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I am a writer as well as a journalist. Being born in the Himalayan region, the Himalayas have always loved me. Sometimes I feel that I should cover the Himalayas within myself or I can get absorbed in the Himalayas myself. Whenever I try to write something, countless colors of Himalayas float before my eyes and then they come down on paper on their own.
जॉर्ज एवरेस्ट : मसूरी में रहकर मापी थी एवरेस्ट की ऊंचाई
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दिनेश कुकरेती
आपको मालूम है कि जिन सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर दुनिया की सबसे ऊंची चोटी का नाम 'माउंट एवरेस्टÓ रखा गया, उन्होंने जीवन का एक लंबा अर्सा पहाड़ों की रानी मसूरी में गुजारा था। वेल्स के इस सर्वेयर एवं जियोग्राफर ने ही पहली बार एवरेस्ट की सही ऊंचाई और लोकेशन बताई थी। इसलिए ब्रिटिश सर्वेक्षक एंड्रयू वॉ की सिफारिश पर वर्ष 1865 में इस शिखर का नामकरण उनके नाम पर हुआ। इससे पहले इस चोटी को 'पीक-15' नाम से जाना जाता था। जबकि, तिब्बती लोग इसे 'चोमोलुंग्मा' और नेपाली 'सागरमाथा' कहते थे। मसूरी स्थित सर जॉर्ज एवरेस्ट के घर और प्रयोगशाला में ही वर्ष 1832 से 1843 के बीच भारत की कई ऊंची चोटियों की खोज हुई और उन्हें मानचित्र पर उकेरा गया। जॉर्ज वर्ष 1830 से 1843 तक भारत के सर्वेयर जनरल रहे।
पार्क एस्टेट मसूरी में है जॉर्ज का घर
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सर जॉर्ज एवरेस्ट का घर और प्रयोगशाला मसूरी में पार्क रोड में स्थित है, जो गांधी चौक लाइब्रेरी बाजार से लगभग छह किमी की दूरी पर पार्क एस्टेट में स्थित है। इस घर और प्रयोगशाला का निर्माण वर्ष 1832 में हुआ था। जिसे अब सर जॉर्ज एवरेस्ट हाउस एंड लेबोरेटरी या पार्क हाउस नाम से जाना जाता है। यह ऐसे स्थान पर है, जहां दूनघाटी, अगलाड़ नदी और बर्फ से ढकी चोटियों का मनोहारी नजारा दिखाई देता है। जॉर्ज एवरेस्ट का यह घर अब ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की देख-रेख में है। यहां आवासीय परिसर में बने पानी के भूमिगत रिजर्व वायर आज भी कौतुहल बने हुए हैं। इस एतिहासिक धरोहर को निहारने हर साल बड़ी तादाद में पर्यटक यहां पहुंचते हैं।
रॉयल आर्टिलरी के प्रशिक्षित कैडेट थे जॉर्ज
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सर जॉर्ज एवरेस्ट का जन्म चार जुलाई 1790 को क्रिकवेल (यूनाइटेड किंगडम) में पीटर एवरेस्ट व एलिजाबेथ एवरेस्ट के घर हुआ था। इस प्रतिभावान युवक ने रॉयल आर्टिलरी में कैडेट के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त किया। इनकी कार्यशैली और प्रतिभा को देखते हुए वर्ष 1806 में इन्हें भारत भेज दिया गया। यहां इन्हें कोलकाता और बनारस के मध्य संचार व्यवस्था कायम करने के लिए टेलीग्राफ को स्थापित और संचालित करने का दायित्व सौंपा गया। कार्य के प्रति लगन एवं कुछ नया कर दिखाने की प्रवृत्ति ने इनके लिए प्रगति के द्वार खोल दिए। वर्ष 1816 में जॉर्ज जावा के गवर्नर सर स्टैमफोर्ड रैफल्स के कहने पर इस द्वीप का सर्वेक्षण करने के लिए चले गए। यहां से वे वर्ष 1818 में भारत लौटे और यहां सर्वेयर जनरल लैंबटन के मुख्य सहायक के रूप में कार्य करने लगे। कुछ वर्ष काम करने के बाद जॉर्ज थोड़े दिनों के इंग्लैंड लौटे, ताकि वहां अपने सामने सर्वेक्षण के नए उपकरण तैयार करवाकर उन्हें भारत ला सकें। भारत लौटकर वे कोलकाता में रहे और सर्वेक्षण दलों के उपकरणों के कारखाने की व्यवस्था देखते रहे। वर्ष 1830 में जॉर्ज भारत के महासर्वेक्षक नियुक्त हुए।
