Let go! Take a trip to such a flower paradise, about which people of Uttarakhand are not well aware, except the country and the world. This valley, known as 'Chenap', is spread over an area of five sq km at an altitude of 13 thousand feet above sea level in Chamoli district. So far 315 species of rare Himalayan flowers have been marked here.
I am a writer as well as a journalist. Being born in the Himalayan region, the Himalayas have always loved me. Sometimes I feel that I should cover the Himalayas within myself or I can get absorbed in the Himalayas myself. Whenever I try to write something, countless colors of Himalayas float before my eyes and then they come down on paper on their own.
Thursday, 3 September 2020
The anonymous valley of flowers in the Himalayas
Wednesday, 2 September 2020
पर्शियन सिनेमा ने बदला दुनिया का नजरिया (Persian cinema changed the world)
पर्शियन सिनेमा ने बदला दुनिया का नजरिया
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दिनेश कुकरेती
सिनेमा ऑफ ईरान (ईरानियन या पर्शियन सिनेमा) की शोहरत आज विश्व के कोने-कोने तक है। खासकर 1990 के दशक से तो ईरानियन सिनेमा दुनियाभर में अहम भूमिका निभा रहा है। ईरानी फिल्मों का कुछेक हिस्सा ही स्टारकास्ट और भारी-भरकम सेट का होता है। ईरान के फिल्म निर्माताओं ने ऐसे कई मुद्दों पर दुनिया का नजरिया बदला है और ऐसी फिल्में बनाई हैं, जिन पर पहले शायद ही कभी चर्चा हुई हो। साथ ही कलात्मकता और दृष्टिकोण के नए पहलू भी सामने लाए हैं। यही वजह है कि बहुत-से आलोचक ईरानी सिनेमा को दुनिया के मुख्य अंतरराष्ट्रीय सिनेमा का हिस्सा मानते हैं।
प्रसिद्ध ऑस्ट्रेलियन फिल्म मेकर माइकल हनेके और जर्मन फिल्म मेकर वर्नर हर्जोग के साथ-साथ बहुत-से फिल्म आलोचकों ने विश्व की सबसे बेहतर कलात्मक फिल्मों की सूची में ईरानी फिल्मों को भी सराहा है। ईरान में पहला फिल्म कैमरा वर्ष 1900 में काजारी शासक मुजफ्फरुद्दीन के काल में पहुंचा था। यह कैमरा काजारी शासक की यूरोप यात्रा और पश्चिम की इस खोज पर उसके आश्चर्य का परिणाम था। जबकि, सबसे पहली फिल्म ईरान में वर्ष 1905 में दिखाई गई। फिर तो कई लोग ईरान में फिल्म निर्माण में रुचि लेने लगे।
वैसे देखा जाए तो ईरान में फिल्म प्रदर्शन का आरंभ दरबारों, संपन्न लोगों और फिर विवाह व पाॢटयों में हुआ। तब परेड, तेहरान के रेलवे स्टेशन का उद्घाटन, उत्तरी रेलवे का आरंभ, सरकारी कार्यक्रम आदि ईरान के फिल्मों के विषय हुआ करते थे। हालांकि, यह काम ईरान में चुनिंदा लोग ही करते थे, लेकिन दर्शकों की संख्या बहुत अधिक होती थी।
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पहली ईरानियन मूक फिल्म 'हाजी आगाÓ थी, जिसे प्रोफेसर ओवेन्स ओहैनियन ने वर्ष 1930 में बनाया। वर्ष 1932 में उन्होंने एक और मूक फिल्म 'आबी व राबीÓ नाम से बनाई। यह आबी व राबी नामक दो जोकरों की कहानी थी, जिनमें से एक लंबे और दूसरा ठिगने कद का था। ईरान की पहली सवाक फिल्म 'दुख्तरे लुरÓ (लोर गल्र्स) है, जो मुंबई में ईरानी कलाकारों के साथ बनाई गई। इस फिल्म को अब्दुल हुसैन सेपेन्ता और अर्दशीर ईरानी ने वर्ष 1933 में बनाया था। तेहरान के सिनेमा हालों में इसका प्रदर्शन हुआ, जिसे दर्शकों ने बेहद सराहा। फिर तो ईरान में सिनेमा सरपट दौडऩे लगा और धीरे-धीरे ईरानी शहरों में नागरिकता का प्रतीक बन गया।
विदेशियों के बीच पहुंची इंडस्ट्री की धमक
