Saturday, 5 September 2020

Kushan carpet antiquities are scattered in Virbhadra

 

Kushan carpet antiquities are scattered in Virbhadra

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Dinesh Kukreti

After joining the list of 11 national monuments of the archaeological site excavated by the Archaeological Survey of India (ASI) near the ancient Shree Veerabhadreshwar temple situated on the banks of the Ganges and Rambha rivers near Pashulok in Rishikesh, the pilgrimage has now got historical recognition.  is.  In the Puranas, King Veerakhadreshwar Mahadev temple is associated with the demolition of King Daksha Prajapati.  From the year 1973 to 1975 near the same temple, excavation was done by ASI under the supervision of archaeologist NC Ghosh.  During this period, a Shaiva temple, huge havan pool and the remains of ancient buildings were found here.

In addition, three cultural stages, from the first century to the eighth century, were found in the Kushan pottery, the remains of brick, coins and burnt bones of animals.  These ancient relics were preserved here by ASI.  Around 2000, these sheds were better protected and a tin shed was constructed here by ASI.  Now this excavation site has been included in the list of 11 national monuments by the Central Government.  With this initiative, this place will not only become a center of tourist attraction, it will also prove to be important for the students and researchers of history.

The remains of three periods were found in the excavation

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In the initial phase, the remains of the wall built of raw bricks were found.  Which are from the first century to the third century.

In the middle phase, the floor built from pieces of ripe bricks and the remains of the Shaiva temple were found.  It dates from the fourth century to the fifth century.

Residential structures built of baked bricks came to light in the final (later) phase.  It dates from the seventh century to the eighth century. 



More than two thousand years old history

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The history of the Virbhadra region is more than two thousand years old.  The objects found in the excavation here show that Virbhadra was a historical and mythological city.  They were inscribed 'Bhadra Mitrasya Droni Ghata' (Bhadramitra, the guard of this ghat on behalf of Droni (Doon)).  The Veerabhadreshwar Temple was built from the north Kushan period walls and had a Shivalinga on its Bhadrapith.  According to the Puranas, Shiva's Bhairav ​​Veerabhadra himself established this Shivling.  Looking at the foundation of the excavated place, it can be said that there must have been a huge Shiva temple with many chambers.  At present, only the foundation is safe in the name of the remains of the temple here.  The platform of Yagya, the place of Nandi bull, idols of Lord Shiva and Gods and Goddesses have been taken under the patronage by the Archaeological Department.


 

Veerabhadra region was famous Shaivatirth till North Gupta period.

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Earlier Virbhadra region was not like it is today.  Today there is Seema Dental College, many ashrams, Tehri is the settlement of the displaced.  It was the famous Shaivatirtha in the Gupta period and the recognition remained till 800 AD i.e. the later Gupta period.  When the Chinese traveler Hieun Tsang (Yuwan-chuan) was visiting Hieun Tsang Mayapuri (Mo-yu-lo), at that time there was also a metropolis with a monastery temple of the followers of Buddhism and Hinduism.



Shiva pacified Virbhadra's wrath here

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Legend has it that angry Sati sacrificed his life in the Yagna Kund on behalf of King Daksha not being invited to Lord Shiva in the Virat Yagya organized at Kankhal (Haridwar).  When Lord Shiva came to know about this, he became enraged and broke his case and gave birth to a Gan called Veerabhadra.Virabhadra destroyed the yajna of King Daksha.  Then Lord Shiva pacified the wrath of Virbhadra on the banks of the Ganges in Rishikesh and established him in a lingam form here.  Later, this Linga became famous as Virabhadra Mahadev.  In one part (60 percent) of this linga is Shiva and in the other part (40 percent) Virabhadra.

Rambha meets Ganga near Virbhadra

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The Rambha River flowing in the Tirthanagari is mentioned in Kedarkhand of 'Skanda Purana'.  The river originates from Rambha Kund (Sanjay Lake) near Kale's slope and joins the Ganga near the Virbhadra Mahadev Temple at Virpur Khurd, covering a distance of four to five km.  There was an ancient fort at the confluence of the Rambha and the Ganges river.  The Veerabhadreshwar Temple is built on top of its remains.  The temple is run by the Niranjani Arena.


 


वीरभद्र में बिखरे कुषाण कालीन पुरावशेष

 

वीरभद्र में बिखरे कुषाण कालीन पुरावशेष

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दिनेश कुकरेती
ऋषिकेश में पशुलोक के समीप गंगा व रंभा नदी के तट पर स्थित प्राचीन श्री वीरभद्रेश्वर मंदिर के पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआइ) की ओर से उत्खनित पुरास्थल के 11 राष्ट्रीय स्मारकों की सूची में शामिल होने के बाद अब तीर्थनगरी को ऐतिहासिक पहचान भी मिल गई है। पुराणों में श्री वीरभद्रेश्वर महादेव मंदिर के राजा दक्ष प्रजापति के यज्ञ विध्वंस से जुड़े होने का उल्लेख है। इसी मंदिर के निकट वर्ष 1973 से 1975 तक एएसआइ की ओर से पुरातत्वविद् एनसी घोष की देख-रेख में उत्खनन का कार्य किया गया। इस दौरान यहां एक शैव मंदिर, विशाल हवन कुंड और प्राचीन भवनों के अवशेष प्राप्त हुए। 