अनेक चोटियों की मापी ऊंचाई
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वर्ष 1820 में दक्षिण अफ्रीका की समुद्री यात्रा के दौरान गंभीर ज्वर के प्रकोप से इनकी टांगों ने कार्य करना बंद कर दिया। ऐसे में उन्हें व्हील चेयर के माध्यम से ही कार्य संपादित करने के लिए ले जाया जाने लगा। लंबे इलाज के बाद वह चलने-फिरने की स्थिति में आ पाए। सर्वेक्षण की दिशा में नित्य अन्वेषण करके उन्होंने 20 इंच के थियोडोलाइट यंत्र का निर्माण किया। इस यंत्र के माध्यम से उन्होंने अनेक चोटियों की ऊंचाई मापी। वर्ष 1830 से 1843 के बीच वे भारत के सर्वेयर जनरल रहे। वर्ष 1862 में वे रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी के वाइस प्रेसिडेंट बने। अपने कार्यकाल में उन्होंने ऐसे उपकरण तैयार कराए, जिनसे सर्वे का सटीक आकलन किया जा सकता है।
'चीफ कंप्यूटर' की रही अहम भूमिका----------
उस दौर चोटियों की ऊंचाई की गणना के लिए कंप्यूटर नहीं होते थे। इसलिए तब गणना करने वाले व्यक्ति को ही कंप्यूटर कहा जाता था। 'पीक-15Ó की ऊंचाई की गणना में चीफ कंप्यूटर की भूमिका गणितज्ञ राधानाथ सिकदर ने ही निभाई थी। उनका काम सर्वेक्षण के दौरान जुटाए गए आंकड़ों का आकलन करना था। वे अपने काम में इतने माहिर थे कि उन्हें 'चीफ कंप्यूटरÓ का पद दे दिया गया था। अन्य चोटियों की ऊंचाई की गणना में भी उनकी अहम भूमिका रही।
लंदन के हाईड पार्क गार्डन स्थित घर में ली अंतिम सांस
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वर्ष 1847 में जॉर्ज ने भारत के मेरिडियल आर्क के दो वर्गों के मापन का लेखा-जोखा प्रकाशित किया। इसके लिए उन्हें रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ने पदक से नवाजा। बाद में उन्हें रॉयल एशियाटिक सोसायटी और रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी की फैलोशिप के लिए चुना गया। वर्ष 1854 में उन्हें कर्नल के रूप में पदोन्नति मिली। फरवरी 1861 में वे 'द ऑर्डर ऑफ द बाथ' के कमांडर नियुक्त हुए। मार्च 1861 में उन्हें 'नाइट बैचलर' बनाया गया। एक दिसंबर 1866 को लंदन के हाईड पार्क गार्डन स्थित घर में उन्होंने अंतिम सांस ली। उन्हें चर्च होव ब्राइटो के पास सेंट एंड्रयूज में दफनाया गया है।
जॉर्ज मसूरी में चाहते थे सर्वेक्षण का कार्यालय
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भारत सर्वेक्षण विभाग (सर्वे ऑफ इंडिया) एक केंद्रीय एजेंसी है, जिसका काम नक्शे बनाना और सर्वेक्षण करना है। इस एजेंसी की स्थापना जनवरी 1767 में ब्रिटिश इंडिया कंपनी के क्षेत्र को संघटित करने के लिए की गई थी। यह भारत सरकार के सबसे पुराने इंजीनियरिंग विभागों में से एक है। सर जॉर्ज के महासर्वेक्षक नियुक्त होने के बाद वर्ष 1832 में मसूरी भारत के महान त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण का केंद्र बन गया था। जॉर्ज एवरेस्ट मसूरी में ही भारत के सर्वेक्षण का नया कार्यालय चाहते थे। लेकिन, उनकी इच्छा अस्वीकार कर दी गई और इसे देहरादून में स्थापित किया गया।
आखिर सरकार ने ली इस ऐतिहासिक धरोहर की सुध
