Monday, 30 August 2021

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

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दिनेश कुकरेती

सावन-भादों प्रकृति के उल्लास के महीने हैं। जंगल हरियाली से लकदक हो गए हैं। धरती के गर्भ से जगह-जगह जलस्रोत फूट चुके हैं। गाड-गदेरों, नदियों और झरनों का कोलाहल वातावरण में संगीत घोल रहा है। इस अनुपम छटा को देख भला कौन होगा, जो प्रकृति के इस सृजनकाल से रू-ब-रू नहीं होना चाहेगा। लेकिन, इस मनोहारी परिदृश्य के बीच विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में सावन-भादों का दूसरा पहलू भी है। पहाडिय़ों ने कोहरे की सफेद चादर ओढ़ी हुई है। यदा-कदा आसमान खुलने पर कोहरे के आगोश से झांकती पहाडिय़ां न केवल मन की अकुलाहट (व्याकुलता) बढ़ा रही हैं, बल्कि इस अंधियारे मौसम में लोग घरों से बाहर तक नहीं निकल पा रहे। ऐसे में खुद (याद) तो लगेगी ही। इसीलिए पहाड़ में सावन-भादों को खुदेड़ महीना कहा गया है। इसकी अभिव्यक्ति यहां लोक गीतों में हुई है। 

लोकगीतों में छलकती है 'खुदÓ

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पर्वतीय समाज में बिछोह ज्यादा है। पहले अभाव भी काफी अधिक था। बावजूद इसके आज भी पहाड़ के लोग एक-दूसरे के प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। ऐसे में समय, स्थान और वातावरण के चलते खुद की व्युत्पत्ति होती है। सावन-भादों में जब थोड़ा-सा अभाव होता है तो एक-दूसरे के प्रति स्नेह 'खुदÓ (नराई) के रूप में सामने आ जाता है। यही वजह है कि यह खुद लोकगीतों में छलक पड़ी। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का गाया ऐसा ही एक गीत है, जिसमें वह बड़े चुटीले अंदाज में बोडी-ब्वाडा (ताई-ताऊ) की परेशानियों को माध्यम बनाकर पहाड़वासियों की दुश्वारियों को बयां करते हैं। देखिए, 'गरा-रा-रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे, सरा-रा-रा डांड्यूं में कन कुयेडि़ छैगे।Ó (बारिश की झड़ी लग गई है और पहाडिय़ां कोहरे के आगोश में छिप गई हैं)। 

पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा

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एक अन्य गीत में नेगी उस नव विवाहिता के मन की थाह ले रहे हैं, जो अपने मायके के उल्लास एवं उमंगभरे दिनों को याद करते हुए उनकी याद में घुली जा रही है। तब वह कहती है, 'सौणा का मैना ब्वे कनु कै रैणा, कुयेड़ी लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालिÓ (मां! सावन के महीने में मैं कैसे रहूं। चारों दिशाएं कोहरे के आगोश में हैं। अंधेरी रात है और बारिश की झड़ी लगी हुई है। ऐसे में मुझे लगातार तेरी याद आ रही है)। नेगी के गीतों में पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा कुछ इस तरह भी अभिव्यक्ति मिली है, देखिए- 'हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासीÓ (चातुर्मास की बारिश, वनों में कोहरा घिर रहा है तो मन में उदासी)। 

इसी उदासी के बीच नवविवाहिता गा रही है, 'भादों की अंधेरी झकझोर, न बास-न बास, पापी मोर, ग्वेरै की मुरली तू-तू बाज, भैंस्यूूं की घांड्योंन डांडू गाज, तुम तैं मेरा स्वामी कनी सूझी, आंसुन चादरी मेरी रूझी।Ó (भादों का अंधेरा छाया है, हे मोर तू मेरे पास न बोल, न बोल। चरवाहों की मुरली तू-तू बज रही है और भैंसों की घंटियों से पर्वत गूंज रहा है। तुम्हें मेरे पति कैसी कठोरता सूझी, आंसूओं से मेरी धोती भीग गई है)।

लोक में सावन की फुहारों का इंतजार

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हालांकि, यह भी सच है कि सावन की इन्हीं फुहारों का पहाड़वासियों को हमेशा बेसब्री से इंतजार रहता है। इसकी अभिव्यक्ति नेगी अपने गीत में इस तरह करते हैं, 'बरखा हे बरखा, तीस जिकुडि़ की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूझै जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजाÓ (बारिश हे बारिश, मेरे हृदय की प्यास बुझा जा, मेरे सुलगते तन-मन को भिगो जा, प्रकृति में संगीत बिखेरते हुए आ जा)। दरअसल, पहाड़ में खेती बारिश पर ही निर्भर है, इसलिए जब समय से बारिश नहीं होती तो पहाड़वासियों के कंठ से गीतों के रूप में यह पीड़ा छलक पड़ती है।

