Monday, 7 September 2020

209 years ago, Doon ghati was sold for Rs 3005


 

209 years ago, Doon ghati was sold for Rs 3005

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Very few people would know that 209 years ago an Anglo-Indian officer bought Dehradun from Raja Sudarshan Shah for just Rs 3005.  Sudarshan Shah then lived in a safe place outside the Garhwal princely state for fear of the Gurkhas, trying to reclaim the princely state.  However, his financial position was not such that he could put his efforts into practice.  So, they decided to sell Dehradun.  Come!  Look into this important chapter of the past.

Maharaja Pradyuman Shah was martyred in the war with the Gurkhas on 14 May 1804

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Dinesh Kukreti

In the year 1796-97, the whole of Garhwal faced a severe drought, which completely destroyed the fiscal system.  A few years later, in the year 1803, the Srinagar region suffered a devastating earthquake, in which the entire Srinagar was devastated.  Then only two to three thousand people survived in the capital.  The Gurkhas were waiting for this opportunity.  Taking advantage of this, he again attacked Garhwal this year and took all the Garhwal into his possession.  Then Maharaja Pradyuman Shah was the only option left to leave Srinagar.  Despite this, he did not give up.  For example, by selling jewelery in Saharanpur for one and a half lakh rupees, he arranged soldiers and attacked Gurkhas in the year 1804.  A fierce battle with Gurkhas took place at Khudbuda Maidan in Dehradun.  Four thousand Gorkha soldiers were armed with guns.  Whereas, Garhwali soldiers had only swords.  As a result, the Gurkhas won and Maharaja Pradyuman Shah Veeragati attained on 14 May 1804.



Major Hearsey became the owner of Doonghati on 22 June 1811

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At the time of the martyrdom of the Maharaja, his Shahzade and the successor of the Garhwal kingdom, Sudarshan Shah, were younger.  So, fearing a Gurkha invasion, some of the king's loyalists took him to a safe place outside the princely state.  Sudarshan Shah spent 12 years in exile.  In his book, 'Glorious Dehradun', Devaki Nandan Pandey writes that in this period, the desire to regain the princely state remained in his mind continuously and for this he kept trying continuously.  In this series, he contacted Anglo Indian military officer Major Haider Young Hearse.  Hersey then lived in his principality near the city of Bareilly.  Sudarshan Shah was struggling with financial constraints due to being away from his princely state.  Therefore, in order to reclaim the princely state, he put his problem in front of Hearse and requested for cooperation.  Hersey was then a sharp military officer of the East India Company.  He assured Sudarshan Shah to return the princely state, but also expressed his desire to take Doonghati in his possession in return.  He explicitly told Sudarshan Shah to sell Doonghati to him.  Sudarshan Shah was compelled, so on 22 June 1811, he sold the Dunghati Major Hyder Young Hearse for just Rs 3005.

The British captured Doonhati on condition of paying pension to Harsay

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Major Hyder Young had become a symbol of prosperity by purchasing Doonghati from King Sudarshan Shah, but he also began to fall in the eyes of East India Company officials.  Company officials started pressurizing Harsay to sell the area of ​​Doonghati and Chandi Devi, which is under him, to the company.  Eventually Hersey bowed down and on January 9, 1812, he transferred it to the Doonghati and Chandi Devi area company on the condition that the company would pay him 1200 rupees annually.  The agreement was signed on 18 October 1815 on behalf of the company.


 

Cell deed rejected, harsey came on road

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While dealing with the company officials, Major Hearse would not have even been accused of turning away from his word.  But, it happened.  The company defied the sale deed from Hershey and all the conditions under it.  Due to which Hersey came on the road.


 

Even the king was not entrusted the entire state of Garhwal, till Tehri district

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After defeating the Gurkhas, the British government refused to hand over the entire Garhwal princely state to King Sudarshan Shah.  The British did not hand over the entire Garhwal kingdom to the king and took the east part of Alaknanda-Mandakini.  Sudarshan Shah was returned only to the territory of Tehri district (including present-day Uttarkashi).  Who was called Tehri Riyasat and Sudarshan Shah became the first king of the princely state.  He established his capital on 28 December 1815 at a place called Tehri, a small village at the confluence of the Bhagirathi and Bhilangana rivers.