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ईरान के विश्व प्रसिद्ध कवि फिरदौसी की जीवनी पर बनी फिल्म को 'शाहनामे की सहस्त्राब्दीÓ नामक समारोह में दिखाया गया और विदेशी अतिथियों को इस फिल्म के जरिये ईरानी सिनेमा की जानकारी दी गई। इसके बाद 'शीरीं और फरहादÓ फिल्म बनी, जो एक पुरानी ईरानियन लव स्टोरी है। इसके बाद 'लैला-मजनूÓ के अलावा 1937 में नादिर शाह पर फिल्म 'ब्लैक आइजÓ आई, जिसे दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया।
जब मंदी में घिरी फिल्म इंडस्ट्री
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ईरानी सिनेमा की यह स्थिति अधिक दिनों तक न चल सकी और विदेशी फिल्मों की भरमार और नए ईरानी फिल्मकारों की आर्थिक समस्याओं के कारण अच्छी फिल्में बनाने वाले लोग किनारे हटते चले गए। द्वितीय विश्व युद्ध भी ईरानी सिनेमा में मंदी का एक मुख्य कारण रहा। वर्ष 1941 में जर्मन विरोधी मोर्चे के ईरान पर अधिकार के बाद रूसियों ने तेहरान के सिनेमा हालों पर कब्जा करना आरंभ किया। इसके बाद भी वर्ष 1948 में फिल्म 'तूफान-ए-जिंदगीÓ आने तक ईरानी फिल्म इंडस्ट्री ने तमाम उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन, वर्तमान में ईरानियन सिनेमा का कोई तोड़ नहीं है। खासकर अपनी बाल फिल्मों के लिए तो ईरान पूरी दुनिया में मशहूर है। उसने हमें सिखाया कि बच्चे बच्चों की समस्याओं को कैसे देखते हैं और उससे निपटने के लिए उनके दिमाग में क्या युक्तियां आती हैं। इसका अपना एक सौंदर्य है।
Tuesday, 1 September 2020
सपनों के जाल से बाहर निकालता सिनेमा (Cinema out of dreams)
सपनों के जाल से बाहर निकालता सिनेमा
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दिनेश कुकरेती
चलताऊ सिनेमा से अलग भी सिनेमा की एक दुनिया है, जो हमें सपनों के जाल में नहीं उलझाती। बल्कि, जीवन और समाज की जटिलताओं के यथार्थ से भी हमारा साबका कराती है। यह ऐसा सिनेमा है, जिसने हमें एक सोच दी, अपनी दृष्टि बदलने की और यही सोच हमें सिनेमा के प्रति अपना दृष्टिकोण रखने का साहस प्रदान करती है। यह सिनेमा इसी दृष्टिकोण की परिणति है।
एक दौर में फिल्म कहानी भाइयों के खो जाने शुरू होती थी और मिल जाने पर खत्म। लेकिन, धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं और कभी जिन फिल्मों के लिए पैसा नहीं मिलता था, वैसी ही फिल्में अच्छी-खासी तादाद में न सिर्फ बन रही हैं, बल्कि अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा रही हैं। निश्चित रूप से यह उन डायरेक्टर्स की मेहनत है, जो क्राउड फंडिंग से ऐसी फिल्में बनाने को आगे आ रहे हैं। नतीजा, बदलता सिनेमा समय की आवश्यकता ही नहीं, बल्कि एक मौलिक जरूरत बन चुका है। इसका श्रेय कहीं न कहीं अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया, विशाल भारद्वाज, ओनिर, वसन बाला, आनंद गांधी जैसे विख्यात निर्देशकों को जाता है।
थोड़ा अतीत में झांकें तो सिनेमा की इस दूसरी दुनिया के निर्माताओं में सत्यजीत रे और ऋवकि घटक का जिक्र जरूरी हो जाता है। उनके समानांतर और लगभग सहयात्री हैं मृणाल सेन। भारत में समानांतर सिनेमा की शुरुआत बांग्ला फिल्म 'पाथेर पांचालीÓ (1955) से मानी जाती है, जिसके निर्देशक सत्यजीत रे थे। इसी तरह हिंदी में समानांतर सिनेमा की शुरुआत 'भुवन सोमÓ (1969) से मानी जाती है, जिसका निर्देशन मृणाल सेन ने किया था।
