Sunday, 20 September 2020

दून को लाला मंसाराम ने दी थी 'कनाट प्लेसÓ की सौगात



दून को लाला मंसाराम की सौगात 'कनाट प्लेसÓ
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दिनेश कुकरेती
गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह की शहादत के बाद उनके पुत्र एवं राज्य के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह ने देहरादून को एंग्लो इंडियन सैन्य अधिकारी मेजर हैदर यंग हर्से के हाथ बेच दिया था। बाद में एक समझौते के तहत हर्से से अंग्रेजों ने देहरादून को अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन, इसका यह फायदा जरूर हुआ कि देहरादून उत्तरोत्तर तरक्की की सीढिय़ां चढऩे लगा। अंग्रेजों ने यहां एक तरफ यहां सड़कों व नहरों का जाल बिछाया, वहीं एफआरआइ जैसी भव्य इमारतें भी खड़ी कीं। चकराता रोड भी उसी दौर में अस्तित्व में आई।




'रामपुर मंडी रोडÓ नाम से जानी जाती थी चकराता रोड
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देहरादून के ब्रिटिश हुकूमत के अधीन होने पर अंग्रेज अपनी दूरगामी योजना के तहत चकराता में सैन्य छावनी स्थापित करने के प्रयास में जुट गए थे। इसी क्रम में वर्ष 1873 में दून के तत्कालीन सुपरिटेंडेंट एचजी रास ने सहारनपुर-चकराता मार्ग का निर्माण कराया। वर्ष 1900 में रेल भी देहरादून पहुंच चुकी थी। इससे यहां सेना गतिविधियां बढऩे लगीं। हालांकि, तब देहरादून से चकराता तक सीधा मोटर मार्ग नहीं था। लेकिन, देहरादून-रामपुर मंडी मार्ग अस्तित्व में आ चुका था, जो वर्तमान घंटाघर से 38 किमी दूर हरबर्टपुर के पास सहारनपुर-चकराता मार्ग को काटते हुए आगे बढ़ता था। इससे देहरादून से चकराता तक वाहनों की आवाजाही आसान हो गई। अपनी पुस्तक 'गौरवशाली देहरादूनÓ में देवकी नंदन पांडे लिखते हैं कि यह रोड लंबे समय तक रामपुर मंडी रोड के नाम जानी जाती रही। बाद में जब इस रोड से चकराता के लिए आवाजाही बढ़ गई तो इसे कंपनी दस्तावेजों में 'चकराता रोडÓ नाम से दर्ज किया गया।

नाव से होती थी आवाजाही और व्यापार
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20वीं सदी की शुरुआत तक यमुना नदी के किनारे स्थित रामपुर मंडी एक व्यावसायिक केंद्र के रूप में विकसित हो चुकी थी। तब यहीं से नाव के जरिये आवाजाही और व्यापार हुआ करता था।

चकराता रोड की शान थे आम, लीची व अमरूद के बाग
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वर्ष 1932 में चकराता रोड पर गोयल फोटो ट्रांसपोर्ट कंपनी, क्राउन एंड कंपनी, विश्वंभर दत्त चंदोला की प्रिंटिंग प्रेस व एक्स सोल्जर्स मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी का बुकिंग कार्यालय स्थापित हो चुके थे। लेकिन, इससे आगे का इलाका लगभग निर्जन था और इसके दोनों ओर आम, लीची व अमरूद के मीलों लंबे बाग हुआ करते थे।



