Sunday, 6 September 2020

26-08-2020 (कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने बसाई थी मसूरी)

कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने बसाई थी मसूरी
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दिनेश कुकरेती
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में मसूरी को विश्व के सात प्रमुख शहरों में जाना जाता है। यहां वे सारी सुविधाएं मौजूद थीं, जो उस जमाने में इंग्लैंड में हुआ करती थीं। लेकिन, यह सब संभव हो पाया था कैप्टन फ्रेडरिक यंग की बदौलत। वह मसूरी आए तो थे अंग्रेजी सेना के अफसर बनकर, लेकिन यह जगह उन्हें इस कदर रास आई कि फिर पूरे 40 साल यहीं रहकर इसे संवारने में जुटे रहे।

गोरखाओं के साथ युद्ध में टिहरी रियासत को दिलाई विजय
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फ्रेडरिक यंग का जन्म आयरलैंड के डोनेगल प्रांत में 30 नवंबर 1786 को हुआ था। 18 वर्ष की उम्र में वे ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर भारत आ गए। यहां उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में अहम भूमिका निभाई और कई भारतीय रियासतों को जीतने के साथ ही दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान से युद्ध कर उन्हें भी पराजित किया। वर्ष 1814 में कैप्टन यंग का स्थानांतरण देहरादून कर दिया गया। तब यहां टिहरी रियासत और गोरखा सेना के बीच युद्ध चल रहा था। इसके लिए टिहरी नरेश ने अंग्रेजी सेना की मदद मांगी। लगभग डेढ़ माह चले इस युद्ध के पहले चरण में अंग्रेजी सेना के कई अधिकारी मारे गए, जिनमें मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेप्सी भी शामिल थे। कैप्टन यंग तब उनके सहायक हुआ करते थे। जिलेप्सी की मौत के बाद उन्होंने सेना की कमान संभाली। उनके नेतृत्व में सहारनपुर, लुधियाना, गोरखपुर आदि स्थानों से सेना बुलाकर दोबारा खलंगा के अभेद्य किले पर आक्रमण किया गया। तब तोप से 18 पाउंड के गोले दागे गए, जिससे किला ध्वस्त हो गया। युद्ध का समापन गोरखा सेना की हार के साथ 30 नवंबर 1814 को हुआ। गोरखाओं के यहां से हिमाचल जाने पर एक संधि के तहत टिहरी महाराज ने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेजों को दे दिया। यह हिस्सा ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया।

हिमाचल में खड़ी की सिरमौर रेजीमेंट
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इस युद्ध के बाद कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने हिमाचल प्रदेश में भी गोरखा सेना से लोहा लिया। उन्होंने देखा कि गोरखा साहसी व वीर हैं, सो हुकूमत के सहयोग से पहले उन्होंने सिरमौर रेजीमेंट का गठन किया और फिर गोरखाओं को अपना बनाकर उनकी रेजीमेंट खड़ी की। कालांतर में इस रेजीमेंट के सहयोग से अंग्रेजों ने देशभर की कई रियासतों पर अपना अधिकार जमाया।

मसूरी की सुंदरता पर रीझ गए थे कैप्टन यंग
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सेना में जनरल बनने के बाद वर्ष 1823 में कैप्टन यंग ने मसूरी को बसाने का कार्य शुरू किया। तब अंग्रेज मसूरी के जंगलों में शिकार खेलने आया करते थे। कैप्टन यंग को यह जगह हर दृष्टि से आयरलैंड की तरह ही लगी। यहां की खूबसूरती और जलवायु ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया। इसलिए उन्होंने मसूरी में ही डेरा डालने की ठान ली। सबसे पहले उन्होंने मसूरी के मलिंगार में शूटिंग रेंज बनाई और वर्ष 1825 में अपने लिए झोपड़ीनुमा कच्चा मकान भी बना लिया। उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों को मनाया कि यहां सैनिकों के लिए एक सेनिटोरियम बना लिया जाए। वर्ष 1827 में यह सेनिटोरियम बनकर तैयार हुआ और फिर अंग्रेजों ने यहां बसागत शुरू कर दी। मसूरी नगर पालिका के गठन में भी यंग का अहम योगदान रहा।


