Sunday, 10 January 2021

लोक में रची-बसी मकरैंण

लोक में रची-बसी मकरैंण 
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंडी पर्व-त्योहारों की विशिष्टता यह है कि यह सीधे-सीधे ऋतु परिवर्तन के साथ जुड़े हैं। मकर संक्रांति इन्हीं में से एक है। इस संक्रांति को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है और इसी तिथि से दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं। लेकिन, सबसे अहम् बात है मकर संक्रांति से जीवन के लोक पक्ष का जुड़ा होना। यही वजह है कि कोई इसे उत्तरायणी, कोई मकरैणी (मकरैंण), कोई खिचड़ी संगरांद तो कोई गिंदी कौथिग के रूप में मनाता है। गढ़वाल में इसके यही रूप हैं, जबकि कुमाऊं में घुघुतिया और जौनसार में मकरैंण को मरोज त्योहार के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, त्योहार एवं उत्सव देवभूमि के संस्कारों रचे-बसे हैं। पहाड़ की 'पहाड़Ó जैसी जीवन शैली में वर्षभर किसी न किसी बहाने आने वाले ये पर्व-त्योहार अपने साथ उल्लास एवं उमंगों का खजाना लेकर भी आते हैं। जब पहाड़ में आवागमन के लिए सड़कें नहीं थीं, काम-काज से फुर्सत नहीं मिलती थी, तब यही पर्व-त्योहार जीवन में उल्लास का संचार करते थे। ये ही ऐसे मौके होते थे, जब घरों में पकवानों की खुशबू आसपास के वातावरण को महका देती थी। दूर-दराज ब्याही बेटियों को इन मौकों पर लगने वाले मेलों का बेसब्री से इंतजार रहता था। यही मौके रिश्ते तलाशने के बहाने भी बनते थे। आज भी मकरैंण पर पूरे उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों पर इसी तरह मेलों का आयोजन होता है।

अनूठी है थलनदी व डाडामंडी की गिंदी

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मकरैंण पर पौड़ी जिले के यमकेश्वर ब्लॉक स्थितथलनदी नामक स्थान पर लगने वाले गिंदी कौथिग का पौराणिक स्वरूप स्थानीय लोग आज भी कायम रखे हुए हैं। यह गिंदी क्षेत्र की दो पट्टियों के बीच खेली जाती है। इसी तरह दुगड्डा ब्लॉक के डाडामंडी नामक स्थान पर भी गिंदी कौथिग आयोजित होता है।

शुरू हो जाते हैं मांगलिक कार्य

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उत्तरायण में हिंदू परंपरा अपने मांगलिक कार्यों का शुभारंभ कर देती है, जो दक्षिणायन के कारण रुके रहते हैं। 'रत्नमालाÓ में कहा गया है कि व्रतबंध, यज्ञोपवीत, गृहप्रवेश, देव प्रतिष्ठा, विवाह, चौल, मुंडन आदि शुभकार्य उत्तरायणी में करें। ऋतु परिवर्तन के प्रतीक इस पर्व पर किए जाने वाले स्नान आदि के कारण व्यक्ति में जो उत्साह पैदा होता है, उसका महत्व भी सर्वविदित है। वास्तविकता यह है कि पर्व और त्योहार हमारे जीवन की निष्क्रियता और उदासीनता को दूर कर हमें जीवन के सभी क्षेत्रों में सक्रिय होने के प्रेरणा देते हैं और व्यक्ति एवं समाज की जीवनधारा को निरंतर गतिमान बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।


जीव जगत से अपनापा जोड़ने का पर्व

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कुमाऊं में मकरैण को घुघुतिया त्योहार के रूप में मनाते हैं। इस दिन गुड़ व चीनी मिलाकर आटे को गूंथा जाता है। फिर घुघते बना उसे घी या तेल में तलकर उसकी माला बनाते हैं। बच्चे इन मालाओं को गले में पहन कौवों व अन्य पक्षियों को कुछ इस तरह आमंत्रित करते हैं- 'काले कव्वा काले, घुघुती मावा खालेÓ। 

आटे से बनती हैं ढाल-तलवार की अनुकृतियां

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उत्तरायणी के दिन सरयू व गोमती के तट पर बागेश्वर में लगने वाले मेले का भी अतीत में धार्मिक एवं सांस्कृतिक के साथ ही व्यापारिक व ऐतिहासिक महत्व रहा है। घुघुतों के अलावा ढाल-तलवार की इसी आटे से बनीं अनुकृतियां तथा दाडि़म, संतरा आदि को भी माला के रूप में पिरोकर उसे बच्चों के गले में डाला जाता है। जाड़ों में पक्षी ठंड से बचने मैदानों को चले जाते हैं और यह माना जाता है कि मकर संक्रांति से वे लौटना शुरू कर देते हैं।