लाला मंसाराम ने 58 बीघा भूमि पर बसाया 'कनाट प्लेसÓ
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शुरुआती दौर में चकराता रोड को आबाद करने का श्रेय नगर के प्रतिष्ठित बैंक रहे मंसाराम बैंक एंड संस के स्वामी लाला मंसाराम को जाता है। वर्ष 1944 में मंसाराम परिवार ने चकराता रोड पर कॉलोनी के लिए भूमि खरीदनी शुरू की। तब मंसाराम बैंक एंड संस की तूती बोलती थी। लाला मंसाराम ने सबसे पहले अपने पुत्र महावीर प्रसाद व पौत्रों के नाम पर कोलकाता के राजा टैगोर परिवार के पुष्पेंद्र नाथ, प्रणवनाथ व उनके एक अन्य भाई से 27 बीघा भूमि खरीदी। हालांकि, यह भूमि कॉलोनी के लिए नाकाफी थी, इसलिए पट्टेदार रामचंद्र से 7.99 बीघा लीज भूमि, स्व.महंत ओमप्रकाश के पुत्र सुरेंद्र प्रकाश व जयप्रकाश से 32 बीघा नौ बिस्वा भूमि और खरीदी गई। इसमें से कुल 58 बीघा भूमि पर कॉलोनी निर्माण का कार्य शुरू हुआ और इसे नाम दिया गया 'कनाट प्लेसÓ।



सुख-सुविधा और सुंदरता का ताना-बाना
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कनाट प्लेस में जनसुविधाएं मुहैया कराने के साथ ही चकराता रोड की दिशा में सीमा दर्शाती दीवार पर इस अंदाज में विद्युत पोल लगाए गए, जिससे रात में जगमगाते शहर का आभास हो। कॉलोनी में मनोरंजन के लिए दो सिनेमाघर 'हॉलीवुडÓ व 'अमृतÓ, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के साथ 94 दुकानें, पोस्ट ऑफिस्र 48 आवासीय फ्लैट, दो विशाल बंगले, आठ गैराज और 49 गोदाम भी बनाए गए। लोगों के विश्वास से उत्साही बैंक स्वामियों ने इसके बाद सड़क के दूसरी ओर भी इसी तरह का व्यावसायिक एवं आवासीय प्रतिष्ठान बनाने का बीड़ा उठाया।

इसलिए अलग नजर आता है डिजाइन
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वर्ष 1947 में सड़क के दूसरी ओर संपन्नता का यह प्रतीक लगभग तैयार हो चुका था। लेकिन, तब नगर में आबादी का इतना अधिक दबाव न था कि कोई इस निर्माणाधीन प्रतिष्ठान में पंूजी लगाता। लिहाजा बैंक स्वामियों ने नगरवासियों को आकर्षित करने के लिए उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देने शुरू किए। उन्होंने लाहौर से आकर राजपुर रोड पर अपना कारोबार कर रहे प्रमुख फर्नीचर व्यवसायी आरआर कोहली से संपर्क साधा। उनसे एक वर्ष तक किराया न लेने की बात कहते हुए दुकान व घर निर्माणाधीन इमारत में शिफ्ट करने का आग्रह किया गया। साथ ही यह छूट भी दे दी कि वे दुकान और मकान का डिजाइन अपनी सुविधा से तय कर सकते हैं। यही वजह है कि कनाट प्लेस में न्यू कोहली फर्नीचर मार्ट व ङ्क्षहद स्टोर्स ऐसे व्यावसायिक प्रतिष्ठान हैं, जो संपूर्ण कॉलोनी से अलग नजर आते हैं।

बैंक के घाटे में आने पर एक हाथ से दूसरे हाथ बिकती रही संपत्ति
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मंसा राम बैंक एंड संस ने चकराता रोड के दोनों ओर कॉलोनी तो विकसित कर दी, लेकिन भवनों के खाली रहने के साथ ही बैंक  भी लगातार घाटे में आने लगा। ऐसे में बैंक स्वामियों ने सिनेमा क्षेत्र वाली कॉलोनी 24 अप्रैल 1952 को यंग रोड पर रहने वाले नेपाल के अवकाश प्राप्त प्रधानमंत्री कर्नल शमशेर जंग बहादुर राणा की पत्नी रानी गंभीर कुमारी को 14.15 लाख रुपये में बेच दी। कालांतर में रानी गंभीर कुमारी ने यह संपत्ति सेठ बाल गोपाल दास को बेची।