'सिस्टर बाजारÓ भी यंग की ही देन
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कैप्टन यंग मसूरी की ऊंची पहाड़ी (अब लंढौर कैंट) पर सैनिकों के लिए बैरक और अस्पताल बनाना चाहते थे। इसके लिए पहले उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से विचार-विमर्श कर उन्हें विश्वास में लिया और फिर अस्पताल बनाने का कार्य शुरू किया। इस अस्पताल को ब्रिटिश मिलिट्री अस्पताल नाम दया गया। यहां मुख्य रूप से युद्ध में घायल अंग्रेजी फौज के जवानों का इलाज होता था। इसके साथ ही घायलों का उपचार एवं देख-रेख करने वाली नर्स व सिस्टरों के लिए यहां आवासीय भी परिसर बनाए गए थे। इसीलिए कालांतर में इस बाजार को 'सिस्टर बाजारÓ नाम से जाना जाने लगा।

यंग के मनाने पर अफसरों ने नहीं छोड़ी मसूरी
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कैप्टन यंग को मसूरी को बसाने का श्रेय इसलिए भी जाता है, क्योंकि उन्हीं के मनाने पर अंग्रेज उच्चाधिकारी मसूरी में ही रहने के लिए तैयार हुए थे। दरअसल, अंग्रेजी फौज के उच्चाधिकारी विलियम बेंटिक ने मसूरी को ब्रिटिश प्रशासन के अनुकूल न होने की बात कहते हुए इस स्थान को छोडऩे का निर्णय ले लिया था। ऐसे में कैप्टन यंग ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए न केवल मसूरी को एक शानदार हिल स्टेशन व सैनिक डिपो के रूप में विकसित करने की जिम्मेदारी ली, बल्कि उसे पूरा करके भी दिखाया।


यंग ने शुरू की थी आलू व चाय की खेती
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मसूरी में आलू और चाय की खेती भी कैप्टन यंग की ही देन है। बताते हैं कि वर्ष 1827 से पूर्व गढ़वाल-कुमाऊं में कहीं भी आलू नहीं होता था। तब आलू सिर्फ यंग के वतन आयरलैंड में ही उगाया जाता था। मसूरी के मलिंगार में जहां कैप्टन यंग ने अपनी झोपड़ी बनाई थी, वहीं आंगन के आगे आलू के खेत भी बनाए। इसके बाद तो उत्तराखंड में जगह-जगह आलू की खेती होने लगी।

राजपुर गांव में था यंग का 'डोनेगल हाउसÓ
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कैप्टन यंग मसूरी में लगभग 40 साल रहे। बाद में वे देहरादून के सुपरिटेंडेंट भी बने। देहरादून के पास राजपुर गांव में 'डोनेगल हाउसÓ नाम से उनका शानदार आवास हुआ करता था। हालांकि, वर्तमान में वह मौजूद नहीं है। राजपुर-शहंशाही आश्रम के मध्य से होकर आज भी जो मार्ग झड़ीपानी होते हुए मसूरी को जोड़़ता है, उसे कैप्टन यंग ने ही बनवाया था। मसूरी में भारी-भरकम वाटर पंप, विद्युतगृह और तमाम भवनों के लिए तब निर्माण सामग्री राजपुर-झड़ीपानी मार्ग से ही मसूरी व लंढौर कैंट तक पहुंचाई गई थी।

30-08-2020 (Gulmohar)

