Friday, 21 August 2020

न्याय के देवता चार भाई महासू

चलिए! आपका परिचय न्याय के देवता चार भाई महासू से कराते हैं। महासू देवता का संबंध देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर से है, जिनका मुख्य मंदिर हनोल में पड़ता है। मिश्रित स्थापत्य शैली के इस मंदिर का निर्माण नवीं सदी में हुआ माना जाता है। कहते हैं कि पांडवों ने भी माता कुंती के साथ कुछ वक्त इसी स्थान पर गुजारा था। आइए! चलते हैं हनोल।



न्याय के देवता चार भाई महासू
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दिनेश कुकरेती
उत्तराखंड में लोक देवताओं से संबंधित अनेक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें सबसे रोचक है लोक देवता महासू की कथा। न्याय के देवता के रूप में प्रतिष्ठित महासू देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर से संबंध रखते हैं। इनका मुख्य मंदिर टोंस नदी के पूर्वी तट पर चकराता के पास हनोल गांव में स्थित है, जो कि त्यूणी-मोरी मोटर मार्ग पर पड़ता है। हनोल शब्द की उत्पत्ति यहां के एक ब्राह्मण हूणा भाट के नाम से मानी जाती है। इससे पहले यह जगह चकरपुर के रूप में जानी जाती थी। द्वापर युग में पांडव लाक्षागृह (लाख के घर) से सुरक्षित निकलकर इसी स्थान पर आए थे। समुद्रतल से 1250 मीटर की ऊंचाई पर बना मिश्रित स्थापत्य शैली का यह मंदिर नवीं सदी का माना जाता है। जबकि, एएसआइ (पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग) के रिकार्ड में मंदिर का निर्माण 11वीं व 12वीं सदी का होने का जिक्र है। वर्तमान इसका संरक्षण भी में  एएसआइ ही कर रहा है। खुदाई के दौरान एएसआइ को यहां यहां शिव-शक्ति, शिवलिंग, दुर्गा, विष्णु-लक्ष्मी, सूर्य, कुबेर समेत दो दर्जन से अधिक देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। इन्हें हनोल संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।


राष्ट्रपति भवन से कनेक्शन
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मंदिर के गर्भगृह में श्रद्धालुओं का जाना निषेध है। वहां सिर्फ मंदिर का पुजारी ही प्रवेश कर सकता है। गर्भगृह में पानी की एक धारा भी फूटती है, लेकिन उसका स्रोत कहां है और कहां जल की निकासी होती है, इस बारे में कोई नहीं जानता। श्रद्धालुओं को यही जल प्रसाद के रूप में दिया जाता है। इसके अलावा गर्भगृह में एक दिव्य ज्योत भी सदैव जलती रहती है। खास बात यह है कि महासू देवता का राष्ट्रपति भवन से भी सीधा कनेक्शन है। राष्ट्रपति भवन की ओर से यहां हर साल भेंट स्वरूप नमक भेजा जाता है।


घाटा पत्थर से हुआ मंदिर का निर्माण
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लोक मान्यता है की पांडवों ने घाटा पहाड़ ( शिवालिक पर्वत शृंखला) से पत्थरों की ढुलाई कर देव शिल्पी विश्वकर्मा की मदद से हनोल मंदिर का निर्माण कराया था। बिना गारे की चिनाई वाले इस मंदिर के 32 कोने बुनियाद से लेकर गुंबद तक एक के ऊपर एक रखे कटे पत्थरों पर टिके हैं। मंदिर के गर्भगृह में सबसे ऊपर भीम छतरी यानी भीमसेन का घाटा पहाड़ से लाया गया एक विशालकाय पत्थर स्थापित किया गया है। बेजोड़ नक्काशी मंदिर की भव्यता में चार चांद लगाती है।


 