यहां यह बताना भी जरूरी है कि भारतीय समानांतर सिनेमा पर भी भारतीय थिएटर (संस्कृत) और भारतीय साहित्य (बांग्ला) का गहरा प्रभाव पड़ा। लेकिन, अंतरराष्ट्रीय प्रेरणा के रूप में उस पर यूरोपियन सिनेमा, खासतौर पर इतालवी नव यथार्थवाद और फ्रेंच काव्यात्मक यथार्थवाद का हॉलीवुड के मुकाबले ज्यादा असर रहा। सत्यजित रे ने इतावली फिल्मकार विट्टोरिओ डे सीका की 'बाइसिकल थीव्सÓ (1948) और फ्रेंच फिल्मकार जॉन रेनॉर की 'द रिवरÓ(1951) को अपनी पहली फिल्म 'पाथेर पांचालीÓ (1955) की प्रेरणा बताया है। बिमल राय की 'दो बीघा जमीनÓ (1953) भी डे सीका की 'बाइसिकल थीव्सÓ से प्रेरित थी और इसने भारत में सिनेमा की नई धारा का मार्ग प्रशस्त किया, जो फ्रेंच और जापानी नई धारा के समकालीन थी।
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Cinema out of dreams
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Dinesh Kukreti
There is a world of cinema apart from the moving cinema, which does not entangle us in the web of dreams. Rather, it also makes us aware of the complexities of life and society. This is the kind of cinema which gave us a thought, to change our vision and this thinking gives us the courage to take our attitude towards cinema. This cinema is the culmination of this approach.
In one phase, the film story begins with the brothers being lost and ending when they are reunited. But, gradually the situation is changing and the films for which there was no money, are making not only a large number of films, but also making their presence felt. Certainly it is the hard work of the directors who are coming forward to make such films with crowd funding. As a result, changing cinema has become not only a necessity of time, but also a fundamental need. The credit for this goes to renowned directors like Anurag Kashyap, Tigmanshu Dhulia, Vishal Bhardwaj, Onir, Vasan Bala, Anand Gandhi.
Looking into the past a little, it becomes necessary to mention Satyajit Ray and Rivki Ghatak among the producers of this other world of cinema. His parallel and almost co-passenger is Mrinal Sen. Parallel cinema in India is considered to have originated from the Bengali film Pather Panchali 19 (1955), directed by Satyajit Ray. Similarly, the introduction of parallel cinema in Hindi is considered to be from 'Bhuvan Soma' (1969), which was directed by Mrinal Sen.
It is also necessary to point out here that Indian theater (Sanskrit) and Indian literature (Bangla) had a profound influence on Indian parallel cinema. However, as an international inspiration, European cinema, especially Italian neo-realism and French poetic realism, had more impact than Hollywood. Satyajit Ray has called the Italian film filmmaker Vittorio de Sica's' Bicycle Thieves' (1948) and French filmmaker John Raynor's' The River Ó (1951) as the inspiration for his debut film Pather Panchali Ó (1955). Bimal Rai's Do Do Bigha Zameen (1953) was also inspired by De Sica's 'Bicycle Thieves' and paved the way for a new stream of cinema in India, contemporary to the French and Japanese new streams.
अलग लय-अलग ताल का कैनवास
चलिए! आपका परिचय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे निर्देशकों से कराते हैं, जिन्होंने अपने दौर में चल रहे फिल्मी फार्मूले से हटकर एक अलग तरह का सिनेमा रचने का प्रयास किया।
अलग लय-अलग ताल का कैनवास
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दिनेश कुकरेती
