गोधूलि की बेला में फूलों से महक जाती है दहलीज
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दिनेश कुकरेती
कैसा मनमोहक नजारा है। कंदराएं बुरांश की लालिमा और गांव आडू़ व खुबानी के गुलाबी-सफेद फूलों से दमक रहे हैं। दूर पहाड़ों के घर-आंगन ऋतुरैंण और चैती गायन में डूब गए हैं। गोधूलि की बेला में नौनिहाल फ्योंली, बुरांश, मेलू, बासिंग, कचनार, आडू़, खुबानी, पुलम आदि के फूल चुनकर लौट आए हैं। अब इन फूलों को वो रिंगाल की टोकरी में सजाकर हर घर की देई (देहरी) पर बिखेर रहे हैं और गा रहे हैं, 'फूलदेई थाली, फूलदेई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार, फूले द्वार...फूल देई-छम्मा देई।Ó
हर घर से मिलता है आशीष
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बचपन में हम भी ऐसे ही फूलों की टोकरी सजाकर गांव के घर-घर घूमा करते थे। इस टोकरी में गेहूं-जौ की नन्हीं बालियां भी होती थीं। जिस घर की देहरी पर हम फूल डालते, उस घर से हमें आशीर्वाद के साथ पीतल का सिक्का, गुड़, चावल व सई खाने को मिलते और खिलखिला उठते हमारे चेहरे। शायद इसीलिए बैशाख संक्रांति तक चलने वाले फूलदेई को बच्चों का त्योहार कहा जाता है। आज भी दूर-दराज के गांवों में बेटियां रोज गोधूलि बेला में पड़ोसियों की दहलीज पर फूल डालकर गाती हैं, 'फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद, सुफल करो नयो साल तुमुक श्री भगवान, रंगीला-सजीला फूल ऐ गीं, डाला-बोटला हर्या ह्वेगीं, पौन-पंछी दौड़ी गैना, डाल्यूं फूल है सदा रैन।Ó
चैत में ब्याहता बेटी को भेजी जाती है भिटोली
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कई गांवों में बच्चों के अलावा परिवार के सभी लोग अपने घरों में बोई गई हर्याल (हरियाली) की टोकरियों को गांव के चौक पर इकट्ठा कर उसकी सामूहिक पूजा करते हैं। फिर हर्याल को अपनी देहरी पर सजाया जाता है। चैत के महीने पहाड़ में ब्याहता बेटियों (धियाण) को कलेवा देने का रिवाज भी है। कुमाऊं में इसे भिटोली (भेंट) कहा जाता है। एक दौर में यह मायके वालों के पास बेटी की कुशलक्षेम पूछने का बहाना भी हुआ करता था। तब भाई कलेवा या भिटोली लेकर बहन के मायके जाता था। बहन खुशी-खुशी अपने आस-पड़ोस में इस कलेवा को बांटती थी। हालांकि, यह परंपरा अब रस्मी हो चली है।
घर-आंगन में चैती गायन की धूम
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इसके अलावा पहले गांव में दास (ढोल-दमाऊ वादक) घर-घर जाकर शुभकामनाएं देते थे। इस दौरान वे चैती गायन करते थे, यथा- 'तुमरा भंडार भरियान, अन्न-धनल बरकत ह्वेन, औंद रयां ऋतु मास, औंद रयां सबुक संगरांद। फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद।Ó (तुम्हारे भंडार भरे रहें, अन्न-धन की वृद्धि हो, ऋतु और महीने आते रहें, सबके लिए सक्रांति का पर्व खुशियां लेकर आता रहे)। इसी दिन के बाद वे गांव की हर धियाण के ससुराल दान मांगने के लिए जाते थे।
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