भगवान शिव के रूप चारों भाई
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महासू असल में एक देवता नहीं, बल्कि चार देवताओं का सामूहिक नाम है। स्थानीय भाषा में महासू शब्द 'महाशिवÓ का अपभ्रंश है। चारों महासू भाइयों के नाम बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू हैं, जो कि भगवान शिव के ही रूप माने गए हैं। इनमें बासिक महासू सबसे बड़े हैं, जबकि बौठा महासू, पबासिक महासू व चालदा महासू दूसरे, तीसरे व चौथे नंबर के हैं। बौठा महासू का मंदिर हनोल में, बासिक महासू का मैंद्रथ में और पबासिक महासू का मंदिर बंगाण क्षेत्र के ठडियार व देवती-देववन में है। जबकि, चालदा महासू हमेशा जौनसार-बावर, बंगाण, फतह-पर्वत व हिमाचल क्षेत्र के प्रवास पर रहते हैं। इनकी पालकी को क्षेत्रीय लोग पूजा-अर्चना के लिए नियमित अंतराल पर एक जगह से दूसरी जगह प्रवास पर ले जाते हैं। देवता के प्रवास पर रहने से कई खतों में दशकों बाद चालदा महासू के दर्शन नसीब हो पाते हैं। कुछ इलाकों में तो देवता के दर्शनों की चाह में पीढिय़ां गुजर जाती हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता को इष्ट देव (कुल देवता) के रूप में पूजा जाता है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मंदिर को न्यायालय के रूप में मान्यता मिली हुई है।


देहरादून से तीन रास्ते
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देहरादून से महासू देवता के मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन सड़क मार्ग हैं। पहला 188 किमी लंबा मार्ग देहरादून, विकासनगर, चकराता व त्यूणी होते हुए हनोल तक जाता है। दूसरा देहरादून, मसूरी, नैनबाग, पुरोला व मोरी होते हुए हनोल पहुंचता है, जिसकी लंबाई 175 किमी है। जबकि, तीसरा 178 किमी लंबा मार्ग देहरादून से विकासनगर, छिबरौ डैम, क्वाणू, मिनस, हटाल व त्यूणी होते हुए हनोल तक है।


छोटे गोले, भारी वजन
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महासू मंदिर हनोल के परिसर में सीसे के दो गोले मौजूद हैं, जो पांडु पुत्र भीम की ताकत का अहसास कराते हैं। मान्यता है कि भीम इन गोलों को कंचे (गिटिया) के रूप में इस्तेमाल किया करते थे। आकार में छोटे होने के बावजूद इन्हें उठाने में बड़े से बड़े बलशालियों के भी पसीने छूट जाते हैं। इन गोलों में एक का वजन छह मण (240 किलो) और दूसरे का नौ मण (360 किलो) है।


हनोल में चारों महासू का मुख्य मंदिर
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हनोल स्थित मंदिर चारों महासू भाइयों का मुख्य मंदिर है। इस मंदिर में मुख्य रूप से बूठिया महासू (बौठा महासू) की पूजा होती है। मैंद्रथ नामक स्थान पर बासिक महासू और की पूजा होती है। टोंस नदी के दायें तट पर बंगाण क्षेत्र में स्थित ठडियार (उत्तरकाशी) गांव में पबासिक महासू पूजे जाते हैं। ठडियार हनोल से करीब तीन किमी दूर है। सबसे छोटे भाई चालदा महासू भ्रमणप्रिय देवता हैं, जो कि 12 वर्ष तक उत्तरकाशी और 12 वर्ष तक देहरादून जिले में भ्रमण करते हैं। इनकी एक-एक वर्ष तक अलग-अलग स्थानों पर पूजा होती है, जिनमें हाजा, बिशोई, कोटी कनासर, मशक, उदपाल्टा, मौना आदि पूजा स्थल प्रमुख हैं। महासू के मुख्य धाम हनोल मंदिर में सुबह-शाम नौबत बजती है और दीया-बत्ती की जाती है।

भ्रमणप्रिय हैं चालदा महासू
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बूठिया महासू के हनोल मंदिर में निनुस, पुट्टाड़ व चातरा गांव के लोग पुजारी हैं। जबकि, मैंद्रथ स्थित बासिक महासू मंदिर में निनुस, बागी व मैंद्रथ गांव के लोग पूजा करते हैं। दोनों मंदिरों में प्रत्येक गांव के पुजारी क्रम से एक-एक माह तक पूजा करते हैं। ठडियार स्थित पबासिक महासू के मंदिर में केवल डगलू गांव के पुजारी पूजा करते हैं। जबकि, भ्रमणप्रिय चालदा महासू की पूजा के लिए निनुस, पुट्टाड़, चातरा व मैंद्रथ गांव के पुजारी क्रमानुसार देव-डोली केसाथ-साथ चलते हैं।


