Saturday, 9 April 2022

नेगीदा के सुरों में बोलता है पहाड़


नेगीदा के सुरों में बोलता है पहाड़

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उत्तराखंड के मशहूर लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी को संगीत नाटक अकादमी की ओर से वर्ष 2018 का प्रतिष्ठित 'अकादमी सम्मानÓ दिया जाना महज व्यक्ति नहीं, बल्कि उत्तराखंड की बोली-भाषा, संस्कृति और लोक परंपराओं का सम्मान है। नेगी उत्तराखंड की लोक संस्कृति के ध्वज वाहक हैं। पहाड़ की बहू-बेटी के प्रतिनिधि और उनकी व्यथा के प्रतिबिंब हैं। पहाड़ की पहाड़ जैसी समस्याओं के युगदृष्टा हैं और अपने समय में तेजी से आ रहे बदलावों, लोगों से जुड़े सरोकारों व जनजीवन के चितेरे हैं। नेगी कवि हैं, गीतकार हैं, लोकगायक हैं और साथ ही एक गूढ़ चिंतक और लोकवाद्यों के विशेषज्ञ भी। एक व्यक्तित्व में इतने गुणों का समावेश बहुत कम देखने को मिलता है। अल्लामा इकबाल की जुबानी कहें तो- 'हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।Ó  

उत्तराखंड के इनसाइक्लोपीडिया हैं नेगीदा

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दिनेश कुकरेती

प उत्तराखंडी समाज, यहां की सभ्यता, संस्कृति, लोकजीवन, राजनीति आदि के बारे में जानना चाहते हैं तो गढऱत्न नरेंद्र सिंह नेगी के गीत सुन लीजिए। संपूर्ण तस्वीर सामने आ जाएगी। नेगी ने अपने गीतों के बोल और सुर के माध्यम से उत्तराखंडी समाज के दुख-दर्द, खुशी और जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है। किसी भी लोकगीत की भावनाओं और मान-सम्मान को ठेस पहुंचाए बिना उन्होंने हर तरह के उत्तराखंडी लोकगीत गाए हैं। उन्होंने प्रेम गीत भी रचे, लेकिन नए बिंब और रुपकों के साथ। इन गीतों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इनमें फिल्मी गीतों की तरह छिछोरापन नहीं है, बल्कि प्रेम की शालीनता और गरिमा उभरती है। हालांकि, नेगी के शुरुआती गीतों में गढ़भूमि की वंदना, यहां की प्राकृतिक सुंदरता और लोकजीवन की प्रशंसा खूब दृष्टिगोचर होती है। लेकिन, धीरे-धीरे पर्वतीय समाज की पीड़ा और यहां की व्यवस्थाजनित समस्याएं उनके गीतों में उभरती चली गईं।

उत्तराखंडी अस्मिता के प्रतीक

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12 अगस्त 1949 को पौड़ी जिले के पौड़ी गांव में जन्मे नेगी ने कॅरियर की शुरुआत पौड़ी से की थी और अब तक वे देश के विभिन्न हिस्सों में ही नहीं, दुनिया के कई मुल्कों में भी अपनी लोकमाधुर्य से भरी गायिकी का जादू बिखेर चुके हैं। हालांकि, समय के साथ-साथ गढ़वाल म्यूजिक इंडस्ट्री में कई नए गायक भी शामिल होते रहे, लेकिन नए गायकों की नई आवाज के होते हुए भी पूरा उत्तराखंड नेगी के गीतों को उसी प्यार व सम्मान के साथ आज भी वैसे ही सुनता है, जैसे आज से चार दशक पूर्व सुनता था। नेगी के गीतों का सबसे अहम पक्ष है, उनके बोल और उत्तराखंडी जनमानस के प्रति भावनाओं की गहरी धारा। यही वजह है कि उत्तराखंड के लोग दुनिया में जहां भी हैं, नेगी को अपनी अस्मिता का प्रतीक मानते हैं।

'गीतमालाÓ से शुरुआत, 'बुरांशÓ से आगे बढ़े 

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नेगी ने अपने गायिकी के सफर की शुरुआत गढ़वाली गीतमाला से की, जो दस अलग-अलग कडिय़ों में थी। लेकिन, फिर उन्होंने अपनी एलबम को अलग-अलग नाम से प्रदर्शित करना शुरू कर दिया। अपनी पहली एलबम का नाम उन्होंने 'बुरांशÓ रखा। बुरांश पर्वतीय अंचल में पाया जाना एक खूबसूरत जंगली फूल है। इस एलबम को लोगों ने हाथोंहाथ लिया और फिर तो नेगी के गीत हर उत्तराखंडी की आवाज बनते चले गए।

दुनियाभर में मिला मान-सम्मान

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नेगीदा अब तक एक हजार से भी अधिक गीत गा चुके हैं। अपनी बेहतरीन गायिकी के लिए उन्हें दुनियाभर में अलग-अलग अवसरों पर कई बार पुरस्कारों से भी नवाजा गया। आकाशवाणी लखनऊ ने उन्हें दस अन्य कलाकारों के साथ अत्याधिक लोकप्रिय लोक गीतकार की मान्यता दी और पुरस्कृत किया। यह पुरस्कार फरमाइश-ए-गीत के लिए आकाशवाणी को लोगों की ओर से भेजी गई मेल के आधार पर दिया गया।

देश-दुनिया में हर जगह नेगीदा के चाहने वाले

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नेगी देश के तमाम प्रमुख शहरों के अलावा यूएसए, आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड, मस्कट, ओमान, बहरीन, यूएई आदि मुल्कों में बीसियों दफा अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। गढ़वाली-कुमाऊंनी प्रवासियों की ओर से उन्हें अक्सर देश के विभिन्न हिस्सों और विदेशों में अपनी प्रस्तुति देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। 