जब सिर्फ 3005 रुपये में बिक गई थी दूनघाटी





209 साल पहले 3005 रुपये में बिक गई थी दूनघाटी

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बहुत कम लोग जानते होंगे कि 209 साल पहले एक एंग्लो-इंडियन अधिकारी ने देहरादून को महज 3005 रुपये में राजा सुदर्शन शाह से खरीद लिया था। सुदर्शन शाह तब गोरखाओं के डर से गढ़वाल रियासत से बाहर किसी सुरक्षित स्थान पर रहते हुए रियासत को दोबारा हासिल करने के लिए हाथ-पैर मार रहे थे। लेकिन, उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि अपने इन प्रयासों को अमलीजामा पहना पाते। सो, उन्होंने देहरादून को बेचने का निर्णय लिया। आइए! झांकते हैं अतीत के इस महत्वपूर्ण अध्याय में।

 

गोरखाओं से युद्ध में 14 मई 1804 को शहीद हुए थे महाराजा प्रद्युम्न शाह

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दिनेश कुकरेती

वर्ष 1796-97 में पूरे गढ़वाल को भयंकर सूखे का सामना करना पड़ा, जिससे राजकोषीय व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। इसके कुछ वर्ष बाद वर्ष 1803 में श्रीनगर क्षेत्र को ऐसे विनाशकारी भूकंप का सामना करना, जिसमें संपूर्ण श्रीनगर तहस-नहस हो गया। तब राजधानी में दो से तीन हजार लोग ही जीवित बच पास। गोरखाओं को तो इसी मौके का इंतजार था। उन्होंने इसका लाभ उठाकर इसी वर्ष गढ़वाल पर दोबारा आक्रमण कर सारे गढ़वाल को अपने कब्जे में ले लिया। तब महाराजा प्रद्युम्न शाह के पास श्रीनगर छोडऩा ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था। बावजूद इसके उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। जैसे-तैसे डेढ़ लाख रुपये में सहारनपुर में आभूषण बेचकर सैनिकों का इंतजाम किया और वर्ष 1804 में गोरखाओं पर आक्रमण कर दिया। देहरादून में खुडबुड़ा मैदान में गोरखाओं से भीषण युद्ध हुआ। चार हजार गोरखा सैनिक बंदूकों से लैस थे। जबकि, गढ़वाली सैनिकों के पास सिर्फ तलवारें थीं। नतीजा, गोरखाओं को जीत मिली और 14 मई 1804 को महाराजा प्रद्युम्न शाह वीरगति को प्राप्त हो गए।

22 जून 1811 को दूनघाटी के मालिक हो गए थे मेजर हर्से

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महाराजा की शहादत के समय उनके शाहजादे एवं गढ़वाल राज्य के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह छोटे थे। सो, गोरखा आक्रमण के भय से राजा के कुछ वफादारों ने उन्हें रियासत से बाहर सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया। सुदर्शन शाह ने 12 साल निर्वासित जीवन बिताया। अपनी पुस्तक 'गौरवशाली देहरादूनÓ में देवकी नंदन पांडे लिखते हैं कि इस कालखंड में रियासत को दोबारा हासिल करने की टीस उनके मन में लगातार बनी रही और इसके लिए वे लगातार प्रयास करते रहे। इसी कड़ी में उन्होंने एंग्लो इंडियन सैन्य अधिकारी मेजर हैदर यंग हर्से से संपर्क साधा। हर्से तब बरेली शहर के पास अपनी रियासत में रहते थे। सुदर्शन शाह अपनी रियासत से दूर रहने के कारण आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। लिहाजा, रियासत को दोबारा हासिल करने के लिए उन्होंने अपनी समस्या हर्से के सामने रखते हुए सहयोग का आग्रह किया। हर्से तब ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशाग्र सैन्य अधिकारी हुआ करते थे। उन्होंने सुदर्शन शाह को रियासत वापस दिलाने का भरोसा तो दिलाया, लेकिन इसके बदले में दूनघाटी को अपने अधिकार में लेने की इच्छा भी जता दी। उन्होंने सुदर्शन शाह से स्पष्ट कहा कि दूनघाटी उन्हें बेच दें। सुदर्शन शाह मजबूर थे ही, इसलिए 22 जून 1811 को उन्होंने दूनघाटी मेजर हैदर यंग हर्से को मात्र 3005 रुपये में बेच दी।



हर्से को पेन्शन देने की शर्त पर अंग्रेजों ने कब्जाई थी दूनघाटी

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मेजर हैदर यंग हर्से राजा सुदर्शन शाह से दूनघाटी को खरीदकर भले ही संपन्नता का प्रतीक बन गए थे, लेकिन वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों की नजरों में भी खटकने लगे। हर्से पर कंपनी अधिकारी दबाव बनाने लगे कि वह दूनघाटी व चंडी देवी का क्षेत्र, जो उनके अधीन है, कंपनी को बेच दें। आखिरकार हर्से को झुकना पड़ा और नौ जनवरी 1812 को उन्होंने इस शर्त पर दूनघाटी व चंडी देवी क्षेत्र कंपनी को हस्तांतरित कर दिया कि कंपनी उन्हें 1200 रुपये सालाना पेन्शन के रूप में देगी। कंपनी की ओर से 18 अक्टूबर 1815 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए।