महासू के चार वीर
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चारों महासू के चार वीर भी हैं। इनमें कफला वीर (बासिक महासू), गुडारु वीर (पबासिक महासू), कैलू वीर (बूठिया महासू) और सेड़कुडिय़ा वीर (चालदा महासू) शामिल हैं। चारों के जौनसार-बावर में चार छोटे-छोटे पौराणिक मंदिर स्थित हैं।


अन्य मंदिरों से भिन्न एवं विशिष्ट
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मुख्य मंदिर का गर्भगृह का छत्र नागर शैली का बना हुआ है। मंदिर में मंडप और मुख्य मंडप का निर्माण बाद में किया गया। इस मंदिर की निर्माण शैली इसे उत्तराखंड के अन्य मंदिरों से भिन्न एवं विशिष्ट बनाती है। यह लकड़ी और धातु से निर्मित अलंकृत छतरियों से युक्त है।


मंदिर के चार दरवाजे
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महासू मंदिर के प्रवेश द्वार से लेकर गर्भगृह तक चार दरवाजे हैं। प्रवेश द्वार की छत पर नवग्रह सूर्य, चंद्रमा, गुरु, बुध, शुक्र, शनि, मंगल, केतु व राहू  की कलाकृति बनी हैं। पहले और दूसरे द्वार पर माला स्वरूप विभिन्न देवी-देवताओं की कलाकृतियां पिरोयी गई हैं। दूसरे द्वार पर मंदिर के बाजगी ढोल-नगाड़े के साथ पूजा-पाठ में सहयोग करते है। तीसरे द्वार पर स्थानीय लोग, श्रद्धालु व सैलानी मत्था टेकते हैं। अंतिम द्वार से गर्भगृह में सिर्फ पुजारी को ही जाने की छूट है और वह भी पूजा के समय।

Wednesday, 19 August 2020

छोलिया : उत्तराखंड का सबसे पुराना लोकनृत्य

 

छोलिया : उत्तराखंड का सबसे पुराना लोकनृत्य
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दिनेश कुकरेती
उत्तराखंड में यूं तो पारंपरिक लोकनृत्यों की एक लंबी फेहरिस्त है, लेकिन इनमें छोलिया या सरौं ऐसा नृत्य है, जिसकी शुरुआत सैकड़ों वर्ष पूर्व की मानी जाती है। इतिहासकारों के अनुसार मूलरूप में कुमाऊं अंचल का यह प्रसिद्ध नृत्य पीढिय़ों से उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान रहा है। छोलिया नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ शृंगार और वीर रस, दोनों के दर्शन हो जाते हैं। हालांकि, कुछ लोग इसे युद्ध में जीत के बाद किया जाने वाला नृत्य तो कुछ तलवार की नोकपर शादी करने वाले राजाओं के शासन की उत्पत्ति का सबूत मानते हैं।

अलग ही अवतार में दिखते हैं नर्तक
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छोलिया नृत्य में ढोल-दमाऊ की अहम भूमिका होती है। इसके अलावा इसमें नगाड़ा, मसकबीन, कैंसाल, भंकोरा और रणसिंघा जैसे वाद्य यंत्रों का भी इसमें इस्तेमाल होता है। छोलिया नृत्य करने वाले पुरुषों की वेशभूषा में चूड़ीदार पैजामा, एक लंबा-सा घेरदार छोला यानी कुर्ता और छोला के ऊपर पहनी जाते वाली बेल्ट कमाल की लगती है। इसके अलावा सिर में पगड़ी, कानों में बालियां, पैरों में घुंघरू की पट्टियां और चेहरे पर चंदन एवं सिंदूर लगे होने से पुरुषों का एक अलग ही अवतार दिखता है। बरात के घर से निकलने पर नर्तक रंग-बिरंगी पोशाक में तलवार और ढाल के साथ आगे-आगे नृत्य करते चलते हैं। नृत्य दुल्हन के घर पहुंचने तक जारी रहता है। बरात के साथ तुरही या रणसिंघा भी होता है।