किरायेदार ही बन गए मालिक
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कॉलोनी के आवासों का किराया बहुत कम था और समय पर भी नहीं मिलता था। सो, बाल गोपाल दास पर भी यह संपत्ति बोझ बनने लगी। ऐसे में नुकसान से बचने के लिए उन्होंने काबिज किरायेदारों को ही सस्ते मूल्य पर इसका हस्तांतरण कर दिया। धीरे-धीरे सिनेमाघरों के स्वामियों के साथ-साथ उनके नाम भी 'नटराजÓ और 'कैपरीÓ कर दिए गए।

ऐसे मिला एलआइसी को स्वामित्व
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इस सबके बावजूद सड़क की दक्षिण दिशा में बनी कॉलोनी में कोई बसने को तैयार नहीं था। नतीजा, वर्ष 1953 में इसे मात्र 5.75 लाख रुपये में भारत इंश्योरेंस को बेच दिया गया। वर्ष 1960 में भारतीय जीवन बीमा निगम के अस्तित्व में आने पर यह इमारत उसे हस्तांतरित कर दी गई। आज भी इसे एलआइसी बिल्डिंग के नाम से जाना जाता है।

History of civilizations suppressed in Lakshagriha

 


Uttarakhand has a deep connection with ancient civilizations.  There are many such places where the ruins of historical and mythological period are scattered.  One of them is the Lakhamandal village of Jaunsar-Bawar in Dehradun district.  It is believed that during the Dwapar era, Duryodhana built the Lakshagraha here to burn the five Pandavas and their mother Kunti alive.  Hundreds of Shivling and rare statues found here during the excavation of ASI testify to this.  Let go!  Let us also travel to Lakhmandal...

History of civilizations suppressed in Lakshagriha

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Dinesh Kukreti

The Lakhamandal village of Jaunsar-Bawar in Dehradun district, situated at the northern end of the Yamuna river, holds special significance not only from the historical point of view.  Located at an altitude of 1372 meters above sea level, Lakhamandal village is 128 km from Dehradun, 60 km from Chakrata and 75 km from the Mussoorie Queen of the mountains.  The antiquity of the Lakhamandal is linked to the Kaurava-Pandavas.  It is believed that the Kauravas built the Lakshgriha (house of lac) here to burn the Pandavas and their mother Kunti alive.  It is said that that historical cave still exists in Lakhmandal, through which the Pandavas came out safely.  After this, the Pandavas spent a month in 'Chakranagari', which is called Chakrata today.


Apart from the Lakhamandal, mythological Shivling and idols found during excavations at Hanol, Thana and Mandrath are witnesses that the Pandavas resided in this area.  It is said that the Shivalinga established by Yudhishthira during the Pandavas' unknown exile in the courtyard of the Laksheshwar temple at Lakhamandal is still present.  In front of this linga are the idols of two gatekeepers, who stand facing west.  One of these hands is chopped off.  The Laksheshwara temple dedicated to Shiva is a Nagara style temple built in the 12–13th century.  Chaglesh and Princess Ishwara's commendation (fifth-sixth century) is mentioned in the records received here.


 

It is known from this that the antiquities of this place are anterior to the present temple and the antiquity of the temple goes back to the fifth-sixth century.  The praise of Princess Iswara also confirms the construction of a Shiva temple here.  Dozens of mythological miniature pagoda, historical and ancient sculptures located in the temple complex attract tourists.  The temple has a large verandah, in the middle of which a large Shivalinga sits on the platform.  Seeing all such mysteries, the Archaeological Survey of India (ASI) has declared Lakhmandal and Hanol as historical heritage and has taken the responsibility of preserving the ancient temples located here.  ASI found a statue of Lord Vishnu and three Shivalingas during the excavation of the damaged wall near the temple area in 2006, which are preserved in the department's museum.


Princess Iswara built the temple

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From the remains found in the Lakhamandal, it is known that there must have been many temples here.  A sixth-century inscription found from the Lakeshwar complex mentions that Princess Ishwara, belonging to the royal family of Sinhapur, built the Lakeshwar temple to commemorate her late husband Chandragupta, the son of the King of Jalandhar.  The abrasion of the word Laksheshwar later became 'Lakeshwar'.  The word 'Lakha' was derived from Lakeshwar.  According to Kautilya's Arthashastra, at that time, the province or district which paid the tax was called Mandal.  Therefore, by adding the word 'Mandala' with 'Lakha', it became lacquered.