पांचाली की प्रतिज्ञा पूर्ण करने का पर्व मरोज

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जौनसार-बावर की यमुना घाटी में मकर संक्रांति का पर्व महीने के मरोज त्योहार के रूप में मनाया जाता है, जो पूरे माघ चलता है। इस मौके पर सभी लोग अपने परिवार की कुशलता हेतु बकरे की बलि देते हैं। मान्यता है कि पांडवकालीन संस्कृति के अनुरूप चलते आज तक इस जनजातीय क्षेत्र की महिलाओं द्वारा बकरे को दु:शासन का प्रतीक मानकर उसकी बलि देकर पांचाली की प्रतिज्ञा पूर्ण की जाती है। साथ ही माघ त्योहार के समय बेटियों व अतिथियों का भरपूर स्वागत किया जाता है। उन्हें लोग अपने-अपने घरों में भोजन हेतु आमंत्रित करते हैं।



















इसलिए पड़ा खिचड़ी संगरांद नाम

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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राशियों की संख्या 12 है। प्रत्येक राशि में सूर्य लगभग एक मास तक रहता है। एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य के संक्रमण को संक्रांति कहते हैं। इन 12 राशियों में से जिन चार राशियों- मेष, कर्क, तुला व मकर में सूर्य संक्रमण करता है तो वे मास होते हैं, बैशाख, श्रावण, कार्तिक और माघ। मकर राशि का स्वामी शनि है, इसलिए इस पर्व पर तिल, गुड़, जौ, चावल आदि का दानकर स्वयं खिचड़ी खाने का विधान है। यही वजह है कि इस पर्व का नाम ही खिचड़ी संगरांद पड़ गया।

आयुर्वेद की दृष्टि में मकरैंण

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'आयुर्वेद सार संहिताÓ में इन दिनों तिल-गुड़ के सम्मिश्रण से बने पदार्थों के सेवन को स्वास्थ्यवद्र्धक एवं बलवद्र्धक बताया गया है। यही वजह है कि देश के समस्त हिस्सों में मकर संक्रांति पर तिल, गुड़, खिचड़ी आदि का सेवन सर्वोत्तम माना जाता है।

72 से 90 साल में बदल जाती है संक्रांति

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खगोल शास्त्रियों के अनुसार पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए 72 से 90 सालों में एक डिग्री पीछे हो जाती है। इस कारण सूर्य एक दिन देरी से मकर राशि में प्रवेश करता है। वर्ष 2014 से 2016 तक मकर संक्रांति 15 जनवरी और वर्ष 2017 व 2018 में 14 जनवरी को थी। जबकि, वर्ष 2019 व 2020 में 15 जनवरी को मनाई गई। इससे पहले वर्ष 1900 से 2000 तक यह पर्व 13 व 14 जनवरी को मनाया गया था। बीच में वर्ष 1933 व 1938 सहित कुछ साल संक्रांति 13 जनवरी को भी मनाई गई। असल में हर साल सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने के समय में कुछ मिनट का विलंब होता है, जिससे हर साल यह समय बढ़ता रहता है। लगभग 80 से सौ साल में यह समय एक दिन आगे बढ़ जाता है। इस तरह वर्ष 2080 से यह पर्व 15 व 16 जनवरी को मनाया जाने लगेगा।

Sunday, 6 December 2020

दून की इन शिराओं में दौड़ती थी जिंदगी


दून की इन शिराओं में दौड़ती थी जिंदगी

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आज भले ही कंक्रीट का जंगल दून की पहचान बन चुका हो, लेकिन दो-ढाई दशक पूर्व ऐसा नहीं था। तब उत्तराखंड का 'वेनिसÓ कहा जाने वाला दून अपनी अठखेलियां करती जलधाराओं (नहरों) के लिए जाना जाता था। शहर की इन 'धमनियोंÓ में पानी नहीं, जिंदगी दौड़ा करती थी। वक्त बदला और इसी के साथ बदलने लगा शहर का मिजाज। वर्ष 2000 में अस्थायी राजधानी बनने के बाद आए कॉस्मोपॉलिटन कल्चर ने तो इन जलधाराओं को अतीत का अध्याय ही बना डाला। आइए! आपको दून के इस सुनहरे अतीत से ही परिचित कराएं...

दिनेश कुकरेती

वैज्ञानिक विकास की सोच हमेशा ही विनाश को निमंत्रण देती रही है। ऐसा ही कुछ दूनघाटी के साथ भी हुआ। विकास की अंधी दौड़ में शामिल होकर दून ने जहां अपनी सुंदरता खोई, वहीं दून को एक विशिष्ट पहचान देने वाली नहरें भी अपना अस्तित्व खो बैठीं। ये नहरें जहां बासमती के खेतों, लीची व आम के बागों और साग-सब्जी की पैदावार को प्रोत्साहित करती थीं, वहीं तन-मन को सुकून का अहसास भी कराया करती थीं। इन्हीं नहरों की बदौलत दून को तब उत्तराखंड का 'वेनिसÓ कहा जाता था। इनसे निकलने वाले कुलाबे शहर के अलग-अलग हिस्सों में काश्तकारों के खेतों तक पानी पहुंचाने का काम करते थे। बरसात में इन्हीं नहरों के कारण शहर में कभी जलभराव की समस्या नहीं हुई। आज जिसे ईसी (ईस्ट कैनाल) रोड कहते हैं, वह कभी नहर के साथ-साथ चलती थी और उस पर अनेक घराट बने हुए थे। लोग इस नहर का खेतों की सिंचाई, पेयजल आदि में उपयोग करते थे। इसी प्रकार देहरादून के हृदय स्थल से होकर बहने वाली वेस्ट कैनाल जीएमएस रोड के साथ-साथ बहती थी। लेकिन, बीते दो-ढाई दशक में, खासकर वर्ष 2000 में दून के अस्थायी राजधानी बनने के बाद यहां एक के बाद एक नहरों को भूमिगत कर उन पर सड़कों का जाल बिछा दिया गया। नतीजा जरा-सी वर्षा हुई नहीं कि शहर की सड़कें व गलियां तरणताल का रूप ले लेती हैं।