छेड़छाड़, चिढ़ाने व उकसाने के भाव
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छोलिया नृत्य के दौरान नर्तकों की भाव-भंगिमा में 'छलÓ दिखाया जाता है। नर्तक अपने हाव-भाव से एक-दूसरे को छेड़ते हैं और चिढ़ाने व उकसाने के भाव प्रस्तुत करते हैं। इसके अलावा डर व खुशी के भाव भी नृत्य में झलकते हैं। इस दौरान जब आस-पास मौजूद लोग रुपये उछालते हैं तो छोल्यार उन्हें तलवार की नोक से उठाते हैं। खास बात ये कि छोल्यार एक-दूसरे को उलझाकर बड़ी चालाकी से रुपये उठाने की कोशिश करते हैं। यह दृश्य देखने में बड़ा आकर्षक लगता है। 22 लोगों की इस टीम में आठ नर्तक और 14 गाजे-बाजे वाले होते हैं।

आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और चपलता का प्रतीक
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छोलिया नृत्य को आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और चपलता का प्रतीक माना जाता है। तलवार और ढाल के साथ किया जाने वाला यह नृत्य युद्ध में जीत के बाद किया जाता था। इसे पांडव नृत्य का हिस्सा भी माना जाता है। कहा जाता है कि कोई राजा जब किसी दूसरे राजा की बेटी से जबरन विवाह करने की कोशिश करता था तो अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंचता था। सैनिकों हाथ में तलवार और ढाल होती थी, ताकि युद्ध होने की स्थिति में इनका उपयोग किया जा सके। सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए वादक ढोल-दमाऊ, नगाड़ा, मसकबीन, तुरही, रणसिंघा आदि बजाते हुए साथ चलते थे।


आगे सफेद निसाण, पीछे लाल
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आज भी पर्वतीय अंचल की शादियों में ध्वज ले जाने की परंपरा है। जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज (निसाण) चलता है और पीछे लाल रंग का। निसाण का मतलब है निशान या संकेत। इसका संदेश यह है कि हम आपकी पुत्री का वरण करने आए हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसीलिए सफेद ध्वज आगे रहता है।

Tuesday, 18 August 2020

Treasury of 125 hundred types of dishes in Uttarakhand


 

उत्तराखंड में सवा सौ प्रकार के पकवानों का खजाना
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दिनेश कुकरेती
विषम भूगोल वाले उत्तराखंड प्रदेश में कुल 97 प्रजाति की फसलें उगाई जाती हैं। इनसे यहां 125 से अधिक प्रकार के व्यंजन तैयार होते हैं। राष्ट्रीय पादप आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो (आइसीएआर) के भवाली स्थित क्षेत्रीय केंद्र की ओर से किए गए शोध में इसकी तस्दीक हुई है। शोध में पाया गया कि उत्तराखंड में पैदा होने वाली फसलों में अनाज की आठ, मोटे अनाज की छह, दालों की 15, साग-सब्जियों की 28, तिलहनों की 11, फलों की 19 और मसालों की दस प्रजाति शामिल हैं। विविधता वाली इन भोज्य सामग्रियों की उपलब्धता के पीछे पौष्टिकता का संतुलन भी छिपा हुआ है।
आइसीएआर के अनुसार उत्तराखंड में अनाज (कॉर्बोहाइड्रेट) की कुल 14 किस्में उगाई जाती हैं। इसके अलावा दालों (प्रोटीन) की 15, तिलहनों (वसा) की 11, फलों की 19 और साग-सब्जियों (खनिज, विटामिन व एंटी ऑक्सीडेंट) की 28 किस्में भी यहां पैदा होती हैं। खेतों में उगाई जाने वाली इन भोज्य सामग्रियों के साथ-साथ वनों में प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले और खाए जा सकने वाले फलों की भी यहां 67 किस्में मौजूद हैं। साथ ही साग-सब्जी बनाने लायक फूल, पत्ती व कंद-मूल की भी 27 प्रजातियां जंगलों में मिलती हैं। इन्हें उत्तराखंडी जनमानस पीढिय़ों से उपयोग में लाता रहा है।


बात उत्तराखंड में बनने वाले पकवानों की करें तो इनकी संख्या 125 से अधिक है और ऐसा इतने सारे भोज्य पदार्थों की उपलब्धता के चलते ही संभव हो पाया है। अकेले रोटी और विभिन्न प्रकार के भात की संख्या ही यहां 29 है। इसके अलावा 15 किस्म की दालें, छह प्रकार के फाणू व चैंसू, 19 प्रकार के मीठे पकवान, 11 प्रकार की विशेष सब्जियां, आठ प्रकार के झोल, दस प्रकार की चटनी, पांच प्रकार का रायता, दस प्रकार की बडिय़ां और पकौडिय़ां भी उत्तराखंड में बनाई जाती हैं। 