Circle of millions of idols

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One of the reasons for the name of the area to be called Lakhamandal is that millions of Shiva idols are found here.  Rare sculptures of thousands of years old come out here only after digging two feet.  'Lakh' means lots and mandal, a place where many temples have habitable sites with a particular gender.  Probably that is why later on it came to be known as Lakhamandal.


 

New dimensions to ancientness

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In the scientific cleaning done by ASI, a large number of architectural structures were found here.  Among them, the remnants of the fifth-sixth century flat roof are prominent.  This discovery gives a new dimension to the antiquity of the temple structures of the central Himalayas.


Medieval art tradition

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The sculpture panels of Uma-Maheshwar, sculpted from Ganesha, Karthikeya and Shivaganas, obtained from the Lakhamandal are unique examples of art.  The Shiva Tandava sculptures here connect this northern part of the country to the south.  The medieval art tradition seems to have developed throughout the country.  In the dance posture of Tandava, Shiva and tapasyarat are finding expression in the sculptures of Parvati, Ganesh and Karthikeya Lakhamandal.


Parvati's footprints on the rock

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The peculiarity of the temple is that there are footprints on a rock inside it, which are believed to be the footprints of Goddess Parvati.  Statues of Lord Kartikeya, Lord Ganesha, Lord Vishnu and Hanuman are also installed inside the temple.


James Bailey Fraser discovered

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The antiquities of Lakhamandal were first brought to light by James Bailey Fraser in the year 1814–15.  In his book, 'The Himalaya Mountains', he has mentioned the temple of five Pandavas, the temple of Maharishi Vyas and Parasurama, the ancient Kedar temple and some idols besides the Shiva temple at this site.  Based on the archaeological evidence, it is known that Lakhamandal has been inhabited in ancient times.  Remnants of megalithic culture derived from village Lavadi confirm this concept.  The remnants of this culture throw particular light on the then deceased rituals.  In this method, dead bodies or remains were kept in a coffin made of stones.


 

Wonderful idol craft with vastu

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Laxeshwar Temple is a mixture of attractive architecture and rustic and old-fashioned atmosphere.  Along with the temple architecture, the Lakhamandal also holds a special place in the sculpture.  The life-size statue of Jai-Vijay engraved on the stone in about the seventh century is an example of sculpture in the region.  Apart from this, idols of Shiva-Parvati, Ganga-Yamuna and other deities also reflect the uniqueness of the Lakhamandal sculpture.


 

Shivalinga shows its own image

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The Shivalinga situated in the Laksheshwar temple complex is made of graphite and starts glowing after offering water.  During this, the image of the person is clearly visible in it.  It is believed that this Shivalinga is established in the Lakhamandal from the time of creation.


Different color of each Shivling

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A specialty of the Lakhamandal is that the Shivling obtained here is of different colors.  These are, of course, thousands of years old, but they have not suffered any damage from sight and being below ground.



Friday, 18 September 2020

लाक्षागृह में दबा सभ्यताओं का इतिहास

 

त्तराखंड का आदिकालीन सभ्यताओं से गहरा नाता रहा है। यह ऐसे अनेक स्थान मौजूद हैं, जहां एतिहासिक एवं पौराणिक काल के अवशेष बिखरे पड़े हैं। इन्हीं में एक स्थल है देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गांव। माना जाता है कि द्वापर युग में दुर्योधन ने पांचों पांडवों एवं उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए यहां लाक्षागृह का निर्माण किया था। एएसआइ को खुदाई के दौरान यहां मिले सैकड़ों शिवलिंग व दुर्लभ मूर्तियां इसकी तस्दीक करती हैं। चलिए! हम भी लाखामंडल की यात्रा करें...