अंग्रेजाेें का पसंदीदा शहर रहा है दून

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अंग्रेजों को दूनघाटी बेहद पसंद रही है। वह देहरादून शहर को लंदन की तर्ज पर विकसित करना चाहते थे, कारण दून का मौसम बेहद सुहावना था। यहां जेठ की तपती दुपहरी में भी गर्मी का अहसास नहीं होता था। कारण, दून में जल की मात्रा इतनी अधिक थी कि यहां कभी भी मौसम गर्म होने तक पहुंच ही नहीं पाता था। दून की सबसे बड़ी नहरें ईस्ट व वेस्ट कैनाल लोगों पीने का पानी तो उपलब्ध कराती ही थीं, इन नहरों के पानी से सिंचित बासमती और लीची की महक देश-दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करती थी।

भूमिगत जल पर बढ़ी शहर की निर्भरता

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आज दून की नहरों का अस्तित्व खत्म हो चुका है या फिर खत्म होने के कगार पर है। मुख्य नदियां बिंदाल व रिस्पना नालों में तब्दील हो चुकी हैं। पूरे देहरादून शहर की प्यास बुझाने का दायित्व भूमिगत जल (अंडरग्राउंड वाटर) पर है। नतीजा शहर का भूमिगत जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। चारों ओर पक्के रास्ते, कंक्रीट की इमारतें और लगातार पेड़ों की कटाई से बारिश का पानी सड़कों पर ओवरफ्लो होता रहता है, जिससे भूमिगत जलस्तर दोबारा रिचार्ज नही हो पा रहा। खदानों से चूना पत्थर की लगातार खुदाई से भी जलस्तर पर फर्क पड़ा है। पहले यह जलीय चट्टानी परत की तरह काम करता था। लेकिन, अब पानी में चूने की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई है कि पथरी की शिकायत शहरवासियों में आम बात हो गई है।


दून की प्रमुख नहरें

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राजपुर नहर

दून की सबसे पुरानी नहर, जिसे बनाने का प्रारंभिक श्रेय पृथ्वीपति साह की माता रानी कर्णावती को जाता है। इतिहासकार प्रेम हरिहर लाल की पुस्तक 'द दून वैली डाउन द एजेजÓ में उल्लेख है कि इस नहर को मसूरी मैं स्थित रिस्पना नदी केउद्गम स्थल से पानी मिलता था। वर्ष 1820 की शुरुआत में इस नहर की रेख-देख का जिम्मा गुरु राम राय दरबार साहिब ने संभाल लिया था। वर्ष 1874 में इतिहासकार विलियम्स लिखते हैं कि राजपुर नहर का पुनरुद्धार वर्ष 1840 में सर कौटली ने करवाया। नहर के स्रोत रिस्पना नदी पर हाथ की क्रेन पूली का बैराज बना हुआ है। इस पर लकड़ी के मोटे तख्ते लगे हुए हैं। यह नहर मुख्यत: पीने का पानी मुहैया कराती थी, लेकिन बाद में जरूरी सुधार के बाद यह कुछ गांवों में सिंचाई के उपयोग में भी आने लगी। 36 किमी लंबी इस नहर से राजपुर, देहरा, धर्मपुर, कारगी ग्रांट, अजबपुर कलां, अजबपुर खुर्द व बंजारावाला को पानी उपलब्ध करवाया जाता था।

बीजापुर नहर

बीजापुर जो वर्तमान में राजभवन व मुख्यमंत्री आवास के लिए जाना जाता है, एक दौर में टोंस नदी के पानी को शहरवासियों तक पहुंचाता था। 1841 में बीजापुर कैनाल नाम से बनी 47 किमी लंबी इस नहर के जरिये बीजापुर, कौलागढ़, बनियावाला, शुक्लापुर, अंबीवाला, रांगड़वाला, आर्केडिया ग्रांट, मोहनपुर ग्रांट आदि क्षेत्रों को पानी उपलब्ध होता था। गढ़ीचौक पर यह नहर दो हिस्सों में बंटकर कौलागढ़ नहर व कांवली नहर नाम से जानी जाती थी। कौलागढ़ से निकलने वाली नहर प्रेमनगर टी-स्टेट तक जाती थी तो कांवली नहर शिमला बाइपास के पीछे खेतों में निकलती थी। 