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Treasury of 125 hundred types of dishes in Uttarakhand

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 Dinesh Kukreti

A total of 97 species of crops are grown in Uttarakhand with heterogeneous geography.  More than 125 types of dishes are prepared here.  This has been substantiated by research conducted by the National Center for Plant Genetic Resources (ICAR) at the regional center at Bhawali.  Research has found that crops grown in Uttarakhand include eight cereals, six coarse grains, 15 pulses, 28 of vegetables, 11 of oilseeds, 19 of fruits and ten of spices.  The nutritional balance is also hidden behind the availability of these diversified food items.

According to ICAR, a total of 14 varieties of grain (carbohydrate) are grown in Uttarakhand.  Apart from this, 15 varieties of pulses (protein), 11 of oilseeds (fats), 19 of fruits and 28 varieties of vegetables (minerals, vitamins and anti-oxidants) are also produced here.  Along with these food items grown in the fields, there are 67 varieties of naturally grown and eaten fruits in the forests.  Along with this, 27 species of vegetable, flower, leaf and tuber origin are found in the forests.  Uttarakhandi people have been using it for generations.

Talking about the dishes made in Uttarakhand, their number is more than 125 and this has been possible only due to the availability of so many food items.  The number of bread and different types of rice alone is 29 here.  Apart from this, 15 varieties of pulses, six types of phanu and chinsu, 19 kinds of sweet dishes, 11 kinds of special vegetables, eight kinds of jhol, ten kinds of chutney, five kinds of raita, ten kinds of badis and pakodis are also available in Uttarakhand.  Are made.

Monday, 17 August 2020

चटनी जो मुंह में पानी ला दे


चटनी जो मुंह में पानी ला दे

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दिनेश कुकरेती

उत्तराखंडी खान-पान की परंपरा में चटनी को विशेष महत्व दिया गया है। पहाड़ी प्रदेश होने के कारण यहां तकरीबन दस प्रकार की चटनियां प्रचलन में हैं। इनमें हरी पत्तियों की चटनी, भड़पकी (भाड़ या गर्म राख में पकाई गई) चटनी, फलों की चटनी व दलहन-तिलहन की चटनी खास पसंद की जाती हैं। आइए! कुछ खास तरह की चटनियों से आपका परिचय कराते हैं और यह भी बताते हैं कि इन्हें कैसे बनाया जाता है।

हरी चटनी
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हरी चटनी का जिक्र आते ही मुंह में पानी आ जाता है। इसका रंग जितना आकर्षक है, उतनी ही मनमोहक इसकी खुशबू भी होती है। इसके लिए हरा धनिया, पुदीना व लहसुन के पत्तों की जरूरत पड़ती है। चाहे तो अदरक भी मिला सकते हैं। पहले पत्तों को साफ करने के बाद अच्छी तरह धोकर सिल-बट्टे में पीस लें। एकाध टमाटर व लहसुन-प्याज भी इसमें मिला सकते हैं। साथ ही स्वादानुसार नमक, हरी मिर्च व मसाले भी मिला लें। वैसे मसाले न भी हों तो काम चल जाएगा। यह चटनी भूख बढ़ाती है और रोगियों के लिए भी उपयुक्त होती है।


भट की चटनी (घुरयुंट)
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लोहे की कढ़ाई या तवा अच्छी तरह गर्म कर उसमें दो-एक मुट्ठी काले या भूरे भट डाल लें। उन्हें सूती कपड़े से चट-पट हिलाते रहें और जब भट तड़-तड़ की आवाज करने लगें तो नीचे उतार लें। भुने भट को सिल-बट्टे या मिक्सी में पीस लें। साथ में थोड़ा हरा पुदीना भी मिला सकते हैं। नमक-मिर्च जरूरत के हिसाब से मिलाएं। चटनी न ज्यादा पतली हो, न ज्यादा सख्त ही। खट्टापन लाने के लिए इसमें नींबू, चेरी या छोटे टमाटर डाल सकते हैं। नाश्ते या खाने में जायका आ जाएगा। कुमाऊं में यह चटनी 'घुरयुंटÓ नाम से प्रसिद्ध है।