सेल डीड ठुकराई, सड़क पर आए हर्से

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कंपनी अधिकारियों से सौदा करते वक्त मेजर हर्से को इस बात का इल्म भी नहीं रहा होगा कि वह अपनी बात से मुकर जाएंगे। लेकिन, हुआ ऐसा ही। कंपनी ने हर्से से की गई सेल डीड और उसके अंतर्गत आने वाली सभी शर्तें झुठला दीं। जिससे हर्से सड़क पर आ गए।



राजा को भी नहीं सौंपा पूरा गढ़वाल, टिहरी जिले तक सिमटी रियासत 

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गोरखाओं को पराजित करने के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने राजा सुदर्शन शाह को भी संपूर्ण गढ़वाल रियासत सौंपने से इन्कार कर दिया। अंग्रजों ने संपूर्ण गढ़वाल राज्य राजा को न सौंपकर अलकनंदा-मंदाकिनी के पूर्व का भाग अपने अधिकार में ले लिया। सुदर्शन शाह को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापस किया गया। जो टिहरी रियासत कहलाया और सुदर्शन शाह रियासत के पहले राजा बने। उन्होंने 28 दिसंबर 1815 को टिहरी नामक स्थान पर, जो भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम पर छोटा सा गांव था, अपनी राजधानी स्थापित की।

26-08-2020 (Captain Frederick Young settled Mussoorie)


Captain Frederick Young settled Mussoorie
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Dinesh Kukreti
Mussoorie is known in seven major cities of the world in the early nineteenth century.  All those facilities were present here, which used to be in England at that time.  However, all this was possible thanks to Captain Frederick Young.  When he came to Mussoorie, he became an officer of the British Army, but he liked this place so much that he lived here for the whole 40 years and was busy in building it.

Tehri princely victory won in war with Gurkhas
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 Frederick Young was born on 30 November 1786 in Donegal Province, Ireland.  At the age of 18, he joined the British Army and came to India.  Here he played an important role in the expansion of the British Empire and conquered many Indian princely states as well as defeated and defeated Tipu Sultan in South India.  In the year 1814, Captain Young was transferred to Dehradun.  Then there was a war between the Tehri princely state and the Gorkha army.  For this the King of Tehri sought the help of the English army.  In the first phase of this war, which lasted about one and a half months, many officers of the English army were killed, including Major General Robert Rollo Jilipsi.  Captain Young was then his assistant.  After Jilapsi's death, he took command of the army.  Under his leadership, an army was called from places like Saharanpur, Ludhiana, Gorakhpur and again attacked the impregnable fort of Khalanga.  Then 18-pound shells were fired from the cannon, causing the fort to collapse.  The war ended on 30 November 1814 with the defeat of the Gorkha army.  Under a treaty when the Gurkhas migrated from here to Himachal, Tehri Maharaj gave half of the state to the British.  This part was called British Garhwal.

Sirmour regiment of standing in Himachal
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After this war, Captain Frederick Young fought the Gorkha army in Himachal Pradesh also.  He saw that the Gurkhas are courageous and brave, so with the help of the Hukumat, they formed the Sirmour Regiment and then formed the Gorkhas as their regiment.  Later, with the help of this regiment, the British asserted their authority over many princely states of the country.

Captain Young was fascinated by the beauty of Mussoorie
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After becoming a General in the Army, Captain Young started the work of settling Mussoorie in the year 1823.  Then the British used to come to hunt in the forests of Mussoorie.  Captain Young found the place similar to Ireland in every respect.  The beauty and climate here fascinated him.  So they decided to camp in Mussoorie itself.  First of all, he built a shooting range at Malingar in Mussoorie and also built a slum-like mud house for himself in the year 1825.  He persuaded the British officers to set up a sanatorium for the soldiers.  In the year 1827 it became a sanatorium and then the British started settling here.  Young also played an important role in the formation of the Mussoorie Municipality.