खलंगा नहर

दून की सबसे पुरानी नहरों में सौंग नदी से शुरू होने वाली खलंगा नहर है। इसका निर्माण 1860 में शुरू हुआ। सौ किमी लंबी यह नहर मालदेवता से शुरू होकर केशरवाला, किद्दूवाला और रायपुर क्षेत्र में खेती के लिए पानी मुहैया कराती थी। रायपुर से आगे चलकर यह नहर कहलाती तो 'रायपुर नहरÓ ही थी, लेकिन वहां यह कई हिस्सों में बंट जाती थी। रायपुर से नथुवावाला के आगे यह नहर नकरौंदा व बालावाला क्षेत्र में बहकर इन क्षेत्रों में सिंचाई करती थी। यह एक अंडरग्राउंड नहर थी, जो मालदेवता में देखी जा सकती है।

जाखन नहर

1863 में बनाई गई 31 किमी लंबी यह नहर जाखन नदी के पानी को जाखन व रानी पोखरी के क्षेत्रों तक पहुंचाती थी।

कटा पत्थर नहर

पश्चिमी क्षेत्रों को सिंचाई के लिए जल उपलब्ध करवाने केउद्देश्य से 1840 में इस नहर का निर्माण शुरू हुआ, जो 1854 में बनकर तैयार हुई। 26 किमी लंबी इस नहर से कटा पत्थर, पिरथीपुर, लाखनवाला, फतेहपुर, तेलपुरा, ढकरानी आदि क्षेत्रों को पानी उपलब्ध करवाया जाता था।

धर्मपुर नहर

रिस्पना नदी से निकलने वाली इस नहर को ईस्ट कैनाल नाम से भी जाना जाता है। यह बारीघाट, दर्शनलाल चौक, नैनी बेकरी, बंगाली कोठी से आगे आकर खेतों में मिल जाती थी। इस नहर के नाम से साथ चलने वाली सड़क को ईसी रोड कहा जाता है। इसी नहर से एक छोटी नहर धर्मपुर में बदरीपुर नहर से कटने वाली छोटी नहर से मिल जाती थी। यह राजपुर फीडर कहलाती थी। यहां से यह रेसकोर्स, चंद्रनगर होते हुए हरिद्वार रोड पहुंचकर कारगी नहर कहलाती थी और बंजारावाला के खेतों तक मिलती थी। 


Thursday, 26 November 2020

नई टिहरी : सीढिय़ों पर बसा अनूठा शहर

नई टिहरी : सीढिय़ों पर बसा अनूठा शहर
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दिनेश कुकरेती
चंडीगढ़ की तर्ज पर बसाया गया उत्तराखंड का एक खूबसूरत पहाड़ी शहर नई टिहरी। यह एकमात्र शहर है, जो देश के मानचित्र में पहली बार 21वीं सदी में जुड़ा। भागीरथी और भिलंगना नदी पर बने देश के सबसे ऊंचे टिहरी बांध के पास की पहाड़ी पर बसा यह शहर कई मामलों में अनूठा है। कतारबद्ध मकान, कार्यालय व व्यावसायिक स्थलों के साथ यहां के पर्यटक स्थलों में अजीब आकर्षण नजर आता है। समुद्रतल से 1550 से लेकर 1950 मीटर तक की ऊंचाई पर मखमली-अनछुई हरियाली के बीच शहर की घुमावदार साफ एवं स्वच्छ सड़कें, जगह-जगह बनाए गए सीढ़ीनुमा रास्ते, दूर-दूर तक फैली पहाडिय़ां और ऊंचे-नीचे घने जंगल यहां आने वाले सैलानियों को बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। घरों के आसपास बनी इन सीढिय़ों पर से गुजरते हुए लोग स्वयं को यहां की सभ्यता एवं संस्कृति के बेहद करीब पाते हैं। यहां की जलवायु वर्षभर खुशनुमा रहती है। यहां आकर आप भागीरथीपुरम, रानीचौरी, बादशाही थौल, चंबा, बूढ़ा केदार मंदिर, कैम्पटी फॉल, देवप्रयाग जैसे कई पर्यटन स्थलों का आसानी से दीदार कर सकते हैं। टिहरी बांध और उसकी मानव निर्मित विशालकाय झील का सुंदर नजारा तो यहां से देखते ही बनता है। शहर की सबसे ऊंची पहाड़ी पर बनाया गया पिकनिक स्पॉट तो धीरे-धीरे देश-दुनिया के सैलानियों की पसंदीदा जगह बनता जा रहा है। यहां से पर्यटकों को हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाओं का अद्भुत नजारा देखने को मिलता है। इसलिए लोगों ने इस स्थान को 'स्नो व्यूÓ नाम दिया हुआ है। शानदार प्राकृतिक स्थलों के साथ नई टिहरी एडवेंचर एक्टिविटी का भी प्रमुख केंद्र है। आप यहां आकर रिवर-राफ्टिंग, टै्रकिंग, रॉक क्लाइंबिंग जैसी रोमांचक गतिविधियों का लुत्फ ले सकते हैं।    
झील के आगोश में पुरानी टिहरी
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टिहरी बांध की झील में डूब चुका मूल टिहरी नगर भागीरथी और भिलंगना नदी के तट पर 30ए30'  उत्तरी अक्षांश और 78ए56' पूर्वी देशांतर पर स्थित था। पहले यह एक छोटा-सा गांव हुआ करता था, लेकिन वर्ष 1815 में गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह ने इस नगर को अपनी रियासत की राजधानी बना दिया। इसी के नाम पर राज्य का नाम टिहरी गढ़वाल रियासत पड़ा। इस नगर का विस्तार तीन चौथाई मील लंबाई और आधा मील की चौड़ाई में हुआ था। 21वीं सदी की शुरुआत में भागीरथी व भिलंगना नदी पर टिहरी बांध का निर्माण होने के कारण पूरा टिहरी नगर जलमग्न हो गया। इस त्रासदी ने लगभग एक लाख लोगों को प्रभावित किया, जिनके लिए उत्तराखंड सरकार की ओर से नई टिहरी नगर की स्थापना की गई। इस नगर का निर्माण 90 के दशक में ही शुरू हो गया था और इसके लिए तीन गांवों के साथ थोड़ी वन भूमि का अधिग्रहण किया गया। वर्ष 2004 तक पुरानी टिहरी को पूरी तरह खाली कर यहां के निवासियों को नई टिहरी स्थानांतरित कर दिया गया।