तिल की चटनी
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सफेद, काले या भूरे तिल की चटनी भी भट की तरह भूनकर बनाई जाती है। भूनने में सावधानी बरतने की जरूरत है, क्योंकि ज्यादा देर भूनने पर चटनी कड़वी हो जाएगी। जायका लाने के लिए इसमें हरा धनिया व पुदीना भी मिलाया जा सकता है।

भंगजीर की खास चटनी
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भंगजीर तिलहन प्रजाति में आती है, जो सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में ही पैदा होती है। इसकी चटनी भी भूनकर बनाई जाती है। कुमाऊं में इसे भंगीरा कहते हैं। भंगजीर काली भी होती है। भंगजीर आसानी से भुन जाती है, इसलिए इससे जलने से बचाना चाहिए। यह पीसने में भी आसन होती है और देखने में सफेद यानी नारियल की चटनी की तरह लगती है। हरा धनिया, पुदीना या अन्य पत्ते डालने पर चटनी का कलर अर्द्धसफेद हो जाता है। स्वाद एवं गुणवत्ता में इसका जवाब नहीं।

 

भांग की चटनी
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पहाड़ में खेतों में उगाई जाने वाली भांग के दाने मोटे-मोटे होते हैं। इसलिए इन्हें भूनने में तिल या भंगजीर की अपेक्षा ज्यादा समय लगता है। भांग का दाना सख्त होता है इसलिए उसे अच्छी तरह पीसना चाहिए। तासीर गर्म होने के कारण भांग की चटनी सर्दियों के लिए ही ज्यादा मुफीद है। वैसे तासीर ठंडी करने के लिए आप इसमें हरा धनिया व पुदीना मिला सकते हैं।

 

चुलू की चटनी 

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चुलू की चटनी गर्मियों में खाई जाने वाली मशहूर चटनी है। इसे बनाने के लिए पके चुलू या खुमानी का गूदा ढेलों से अलग कर लें। फिर उसमें पुदीना, लहसुन व प्याज मिलाकर सिल-बट्टे में अच्छे से पीस लें। इसके बाद हल्का नमक, मिर्च व सामान्य मसाला मिला लें। चटनी लसपसी बननी चाहिए। यदि चुलू ज्यादा खट्टे हैं तो खट्टापन दूर करने के लिए उसमें थोड़ा चीनी या गुड़ मिला लें। यह चटनी रोटी के साथ तो अच्छी लगती ही है, आप इसके साथ भात-झंगोरा भी खा सकते हैं। यानी दाल-सब्जी का काम भी चटनी कर लेती है।

भड़पकी चटनी
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चूल्हे के भाड़ या गर्म राख के अंदर आलू के छोटे-छोटे दाने ढक दीजिए। 20 मिनट से भी कम समय में आलू पक जाएगा। आलू के एक चौथाई हिस्से के बराबर टमाटर भी इसी तरह भून लें। फिर दोनों चीजों का अच्छी तरह छिलका उतारकर उसमें हरी या भुनी मिर्च, नमक व हल्के मसाले मिला लें। यदि थोड़ा भुना हुआ अदरक भी हो तो सोने पे सुहागा। सभी को  सिल-बट्टे में पीस लें। तैयार है भड़पकी गैस नाशक चटनी।
 

सुंट्या
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सुंट्या एक प्रकार की खट्टी-मीठी चटनी है। इसके लिए गर्म तेल में धनिया या लाल मिर्च तलकर उसमें गुड़ या इमली का पानी उबाल लें। साथ ही छुआरा, अदरक, नारियल गिरी व किशमिश को बारीक काटकर तब तक कौंचे से घुमाते रहें, जब तक कि मिश्रण गाढ़ा होकर पक न जाए। सुंट्या गढ़वाल में पितृपक्ष के दौरान बनने वाला विशेष व्यंजन है। इसे लोग खूब चटखारे लेकर खाते हैं। यह पाचन के लिए अच्छा माना जाता है। हालांकि, शादी या अन्य अवसरों पर सुंट्या को वर्जित माना गया है।