 'Sister market' is also a gift of Young
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Captain Young wanted to build a barrack and hospital for soldiers on the high hill of Mussoorie (now Landour Cantt).  For this, he first consulted his superiors and took them into confidence and then started the work of building a hospital.  The hospital was named British Military Hospital.  Here, mainly soldiers of the English army wounded in the war were treated.  Along with this, residential complexes were also built here for nurses and sistars who treated and cared for the injured.  That is why later this market came to be known as 'sister market'.

 Officers did not leave Mussoorie to persuade Young
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 Captain Young is also credited with settling Mussoorie because on his persuasion, the British high command agreed to remain in Mussoorie.  In fact, the English army officer William Bentick had decided to leave the place, saying Mussoorie was not favorable to the British administration.  In such a situation, Captain Young assured him not only that he took the responsibility of developing Mussoorie as a magnificent hill station and military depot, but also showed it by completion.

Young started potato and tea farming
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Potato and tea cultivation in Mussoorie is also attributed to Captain Young.  It is said that before 1827, there was no potato anywhere in Garhwal-Kumaon.  Potatoes were then grown only in Young's native Ireland.  While Captain Young built his hut in Malingar, Mussoorie, he also built a potato field in front of the courtyard.  After this, potato cultivation started in various places in Uttarakhand.

Tha Young's 'Donegal House' in Rajpur village
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Captain Young lived in Mussoorie for nearly 40 years.  Later he also became a superintendent of Dehradun.  He used to have a splendid residence in Rajpur village near Dehradun under the name 'Donegal House'.  However, he does not currently exist.  Even today, the route which connects Mussoorie via Jharipani through Rajpur-Shahanshahi Ashram was built by Captain Young.  In Mussoorie, the construction material for the huge water pump, power house and all the buildings was then transported from Rajpur-Jharipani road to Mussoorie and Landour Cantt.

Let sawan come

Let sawan come
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Dinesh Kukreti
Emperor Akbar asked the councilors, if four months are left out of twelve, then how much is left?  Everyone responded in one tone, eight.  However, Birbal's mathematics was different from everyone else.  He said, Where is the wall!  Four of the twelve are left, the rest is zero.  The king said with surprise, how?  Then Birbal explained to them, our country is predominantly agricultural.  Farming is based on rainfall.  If four months of rain fall out of the twelve months of the year, what will be left?  Drought, famine, pestilence and death orgy.  Hearing this new interpretation, everyone started looking at each other in the assembly.

 It is also true that, where the rainy season transmits life in every particle of nature, the soil also gets filled with greenery.  The rainy season also plays an important role in awakening the spiritual consciousness of the individual and society.  Hence the term 'Chaturmas' was used for four months of the rainy season.  If there is no rainy season then the rest of the seasons become insignificant.  Without this, all their beauty goes away.  It is the rainy season that quenches the thirst of the earth with its cold water and makes it fertile.  As the rains begin, some natural changes in nature begin.  Change of environment is most prominent among them.  While the cold water of the rain makes the environment cool and pleasant, it also becomes a factor of origin of many types of organisms.  This is a time when music is the gamut of drops.  Wind, clouds, trees, papyhas all seem to be swinging and singing.  Whereas this euphoria erupts as the perennial, Kajri and Jhula songs from the vocals of the folk, the melody-melting melody seems to roam in the hearts of the sur-seekers.

Describing the beauty of rain in the 28th canto of the Kishkindha episode of Valmiki Ramayana, Shriram says, 'The rainy season has arrived.  Look, the sky is covered with large clouds like mountains.  It seems as if reaching the sky from the clouds of clouds, Archana's flower necklace resembles the garlands of the sun image, the beloved Narayan is adorning the sun. Poets enchanted by the beauty of the clouds descending the slopes of the mountains in the rainy season.  It has a wonderful depiction of the rivers, the waterfalls, the waterfalls, the frogs of the frogs, the jiggles, the beauty of the forest groves and the play of the birds and animals.  In 'Meghdootam', the cursed Yaksha straying from Alkapuri is requested to send Meghos as messengers and send messages of love and affection to their beloved Priyakshi.  It is said that Mahakavi Kalidas was the one who wanted to send messages from the clouds to his beloved from Ujjain to Kashmir.  Chatanandan, synonymous with rainy season, is also a season that gives pleasure to Chatak.  After the end of the rainy season, these birds return to Africa via the Arabian Sea again with the returning monsoon from October to November.  Just like the foreigner Balam Chaturmas used to leave his beloved and return to work.  Is it possible to draw such a picture of the monsoon season elsewhere? 