गुलमोहर
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मैं सोचता था 
किसी दिन चुपके से
लगा आऊंगा-
गुलमोहर का एक पौधा,
आंगन के उस छोर पर
और करूंगा इंतजार-
उसके बडे़ होने का।
फिर एक दिन
फूटने लगेंगी उस पर कलियां
खिलखिला उठेंगे फूल
आसपास खडे़ पेड़-पौधों से
नजरें चुराकर
बिखेरेंगे मधुर मुस्कान। 
तब एक दिन-
वह पूछेगी-
किसने लगाया होगा,
गुलमोहर का यह पौधा?
कितना आकर्षण है
इसके फूलों में,
जी करता है घंटों गुजारूं
इसकी छांव में
तुम्हारी तरह
बेफिकरी के साथ।
फिर वह
मेरे करीब आएगी और-
बैठ जाएगी
होठों पे लिए
मंद-मंद मुस्कान
मैं उससे पूछूंगा
अगर तुम्हें मालूम पड़ जाए
उसके बारे में
जिसने रोपी हैं इसकी जडे़ं
तो क्या
वह भी ऐसा ही
मनभावन लगेगा तुम्हें
क्या कहोगी तब उससे तुम?
तब वह कहेगी-
जड़ दूंगी उसके गाल पर 
स्नेह का चुंबन
और-
बेसाख्ता लिपट जाऊंगी
उसके सीने से।
यह सुनकर-
खिंच आईं मेरी आंखों में
गुलाबी डोरियां
फिर मैं
धीरे-धीरे उतरने लगा
गहराइयों में
उसकी झील-सी आंखों की।
भूल गया
खुद का अस्तित्व 
कि तभी अचानक-
न जाने कैसे
उलझ गया मेरा पांव
पास ही तिरछे पडे़
एक बडे़ से पत्थर से
निकल पडी़ होठों से चीख
भंग हो गई तंद्रा-
मानो मैं आसमान से
गिर पडा़ हूं जमीन पर
फिर-
सिर को झटककर
चारों तरफ घुमाई निगाह
तो कहीं नजर नहीं आया
गुलमोहर का,
वो खूबसूरत पेड़,
न गुलमोहर की छांव में बैठी वो
कुछ भी तो नहीं था वहां,
सिवाय सन्नाटे के...।
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@दिनेश कुकरेती
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Gulmohar
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 I used to think
 Someday secretly
 Will come
 A plant of Gulmohar,
 At the end of the courtyard
 And I will wait
 To grow up.
 then one day
 Buds will start bursting
 Flowers will blossom
 From trees and trees standing nearby
 Stole eyes
 A sweet smile will spread.
 Then one day-
 She will ask
 Who would have planted,
 This plant of Gulmohar?
 What a charm
 In its flowers,
 I live for hours
 Under its shade
 Like you
 With carelessness.
 then she
 Will come closer to me and-
 Will sit
 On lips
 Light smile
 I will ask him
 If you know
 About that
 Who has planted their roots
 So what
 That too
 You will feel pleasing
 What will you say to him then?
 Then she will say-
 Will root on her cheek
 Sneha's kiss
 And-
 I will go with a crutch
 From his chest.
 Hearing this-
 My eyes got drawn
 Pink cords
 Then i
 Slowly descending
 In the depths
 Of his lake eyes.
 forgot
 Own existence
 Then suddenly
 do not know how
 My leg got tangled
 Lying diagonally nearby
 With a big stone
 Scream out of lips
 Sleep was disturbed
 As if from the sky
 Fall to the ground
 Again-
 Jerking head
 Turned around
 So nowhere
 Of Gulmohar,
 Those beautiful trees,
 Neither she sat in the shade of Gulmohar
 There was nothing there,
 Except for silence….
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 @Dinesh Kukreti

राजवंशों के दौर में मुनादी करने वाला नगाड़ा

 

राजवंशों के दौर में मुनादी करने वाला नगाड़ा
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दिनेश कुकरेती
धतिया या धदिया का अर्थ है किसी खास कार्य की सूचना या आपदा आदि की चेतावनी देने के लिए ऐसी जोरदार आवाज (धात या धाद) उत्पन्न करना, जो दूर-दूर तक सुनाई दे। डौंडी पीटने (मुनादी करना) का यह कार्य गढ़वाल-कुमाऊं में रोहिल्ला, कत्यूरी, चंद, पंवार आदि राजवंशों के दौर में धतिया नगाड़े के माध्यम से होता था। तब आज की तरह संचार के साधन नहीं थे, इसलिए राजा को अपने राज्य में अकस्मात कोई सूचना देनी होती थी या किसी राज्य पर चढ़ाई करनी होती थी तो यह नगाड़ा ही संदेश वाहक का काम करता था। इसे 'दैन दमुÓ भी कहते थे, क्योंकि यह दाहिनी ओर से बजाया जाता था। हालांकि, अब धतिया नगाड़े चुनिंदा स्थानों पर ही रह गए हैं।


