके कुलपति महर्षि कण्व थे। इस विश्वविद्यालय में हजारों विद्यार्थी पढ़ते थे, जिन्हें गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। अपनी पुस्तक 'मालिनी सभ्यता के खंडहरÓ में अपने दौर के प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्र 'सत्यपथÓ के संपादक ललिता प्रसाद नैथानी लिखते हैं, 'शकुंतला और उनके पुत्र भरत (जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पडा़) इसी विश्वविद्यालय में पढ़े थे।Ó वेदों एवं महाभारत में भी उल्लेख है कि कण्वाश्रम एक विश्वविद्यालय था, जिसमें वेद-वेदांत और विविध दर्शनों की शिक्षा का विशेष प्रबंध था। इतिहासविद् डॉ. मदन चंद्र भट्ट का मत है कि तक्षशिला, वाराणसी व नालंदा से भी अधिक ख्यातिप्राप्त वैदिक विश्वविद्यालय कण्वाश्रम का पतन 13वीं शताब्दी में हुआ। हालांकि, महर्षि कण्व के बाद भी यह विश्वविद्यालय अस्तित्व में रहा, लेकिन जब वेदों के विरुद्ध बौद्धों का आंदोलन तेज हुआ तो अनुमान है कि कण्व विश्वविद्यालय पर भी इसका प्रहार हुआ। ऐसा जान पड़ता है कि तब बौद्धों ने मोरध्वज (कोटद्वार के समीप अवस्थित) को अपना केंद्र बनाया। भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक रहे कनिंघम ने भी इसे स्वीकारा है।


 डॉ. भट्ट लिखते हैं, 'कोटद्वार भाबर में प्रचलित ऋषि कण्व के जागर से ज्ञात होता है कि सतयुग में कोटद्वार के जंगल में मालन तट पर महर्षि कण्व ने तपस्या की और बाद में आश्रम बनाकर यहीं अपने शिष्यों को वेद एवं शास्त्रों की शिक्षा देने लगे । समिधा के लिए अरण्य में घूमते हुए एक बार महर्षि को ब्रह्मर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला मिली, जिसे उन्होंने अपनी दत्तक पुत्री बना लिया। एक बार कण्व उत्तरायणी के अवसर पर हरिद्वार गए थे। उनकी अनुपस्थिति में हस्तिनापुर का चंद्रवंशी राजा दुष्यंत आश्रम में आया और शकुंतला के साथ गंधर्व विवाह कर वापस चला गया। इस विवाह से चक्रवर्ती सम्राट भरत उत्पन्न हुआ, जो दुष्यंत के पश्चात हस्तिनापुर की गद्दी पर अभिषिक्त हुआ। भाबर के गांवों में गढ़वाली जनबोली में गाई जानेवाली ऋषि कण्व की यह गाथा कृष्णद्वैपायन व्यास रचित 'महाभारतÓ नामक महाकाव्य और महाकवि कालीदास रचित 'अभिज्ञानशाकुंतलमÓ नामक नाटक में वर्णित  कथानक से पर्याप्त साम्य रखती है। कोटद्वार की लोकपरंपराओं को ध्यान में रखते हुए चौकीघाटा में मालिनी नदी के बाएं तट पर वर्ष 1956 में वसंत पंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद की आज्ञा से पूर्व वनमंत्री जगमोहन सिंह नेगी ने आधुनिक कण्वाश्रम का शिलान्यास किया। साथ ही वहां महर्षि कण्व, शकुंतला, भरत आदि की संगमरमर की मूर्तियां स्थापित करवाईं। इसी दिन से यहां हर साल वसंत पंचमी के मौके पर बसंत मेला आयोजित किया जा रहा है।
मितरों! यही एकमात्र उपलब्धि है हमारे पास इतने सालों में कण्वाश्रम के नाम पर। हालांकि, समय-समय पर कायापलट की घोषणाएं होती रही हैं, लेकिन सबके पीछे अपने-अपने स्वार्थ थे, इसलिए नतीजा कुछ नहीं निकला। अफसोस तो इस बात का है कि उत्तराखंड बनने के बाद भी सरकारों ने इस ओर नहीं झांका। पर्यटन प्रदेश का सपना दिखाने के बावजूद। अन्यथा क्या वजह है कि आज भी कण्वाश्रम उत्तराखंड के पर्यटन मानचित्र में नहीं है। ...और तो छोडि़ए अस्थायी राजधानी देहरादून तक में लोग ठीक से कण्वाश्रम के बारे में नहीं जानते।