It is this word picture that fills glee in the Doon Valley during the rainy season.  The scattered greenery, the new Pallavas on the dry trees, seems as if the valley has abandoned its dilapidated clothes and worn new green clothes.  With the thunder of the clouds in the sky, the golden chapala Damini's thirak in the glittering clouds gives the impression of dancing in the accompaniment of mridanga playing.  The peacock, excited by the thunderclap, dances in a wide spread with its colorful feathers.  The flying lines between the Shyamvarni cloud seem very attractive.  Then the poet wakes up, 'I barkha bahar pare boondani showers, Ghori bhijat anganwa are sanwaria, Gori-gori baiyan wearing green-green bangles, further gold kanganwa are sanwaria, gajarva in hair sohe nainan beach sajra, forehead lali re tikuliya are  Sanwaria. Ó

Sunday, 6 September 2020

26-08-2020 (कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने बसाई थी मसूरी)

कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने बसाई थी मसूरी
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दिनेश कुकरेती
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में मसूरी को विश्व के सात प्रमुख शहरों में जाना जाता है। यहां वे सारी सुविधाएं मौजूद थीं, जो उस जमाने में इंग्लैंड में हुआ करती थीं। लेकिन, यह सब संभव हो पाया था कैप्टन फ्रेडरिक यंग की बदौलत। वह मसूरी आए तो थे अंग्रेजी सेना के अफसर बनकर, लेकिन यह जगह उन्हें इस कदर रास आई कि फिर पूरे 40 साल यहीं रहकर इसे संवारने में जुटे रहे।

गोरखाओं के साथ युद्ध में टिहरी रियासत को दिलाई विजय
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फ्रेडरिक यंग का जन्म आयरलैंड के डोनेगल प्रांत में 30 नवंबर 1786 को हुआ था। 18 वर्ष की उम्र में वे ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर भारत आ गए। यहां उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में अहम भूमिका निभाई और कई भारतीय रियासतों को जीतने के साथ ही दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान से युद्ध कर उन्हें भी पराजित किया। वर्ष 1814 में कैप्टन यंग का स्थानांतरण देहरादून कर दिया गया। तब यहां टिहरी रियासत और गोरखा सेना के बीच युद्ध चल रहा था। इसके लिए टिहरी नरेश ने अंग्रेजी सेना की मदद मांगी। लगभग डेढ़ माह चले इस युद्ध के पहले चरण में अंग्रेजी सेना के कई अधिकारी मारे गए, जिनमें मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेप्सी भी शामिल थे। कैप्टन यंग तब उनके सहायक हुआ करते थे। जिलेप्सी की मौत के बाद उन्होंने सेना की कमान संभाली। उनके नेतृत्व में सहारनपुर, लुधियाना, गोरखपुर आदि स्थानों से सेना बुलाकर दोबारा खलंगा के अभेद्य किले पर आक्रमण किया गया। तब तोप से 18 पाउंड के गोले दागे गए, जिससे किला ध्वस्त हो गया। युद्ध का समापन गोरखा सेना की हार के साथ 30 नवंबर 1814 को हुआ। गोरखाओं के यहां से हिमाचल जाने पर एक संधि के तहत टिहरी महाराज ने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेजों को दे दिया। यह हिस्सा ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया।

हिमाचल में खड़ी की सिरमौर रेजीमेंट
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इस युद्ध के बाद कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने हिमाचल प्रदेश में भी गोरखा सेना से लोहा लिया। उन्होंने देखा कि गोरखा साहसी व वीर हैं, सो हुकूमत के सहयोग से पहले उन्होंने सिरमौर रेजीमेंट का गठन किया और फिर गोरखाओं को अपना बनाकर उनकी रेजीमेंट खड़ी की। कालांतर में इस रेजीमेंट के सहयोग से अंग्रेजों ने देशभर की कई रियासतों पर अपना अधिकार जमाया।

मसूरी की सुंदरता पर रीझ गए थे कैप्टन यंग
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सेना में जनरल बनने के बाद वर्ष 1823 में कैप्टन यंग ने मसूरी को बसाने का कार्य शुरू किया। तब अंग्रेज मसूरी के जंगलों में शिकार खेलने आया करते थे। कैप्टन यंग को यह जगह हर दृष्टि से आयरलैंड की तरह ही लगी। यहां की खूबसूरती और जलवायु ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया। इसलिए उन्होंने मसूरी में ही डेरा डालने की ठान ली। सबसे पहले उन्होंने मसूरी के मलिंगार में शूटिंग रेंज बनाई और वर्ष 1825 में अपने लिए झोपड़ीनुमा कच्चा मकान भी बना लिया। उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों को मनाया कि यहां सैनिकों के लिए एक सेनिटोरियम बना लिया जाए। वर्ष 1827 में यह सेनिटोरियम बनकर तैयार हुआ और फिर अंग्रेजों ने यहां बसागत शुरू कर दी। मसूरी नगर पालिका के गठन में भी यंग का अहम योगदान रहा।