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

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दिनेश कुकरेती

शिक्षा महज किताबी ज्ञान हासिल कर अच्छी पद-प्रतिष्ठा पा लेने का नाम नहीं है। विषय विशेषज्ञ बन जाने को भी शिक्षा नहीं माना जा सकता। शिक्षा को डिग्रियों में भी नहीं तौला जा सकता। शिक्षा तो जीवन चलाने की ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य के जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। व्यापक दृष्टि से देखें तो शिक्षा में मनुष्य के वह सभी अनुभव समाहित हैं, जिनका प्रभाव उस पर जन्म से लेकर मृत्यु तक पड़ता है। 

शिक्षा शब्द संस्कृत की 'शिक्षÓ धातु से बना है। इसका अर्थ है सीखना या ज्ञान प्राप्त करना। सीखने की प्रक्रिया शिक्षक, छात्र व पाठ्यक्रम के माध्यम से संपादित होती है। इसका अंग्रेजी पर्याय एड्यूकेशन है, जो लैटिन के 'एड्यूकेटमÓ शब्द से बना है। इसमें 'ईÓ का अर्थ है 'अंदर सेÓ और 'ड्यकोÓ का अर्थ है 'बाहर निकालनाÓ। यानी एड्यूकेशन का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का प्रकटीकरण है। इस प्रकार शिक्षा अथवा एड्यूकेशन का अर्थ चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक और अंतर्निहित शक्तियों का व्यवस्थित रूप से विकास करना है। 

व्यापक अर्थ में देखें तो शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में निरंतर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। दुनिया के विभिन्न विचारकों ने समय-समय पर शिक्षा को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया। मसलन विवेकानंद मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति को शिक्षा मानते हैं। जबकि, गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के शब्दों में उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती, बल्कि हमारे जीवन को समूचे अस्तित्व के अनुकूल बनाती है। शिक्षा से गांधीजी का अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण प्रकटीकरण से है। 













प्लेटो के विचार से बालक की क्षमता के अनुरूप शिक्षा उसके शरीर और आत्मा का विकास करती है, जबकि रूसो ने शिक्षा को विचारशील, संतुलित, उपयोगी एवं प्राकृतिक जीवन के विकास की प्रक्रिया माना है। कमेनियस ने संपूर्ण मानव के विकास को शिक्षा की संज्ञा दी है। जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यक्ति की क्षमताओं का विकास है। जिसके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रख सकता है और संभावनाओं को पूरा कर सकता है। टी रेमांट के अनुसार शिक्षा मानव जीवन के विकास की वह प्रक्रिया है, जो शैशवास्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है। 

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा बच्चे की अंतर्निहित शक्तियों (योग्यताओं) को बाहर निकालकर उसके व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन करती है। शिक्षा को समझने के दो दृष्टिकोण हैं, संकुचित और व्यापक। संकुचित सबसे प्राचीन दृष्टिकोण है, जो वर्ष 1879 तक अस्तित्व में रहा। इसमें शिक्षा के सैद्धांतिक, ज्ञानात्मक व औपचारिक स्वरूप पर बल दिया गया। लेकिन, इसका फलक विद्यालयी शिक्षा तक ही सीमित था। जबकि, व्यापक दृष्टिकोण बीसवीं सदी में आया। इसमें शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष यानी सर्वांगीण विकास और अनौपचारिक शिक्षा पर बल दिया गया।

शिक्षा का महत्व

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शिक्षा व्यक्ति के प्रत्येक पहलू को विकसित कर उसके चरित्र का निर्माण करती है। साथ ही उसके अंदर राष्ट्रीय एकता, भावनात्मक एकता, सामाजिक कुशलता, राष्ट्रीय अनुशासन जैसी भावनाएं विकसित करती है। ताकि वह राष्ट्रीय हित को केंद्र में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व का पूरे मनोयोग से निर्वहन कर सके।

शिक्षा के कार्य

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व्यक्ति संबंधी

- आंतरिक शक्तियों और संपूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण विकास

