पर्शियन सिनेमा ने बदला दुनिया का नजरिया
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दिनेश कुकरेती
सिनेमा ऑफ ईरान (ईरानियन या पर्शियन सिनेमा) की शोहरत आज विश्व के कोने-कोने तक है। खासकर 1990 के दशक से तो ईरानियन सिनेमा दुनियाभर में अहम भूमिका निभा रहा है। ईरानी फिल्मों का कुछेक हिस्सा ही स्टारकास्ट और भारी-भरकम सेट का होता है। ईरान के फिल्म निर्माताओं ने ऐसे कई मुद्दों पर दुनिया का नजरिया बदला है और ऐसी फिल्में बनाई हैं, जिन पर पहले शायद ही कभी चर्चा हुई हो। साथ ही कलात्मकता और दृष्टिकोण के नए पहलू भी सामने लाए हैं। यही वजह है कि बहुत-से आलोचक ईरानी सिनेमा को दुनिया के मुख्य अंतरराष्ट्रीय सिनेमा का हिस्सा मानते हैं।
प्रसिद्ध ऑस्ट्रेलियन फिल्म मेकर माइकल हनेके और जर्मन फिल्म मेकर वर्नर हर्जोग के साथ-साथ बहुत-से फिल्म आलोचकों ने विश्व की सबसे बेहतर कलात्मक फिल्मों की सूची में ईरानी फिल्मों को भी सराहा है। ईरान में पहला फिल्म कैमरा वर्ष 1900 में काजारी शासक मुजफ्फरुद्दीन के काल में पहुंचा था। यह कैमरा काजारी शासक की यूरोप यात्रा और पश्चिम की इस खोज पर उसके आश्चर्य का परिणाम था। जबकि, सबसे पहली फिल्म ईरान में वर्ष 1905 में दिखाई गई। फिर तो कई लोग ईरान में फिल्म निर्माण में रुचि लेने लगे।
वैसे देखा जाए तो ईरान में फिल्म प्रदर्शन का आरंभ दरबारों, संपन्न लोगों और फिर विवाह व पाॢटयों में हुआ। तब परेड, तेहरान के रेलवे स्टेशन का उद्घाटन, उत्तरी रेलवे का आरंभ, सरकारी कार्यक्रम आदि ईरान के फिल्मों के विषय हुआ करते थे। हालांकि, यह काम ईरान में चुनिंदा लोग ही करते थे, लेकिन दर्शकों की संख्या बहुत अधिक होती थी।
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पहली ईरानियन मूक फिल्म 'हाजी आगाÓ थी, जिसे प्रोफेसर ओवेन्स ओहैनियन ने वर्ष 1930 में बनाया। वर्ष 1932 में उन्होंने एक और मूक फिल्म 'आबी व राबीÓ नाम से बनाई। यह आबी व राबी नामक दो जोकरों की कहानी थी, जिनमें से एक लंबे और दूसरा ठिगने कद का था। ईरान की पहली सवाक फिल्म 'दुख्तरे लुरÓ (लोर गल्र्स) है, जो मुंबई में ईरानी कलाकारों के साथ बनाई गई। इस फिल्म को अब्दुल हुसैन सेपेन्ता और अर्दशीर ईरानी ने वर्ष 1933 में बनाया था। तेहरान के सिनेमा हालों में इसका प्रदर्शन हुआ, जिसे दर्शकों ने बेहद सराहा। फिर तो ईरान में सिनेमा सरपट दौडऩे लगा और धीरे-धीरे ईरानी शहरों में नागरिकता का प्रतीक बन गया।
विदेशियों के बीच पहुंची इंडस्ट्री की धमक
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ईरान के विश्व प्रसिद्ध कवि फिरदौसी की जीवनी पर बनी फिल्म को 'शाहनामे की सहस्त्राब्दीÓ नामक समारोह में दिखाया गया और विदेशी अतिथियों को इस फिल्म के जरिये ईरानी सिनेमा की जानकारी दी गई। इसके बाद 'शीरीं और फरहादÓ फिल्म बनी, जो एक पुरानी ईरानियन लव स्टोरी है। इसके बाद 'लैला-मजनूÓ के अलावा 1937 में नादिर शाह पर फिल्म 'ब्लैक आइजÓ आई, जिसे दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया।
जब मंदी में घिरी फिल्म इंडस्ट्री
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ईरानी सिनेमा की यह स्थिति अधिक दिनों तक न चल सकी और विदेशी फिल्मों की भरमार और नए ईरानी फिल्मकारों की आर्थिक समस्याओं के कारण अच्छी फिल्में बनाने वाले लोग किनारे हटते चले गए। द्वितीय विश्व युद्ध भी ईरानी सिनेमा में मंदी का एक मुख्य कारण रहा। वर्ष 1941 में जर्मन विरोधी मोर्चे के ईरान पर अधिकार के बाद रूसियों ने तेहरान के सिनेमा हालों पर कब्जा करना आरंभ किया। इसके बाद भी वर्ष 1948 में फिल्म 'तूफान-ए-जिंदगीÓ आने तक ईरानी फिल्म इंडस्ट्री ने तमाम उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन, वर्तमान में ईरानियन सिनेमा का कोई तोड़ नहीं है। खासकर अपनी बाल फिल्मों के लिए तो ईरान पूरी दुनिया में मशहूर है। उसने हमें सिखाया कि बच्चे बच्चों की समस्याओं को कैसे देखते हैं और उससे निपटने के लिए उनके दिमाग में क्या युक्तियां आती हैं। इसका अपना एक सौंदर्य है।