'सिस्टर बाजारÓ भी यंग की ही देन
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कैप्टन यंग मसूरी की ऊंची पहाड़ी (अब लंढौर कैंट) पर सैनिकों के लिए बैरक और अस्पताल बनाना चाहते थे। इसके लिए पहले उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से विचार-विमर्श कर उन्हें विश्वास में लिया और फिर अस्पताल बनाने का कार्य शुरू किया। इस अस्पताल को ब्रिटिश मिलिट्री अस्पताल नाम दया गया। यहां मुख्य रूप से युद्ध में घायल अंग्रेजी फौज के जवानों का इलाज होता था। इसके साथ ही घायलों का उपचार एवं देख-रेख करने वाली नर्स व सिस्टरों के लिए यहां आवासीय भी परिसर बनाए गए थे। इसीलिए कालांतर में इस बाजार को 'सिस्टर बाजारÓ नाम से जाना जाने लगा।

यंग के मनाने पर अफसरों ने नहीं छोड़ी मसूरी
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कैप्टन यंग को मसूरी को बसाने का श्रेय इसलिए भी जाता है, क्योंकि उन्हीं के मनाने पर अंग्रेज उच्चाधिकारी मसूरी में ही रहने के लिए तैयार हुए थे। दरअसल, अंग्रेजी फौज के उच्चाधिकारी विलियम बेंटिक ने मसूरी को ब्रिटिश प्रशासन के अनुकूल न होने की बात कहते हुए इस स्थान को छोडऩे का निर्णय ले लिया था। ऐसे में कैप्टन यंग ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए न केवल मसूरी को एक शानदार हिल स्टेशन व सैनिक डिपो के रूप में विकसित करने की जिम्मेदारी ली, बल्कि उसे पूरा करके भी दिखाया।


यंग ने शुरू की थी आलू व चाय की खेती
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मसूरी में आलू और चाय की खेती भी कैप्टन यंग की ही देन है। बताते हैं कि वर्ष 1827 से पूर्व गढ़वाल-कुमाऊं में कहीं भी आलू नहीं होता था। तब आलू सिर्फ यंग के वतन आयरलैंड में ही उगाया जाता था। मसूरी के मलिंगार में जहां कैप्टन यंग ने अपनी झोपड़ी बनाई थी, वहीं आंगन के आगे आलू के खेत भी बनाए। इसके बाद तो उत्तराखंड में जगह-जगह आलू की खेती होने लगी।

राजपुर गांव में था यंग का 'डोनेगल हाउसÓ
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कैप्टन यंग मसूरी में लगभग 40 साल रहे। बाद में वे देहरादून के सुपरिटेंडेंट भी बने। देहरादून के पास राजपुर गांव में 'डोनेगल हाउसÓ नाम से उनका शानदार आवास हुआ करता था। हालांकि, वर्तमान में वह मौजूद नहीं है। राजपुर-शहंशाही आश्रम के मध्य से होकर आज भी जो मार्ग झड़ीपानी होते हुए मसूरी को जोड़़ता है, उसे कैप्टन यंग ने ही बनवाया था। मसूरी में भारी-भरकम वाटर पंप, विद्युतगृह और तमाम भवनों के लिए तब निर्माण सामग्री राजपुर-झड़ीपानी मार्ग से ही मसूरी व लंढौर कैंट तक पहुंचाई गई थी।

30-08-2020 (Gulmohar)