- भावी जीवन की तैयारी

- नैतिक उत्थान

- मानवीय गुणों का विकास

- आत्मनिर्भर बनाना

- आवश्यकता की पूर्ति में सक्षम

- जन्मजात प्रकृतियों में सुधार

समाज संबंधी

- सामाजिक नियमों का ज्ञान

- प्राचीन साहित्य का इतिहास

- कुरीतियों के निवारण में सहायक

- सामाजिक भावना का विकास

- सामाजिक उन्नति में सहायक

- धर्मों के विषय में तात्विक ज्ञान

- उदार दृष्टिकोण

राष्ट्र संबंधी

- भावनात्मक एकता

- कुशल नागरिक

- राष्ट्रीय विकास

- राष्ट्रीय एकता

सार्वजनिक हित संबंधी

सार्वजनिक आय संबंधी

- राष्ट्रीय अनुशासन

- अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान

वातावरण संबंधी

- वातावरण से समायोजन

- वातावरण का अनुकूलन

Tuesday, 20 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

Tuesday, 13 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

Thursday, 20 May 2021

रा-रा दा तुम हमेशा याद आओगे

 रा-रा दा तुम हमेशा याद आओगे

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दिनेश कुकरेती

शहूर रंगकर्मी, हास्य अभिनेता, गढ़वाली गायक और लोक के चितेरे रा-रा दा यानी रामरतन काला से मेरा आत्मीय रिश्ता रहा है। वैसे तो लोक से अनुराग होने के कारण मैं दो-ढाई दशक तक उनके करीब रहा, लेकिन तकरीबन चार साल हमारे साथ-साथ गुजरे। इस अवधि में मैंने रा-रा दा के साथ आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्रामजगतÓ अनुभाग में आकस्मिक कंपीयर के रूप में कार्य किया। कई यादें हैं इस कालखंड की, जिन पर ग्रंथ लिखा जा सकता है। रा-रा दा बेहद सरल एवं सहज इन्सान थे। बिल्कुल जमीन से जुड़े हुए। रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करने वाले, लेकिन दुनिया जहान की सभी चिंताओं से बेफिक्र। किसी चीज का लालच नहीं। हर हाल में खुश। इसलिए उनके साथ मेरी खूब जमती थी। जैसे वो, वैसा ही मैं भी। कोटद्वार शहर में कोई भी सांस्कृतिक आयोजन होता था तो उसमें रा-रा दा का होना अनिवार्य समझा जाता था।

रा-रा दा से मेरा परिचय रेडियो के जरिये हुआ। उस दौर टीवी चुनिंदा लोगों के घरों में हुआ करता था, वह भी ब्लैक एंड व्हाइट। रेडियो हर घर की पहुंच में होने के कारण मनोरंजन का प्रमुख साधन था। खासकर शाम साढ़े सात बजे आकाशवाणी नजीबाबाद से आने वाले 'ग्रामजगतÓ कार्यक्रम और शाम छह बजकर पांच मिनट पर आकाशवाणी लखनऊ से आने वाले 'उत्तरायणÓ कार्यक्रम के सब दीवाने हुआ करते थे। इन कार्यक्रमों में अक्सर एक गढ़वाली गीत बजा करता था, 'मितैं ब्योला बणै द्यावा, ब्योली खुज्ये द्याÓ। यह हास्य गीत गाया था रामरतन काला ने। तब लोग कहते थे कि कालाजी कोटद्वार में ही रहते हैं। गर्व की अनुभूति होती थी यह सुनकर।

धीरे-धीरे शहर में होने वाली सामाजिक गतिविधियों में मेरी भी हिस्सेदारी होने लगी। तभी रा-रा दा से प्रत्यक्ष मुलाकात हुई। फिर तो उनसे अक्सर मिलना-जुलना होने लगा। तब होली के पर्व से पूर्व उत्तराखंड लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक संस्था की ओर से पहाड़ की पारंपरिक होली को बढ़ावा देने के लिए होली उत्सव का आयोजन किया जाता था। मैं भी इसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी किया करता था। शाम के वक्त हम ढोल-मजीरे की थाप पर तीन-चार दिन तक शहरभर में होली गाते थे। इसका समापन झंडाचौक में होता था। रा-रा दा इस आयोजन की खास शान हुआ करते थे। उनका होली (होरी) गाने और होल्य़ार साथियों के साथ थिरकने का अंदाज मन मोह लेता था।