झील का अद्भुत नजारा
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नई टिहरी शहर टिहरी गढ़वाल जिले का मुख्यालय होने के साथ ही एक आधुनिक एवं सुव्यवस्थित शहर है, जो चंबा से 11 किमी और झील में समाए पुरानी टिहरी से 24 किमी की दूरी पर स्थित है। भागीरथी नदी पर बांध निर्माण के बाद पुरानी टिहरी शहर के स्थान पर लगभग 42 किमी लंबी कृत्रिम झील उभर आई। जो वर्तमान में पर्यटन एवं आकर्षण का महत्वपूर्ण केंद्र बन चुकी है।

देश का सबसे बड़ा शिवलिंग
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हिमालय के ऐतिहासिक-पौराणिक मंदिरों की श्रेणी में एक है बूढ़ा केदार (वृद्ध केदारेश्वर) धाम। समुद्रतल से 4400 फीट की ऊंचाई और नई टिहरी से 59 किमी की दूरी पर स्थित इस मंदिर का भी ऐतिहासिक एवं पौराणिक दृष्टि से पंचकेदार शृंखला के मंदिरों सरीखा ही महत्व है। वृद्ध केदारेश्वर की चर्चा स्कंद पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रूप में मिलती है। मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने को पांडव इसी मार्ग से स्वर्गारोहण यात्रा पर गए थे। यहीं बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर भगवान शिव ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में पांडवों को दर्शन दिए थे। इसलिए बूढ़ा केदारनाथ कहलाए। बूढ़ा केदार मंदिर के गर्भगृह में विशाल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शिव की मूर्ति और लिंग विराजमान है। इतना बड़ा शिवलिंग शायद ही देश के किसी मंदिर में हो। इस पर उभरी पांडवों की मूर्ति आज भी रहस्य बनी हुई है। बगल में ही भू-शक्ति, आकाश शक्ति और पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। बूढ़ा केदार मंदिर के पुजारी नाथ जाति के राजपूत होते हैं। वह भी, जिनके कान छिदे हों।

चंबा का मनमोहक सौंदर्य
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 नई टिहरी से 11 किमी दूर और समुद्रतल से 1676 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हिल स्टेशन चंबा सेब व खुबानी के बाग और बुरांस के फूलों के लिए जाना जाता है। टिहरी बांध, सुरकंडा देवी मंदिर और ऋषिकेश की ओर बढ़ रहे सैलानियों के लिए चंबा एक आदर्श ठहराव स्थल है। यहां गब्बर सिंह नेगी मेमोरियल व श्री बागेश्वर महादेव मंदिर कुछ ऐसे लोकप्रिय स्थान हैं, जो सैलानियों को अपनी ओर खींचते हैं। चंबा बर्ड वाचिंग के शौकीनों के लिए भी आदर्श स्थान है। आप यहां दूरबीन की सहायता के बिना अलग-अलग तरह के पक्षियों को करीब से निहार सकते हैं। यहां से बागेश्वर मंदिर के भी दर्शन होते हैं। छुटियां बिताने के लिए चंबा उन आरामदायक स्थानों में से एक है, जहां आप अद्भुत शांति की अनुभूति कर सकते हैं। यहां देवदार, बांज व बुरांस के वृक्षों की शीतल हवा सैलानियों का मन मोह लेती है। चंबा की सबसे बडी खासियत यह है कि मसूरी और टिहरी जैसे हिल स्टेशनों के बहुत करीब होते हुए भी इस छोटे-से शांत कस्बे ने अपने ग्रामीण परिवेश को आज भी संजोकर रखा है।