काली खटाई 

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 खट्टे के शौकीन लोग गलगल के रस को खूब पकाकर रख लेते हैं। पकाने पर यह रस जम जाता है। इसी को काली खटाई कहते हैं। इसे लंबी अवधि तक रखा जा सकता है। खट्टे की जरूरत पडऩे पर इसके बहुत छोटे टुकड़े इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इसी तरह दालिमू (दाडि़म) के बीजों से भी खटाई बनाई जाती है। कुमाऊं के ग्रामीण इलाकों में काली खटाई को दाडि़म का चूक कहते हैं। यह कब्ज, उल्टी-दस्त रोकने में सहायक है।
 

Sunday, 16 August 2020

हर घर की पसंद कुमाऊंनी रायता

 

हर घर की पसंद कुमाऊंनी रायता
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दिनेश कुकरेती
ककड़ी (खीरे) का रायता पहाड़ की लोकप्रिय डिश है। वैसे तो रायता आमतौर पर पहाड़ के हर घर में बनता है, लेकिन कुमाऊंनी रायते की बात ही निराली है। खास टेस्ट होने के कारण कुमाऊंनी रायता गढ़वाल-कुमाऊं में समान रूप से पसंद किया जाता है। गढ़वाल में इसे 'रैलूÓ कहते हैं। इसके अलावा गढ़वाल में कद्दू का 'रैठूÓ भी खास पसंद किया जाता है। चलिए! इस बार हम भी 'रैलूÓ और 'रैठूÓ का जायका लेते हैं।


ऐस बनता है कुमाऊंनी रायता
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कुमाऊंनी रायता बनाने के लिए मिट्टी या लकड़ी के पारंपरिक बर्तन में दो-एक दिन पहले राई या सरसों के बीजों का पाउडर मिलाकर दही जमाने रख दी जाती है। इससे दही में जोरदार रासायनिक क्रिया होती है। दही जमने के बाद उसमें कद्दूकस की हुई ककड़ी डाल डालकर जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च और मसाले मिक्स कर लेते हैं। साथ ही राई व जंबू का छौंका भी लगा लिया जाता है। बस! कुमाऊंनी रायता बनकर तैयार है।


अपनी-अपनी परंपरा
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कुमाऊं में रायता शादी-समारोह में विशेष रूप से परोसा जाता है। जबकि, गढ़वाल में पितृपक्ष के दौरान रायता खाने की परंपरा है। हालांकि, अब हर मौके पर रायता खाने का हिस्सा बनने लगा है।


चिरमिरी महक के क्या कहने
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कुमाऊंनी रायते में एक खास किस्म की चिरमिरी महक होती है। राई व सरसों के दानों की इस महक को आप जीवनभर भूल नहीं पाओगे। इस रायते को घरों में नाश्ते के साथ विशेष रूप से खाया जाता है।


कद्दू के रैठू लाजवाब जायका
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रैठू पके हुए कद्दू से तैयार किया जाता है। इसके लिए कद्दू के अंदर से गूदा और बीज अलग कर उसके मोटे-मोटे टुकड़े काट लेते हैं। फिर इन्हें छिलके सहित बहुत कम पानी में उबालकर ठंडा करने रख दिया जाता है। खाने पर यह टुकड़े गुड़ जैसी मिठास देते हैं। उबले कद्दू की तासीर ठंडी होती है। अब शुरू होती है रैठू बनाने की प्रक्रिया। कद्दू के टुकड़े मसलकर उनमें दही मिला दी जाती है और फिर जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च व मसाले मिला लेते हैं। तैयार है कद्दू का रैठू। इसे आप मट्ठा के साथ भी बना सकते हैं।


स्वादिष्ट और सुपाच्य डिश
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आप रैठू को जायकेदार बनाना चाहते हो तो इसमें लोहे की करछी मेथी, जीरा या राई का तड़का लगा लें। इसे झंगोरा, भात व रोटी के साथ भी खाया जा सकता है। रैठू बेहद स्वादिष्ट और सुपाच्य डिश है। इसे खाने के बाद भूख बड़ी जल्दी लगती है। 

Friday, 14 August 2020

जैसा रायता, वैसा मजा


जैसा रायता, वैसा मजा
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दिनेश कुकरेती