15 किलो से अधिक वजनी होते थे नगाड़े
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तांबे या अष्ट धातु से बना यह नगाड़ा हालांकि दिखने में सामान्य नगाड़े की तरह ही होता था, लेकिन आकार में आजकल के नगाड़ों से कहीं अधिक बड़ा होता था। अमूमन 15 किलो से अधिक वजनी इस नगाड़े के पुड़े का व्यास लगभग डेढ़ फीट हुआ करता था। चंद राजाओं की ओर से कुमाऊं के जागेश्वर धाम में चढ़ाया गया धतिया नगाड़ा आज भी देखा जा सकता है। इसका वजन 16 किलो और पुड़े का व्यास लगभग 18 इंच है। इस नगाड़े को राजा दीप चंद ने जागेश्वर धाम में चढ़ाया था। इस नगाड़े को वृद्ध जागेश्वर के पास 'धती ढुंगÓ से बजाया जाता था। इस स्थान से रीठागाड़ी, गंगोलीहाट, चौकोड़ी और बेरीनाग तक साफ दिखाई देते हैं। तब गंगोलीहाट मणकोटी शासकों के अधीन हुआ करता था।

'धती ढुंगÓ पर रखकर बजाया जाता था धतिया नगाड़ा
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धतिया नगाड़ा बजाने के लिए राजशाही के दौर में ऐसे स्थान नियत होते थे, जहां से इसकी आवाज स्पष्ट रूप में दूर-दूर तक पहुंच जाए। जिस पत्थर पर रखकर इस नगाड़े को बजाया जाता था, उसे 'धती ढुंगÓ (नगाड़ा रखने के लिए नियत एक खास प्रकार का पत्थर) कहते थे। इसे लकड़ी के दो मोटे एवं मजबूत सोटों (लांकुड़) से बजाया जाता था।

साथ में बजते थे सहायक वाद्य
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राजशाही के दौर में धतिया नगाड़ा बजाना वीरता का प्रतीक माना जाता था। नगाड़े के सहायक वाद्य के रूप में दो विजयसार के ढोल, दो तांबे के दमाऊ, दो तुरही, दो नागफणी, दो रणसिंघा, दो भंकोर और दो कंसेरी बजाई जाती थी। बजाने से पहले इनकी विधिवत पूजा कराई जाती थी।


भैंसे के चर्म से बनती थी नगाड़े का पूड़ा
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धतिया नगाड़े का पुड़ा भैंस के चर्म से तैयार होता था। इसके लिए विशेष तौर से चार से पांच साल की आयु के भैंसे की खाल को चुना जाता था। खाल को धूप में अच्छी तरह सुखाकर फिर उसे कुछ दिन तेल में भिगाने रख दिया जाता था। तेल में रखने से पुड़ा नर्म एवं मजबूत हो जाता था और डंडे की मार से फटता भी नहीं था। नगाड़ा तैयार हो जाने के बाद पुड़े की नरमी बरकरार रखने के लिए साल में तीन से चार बार इस पर काले तिल का तेल या घी लगाया जाता था। फिर आग के सामने इसको आंच दिखाई जाती थी, ताकि घी या तेल अंदर तक चला जाय। नगाड़े की डोरियां भी भैंसे की आंत के चमड़े से ही तैयार की जाती थीं।

पिथौरागढ़ के कनार गांव में है उत्तराखंड का सबसे बड़ा नगाड़ा
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छिपला केदार पर्वत माला के मध्य समुद्रतल से आठ हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित पिथौरागढ़ जिले के अंतिम गांव कनार भगवती कोकिला के मंदिर में ऐसा ही नगाड़ा मौजूद है। इसे उत्तराखंड का सबसे बड़ा नगाड़ा होने का गौरव हासिल है। मंदिर में जब मेले का आयोजन होता है तो इसी नगाड़े को बजाकर मां भगवती की पूजा होती है। भगवती कोकिला मल्ला अस्कोट के गोरी छाल क्षेत्र की आराध्य देवी हैं। 22 धानी के इस नगाड़े को मंदिर के प्रांगण में ही बजाया जाता है। जबकि दूसरे 12 धानी के नगाड़े को डंडे के सहारे दो लोग कंधे पर टांगकर मंदिर के चारों ओर घुमाते हैं और तीसरा व्यक्ति इसे बजाता है।