भागीरथीपुरम और टॉप टैरेस
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टिहरी बांध की ओर से आने वाले रास्ते में भागीरथीपुरम पड़ता है। इसी के पास टॉप टैरेस नाम का पर्यटक स्थल है। यहां से एक रास्ता गंगोत्री मार्ग के प्रमुख धार्मिक स्थल भागीरथी नदी के तट पर बसे उत्तरकाशी (बाबा विश्वनाथ की नगर) की ओर जाता है। इन स्थानों पर आप पिकनिक मना सकते हैं, मंदिरों के दर्शन कर सकते हैं और साथ ही टिहरी झील में होने वाले साहसिक खेलों का मजा भी ले सकते हैं।

भागीरथी की धाराओं का रोमांच
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रिवर रॉफ्टिंग के शौकीनों को भागीरथी नदी की खतरनाक ओर फुफकारती धाराएं खूब लुभाती हैं। लेकिन, इसके लिए तैयारी ऋषिकेश से ही करके चलनी होती है। सड़क मार्ग से आने वाले सैलानियों को पहले ऋषिकेश पहुंचना होता है। यहां से नई टिहरी के लिए नियमित सेवाएं मिल जाती हैं।

आराम और सुकून की जगह
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नई टिहरी में ठहरने की कोई समस्या नहीं है। कई अच्छे होटल और गेस्ट हाउस यहां बने हुए हैं। गढ़वाल मंडल विकास निगम का रेस्ट हाउस भी ठहरने के लिए अच्छा स्थान है। नई टिहरी की दूरी देहरादून से 95 और ऋषिकेश से 76 किमी है।

सूर्योदय और सूर्यास्त का विहंगम नजारा
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अगर आप प्रकृति प्रेमी हैं और कुछ अलग करना चाहते हैं तो टिहरी जिले में समुद्रतल से 1665 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कुंजापुरी चले आइए। पौराणिक सिद्धपीठ के रूप में विख्यात यह स्थल देवी-देवताओं से जुड़ी लोकोक्तियों के कारण ही नहीं, यहां से नजर आने वाले हिमालय के नयनाभिराम दृश्यों के लिए भी प्रसिद्ध है। ऋषिकेश-चंबा मार्ग पर हिंडोलाखाल नामक स्थान से हरे-भरे जंगलों के बीच पांच किमी का सफर तय कर यहां पहुंचा जा सकता है। यहां से हिमालय में सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा देखते ही बनता है। कुंजापुरी मंदिर नरेंद्रनगर से 13 किमी, मुनिकीरेती से 28 किमी और देवप्रयाग से 93 किमी की दूरी पर है।

शक्ति पीठों का पवित्र त्रिकोण कुंजापुरी 
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देवी दुर्गा का यह मंदिर शिवालिक रेंज में स्थित 13 शक्ति पीठों में से एक है। मान्यता है कि जगदगुरु शंकराचार्य ने सुरकंडा देवी व चंद्रबदनी देवी मंदिर के साथ इस शक्ति पीठ की भी स्थापना की थी। कुंजापुरी इन दोनों पीठों के साथ एक पवित्र त्रिकोण बनाता हैं। कहते हैं कि कुंजापुरी में माता सती के दिव्य शारीर का ऊपरी हिस्सा (वक्षस्थल) गिरा था, जिसे संस्कृत में में कुंजा कहते हैं। इसी कारण मां के इस धाम का नाम कुंजापुरी पड़ा। मंदिर के गर्भगृह में माता की एक छोटी-सी प्रतिमा का विग्रह भी विराजमान है। कुंजापुरी मंदिर में अन्य मंदिरों की तरह ब्राह्मण पुजारी न होकर क्षत्रिय वर्ण के पुजारी हैं। परंपरागत रूप में यहां भंडारी जाति के लोग माता की पूजा करते आ रहे हैं, जिन्हें बहुगुणा जाति के ब्राह्मण दीक्षित करते हैं।

हिमालय का नयनाभिराम नजारा
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मंदिर तक जाने के लिए 308 सीढिय़ां चढऩी पड़ती हैं। मंदिर की उत्तर दिशा में हिमालय की बंदरपूंछ (6320 मीटर), स्वर्गारोहणी (6248 मीटर), भागीरथ (गंगोत्री) (6672 मीटर), चौखंभा (7138 मीटर) आदि चोटियां नजर आती हैं। जबकि दक्षिण दिशा में हरिद्वार, ऋषिकेश और आसपास के संपूर्ण क्षेत्र का भव्य एवं नयनाभिराम दृश्य दिखाई देता है।

सिंगोरी का कभी न भूलने वाला स्वाद
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आप टिहरी आए और यहां की प्रसिद्ध मिठाई सिंगोरी का जायका नहीं लिया तो समझिए बहुत-कुछ मिस कर दिया। सिंगोरी को स्थानीय भाषा में सिंगोड़ी या सिंगौरी नाम से भी जाना जाता है। शुद्ध खोया (मावा) से बनने वाली कलाकंद जैसी यह मिठाई मालू के पत्ते में पान की तरह लपेटकर परोसी जाती है। खोया के अलावा इसमें बारीक सफेद चीनी, नारियल व सूखे गुलाब के फूल के पाउडर मिलाया जाता है।