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मसूरी स्थित हाथीपांव पार्क रोड क्षेत्र के 172 एकड़ भूभाग में बने जॉर्ज एवरेस्ट हाउस (आवासीय परिसर) और इससे लगभग 50 मीटर दूरी पर स्थित प्रयोगशाला (आब्जरवेटरी) का जीर्णोद्धार कार्य शुरू होने से इस एतिहासिक स्थल के दिन बहुरने की उम्मीद जगी है। कई दशक से जॉर्ज एवरेस्ट हाउस के जीर्णोद्धार की मांग की जा रही थी, लेकिन इसकी हमेशा अनदेखी होती रही। नतीजा यह एतिहासिक धरोहर जीर्ण-शीर्ण हालत में पहुंच गई। बीते वर्ष पर्यटन विभाग की ओर से जॉर्ज एवरेस्ट हाउस समेत पूरे परिसर के जीर्णोद्धार और विकास की घोषणा की गई थी। इन दिनों यहां जीर्णोद्धार का कार्य प्रगति पर है। परिसर के पुश्तों को दुरुस्त किया जा रहा है, ताकि बरसात में भूमि का कटाव न होने पाए।
उत्तर भारत में सबसे पहले मसूरी पहुंची थी बिजली
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जब दिल्ली, मुंबई व कोलकाता जैसे महानगरों में लोग चिमनी, ढिबरी, लालटेन व मशालें जलाकर घरों को रोशन किया करते थे, तब पहाड़ों की रानी मसूरी व देहरादून के कई इलाकों में बिजली के बल्ब जगमगाने लगे थे। ऐसा मसूरी के पास ग्लोगी में बनी उत्तर भारत की पहली एवं देश की दूसरी जल-विद्युत परियोजना के अस्तित्व में आने के कारण संभव हो पाया था। परियोजना वर्ष 1907 में बनकर तैयार हुई और फिर मसूरी विद्युत प्रकाश में जगमगा उठी। इस बिजलीघर से पहाड़ों की रानी मसूरी का बार्लोगंज और दूनघाटी का अनारवाला क्षेत्र आज भी रोशन है। दरअसल, ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने देश में जिन चार विद्युत गृहों की परिकल्पना की थी, उनमें मैसूर, दार्जिलिंग व चंबा (हिमाचल प्रदेश) के अलावा ग्लोगी परियोजना भी शामिल थी।
कर्नल बेल की देख-रेख में तैयार हुआ था विद्युत गृह
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दिनेश कुकरेती
क्यारकुली व भट्टा गांव के ग्रामीणों की ओर से दान में दी गई जमीन पर वर्ष 1890 में ग्लोगी जल-विद्युत परियोजना पर काम शुरू हुआ था। यह स्थान मसूरी-देहरादून मार्ग पर भट्टा गांव से तीन किमी दूर है। परियोजना से बिजली उत्पादन की शुरुआत वर्ष 1907 में हुई। मसूरी नगर पालिका के तत्कालीन विद्युत इंजीनियर कर्नल बेल की देख-रेख में 600 से ज्यादा लोगों ने इस परियोजना पर काम किया था। तब परियोजना की लागत लगभग छह लाख रुपये तय की गई थी। इसमें तत्कालीन नॉर्थ-वेस्ट प्रोविसेंस अवध एंड आगरा शासन ने मसूरी नगर पालिका को 4.67 लाख रुपये का ऋण मुहैया कराया। जबकि, 1.33 लाख की धनराशि पालिका को अपने स्तर से उपलब्ध करनी थी। हालांकि, बाद में परियोजना की कुल लागत 7.50 लाख रुपये पहुंच गई।
बैलगाड़ी से ग्लोगी पहुंचाए गए टरबाइन व जनरेटर
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परियोजना का खाका नगर पालिका मसूरी के तत्कालीन इंजीनियर पी.बिलिंग हर्ट ने तैयार किया था। परियोजना के लिए विद्युत उत्पादन करने वाली टरबाइन लंदन से खरीदी गई। तब मसूरी के लिए सड़क नहीं थी, सो मजूदरों को मशीनें ग्लोगी पहुंचाने के लिए कष्टसाध्य परिश्रम करना पड़ा। सबसे पहले बड़े जनरेटर और संयंत्रों को बैलगाडिय़ों के जरिये परियोजना स्थल तक पहुंचाने के लिए गढ़ी डाकरा से कच्ची सड़क बनाने का निर्णय लिया गया। लेकिन, विस्तृत सर्वेक्षण के बाद इसमें अधिक धन और समय की बर्बादी को ध्यान में रखते हुए मशीनें वर्तमान देहरादून-मसूरी मोटर मार्ग से ग्लोगी पहुंचाई गई। तब यह बैलगाड़ी मार्ग हुआ करता था।
1907 में पूरा हुआ कार्य, 1909 में उद्घाटन