गुलमोहर
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मैं सोचता था 
किसी दिन चुपके से
लगा आऊंगा-
गुलमोहर का एक पौधा,
आंगन के उस छोर पर
और करूंगा इंतजार-
उसके बडे़ होने का।
फिर एक दिन
फूटने लगेंगी उस पर कलियां
खिलखिला उठेंगे फूल
आसपास खडे़ पेड़-पौधों से
नजरें चुराकर
बिखेरेंगे मधुर मुस्कान। 
तब एक दिन-
वह पूछेगी-
किसने लगाया होगा,
गुलमोहर का यह पौधा?
कितना आकर्षण है
इसके फूलों में,
जी करता है घंटों गुजारूं
इसकी छांव में
तुम्हारी तरह
बेफिकरी के साथ।
फिर वह
मेरे करीब आएगी और-
बैठ जाएगी
होठों पे लिए
मंद-मंद मुस्कान
मैं उससे पूछूंगा
अगर तुम्हें मालूम पड़ जाए
उसके बारे में
जिसने रोपी हैं इसकी जडे़ं
तो क्या
वह भी ऐसा ही
मनभावन लगेगा तुम्हें
क्या कहोगी तब उससे तुम?
तब वह कहेगी-
जड़ दूंगी उसके गाल पर 
स्नेह का चुंबन
और-
बेसाख्ता लिपट जाऊंगी
उसके सीने से।
यह सुनकर-
खिंच आईं मेरी आंखों में
गुलाबी डोरियां
फिर मैं
धीरे-धीरे उतरने लगा
गहराइयों में
उसकी झील-सी आंखों की।
भूल गया
खुद का अस्तित्व 
कि तभी अचानक-
न जाने कैसे
उलझ गया मेरा पांव
पास ही तिरछे पडे़
एक बडे़ से पत्थर से
निकल पडी़ होठों से चीख
भंग हो गई तंद्रा-
मानो मैं आसमान से
गिर पडा़ हूं जमीन पर
फिर-
सिर को झटककर
चारों तरफ घुमाई निगाह
तो कहीं नजर नहीं आया
गुलमोहर का,
वो खूबसूरत पेड़,
न गुलमोहर की छांव में बैठी वो
कुछ भी तो नहीं था वहां,
सिवाय सन्नाटे के...।
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@दिनेश कुकरेती
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Gulmohar
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 I used to think
 Someday secretly
 Will come
 A plant of Gulmohar,
 At the end of the courtyard
 And I will wait
 To grow up.
 then one day
 Buds will start bursting
 Flowers will blossom
 From trees and trees standing nearby
 Stole eyes
 A sweet smile will spread.
 Then one day-
 She will ask
 Who would have planted,
 This plant of Gulmohar?
 What a charm
 In its flowers,
 I live for hours
 Under its shade
 Like you
 With carelessness.
 then she
 Will come closer to me and-
 Will sit
 On lips
 Light smile
 I will ask him
 If you know
 About that
 Who has planted their roots
 So what
 That too
 You will feel pleasing
 What will you say to him then?
 Then she will say-
 Will root on her cheek
 Sneha's kiss
 And-
 I will go with a crutch
 From his chest.
 Hearing this-
 My eyes got drawn
 Pink cords
 Then i
 Slowly descending
 In the depths
 Of his lake eyes.
 forgot
 Own existence
 Then suddenly
 do not know how
 My leg got tangled
 Lying diagonally nearby
 With a big stone
 Scream out of lips
 Sleep was disturbed
 As if from the sky
 Fall to the ground
 Again-
 Jerking head
 Turned around
 So nowhere
 Of Gulmohar,
 Those beautiful trees,
 Neither she sat in the shade of Gulmohar
 There was nothing there,
 Except for silence….
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 @Dinesh Kukreti

राजवंशों के दौर में मुनादी करने वाला नगाड़ा

 

राजवंशों के दौर में मुनादी करने वाला नगाड़ा
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दिनेश कुकरेती
धतिया या धदिया का अर्थ है किसी खास कार्य की सूचना या आपदा आदि की चेतावनी देने के लिए ऐसी जोरदार आवाज (धात या धाद) उत्पन्न करना, जो दूर-दूर तक सुनाई दे। डौंडी पीटने (मुनादी करना) का यह कार्य गढ़वाल-कुमाऊं में रोहिल्ला, कत्यूरी, चंद, पंवार आदि राजवंशों के दौर में धतिया नगाड़े के माध्यम से होता था। तब आज की तरह संचार के साधन नहीं थे, इसलिए राजा को अपने राज्य में अकस्मात कोई सूचना देनी होती थी या किसी राज्य पर चढ़ाई करनी होती थी तो यह नगाड़ा ही संदेश वाहक का काम करता था। इसे 'दैन दमुÓ भी कहते थे, क्योंकि यह दाहिनी ओर से बजाया जाता था। हालांकि, अब धतिया नगाड़े चुनिंदा स्थानों पर ही रह गए हैं।