रानीचौरी का आकर्षण
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चंबा के नजदीक रानीचौरी नामक स्थान पड़ता है, जहां उत्तराखंड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय भरसार कारानीचौरी परिसर सैलानियों के आकर्षण का केंद्र है। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई पुष्प वाटिका और कैंपिंग साइट यहां पहुंचने वाले पर्यटकों सम्मोहित कर देती है। साथ ही अंगोरा ऊन का केंद्र भी यहां है।

कब जाएं
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वैसे तो आप नई टिहरी कभी भी आ सकते हैं, लेकिन मार्च से जून और फिर अक्टूबर से दिसंबर तक का समय यहां घूमने के लिए सबसे अनुकूल है। जनवरी-फरवरी में यहां कड़ाके की ठंड पड़ती है, जबकि जून से सितंबर के बीच बरसात के कारण आवाजाही में खतरा बना रहता है।

ऐसे पहुंचें
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हवाई अड्डा : जौलीग्रांट 93 किमी की दूरी पर।
रेल मार्ग : ऋषिकेश 76 किमी की दूरी पर।
सड़क मार्ग : नई टिहरी देहरादून, मसूरी, हरिद्वार, पौड़ी, ऋषिकेश, उत्तरकाशी आदि शहरों से सीधे जुड़ा हुआ है।


देवताओं के प्रयाग देवप्रयाग में रघुनाथ के दर्शन

देवताओं के प्रयाग देवप्रयाग में रघुनाथ के दर्शन
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दिनेश कुकरेती
षिकेश से 70 किमी दूर स्थित देवप्रयाग नगर ने आधुनिक युग में भी अपने पुराने वैभव को नहीं खोया। इसी नगर में मौजूद है प्राचीन रघुनाथ मंदिर। शहर के ऊपरी भाग में एक चबूतरे पर सीमेंट रहित बड़े पत्थरों से निर्मित 80 फीट ऊंचे इस मंदिर का निर्माण काल 1700 से 2000 वर्ष पूर्व का है। कहते हैं कि धारानगरी के  पंवार वंश के राजा कनकपाल के पुत्र श्याम पाल (722-782 ईस्वी) के गुरु शंकर ने काष्ठ का प्रयोग कर मंदिर शिखर का निर्माण करवाया था। गुरु शंकर और आद्य शंकराचार्य का काल आठवीं सदी का है। उस काल में मंदिर का शिखर परिवर्तित होने के कारण जनश्रुति है कि मंदिर का निर्माण शंकराचार्य ने कराया था। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में उल्लेख है कि त्रेता युग में ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति के लिए श्रीराम ने देवप्रयाग में तप किया और विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना की। इसलिए यहां रघुनाथ मंदिर की स्थापना हुई। यहां श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु की पूजा होती है।




























चतुर्भुज भगवान, दो बाहों की पूजा
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रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह में श्याम पाषाण निर्मित छह फीट ऊंची चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। लेकिन, पूजा करते हुए मूर्ति की दो बाहों को ढक दिया जाता है। यह अलौकिक मंदिर अन्य मंदिरों की तरह किसी चट्टान या दीवार पर टिका न होकर गर्भगृह के केंद्र में स्थित है। परिसर के परिक्रमा पथ पर शंकराचार्य, गरुड़, हनुमान, अन्नपूर्णा व भगवान शिव के छोटे-छोटे मंदिर हैं। परिसर में राजस्थानी शैली की एक छतरी भी है, जहां समारोहों के दौरान प्रार्थना की जाती है।
सिंहद्वार पहुंचने को 101 सीढिय़ां
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मुख्य मंदिर के शीर्ष पर स्वर्ण कलश और गर्भगृह में श्रीराम की विशाल मूर्ति विराजमान है। मूर्ति के चरण व हाथों पर आभूषण और सिर पर स्वर्ण मुकुट सजा है। हाथों में धनुष-बाण और कमर में ढाल लिए श्रीराम के एक ओर माता सीता और दूसरी ओर लक्ष्मण की मूर्ति है। मंदिर के बाहर गरुड़ की पीतल की मूर्ति है, जबकि मंदिर के दाहिनी ओर बदरीनाथ, महादेव व कालभैरव विराजमान हैं। मंदिर के सिंहद्वार तक पहुंचने के लिए 101 सीढिय़ां बनी हुई हैं। वर्ष 1803 में आए भूकंप में रघुनाथ मंदिर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। तब ग्वालियर राजघराने के माधवराव सिंधिया के पितामह दौलतराव सिंधिया ने इसकी मरम्मत करवाई।
कत्यूरी नहीं, नागर शैली का मंदिर
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मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। मंदिर निर्माण के बाद जब हिमालयन शैली विकसित हुई, तब आमलक के पास चारों ओर खंभों वाली तिबारी बनाकर उसको तांबे की चद्दरों से ढक छतरीनुमा बनाया गया। फिर उसके मध्य में कलश रखे गए। यह कत्यूरी शिखर शैली का प्रभाव था, इसलिए छतरी पर लकड़ी का प्रयोग किया गया। इसी लकड़ी के शिखर को देखकर प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल 'चारणÓ ने इस मंदिर को कत्यूरी शिखर शैली के प्रधान मंदिरोंं में माना। जबकि, वास्तव में यह नागर शैली का मंदिर है। श्रीनारायण चतुर्वेदी ने भी ङ्क्षहदू मंदिरों के रूप विन्यास में नागर शैली के मंदिरों का जो वर्णन किया है, उसके मुताबिक इस मंदिर की बनावट नागर शैली की है। मात्र शिखर ही कत्यूरी शैली का है।
'स्कंद पुराणÓ में देवप्रयाग पर 11 अध्याय
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भारत व नेपाल के 108 दिव्य धार्मिक स्थलों में देवप्रयाग का नाम आदर से लिया जाता है। यहीं अलकनंदा व भागीरथी नदी के संगम पर गंगा का उद्भव होता है। इसी कारण देवप्रयाग को पंच प्रयागों में सबसे अधिक महत्व मिला। 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने यहां दस हजार वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिए देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ व सुदर्शन क्षेत्र भी कहा गया। मान्यता यह भी है कि मुनि देव शर्मा के 11 हजार वर्षों तक तप करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा को त्रेतायुग में देवप्रयाग लौटने का वचन दिया और रामावतार में देवप्रयाग आकर उसे निभाया भी। कहते हैं कि श्रीराम ने ही मुनि देव शर्मा के नाम पर इस स्थान को देवप्रयाग नाम दिया। देवप्रयाग के पूर्व में धनेश्वर, दक्षिण में तांडेश्वर, पश्चिम में तांतेश्वर व उत्तर में बालेश्वर मंदिर और केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर स्थित हैं। ऐसी भी मान्यता है कि यहां गंगाजल के भीतर भी एक शिवलिंग मौजूद है।