लाक्षागृह में दबा सभ्यताओं का इतिहास
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दिनेश कुकरेती
मुना नदी के उत्तरी छोर पर स्थित देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गांव एतिहासिक ही नहीं पौराणिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। समुद्रतल से 1372 मीटर  की ऊंचाई पर स्थित लाखामंडल गांव देहरादून से 128 किमी, चकराता से 60 किमी और पहाड़ों की रानी मसूरी से 75 किमी की दूरी पर है। लाखामंडल की प्राचीनता को कौरव-पांडवों से जोड़कर देखा जाता है। मान्यता है कि कौरवों ने पांडवों व उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए ही यहां लाक्षागृह (लाख का घर) का निर्माण कराया था। बताते हैं कि लाखामंडल में वह एतिहासिक गुफा आज भी मौजूद है, जिससे होकर पांडव सकुशल बाहर निकल आए थे। इसके बाद पांडवों ने 'चक्रनगरीÓ में एक माह बिताया, जिसे आज चकराता कहते हैं। 


 

लाखामंडल के अलावा हनोल, थैना व मैंद्रथ में खुदाई के दौरान मिले पौराणिक शिवलिंग व मूर्तियां गवाह हैं कि इस क्षेत्र में पांडवों का वास रहा है। कहते हैं कि पांडवों के अज्ञातवास काल में युधिष्ठिर ने लाखामंडल स्थित लाक्षेश्वर मंदिर के प्रांगण में जिस शिवलिंग की स्थापना की थी, वह आज भी विद्यमान है। इसी लिंग के सामने दो द्वारपालों की मूर्तियां हैं, जो पश्चिम की ओर मुंह करके खड़े हैं। इनमें से एक का हाथ कटा हुआ है। शिव को समर्पित लाक्षेश्वर मंदिर 12-13वीं सदी में निर्मित नागर शैली का मंदिर है। यहां प्राप्त अभिलेखों में छगलेश एवं राजकुमारी ईश्वरा की प्रशस्ति (पांचवीं-छठी सदी) का उल्लेख हुआ है। 


 

इससे ज्ञात होता है कि इस स्थान के पुरावशेष वर्तमान मंदिर से पूर्वकाल के हैं और मंदिर की प्राचीनता पांचवीं-छठी सदी तक जाती है। राजकुमारी ईश्वरा की प्रशस्ति से भी यहां एक शिव मंदिर के निर्माण की पुष्टि होती है। मंदिर परिसर में स्थित दर्जनों पौराणिक लघु शिवालय, एतिहासिक और प्राचीन मूर्तियां पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं। मंदिर में एक विशाल बरामदा है, जिसके मध्य में एक बड़ा शिवलिंग मंच पर विराजमान है। ऐसे ही तमाम रहस्यों को देखते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआइ) ने लाखामंडल और हनोल को ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर यहां स्थित प्राचीन मंदिरों केसंरक्षण की जिम्मेदारी ली हुई है। एएसआइ को 2006 में मंदिर क्षेत्र के पास क्षतिग्रस्त दीवार की खुदाई केदौरान भगवान विष्णु की एक मूर्ति और तीन शिवलिंग मिले थे, जो विभाग के संग्रहालय में संरक्षित हैं।




राजकुमारी ईश्वरा ने बनाया था मंदिर
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लाखामंडल में मिले अवशेषों से ज्ञात होता है कि यहां बहुत सारे मंदिर रहे होंगे। लाक्षेश्वर परिसर से मिले छठी सदी के एक शिलालेख में उल्लेख है कि सिंहपुर के राजपरिवार से संबंधित राजकुमारी ईश्वरा ने अपने दिवंगत पति चंद्रगुप्त, जो जालंधर नरेश का पुत्र था, की सद्गति के लिए लाक्षेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। लाक्षेश्वर शब्द का अपभ्रंश कालांतर में 'लाखेश्वरÓ हो गया। लाखेश्वर से ही 'लाखाÓ शब्द लिया गया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार उस समय जो प्रांत अथवा जिले कर की अदायगी करते थे, उन्हें मंडल कहा जाता था। इसलिए 'लाखाÓ के साथ 'मंडलÓ शब्द जुड़कर यह लाखामंडल हो गया।