मंदिरों में नगाड़े पर ही लगती है नौबत
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देवभूमि के प्रसिद्ध मंदिरों में आज भी नौबत (नौ तरह के स्वर) लगाने के लिए नगाड़ा बजाने की परंपरा है। नौबत में समय के साथ लय-ताल भी भिन्न-भिन्न होती है। इसका मुख्य उद्देश्य लोक का जागृत करना (जगाता) है। दरअसल, पुराने समय में किसी भी आपदा, उत्सव, अनुष्ठान आदि के बारे में मंदिरों से ही सूचना प्रसारित होती थी। साथ ही पूजा-अनुष्ठानों में भी नगाड़ा बजता था।

Saturday, 5 September 2020

Rani Jhansi's lawyer has slept in Mussoorie cemetery


Rani Jhansi's lawyer has slept in Mussoorie cemetery
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Dinesh Kukreti.
In the cemetery of Camel's back road in Mussoorie, Queen of the mountains, there is also an English son of the freedom movement who had supported Rani Laxmibai of Jhansi in the war against the British rule.  A lawyer and a journalist by profession, this Australian English was flown to the British court for false allegations made against the Rani Jhansi by the British rule.  He continued to fight against the slavery and oppression of the Indian people throughout his life.  Due to this, the British rulers were very angry with them and used to harass them like other Indian freedom fighters.

Lang, a resident of Australia, just 48 years old
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Walter Lang and Elizabeth's child John Lang were born on 19 December 1816 in Sydney (Australia).  But, on 20 August 1864, at the young age of 48, he took the world from the world-e-Fani to the queen of the mountains, Mussoorie.  He died in suspicious circumstances.  Therefore, on 22 August 1864, a report of his murder was written in the Mussoorie police post.  However, the British rulers suppressed the investigation of the case and the mystery of his death always remained a mystery.

Ruskin discovered Lang's grave in Camel's Back Road cemetery
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John Lang came to India in the year 1842 and started helping the Indians legally against the British here.  In 1861, he married Margaret Waiter in Mussoorie.  Little is known that Lang's name made headlines in the year 1964, when the famous writer Ruskin Bond discovered his tomb on the Camel's Back Road in Mussoorie.  Although Lang was already popular in Australia for his books, he was less well known in India.  Often historical references to Lang were made, Bond writes, but it was not confirmed that he lived in Mussoorie.  On the hundredth death anniversary of Lang in 1964, an acquaintance from Australia sent some documents related to him.  It was only then that he began searching for Lang's tomb.

Lang was worth the Himalayas
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John Lang was particularly fond of the Himalayas and its Shivalik ranges, writes Ruskin Bond.  When he started staying sick due to the heat in Meerut, he moved to Mussoorie and then settled here.  He lived at the Himalaya Club near Picture Palace in Mussoorie.  He breathed his last here.

Was deported in the year 1830
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Lang did his early education in Sydney and in 1837 he earned a barrister's degree from Cambridge University (England).  Then after spending some time in Australia came to India.  However, he was expelled only in the year 1830 after he raised his voice against the British rulers in the Sydney Rebellion and moved to England.  After coming to India, till 1845, the British fought poor cases imposed on poor Indians in various areas here.



Publication of the newspaper 'Muffsilite' continued till the end
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In 1845, Lang started publishing a newspaper called 'Muffsilite' in Kolkata.  Later it was published from Meerut, which he continued to publish from Mussoorie till the last time of his life.  For this, he had installed a mufasilite printing press in The Exchange Building complex located in Kulri Bazar, Mussoorie.  In his newspaper, he used to publish articles against excesses of English rule.  Even today, this newspaper is being published weekly as Mphsilite in both languages.  Its editor is historian Jayaprakash Uttarakhandi and also runs a committee in memory of John.

Rani Jhansi appointed Lang as his lawyer in 1854
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John Lang fought the case to recognize the adopted son of Rani Lakshmi Bai from the then British rule.  Historian Jayaprakash Uttarakhandi writes that the then Governor General of India, Lord Dalhousie, was also eyeing Jhansi to seize the kingdom of childless rulers.  In the year 1854, Rani Lakshmi Bai appointed John Lang to contest his case and called Jhansi to meet.  Lang lost the trial against the East India Company in the Kolkata High Court.  Meanwhile, the mutiny of 1857 started and on 17 June 1858, Rani Laxmi Bai became a martyr while fighting the British.  The mutiny had failed, so this year Lang also moved to Mussoorie.