पहाड़ में मारसा, चौलाई या रामदाना के हरे साग (पत्तों) का रायता खाने की परंपरा पीढिय़ों से चली आ रही है। अपनी पुस्तक 'उत्तराखंड में खानपान की संस्कृतिÓ में विजय जड़धारी लिखते हैं कि यह रायता स्वादिष्ट होने के साथ ही पौष्टिक भी होता है। लौह तत्व इसमें काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है। उस पर यह पहाड़ का बेहद सस्ता एवं आसान भोजन है। कारण, मारसा खेतों में अपने आप उग जाता है और इसका रायता बनाने के लिए अतिरिक्त साधन भी नहीं जुटाने पड़ते। इसके अलावा बथुवा, पहाड़ी आलू और साकिना की कलियों के रायते का भी अपना अलग ही मजा है।

बेहद आसान है मारसा का रायता बनाना

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मारसा का रायता बनाने के लिए उसकी हरी-मुलायम पत्तियों और अग्रभाग को अच्छी तरह साफ कर लें। फिर इन्हें इन्हें पतीले में ढक्कन रखकर उबालें और उबलने पर चिमटे से ढक्कन हटा लें। जब साग ठंडा हो जाए तो इसे दोनों हाथों से निचोड़कर पानी को निथार लें। अब इस साग को सिल-बट्टे में पीस लें या फिर हाथ से ही अच्छी तरह मसलकर और करछी से घोंटकर महीने बना लें। इस घुटे हुए साग को ताजा दही के साथ अच्छी तरह मिलाएं और इसमें स्वादानुसार नमक, मिर्च व मसाले डाल लें। तैयार है मारसा का जायकेदार हरा रायता। आप इसमें हींग व जीरे का तड़का भी लगा सकते हैं। फिर देखिए झंगोरा, चावल या रोटी के साथ खाने में मजा आ आएगा। आप चाहें तो उबले हुए मारसा को छौंककर सूखे साग के रूप में भी इसका लुत्फ ले सकते हैं।


खून बढ़ाने वाला बथुवा का रायता
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बथुवा का रायता बनाने की विधि भी मारसा का रायता बनाने जैसी ही है। बथुवा भी पहाड़ में बहुतायत में मिल जाता है। अब तो शहरों में भी इसकी खूब बिक्री होती है। पहाड़ में जंगली बथुवा के अलावा हिमालयी बथुवा का भी रायता बनाया जाता है। इसकी पत्तियां बहुत बड़ी होती हैं और यह ज्यादा स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें भी लौह तत्व की बहुतायत है।

जख्या के तड़के वाला आलू का रायता
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पहाड़ी तोमड़ी, खोपटी या सामान्य आलू के रायते का भी अपना अलग ही जायका है। इसके लिए सबसे पहले आलू को साफ कर कम पानी में उबाल लें। फिर छिलके निकालकर इनका चूरा बना लें। लेकिन, ध्यान रहे कि यह चूरा मसीटा न बने। फिर ताजा दही में आलू के चूरे को अच्छी तरह मिलाएं। साथ ही स्वादानुसार लहसुन, मुर्या (मोरा) व धनिये का हरा नमक भी इसमें मिला लें। चाहें तो राई या जख्या के तड़के साथ इसे छौंक भी सकते हैं। तैयार है आलू का जायकेदार रायता। आप भात, झंगोरा या रोटी के साथ इसका जायका ले सकते हैं, मजा आ जाएगा। हां, अगर पहाड़ी आलू की पारंपरिक किस्म उपलब्ध न हो तो किसी भी आलू से रायता बनाया जा सकता है।

 साकिना की कलियों का रायता
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साकिना (सकिन या सकीना) की कलियों को फूल आने से पहले या अद्र्धफूल सहित उबाल लें। इसके बाद कलियों की छोटी-छोटी डंडियों को अलग कर इन्हें सिलबट्टे या मिक्सी में महीन पीस लें। फिर इस मसीटे को दही के साथ मिलाकर इसमें जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च व अन्य मसाले मिला लें। तैयार है साकिना का स्वादिष्ट रायता। गढ़वाल में इसे 'कथेलीÓ कहते हैं। यह पेट संबंधी बीमारियों की रामबाण औषधि है। पहाड़ में तो महिलाएं साकिना की कलियों को धूप में सुखाकर सुरक्षित रख लेती हैं। इन सूखी कलियों का रायता भी बहुत स्वादिष्ट एवं औषधीय गुणों वाला होता है।