15 किलो से अधिक वजनी होते थे नगाड़े
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तांबे या अष्ट धातु से बना यह नगाड़ा हालांकि दिखने में सामान्य नगाड़े की तरह ही होता था, लेकिन आकार में आजकल के नगाड़ों से कहीं अधिक बड़ा होता था। अमूमन 15 किलो से अधिक वजनी इस नगाड़े के पुड़े का व्यास लगभग डेढ़ फीट हुआ करता था। चंद राजाओं की ओर से कुमाऊं के जागेश्वर धाम में चढ़ाया गया धतिया नगाड़ा आज भी देखा जा सकता है। इसका वजन 16 किलो और पुड़े का व्यास लगभग 18 इंच है। इस नगाड़े को राजा दीप चंद ने जागेश्वर धाम में चढ़ाया था। इस नगाड़े को वृद्ध जागेश्वर के पास 'धती ढुंगÓ से बजाया जाता था। इस स्थान से रीठागाड़ी, गंगोलीहाट, चौकोड़ी और बेरीनाग तक साफ दिखाई देते हैं। तब गंगोलीहाट मणकोटी शासकों के अधीन हुआ करता था।

'धती ढुंगÓ पर रखकर बजाया जाता था धतिया नगाड़ा
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धतिया नगाड़ा बजाने के लिए राजशाही के दौर में ऐसे स्थान नियत होते थे, जहां से इसकी आवाज स्पष्ट रूप में दूर-दूर तक पहुंच जाए। जिस पत्थर पर रखकर इस नगाड़े को बजाया जाता था, उसे 'धती ढुंगÓ (नगाड़ा रखने के लिए नियत एक खास प्रकार का पत्थर) कहते थे। इसे लकड़ी के दो मोटे एवं मजबूत सोटों (लांकुड़) से बजाया जाता था।

साथ में बजते थे सहायक वाद्य
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राजशाही के दौर में धतिया नगाड़ा बजाना वीरता का प्रतीक माना जाता था। नगाड़े के सहायक वाद्य के रूप में दो विजयसार के ढोल, दो तांबे के दमाऊ, दो तुरही, दो नागफणी, दो रणसिंघा, दो भंकोर और दो कंसेरी बजाई जाती थी। बजाने से पहले इनकी विधिवत पूजा कराई जाती थी।


भैंसे के चर्म से बनती थी नगाड़े का पूड़ा
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धतिया नगाड़े का पुड़ा भैंस के चर्म से तैयार होता था। इसके लिए विशेष तौर से चार से पांच साल की आयु के भैंसे की खाल को चुना जाता था। खाल को धूप में अच्छी तरह सुखाकर फिर उसे कुछ दिन तेल में भिगाने रख दिया जाता था। तेल में रखने से पुड़ा नर्म एवं मजबूत हो जाता था और डंडे की मार से फटता भी नहीं था। नगाड़ा तैयार हो जाने के बाद पुड़े की नरमी बरकरार रखने के लिए साल में तीन से चार बार इस पर काले तिल का तेल या घी लगाया जाता था। फिर आग के सामने इसको आंच दिखाई जाती थी, ताकि घी या तेल अंदर तक चला जाय। नगाड़े की डोरियां भी भैंसे की आंत के चमड़े से ही तैयार की जाती थीं।

पिथौरागढ़ के कनार गांव में है उत्तराखंड का सबसे बड़ा नगाड़ा
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छिपला केदार पर्वत माला के मध्य समुद्रतल से आठ हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित पिथौरागढ़ जिले के अंतिम गांव कनार भगवती कोकिला के मंदिर में ऐसा ही नगाड़ा मौजूद है। इसे उत्तराखंड का सबसे बड़ा नगाड़ा होने का गौरव हासिल है। मंदिर में जब मेले का आयोजन होता है तो इसी नगाड़े को बजाकर मां भगवती की पूजा होती है। भगवती कोकिला मल्ला अस्कोट के गोरी छाल क्षेत्र की आराध्य देवी हैं। 22 धानी के इस नगाड़े को मंदिर के प्रांगण में ही बजाया जाता है। जबकि दूसरे 12 धानी के नगाड़े को डंडे के सहारे दो लोग कंधे पर टांगकर मंदिर के चारों ओर घुमाते हैं और तीसरा व्यक्ति इसे बजाता है।


मंदिरों में नगाड़े पर ही लगती है नौबत
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देवभूमि के प्रसिद्ध मंदिरों में आज भी नौबत (नौ तरह के स्वर) लगाने के लिए नगाड़ा बजाने की परंपरा है। नौबत में समय के साथ लय-ताल भी भिन्न-भिन्न होती है। इसका मुख्य उद्देश्य लोक का जागृत करना (जगाता) है। दरअसल, पुराने समय में किसी भी आपदा, उत्सव, अनुष्ठान आदि के बारे में मंदिरों से ही सूचना प्रसारित होती थी। साथ ही पूजा-अनुष्ठानों में भी नगाड़ा बजता था।