When Rani said to Lang, 'I will not give my Jhansi'.
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As John Lang writes in his book 'Wanderings in India', during conversation, the queen's adopted son Damodar suddenly removed the curtain between the queen and me.  Which surprised the queen, although by then I had seen the queen.  He told me, 'I will not give my Jhansi'.  I was so impressed to see the queen that she could not stop herself and said, 'If the Governor General had seen you, I would have considered myself lucky for a while, like I am assuming.  I am saying with confidence that he would have given back to Jhansi to a beautiful queen like you.  However, with a very sincere response, Rani accepted this supplement gracefully on my point.

Lang was the only Englishman to be married to Rani Jhansi
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John Lang was the only Englishman who had the privilege of being acquainted with Rani Laxmibai of Jhansi.  Lang writes, 'The queen was a woman of average stature, healthy, simple body and very beautiful round face at a young age.  His eyes were quite beautiful and his nose was very delicate.  The color was not very fair, but it was very good with blackness.  There was no jewelry on his body except the ear ring in the ears.  She was wearing very finely knit white muslin cloth.  The outline of his body was quite clear in this dress.  She was really beautiful.  Yes, the only thing that spoiled his personality was his torn voice with rumpled sound.  However, she was a very intelligent and influential woman.

Lang was Australia's first novelist
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 Lang was not only a lawyer, but also a writer and a well-known journalist of his time.  John Lang is known in Australia as the country's first novelist.  Lang wrote famous novels such as the English novels The Weatherbies, Two Clever by Hoff, Two Much Alike, The Forgers Wife, Captain Macdonald, The Secret Police, True Stories of the Early Days of Australia, The X Wife, My Friends Wife.  After his death, these novels were published several times and were well received by readers.







Nandakanan Valley of Flowers of Ramayana

Nandakanan Valley of Flowers of Ramayana
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Dinesh Kukreti
If you want to see the beauty of nature, then come to the valley of flowers.  Spread over an area of ​​87.5 sq km, situated at an altitude of 3962 meters above sea level in the high Himalayan region of the frontier Chamoli district of Uttarakhand, this valley is a unique gift of nature for tourists.  This is the same valley, which is mentioned in the Ramayana and Mahabharata as Nandakanan.

The first to know of this valley was in the year 1931, the British mountaineer Frank S.  Smith and his partner RL Holdsworth planted.  Impressed beautifully by this, Smith returned to the Valley again in 1937 and in 1938 published a book called 'Valley of Flowers'.  The Valley of Flowers was declared a national park in the year 1982.  Surrounded by snow-capped mountains, this valley is filled with self-contained flowers every year after the snow melts.  Coming here, it seems as if nature has decorated a plate of flowers among the mountains.  Between August and September, the aura of the valley is seen.  Naturally rich this valley is also a natural habitat of endangered animals black bear, snow leopard, brown bear, musk deer, colorful butterflies and blue sheep.


UNESCO Heritage
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Nanda Devi National Park and Valley of Flowers, located in the Uttarakhand Himalayas, are jointly declared as World Heritage Sites.  In 2005, UNESCO granted World Heritage Status to the Valley of Flowers.

The valley changes color every 15 days
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More than 500 species of flowers bloom in the Valley of Flowers between July and October.  The special thing is that every 15 days the color of the valley also changes due to the colorful flowers of different species.  This is the kind of hypnosis in which everyone wants to be imprisoned.

Shattered disaster clouds
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 During the disaster, the way to the Valley of Flowers in 2013 had completely fallen prey to the disaster.  Two bridges were also swept along the three-kilometer-long walkway from Ghangharia to Valley of Flowers.  Although the construction of the roadway was completed in the year 2014, the Valley of Flowers was opened for tourists for one month only.  In the year 2015 too, only 4500 indigenous and foreign tourists reached the valley of Didar, but this time there are record tourists in the valley.