लाखों मूर्तियों का मंडल
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क्षेत्र का नाम लाखामंडल पडऩे की एक वजह यह भी हो सकती है कि यहां शिव की लाखों मूर्तियां मिलती हैं। दो फीट की खुदाई करने पर ही यहां हजारों साल पुरानी दुर्लभ मूर्तियां निकल आती हैं। 'लाखÓ यानी बहुत सारे और मंडल का मतलब ऐसी जगह, जहां बहुत सारे मंदिरों का एक विशेष लिंग के साथ वास स्थल हो। संभवत: इसीलिए कालांतर में इसे लाखामंडल कहा जाने लगा।



प्राचीनता को मिले नए आयाम
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एएसआइ की ओर से की गई वैज्ञानिक सफाई में यहां बड़ी संख्या में वास्तु संरचनाओं के खंड प्राप्त हुए। इनमें पांचवीं-छठी सदी की सपाट छत के अवशेष प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। यह खोज मध्य हिमालय की मंदिर संचनाओं की प्राचीनता को नए आयाम प्रदान करती है।  



मध्यकाल की कला परंपरा
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लाखामंडल से प्राप्त उमा-महेश्वर का मूर्ति पैनल, गणेश, कार्तिकेय और शिवगणों की मूर्तियां कला का अनुपम उदाहरण हैं। यहां की शिव तांडव मूर्तियां देश के इस उत्तरी भाग को दक्षिण से जोड़ती हैं। प्रतीत होता है कि मध्यकाल की कला परंपरा पूरे देश में विकसित हो चुकी थी। तांडव की नृत्य मुद्रा में शिव एवं तपस्यारत पार्वती, गणेश और कार्तिकेय लाखामंडल की मूर्तिकला में अभिव्यक्ति पा रहे हैं।



चट्टान पर पार्वती के पैरों के निशान
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मंदिर की विशिष्टता यह है कि इसके अंदर एक चट्टान पर पैरों के निशान मौजूद हैं, जिन्हें देवी पार्वती के पैरों के निशान माना जाता है। मंदिर के अंदर भगवान कार्तिकेय, भगवान गणेश, भगवान विष्णु और हनुमान जी की मूर्तियां भी स्थापित हैं।



जेम्स बेली फ्रेजर ने की थी खोज
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लाखामंडल के पुरावशेषों को सबसे पहले वर्ष 1814-15 में जेम्स बेली फ्रेजर प्रकाश में लाए थे। अपनी पुस्तक 'द हिमालया माउंटेंसÓ में उन्होंने इस स्थल पर शिव मंदिर के अलावा पांच पांडवों के मंदिर, महर्षि व्यास व परशुराम का मंदिर, प्राचीन केदार मंदिर और कुछ मूर्तियों का उल्लेख किया है। पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर ज्ञात होता है कि लाखामंडल प्राचीन काल में आबाद रहा है। ग्राम लावड़ी से प्राप्त महापाषाण संस्कृति के अवशेष इस अवधारणा को पुष्ट करते हैं। इस संस्कृति के अवशेष तत्कालीन मृतक संस्कारों पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हैं। इस पद्धति में पत्थरों से निर्मित ताबूत में मृत शरीर अथवा अवशेषों को रखा जाता था।



वास्तु के साथ अद्भुत मूर्ति शिल्प
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लाक्षेश्वर मंदिर आकर्षक वास्तुकला और गंवई एवं पुराने जमाने के वातावरण का मिश्रण है। मंदिर वास्तु के साथ-साथ मूर्ति शिल्प में भी लाखामंडल विशिष्ट स्थान रखता है। पत्थर पर लगभग सातवीं सदी में उत्कीर्ण जय-विजय की आदमकद प्रतिमा इस क्षेत्र के मूर्तिशिल्प का उदाहरण है। इसके अलावा शिव-पार्वती, गंगा-यमुना और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी लाखामंडल के मूर्तिशिल्प की विशिष्टता को परिलक्षित करती हैं।