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वर्ष 1907 में परियोजना का कार्य पूरा हुआ और क्यारकुली व भट्टा में बने छोटे तालाबों से 16 इंची पाइप लाइनों के जरिये जलधाराओं ने इंग्लैंड में बनी दो विशालकाय टरबाइनों से विद्युत उत्पादन शुरू कर दिया। लेकिन, इसका विधिवत शुभारंभ 25 मई 1909 को किया गया।
पहली बार बल्ब को देखकर डर गए थे लोग
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मसूरी स्थित लाइब्रेरी में जिस दिन बिजली का पहला बल्ब जला, उस दिन ब्रिटेन का राष्ट्रीय गीत बजाकर खुशिया मनाई गईं। हालांकि, लोग तब बल्ब को देखकर डर रहे थे कि यह क्या बला है। लेकिन, तत्कालीन इंजीनियर ने बल्ब को अपने हाथ से पकड़कर लोगों को समझाया कि इससे उन्हें कोई खतरा नही है। इसके बाद मसूरी में अन्य स्थान भी बिजली से रोशन हुए और फिर देहरादून के लिए भी आपूर्ति की गई।
1933 में स्थापित हुई दो और इकाइयां
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वर्ष 1933 में विद्युत गृह की क्षमता 3000 किलोवाट करने के लिए एक-एक हजार किलोवाट की दो और इकाइयां स्थापित की गईं। जो आज भी मसूरी के बार्लोगंज और झड़ीपानी क्षेत्र को रोशन कर रही हैं। राज्य गठन के बाद से इसका संचालन उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड कर रहा है।
पानी के जहाजों से मुंबई और रेल से दून पहुंची मशीनें
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वर्ष 1900 में पहली बार देहरादून पहुंची रेल ने ग्लोगी जल-विद्युत परियोजना को गति देने में अहम भूमिका निभाई थी। इंग्लैंड से पानी के जहाजों के जरिये मुंबई पहुंची भारी मशीन और टरबाइनों को इस रेल से ही देहरादून पहुंचाया गया। यहां से बैलगाड़ी और श्रमिकों के कंधों पर इन मशीनों को पहाड़ी पर स्थित परियोजना स्थल तक पहुंचाया गया।
70 साल ग्लोगी बिजलीघर की मालिक रही मसूरी नगर पालिका
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नौ नवंबर 1912 में ग्लोगी विद्युत गृह ने देश में दूसरा बिजलीघर होने का गौरव हासिल किया। वर्ष 1920 तक मसूरी के अधिकांश बंगलों, होटलों और स्कूलों से लैंप उतार दिए गए और उनकी जगह बिजली के चमकदार बल्बों ने ले ली। मसूरी नगर पालिका पूरे 70 साल ग्लोगी बिजलीघर की मालिक रही। तब बिजली की आय से मसूरी नगर पालिका उत्तर प्रदेश की सबसे धनी नगर पालिका मानी जाती थी। वर्ष 1976 को उत्तर प्रदेश विद्युत परिषद ने बिजली घर सहित पालिका के समस्त विद्युत उपक्रम अधिग्रहीत कर लिए।
लंदन की विद्युत संबंधी कंपनी के विशेषज्ञ ने की थी सराहना
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ग्लोगी पावर हाउस उस दौर में कितना पावरफुल रहा होगा, इसका अनुमान लंदन स्थित इंग्लैंड की सबसे बड़ी विद्युत संबंधी कंपनी के विशेषज्ञ डॉ. जी.मार्शल के पत्र से लगाया जा सकता है। उन्होंने 19 दिसंबर 1912 को मसूरी पालिका के तत्कालीन अध्यक्ष ओकेडन यह पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने कहा था कि, 'ग्लोगी हिंदुस्तान का प्रथम जल-विद्युत गृह है, जो अतिरिक्त रूप से कई सौ हॉर्स पावर की रोपवे, ट्रॉम-वे और भारी मशीनों को चलाने की विशेष क्षमता रखता है।Ó
हर्ट ने 1898 में खींच लिया था परियोजना का खाका
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वर्ष 1898 में मसूरी नगर पालिका के तत्कालीन इंजीनियर पी.विलिंग हर्ट की जल-विद्युत परियोजना पर सौ पृष्ठों की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने प्रस्तावित परियोजना का विस्तृत खाका खींचा था। इससे उस दौर में ऊर्जा विकास की समृद्ध तकनीकी का पता चलता है।