एटकिंसन की नजर में देवप्रयाग
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वर्ष 1882 में 'द हिमालयन गजेटियरÓ में ईटी एटकिंसन लिखते हैं-देवप्रयाग गांव एक छोटी सपाट जगह पर खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित था। उसके पीछे 800 फीट ऊंचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से ऊपर पहुंचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर मवेशी भी चढ़ सकें। इसके अलावा रस्सी के दो झूला पुल भागीरथी और अलकनंदा नदी के उस पार जाने के लिए उपलब्ध हैं।
पाल वंश के अधीन रहा देवप्रयाग
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चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रह्मपुरी कहा है। सातवीं सदी में इसे ब्रह्मतीर्थ और श्रीखंड नगर नाम से भी जाना जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ 'अरावलÓ में इसे कंडवेणुकटि नगरम् माना गया है। 1000 से 1803 ईस्वी तक शेष गढ़वाल की तरह ही देवप्रयाग भी पाल वंश के अधीन रहा, जो बाद में पंवार वंश के शाह कहलाए।

आठवीं सदी में आए थे तिलंग भट्ट
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आठवीं सदी में आद्य शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत से तिलंग भट्ट ब्राह्मणों देवप्रयाग आगमन हुआ। कहते हैं कि तिलंग ब्राह्मण बदरीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्रपत्र के अनुसार पंवार वंश के 37वें वंशज अभय पाल ने तिलंग भट्टों को बदरीनाथ का तीर्थ पुरोहित होने का अधिकार दिया था।

राजा आते थे तो ढक दिया जाता था मंदिर
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वर्ष 1785 में पंवार राजा जयकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में अपनी जान दे दी थी। माना जाता है कि राजा की चार रानियां भी यहां सती हो गईं, जिन्हें रानी सती मंदिर समर्पित है। माना जाता है कि उन्होंने पंवार वंश को शापित कर दिया था। जिस कारण आज भी पंवार वंश की कोई सदस्य मंदिर की ओर नहीं झांकता। पूर्व में भी जब राजा देवप्रयाग आते थे तो मंदिर को पूरी तरह ढक दिया जाता था। मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में 19 लोगों के नाम खुदे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी।
हरि के पांच अवतारों का संबंध
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देवप्रयाग से भगवान विष्णु के श्रीराम समेत पांच अवतारों का संबंध माना गया है। जिस स्थान पर वे वराह के रूप में प्रकट हुए, उसे वराह शिला और जहां वामन रूप में प्रकट हुए, उसे वामन गुफा कहते हैं। देवप्रयाग के निकट नृसिंहाचल पर्वत के शिखर पर भगवान विष्णु नृसिंह रूप में शोभित हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहंता राजा सहस्रबाहु को मारने से पूर्व यहां तप किया। इसके निकट ही शिव तीर्थ में श्रीराम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिए तपस्या की थी। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही दशरथ को श्रीराम पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। श्रीराम के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे, जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं। गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गिद्धांचल कहते हैं। यह स्थान जटायु की तपोभूमि थी। पहाड़ी के आधार स्थल पर श्रीराम ने एक सुंदर स्त्री किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा के शाप से मकड़ी में परिवर्तित हो गई थी। इसी स्थान के निकट एक स्थान पर ओडिसा के राजा इंद्रद्युम ने भगवान विष्णु की आराधना की थी।