शिवलिंग में दिखती है अपनी ही छवि
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लाक्षेश्वर मंदिर परिसर में स्थित शिवलिंग ग्रेफाइट का बना हुआ है और जल अर्पित करने पर चमकने लगता है। इस दौरान इसमें व्यक्ति की छवि साफ नजर आती है। मान्यता है कि सृष्टि के निर्माण काल से ही यह शिवलिंग लाखामंडल में स्थापित है।

हर शिवलिंग का अलग रंग
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लाखामंडल की एक खासियत यह भी है कि यहां प्राप्त शिवलिंग अलग-अलग रंग के हैं। यह बेशक हजारों साल पुराने हैं, लेकिन देखने से और जमीन के नीचे होने से इनको कोई भी नुकसान नहीं पहुंचा।



Scotland's bagpiper created in Uttarakhandi folk

Scotland's bagpiper created in Uttarakhandi folk
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Dinesh Kukreti
The bagpipe that the British brought here from Scotland during the period of British rule, in the form of Mashkabeen (Mashkabaja, Beenbaja, Morbiyan), was so ingrained in Uttarakhandi as if it were born here.  The bagpipe is the national instrument of Scotland, but without it the list of folklores of Uttarakhand now seems incomplete.  In Manglik events, if there is no connection with the drum-damau, then the Sangat does not get perfection.  When the player plays folk songs such as 'Bedu Pako Baramasa', 'Tuck-Taka-Tuck Kamala', 'Calle o'clock Muruli O Baina high-altitude Dany Ma', the steps start to sound automatically.

The soldiers who went to World War I first learned this art
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The British Army first brought the bagpipe to the hilly areas of Uttarakhand in the 19th century.  However, it gained popularity in the 20th century.  In fact, the Garhwali-Kumaoni soldiers who took part in the First World War learned to play the bagpipe there and brought this art with them here.  In the Second World War too many Garhwali soldiers were trained to play bagpipe.  These soldiers, after coming home from the army, made this instrument in the form of a muslin, a part of ceremonies like marriage.  Later, the induction of muskabeen into the Indian Army increased its attraction.  Gradually this instrument became the identity of Uttarakhandi folk culture.

The effect of the teachings of the British is seen
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Even today, the impact of British teaching can be felt clearly in the waves of mushrooms.  In the remote mountain region, old players can be heard playing Scottish tunes on a mushroom.  However, they have no idea where they are playing the tune.  Well!  The origins of the mushroom, wherever it is, but the way the art of playing it went on from generation to generation in Uttarakhand, it distinguished it as the folklore of Uttarakhand.

The lack of a melodious instrument played by the mushroom
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People of folk music say that the traditional musical group of Uttarakhand included Dhol-Damau, Nagara, Damru, Thali, Hudka, etc., but there was no melodious instrument playing with the sound.  The tunes filled the gap.  Today, the beauty of the footsteps of those who dance in the Choliya dance in Kumaon and Pauna dance in Garhwal is further enhanced by the melodious tunes.  From auspicious events like marriages to festivals, festivals, kauthig, etc., on occasions of euphoria, its notes dissolve.

No response to Sialkot's investigation
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There are several mushroom factories in Meerut and Jalandhar in the country.  A mushroom costs from one thousand to four and a half thousand rupees.  However, even today the best mushrooms are manufactured in Sialkot, Pakistan.  But, Uttarakhand is dominated by Meerut and Jalandhar.

Training of mushrooms are being conducted in the young guru-disciple tradition
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The Guru-Shishya Tradition Scheme has been started by the Uttarakhand Culture Department for the preservation and promotion of folklore.  The mushroom is also part of this plan.  The good thing is that under this scheme many young artists are taking training from senior artists.

A musical instrument with five pipes is a mushroom
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Mashqabeen is a wind instrument.  It is played with the help of Funk.  It consists of five pipes.  One of these pipes is filled with air by blowing in a leather flash.  The second pipe (chandal) with holes is controlled with fingers of both hands.  Whereas, the other three pipes placed on the shoulder produced a sweet sound.