सिनेमा को लेकर बहुत सी बातें हो सकती हैं। लेकिन, यहां हम आपका परिचय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे निर्देशकों से करा रहे हैं, जिन्होंने अपने दौर में चल रहे फिल्मी फार्मूले से हटकर एक अलग तरह का सिनेमा रचने का प्रयास किया। यह परवाह किए बगैर कि इसका टिकट खिड़की पर क्या हश्र होगा। ऐसी फिल्मों की यह कहकर आलोचना भी होती रही कि इन्हेंं देखने वाले हैं कितने, पर ये जुमले उनके हौसले को नहीं डिगा पाए। यह ठीक है कि यह फिल्में मुख्य धारा की फिल्मों जैसा व्यवसाय नहीं कर पाईं, लेकिन भारतीय सिनेमा की पहचान की बात करें तो यह हमेशा अगली पांत में खड़ी मिलीं।
ऑफबीट फिल्में के बड़े हीरो अमोल पालेकर बासु दा के फेवरेट रहे। उनकी 'रजनीगंधाÓ, 'बातों-बातों मेÓ, 'चितचोरÓ और 'एक छोटी सी बातÓ जैसी सफल फिल्मों में हीरो अमोल ही थे। धर्मेंद्र और हेमा मालिनी को लेकर बनी फिल्म 'दिल्लगीÓ तो आज भी बेस्ट सिचुवेशन कॉमेडी और ड्रामा में रूप में याद की जाती है। 'खट्टा-मीठाÓ और 'शौकीनÓ जैसी फिल्में बानगी हैं कि कैसे थोड़े से बदलाव के साथ सिनेमा को खूबसूरत बनाया जा सकता है।
बासु भट्टाचार्य की फिल्मों में समाज के प्रति उनका निष्कर्ष स्पष्ट झलकता है। उन्होंने 'अनुभवÓ, 'तीसरी कसमÓ और 'आविष्कारÓ जैसी फिल्में बनाईं। 1997 में आई फिल्म 'आस्थाÓ इस बात का संकेत थी कि उन्हेंं अपने समय से आगे का सिनेमा रचना आता है। दो दशक से अधिक समय तक फिल्मों में सक्रिय रहे बासु भट्टाचार्य ने अपने फिल्म मेकिंग स्टाइल में कई प्रयोग किए। उनकी 'पंचवटीÓ, 'मधुमतीÓ व 'गृह प्रवेशÓ जैसी फिल्में टिकट खिड़की पर भले ही बहुत सफल न रही हों, लेकिन हर फिल्म एक मुद्दे पर विमर्श करती जरूर दिखी। बासु भट्टाचार्य का सिनेमा दर्शकों को हमेशा मुद्दों की ओर खींचता रहा।
ऑफबीट फिल्म
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जब ऑफबीट फिल्मों का जिक्र होता है, मणि कौल का नाम सबसे ऊपर आता है। पैसा कमाने के लिए फिल्म बनाना न तो उनका मकसद था, न हुनर ही। मणि कौल की शुरुआत उनकी फिल्म 'उसकी रोटीÓ से होती है। यह संकेत है कि वह कैसी फिल्में बनाने के लिए इंडस्ट्री में आए थे। ऋवकि घटक के छात्र रहे मणि कौल ने 'दुविधाÓ, 'घासीराम कोतवालÓ, 'सतह से उठता आदमीÓ, 'आषाढ़ का एक दिनÓ जैसी फिल्में बनाईं, जो साहित्य और सिनेमा की अनुपम संगम थीं।
मृणाल सेन की फिल्म बनाने की शैली ने भी हिंदी सिनेमा पर काफी असर डाला। उन्होंने 'कलकत्ता-71Ó, 'भुवन सोमÓ, 'एकदिन प्रतिदिनÓ व 'मृगयाÓ जैसी चॢचत फिल्मों समेत 30 से अधिक फिल्मों का निर्देशन किया। इन फिल्मों में तत्कालीन समाज का अक्स दिखता था। यह समाज के प्रति एक फिल्मकार की अघोषित जवाबदेही थी। मृणाल सेन ने 'एक अधूरी कहानीÓ, 'चलचित्रÓ, 'एक दिन अचानकÓ जैसी अलग किस्म की फिल्में भी रचीं। यह फिल्में उस दौर में बन रही ज्यादातर फिल्मों से विषय के मामले में पूरी तरह से अलग होती थीं।
एक शिल्प ऐसा भी
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सई परांजपे की फिल्म मेकिंग स्टाइल की विशेषता उसकी बुनावट और शिल्प है। उनकी फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक ना के बराबर होता है। दर्शक जब फिल्में देख रहा होता है तो वह फिल्म के पात्रों के साथ पूरी तरह से जुड़ जाता है। कॉमेडी फिल्म 'चश्मे बद्दूरÓ बनाने के साथ सई ने 'कथाÓ, 'स्पर्शÓ और 'दिशाÓ जैसी फिल्में बनाईं। उनकी फिल्म का हर पात्र दर्शकों को खुद की जिंदगी का ही हिस्सा लगता। खैर! धारा के विपरीत खड़े होने वाले सिनेमा पर चर्चा आगे भी जारी रहेगी।
जायकेदार पहाड़ का मीठा करेला