Plastic carry prohibited
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Plastic carrying is prohibited in the Valley of Flowers.  The garbage that goes with the food items also has to be brought back by the tourists to the Ghangharia.  Failure to do so provides a stringent fine.  There is no stopping facility in the valley, so tourists have to return to Ghangharia before the day ends.

Entry fee
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The entry fee for Indian tourists is Rs 150 for entry into the Valley of Flowers, while it is Rs 650 for foreign tourists.  If you have children with you and are under five years of age, there is no entry fee.



How to reach
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The last bus base in Chamoli district to reach the Valley of Flowers is at a distance of 275 km from Govindghat Tirthanagri Rishikesh, which lies between Joshimath-Badrinath.  Rishikesh can also be reached by rail, while the nearest airport is at Jollygrant (Dehradun) near Rishikesh.  The distance of Ghangharia, the entry point of the Valley of Flowers, from Govindghat is 13 kilometers.  From where tourists can see a valley of flowers three kilometers long and half kilometers wide.  The distance from Joshimath to Govindghat is 19 kilometers.

General audience own film



Let go!  Introduce you to the directors of the Hindi film industry, who tried to create a different kind of cinema by moving away from the film formula in their time.

General audience own film

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Dinesh Kukreti

There can be many things about cinema.  But, here we are introducing you to such directors of the Hindi film industry, who tried to create a different kind of cinema by moving away from the film formula in their time.  Regardless of what would happen to its ticket window.  Such films have also been criticized by saying how many are to be seen, but these jumlas did not deter their spirits.  It is okay that these films could not do business like mainstream films, but when talking about the identity of Indian cinema, it always got standing in the next line.

 Let's start with Basu Chatterjee.  In the 70s and 80s, when the popular trend of creating cinema on screen was far from reality, Basu Chatterjee made his films a canvas.  Take any of Basu Da's films, his characters will be from middle class family only.  Therefore, these films seem to be their own films to the general audience.

Amol Palekar, the big hero of offbeat films, was a favorite of Basu Da.  His successful films like 'Rajinigandha', 'Baat-Baat Mein', 'Chitchor' and 'Ek Chhoti Baat' were the heroes of Amol.  'Dillagi', a film about Dharmendra and Hema Malini, is still remembered in the best comedy comedy and drama.  Movies like 'Khatta-Meetha' and 'Shaukeen' are a hallmark of how cinema can be made beautiful with a little change.

In Basu Bhattacharya's films, his conclusion towards society is clearly visible.  He made films like 'Anubhav', 'Teesri Kasam' and 'Avishkar'.  The film 'Aastha', which came in 1997, was an indication that he knew cinema ahead of his time.  Basu Bhattacharya, who has been active in films for more than two decades, did many experiments in his film making style.  His films like 'Panchvati', 'Madhumati' and 'Gruh Pravesh' may not have been very successful at the ticket window, but every film definitely appeared discussing one issue.  Basu Bhattacharya's cinema always drew the audience towards the issues.

Offbeat film

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When offbeat films are mentioned, Mani Kaul's name comes up.  Making a film to earn money was neither his motive nor his skill.  Mani Kaul begins her film 'Her Roti'.  This is an indication of how he came into the industry to make films.  Mani Kaul, a student of Rivki Ghatak, made films like 'Dilemma', 'Ghasiram Kotwal', 'Man of the Rise from the Surface', 'A Day of Aashadh', a unique confluence of literature and cinema.

The film making style of Mrinal Sen also had a great impact on Hindi cinema.  He directed more than 30 films, including feature films such as 'Calcutta-71', 'Bhuvan Som', 'Ek Din Diwas' and 'Mrigaya'.  In these films, the image of erstwhile society was seen.  It was a filmmaker's undisclosed accountability towards society.  Mrinal Sen also composed a variety of films like 'Ek Adhuri Kahani', 'Cinemas', 'One Day Suddenly'.  These films were completely different in terms of subject from most of the films being made at that time.

 A craft like that

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Sai Paranjpe's film Making Style is characterized by its texture and craft.  In his films, background music equals no.  When the viewer is watching movies, he gets fully involved with the characters of the film.  Sai made films like 'Katha', 'Sparsh' and 'Disha' along with making the comedy film Chashme Baddoor.  Every character in his film would make the audience feel part of his own life.  Well!  Discussion on cinema that stands opposite the stream will continue.