रा-रा दा साइकिल पर चला करते थे, लेकिन शहर के बीच से गुजरते वो साइकिल के साथ पैदल ही होते थे। रास्तेभर मित्र-परिचितों से मेल-मुलाकात करते हुए जाना उनको आनंद देता था। बीती सदी के आखिरी वर्षों में हमने नुक्कड़ नाटक 'कासीरामÓ का पूरे गढ़वाल में मंचन किया। इस नाटक को हमने हिंदी से  गढ़वाली में अनुदित किया था। नाटक में बताया गया था कि एक अनपढ़ व्यक्ति का रसूखदार लोग किस-किस तरह से शोषण करते हैं। कोटद्वार में रा-रा दा ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी आत्मीयता देखिए कि एक मंझे हुए रंगकर्मी होने के बावजूद वो हमसे पूछते थे कि अब मुझे क्या करना है।

रा-रा दा और मैंने 'शैलनटÓ नाट्य संस्था में भी साथ-साथ काम किया। इस कालखंड में उनसे बहुत-कुछ सीखने को मिला। तब में 'शैलनटÓ का प्रचार मंत्री हुआ करता था। आकाशवाणी नजीबाबाद के निदेशक रहे स्व. सत्यप्रकाश हिंदवाण ने मुझे 'शैलनटÓ से जोडा़ था। वर्ष 2008 में मैं देहरादून आ गया, सो इसके बाद उनसे मिलना नहीं हो पाया। बड़ी इच्छा थी कि किसी दिन कोटद्वार में उनसे मुलाकात करूंगा। लेकिन, दुर्भाग्य से 20 मई 2021 को रा-रा दा हमसे रूठ गए और मेरी यह इच्छा धरी-की-धरी रह गई। काश! उनसे मुलाकात हो पाई होती...

परिस्थितियों ने बनाया कलाकार, संस्कृति ने संवारा

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मूलरूप से पौडी़ गढ़वाल जिले के द्वारीखाल ब्लाक की लंगूर पट्टी स्थित ग्राम कुडी़धार निवासी रामरतन काला यानी रा-रा दा का जन्म कोटद्वार क्षेत्र के पदमपुर गांव में 14 जनवरी 1950 को शाकंभरी देवी व महानंद काला के घर हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा कोटद्वार में ही हुई। उन्होंने इंटर तक पढा़ई की। पिता सेना में थे, इसलिए वो भी सेना में जाना चाहते थे, लेकिन परिस्थितियों ने कलाकार बना दिया। रा-रा दा स्वयं कहते थे, 'विद्यालय से ही मुझमें कलाकार के लक्षण पैदा होने लगे थे। मेरे अध्यापक भी मानने लगे थे कि यह लड़का कलाकार है। छात्र जीवन में ही मैं एक स्थापित कलाकार हो गया था। हालांकि, मैंने हास्य-व्यंग्य वाले गीत भी गाए हैं, लेकिन मूलरूप से मैं रंगकर्मी हूं। नाट्य विधा का आदमी हूं।Ó

अक्सर जब उनसे बातचीत होती थी तो वो कहते, आजीविका के लिए वह कहीं नहीं गए। उन्हेंं इस बात का डर रहता था कि घर से बाहर जाने पर कहीं पश्चिमी सभ्यता का रंग चढ़ गया तो उनके भीतर का कलाकार मर जाएगा। इसलिए उन्होंने संघर्ष किया और लोक के होकर ही रह गए। कोटद्वार में रहते हुए भी उनकी नजरें पहाडो़ं की ओर रहती थी। उन्होंने जो कुछ सीखा, जो कुछ किया, वह सब पहाड़ों से और पहाड़ों में। उन्होंने मां, बेटी, बहन व बुजुर्गों से सीखा और उन्हेंं ही लौटाने की कोशिश करते हैं।

रा-रा दा मूलत: किसान थे। इसलिए खेती के वक्त वो सिर्फ खेती पर ही ध्यान देते थे। इस बीच एक-दो जगह उन्होंने दुकान भी खोली। संयोग से दुकान चल पड़ी, लेकिन इधर-उधर जाने के लिए शटर डाउन करना पड़ता। नौकरी की तो वह सूट नहीं हुई। रा-रादा के ही शब्दों में, 'ओ! काला, ओ! फलाणे, ओ! ढिमकेÓ यह मुझे रास नहीं आया। आखिर 'ओ! कालाÓ क्या होता है। ऊपर वाले की कृपा है कि सांस्कृतिक गतिविधियों से पैसा मिलने लगा और धीरे-धीरे ही सही, लेकिन परिवार की गाड़ी चलने लगी।Ó