जनमानस के दिलों में करते हैं राज

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नेगी के सभी गीतों के बोल हकीकत के धरातल से अंकुरित हुए हैं। इसी कारण वह उत्तराखंडी जनमानस के दिलों में राज करते हैं। वह जितने करीब गढ़वाल के हैं, उतने ही कुमाऊं और जौनसार के भी। उन्हें हर कोई सुनना चाहता है, एकांत में गुनगुनाना चाहता है। खास बात यह कि नेगी ने जो गीत गाए हैं, उनमें अधिकांश खुद ही लिखे भी हैं।

 प्रकाशित हो चुकीं तीन पुस्तक

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-'खुचकंडीÓ (अरसा और रोट ले जाने के लिए रिंगाल़ से बनी टोकरी)।

-'गाणियों की गंगा, स्याणियों का समोदरÓ (कल्पनाओं की गंगा, लालसा का समुद्र)।

-'मुट बोटी की राखÓ (मुट्ठी बंद करके रखना और तैयार रहना)। 

(नोट: इसमें नेगी ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन समेत सभी प्रमुख आंदोलनों से जुड़े गीतों को संग्रहीत किया गया है।)

'डायलन ऑफ द हिल्सÓ

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वर्ष 2007 में कोलकाता स्थित टेलीग्राफ ने नेगी को उनके वर्ष 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी और उत्तराखंड की पूरी राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ गाए आंदोलन गीत (जागर) 'नौछमि नारैणÓ के लिए लिए 'डायलन ऑफ द हिल्सÓ की संज्ञा दी थी। डायलन थॉमस 20वीं सदी के सबसे महान ब्रिटिश कवियों में से एक रहे हैं। वह अपने मूल वेल्स में एक साहित्यिक आइकन हैं।

इन फिल्मों के गीतों को दिए सुर

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चक्रचाल़, घरजवैं, सुबेरो घामs, ब्यो, कांठ्यों सी सूरज आई, मेरी गंगा होलि मैमू आली, कौथिग, बेटि-ब्वारि, बंटवारु, फ्योंलि ज्वान ह्वेगे, औंसि कि रात, छम्म घुंघुरू, जय धारी देवी, सुबेरौ घाम आदि।

नेगीदा की प्रमुख एलबम

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बुरांश, हौंसिया उमर, स्याणी, सलाण्या स्यालि़, समदोला़ क द्वी दिन, वा जुन्याली़ रात, रुमुक, माया को मुंडारो, बसंत ऐगे, बरखा, नौछमी नारैण, नयु-नयु ब्यो च, दगड़्या, तुमारी माया मा, घस्यारी, तू होलि बीरा, ठंडो रे ठंडो, टपकरा, टका छन त टकटका, हल्दी हाथ, हौंसिया उमर, जै भोले भंडारी, जय धारी देवी, छुंयाल, छिबड़ाट, घस्यारि, खुद, कैथे खुज्याणी होलि, कारगिलै लड़ै मा, उठा जागा उत्तराखंड, सौ कु नोट, अब कतगा खैल्यू आदि।

लोकमानस के पुरोधा

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जब दुनिया से हजारों बोली-भाषाएं लुप्त होती जा रही हों, तब उत्तराखंड की बोली-भाषा को न सिर्फ पुनस्र्थापित करने, बल्कि उन्हें लोकभाषा का सिरमौर बनाने की मंशा रखने वाले नेगी लोकमानस के पुरोधा भी हैं। वे उत्तराखंड के एकमात्र ऐसे लोक गीतकार एवं गायक हैं, जो अस्कोट से आराकोट और हरिद्वार से बदरीनाथ तक समान रूप से लोक में प्रतिष्ठापित हैं। 

जो लकीर खींची, उसकी बराबरी आसान नहीं

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नेगी के आने के बाद नए गायकों के लिए भी रास्ते खुले। यह अलग बात है कि उस कोलाहल में कुछ स्वर कुंद हुए तो कुछ उभरे भी। लेकिन, जो बड़ी लकीर नेगी खींच चुके हैं, उसकी बराबरी शायद ही कोई कर सके।

बारिश वाली दुपहरी में रचा पहला गीत

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नेगी ने अपना पहला गीत वर्ष 1976 में रिकॉर्ड किया था। गीत के बोल थे- 'सैरा बसग्याल बणु मा, रूड़ी कुटण मा, ह्यूंद पीसी बितैना, म्यारा सदनि इनि दिन रैना।Ó (बरसात जंगलों में, गर्मियां कूटने में, सर्दियां पीसने में बिताई। मेरे हमेशा ऐसे ही दिन रहे हैं।) जब गीत आकाशवाणी से बजा तो लोग इसके दीवाने हो गए और छोटे-बड़े हर किसी की जुबान पर इसके बोल तैरने लगे। बकौल नेगी, 'वह सन् 74 की एक बारिश वाली दोपहर थी। मेरे पिता की आंखों का ऑपरेशन होना था और मैं उनके साथ गांव से विकासनगर के लेहमन अस्पताल आया हुआ था। पिताजी वार्ड में बिस्तर पर लेटे थे और मैं बरामदे में तीन रुपये किराये वाली चारपाई पर बैठकर एकटक फुहारों को निहार रहा था। साथ ही सोच रहा था कि हमारे पहाड़ में महिलाएं तमाम कष्ट झेलने के बाद घर में बुजुर्गों की सेवा भी करती हैं और खेतों में काम भी। इसी उधेड़बुन में कब ये गीत कागज पर उतर गया, मुझे पता ही नहीं चला।Ó

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