जायकेदार पहाड़ का मीठा करेला
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दिनेश कुकरेती
करेला और वह भी मीठा। बात भले ही गले नहीं उतर रही हो, लेकिन है सोलह आने सच। वैसे यह करेला चीनी की तरह मीठा नहीं होता, लेकिन कड़वा न होने के कारण इसे मीठा करेला कहते हैं। पहाड़ में इसे ज्यादातर कंकोड़ा और कई इलाकों में परबल, राम करेला आदि नामों से भी जाना जाता है। कंकोड़ा ऊंचाई वाले इलाकों में अगस्त से लेकर नवंबर तक उगने वाली सब्जी है। पहाड़ में बरसात की सब्जियों के आखिरी पायदान पर यह लोगों के पोषण के काम आता है। हल्के पीले व हरे रंग और छोटे-छोटे कांटों वाली इस सब्जी मिनटों में तैयार हो जाती है। बनाने की प्रक्रिया भी अन्य सब्जियों की तरह ही है। हां! यह जरूर ध्यान रखें कि कढ़ाई में छौंकते-छौंकते और अल्टा-पल्टी कर हल्की भाप देते ही कंकोड़े की सब्जी बनकर तैयार हो जाती है।
जैसी सब्जी, वैसा जायका
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कंकोड़े की की सूखी सब्जी जितनी जायकेदार होती है, उतनी ही आलण (बेसन का घोल) डालकर तैयार की गई तरीदार सब्जी भी। इसके अलावा कंकोड़े के सुक्सों की सब्जी भी बेहद स्वादिष्ट होती है। सीजन में आप कंकोड़ों को सुखाकर किसी भी मौसम में आप सुक्सों की सब्जी बना सकते हैं। सुक्सों को भिगोकर बनाई गई तरीदार सब्जी का भी कोई जवाब नहीं। सब्जी के साथ इसके बीज खाने में खराब लगते हैं। लेकिन, यदि बीजों को अलग से भूनकर खाने में आनंद आता है।
कच्चा खाने में भी स्वादिष्ट
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जब कंकोड़े छोटे-छोटे होते हैं तो उन्हें कच्चा भी खाया जा सकता है। कच्चे खाने में यह खूब स्वादिष्ट लगते हैं और ककड़ी (खीरा) की तरह हल्की महक देते हैं।
डायबिटीज में बेहद उपयोगी
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कड़वा करेला जहां डायबिटीज का दुश्मन है, वहीं मीठा करेला यानी कंकोड़ा भी डायबिटीज की प्रभावशाली दवा है। सभी तरह के चर्म रोग व जलन में भी यह उपयोगी है। इसकी पत्तियों का रस पेट के कीड़ों को मारने सहायक है। कुष्ठ रोग में भी कंकोड़ा को लाभकारी माना जाता है। इसका स्वरस कील-मुहांसों को ठीक करने के भी काम आता है। जबकि, इसकी जड़ को सुखाकर बनाया गए चूर्ण का लेप चर्म रोगों के लिए बहुत उपयोगी है।
आयरन व एंटीऑक्सीडेंट का खजाना
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एक शोध में पता चला है कि कंकोड़ा में न केवल पर्याप्त मात्रा में आयरन मौजूद है, बल्कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले एंटीऑक्सीडेंट और खून को साफ करने वाले तत्व भी इसमें हैं। बता दें कि आयरन की कमी होने से एनीमिया, सिरदर्द, चक्कर आना, हीमोग्लोबिन बनने में परेशानी होना जैसी परेशानियां शरीर को पस्त कर देती हैं। इसके अलावा एंटीऑक्सीडेंट अक्सर अच्छे स्वास्थ्य और बीमारियों को रोकने का काम करते है। कंकोड़ा फाइबर, प्रोटीन और कॉर्बोहाइड्रेट की भी खान है। इसके पौधे पर बीमारियों का प्रकोप भी नहीं होता, जिस कारण यह पहाड़ों में खूब पनपता है। अब तो देहरादून व हल्द्वानी जैसे शहरों में कंकोड़ा मिलने लगा है।
रामजी ने खाया था, सो राम करेला नाम पड़ा
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कंकोड़ा लौकी कुल की सब्जी है। इसका वैज्ञानिक नाम सिलेंथरा पेडाटा (एल) स्चार्ड है। इसका एक नाम राम करेला भी है। यह नाम कैसे पड़ा, इस बारे में किसी को जानकारी नहीं, लेकिन किंवदंती है कि भगवान राम ने वनवास के दौरान इसका सेवन किया था। सो, इसे राम करेला कहा जाने लगा।