मुंबई ने दिया मौका, बढ़ते चले गए कदम

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वर्ष 1985 की बात है। पढा़ई पूरी करने के बाद रा-रा दा को लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी एवं उनके दल के साथ मुंबई जाने का मौका मिला। दल में कुल 27 सदस्य थे। वहां प्रवासियों के बीच गढ़वाल से जाने वाली संस्कृति कॢमयों की यह पहला दल था। दल की प्रस्तुतियों को लोगों ने हाथोंहाथ लिया, खासकर रा-रा दा की। इससे पूर्व इस दल के साथ रा-रा दा इलाहाबाद कुंभ में भी प्रस्तुति दे चुके थे। मुंबई के बाद तो यह सिलासिला सा चल पडा़। विभागीय कार्यक्रम भी मिलने लगे। वर्ष 1991 में उन्होंने कौथगेर कला मंच के नाम से 18-20 कलाकारों को साथ लेकर अपना ग्रुप भी बना लिया, जिसे लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी व लोकगायक अनिल बिष्ट लगातार बुलाते रहे।

रा-रा दा रंगमंच तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने आंचलिक फिल्मों भी अपनी कला की छाप छोडी़। उनकी पहली फिल्म 'कौथीगÓ थी। इसमें उन्होंने चाचा की यादगार भूमिका निभाई। इससे पहले वो संस्कृत धारावाहिक 'शकुंतलाÓ में भी अभिनय कर चुके थे। एलबम के दौर में भी रा-रा दा सबसे पसंदीदा कलाकार बने रहे। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के तकरीबन 15 एलबम के गीतों में उन्होंने अभिनय का लोहा मनवाया। इनमें 'नया जमना का छोरों कन उठि बौल़, तिबरि-डंड्यल्यूं मा रौक एंड रोलÓ, 'तेरो मछोई गाड बौगिगे, ले खाले अब खा माछाÓ, 'समद्यूल़ा का द्वी दिन समल़ौण्या ह्वेगीनाÓ, 'दरौल्य़ा छौं न भंगल्या भंगल्वड़ा धोल्यूं छौं, कैमा न बुल्यां भैजी जननी को मर्यूं छौंÓ, 'कन लडि़क बिगडि़ म्यारु ब्वारी कैरि कीÓ,'तितरी फंसे, चखुली फंसे तू क्वो फंसे कागाÓ, 'सुदी नि बोनूÓ, 'सरू तू मेरीÓ, 'तेरी जग्वाल़Ó, 'स्याणीÓ, 'नौछमी नारेणाÓ, 'सुर्मा सरेलाÓ, 'बसंत ऐ ग्येÓ जैसे सुपरहिट गीत शामिल हैं।

रा-रा दा कैसे डूबकर अभिनय करते थे, इसका प्रमाण अपने दौर में सबसे चॢचत रहा नाटक 'खाडू लापताÓ है। नाटक को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे  प्रसिद्ध लेखक ललितमोहन थपलियाल ने यह नाटक उन्हीं को केंद्र में रखकर लिखा हो। आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्राम जगतÓ कार्यक्रम को भी रा-रा दा ने नई ऊंचाइयां दीं। दूरदर्शन देहरादून के 'कल्याणीÓ कार्यक्रम में वो 'मुल्की दाÓ की भूमिका में लंबे अर्से तक दर्शकों का मनोरंजन करते रहे।

रा-रा दा एक बेहतरीन गायक भी थे। उनका गाया गीत 'ब्योलि खुज्ये द्यावा, ब्योला बणै द्याÓ एक दौर में आकाशवाणी नजीबाबाद व लखनऊ से सर्वाधिक प्रसारित होने वाले गीतों में शुमार रहा। इसके अलावा उन्होंने 'कख मिलली नौकरी, कख मिलली चाकरीÓ जैसे कई गीत गाए। वर्ष 2008 में एक कार्यक्रम के दौरान मस्तिष्काघात के कारण रा-रा दा पैरालिसिस के प्रभाव में आ गए। काफी इलाज कराने पर भी वो इस बीमारी से पूरी तरह उबर नहीं  पाए, जिससे दोबारा रंगमंच की ओर लौटना संभव न हो सका। हालांकि, वो हमेशा कहते थे, 'अभी मुझे बहुत-कुछ करना हैÓ, लेकिन नियति पर कहां किसी का वश चलता है। आखिरकार उसने रा-रा दा को भी हमसे छीन लिया।