 

इसके अलावा तीन सांस्कृतिक चरणों, जिनमें पहली सदी से आठवीं सदी के बीच के कुषाण कालीन मृदभांड, ईंट, सिक्के और पशुओं की जली हुई अस्थियों के अवशेष प्राप्त हुए। इन प्राचीन अवशेषों को एएसआइ ने यहां संरक्षित किया था। वर्ष 2000 के आसपास इन अवशेषों को बेहतर ढंग से सुरक्षित कर एएसआइ की ओर से यहां टिन शेड का निर्माण किया गया। अब इस उत्खनन स्थल को केंद्र सरकार ने 11 राष्ट्रीय स्मारकों की सूची में शामिल किया है। इस पहल से यह स्थल पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र तो बनेगा ही, इतिहास के छात्रों व शोधकर्ताओं के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा।



उत्खनन में मिले थे तीन कालखंडों के अवशेष
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-प्रारंभिक चरण में कच्ची ईंटों से निर्मित दीवार के अवशेष प्राप्त हुए। जो कि पहली सदी से तीसरी सदी तक के हैं।
-मध्य चरण में पकी हुई ईटों के टुकड़ों से निर्मित फर्श व शैव मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए। यह चौथी सदी से लेकर पांचवीं सदी तक के हैं।
-अंतिम (परवर्ती) चरण में पकी हुई ईंटों से निर्मित आवासीय संरचनाएं प्रकाश में आईं। यह सातवीं सदी से लेकर आठवीं सदी तक के हैं।



दो हजार साल से अधिक पुराना इतिहास
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वीरभद्र क्षेत्र का इतिहास दो हजार साल से भी अधिक पुराना है। यहां खुदाई में मिली वस्तुओं से पता चलता कि वीरभद्र एक एतिहासिक एवं पौराणिक नगर था। इन पर 'भद्र मित्रस्य द्रोणी घाटेÓ (द्रोणी (दून) की ओर से इस घाट का रक्षक भद्रमित्र था) खुदा हुआ था। वीरभद्रेश्वर मंदिर उत्तर कुषाण कालीन इंटिकाओं से निर्मित था और इसकी भद्रपीठ पर शिवलिंग विराजमान था। पुराणों के अनुसार स्वयं शिव के भैरव वीरभद्र ने इस शिवलिंग की स्थापना की थी। खुदाई वाले स्थान की बुनियाद को देखकर कहा जा सकता है कि यहां कई कक्षों वाला विशाल शिव मंदिर रहा होगा। वर्तमान में यहां मंदिर के अवशेषों के नाम पर केवल बुनियाद ही सुरक्षित है। यज्ञ का चबूतरा, नंदी बैल का स्थान, भगवान शिव और देवी देवताओं की मूर्तियों को पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में ले लिया है।


उत्तर गुप्तकाल तक प्रसिद्ध शैवतीर्थ रहा वीरभद्र क्षेत्र
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पहले वीरभद्र क्षेत्र वैसा नहीं था, जैसे आज है। आज यहां सीमा डेंटल कॉलेज है, कई आश्रम हैं, टिहरी विस्थापितों की बस्ती है। गुप्तकाल में यह प्रसिद्ध शैवतीर्थ था और मान्यता इसकी 800 ईस्वी यानी उत्तर गुप्तकाल तक बनी रही। जिस समय चीनी यात्री ह्वेनसांग (युवान-च्वांङ) ह्वेनसांग मायापुरी (मो-यू-लो) का भ्रमण कर रहा था, उस समय यहां भी बौद्ध व ङ्क्षहदू धर्म के अनुयायियों का मठ-मंदिर युक्त एक महानगर था।

शिव ने यहां शांत किया था वीरभद्र का क्रोध
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पौराणिक कथा है कि राजा दक्ष की ओर से कनखल (हरिद्वार) में आयोजित विराट यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित न किए जाने से नाराज सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। भगवान शिव को जब इस बात का पता चला तो वह कुपित हो गए और अपना केस तोड़कर वीरभद्र नामक गण की उत्पत्ति की।

वीरभद्र ने राजा दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया। तब भगवान शिव ने ऋषिकेश में गंगा तट पर वीरभद्र के क्रोध को शांत कर उन्हें यहां लिंग रूप में स्थापित किया था। कालांतर में यह लिंग वीरभद्र हादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस लिंग के एक हिस्से में (60 प्रतिशत) शिव हैं और दूसरे हिस्से में (40 प्रतिशत) वीरभद्र।

वीरभद्र के पास गंगा में मिलती है रंभा
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तीर्थनगरी में बहने वाली रंभा नदी का 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में जिक्र आया है। यह नदी काले की ढाल के पास रंभा कुंड (संजय झील) से निकलती है और चार-पांच किमी की दूरी तय कर वीरपुर खुर्द स्थित वीरभद्र महादेव मंदिर के पास गंगा में मिलती है। रम्भा व गंगा नदी के संगम पर प्राचीन दुर्ग था। इसी के अवशेषों के ऊपर वीरभद्रेश्वर मंदिर निर्मित है। मंदिर का संचालन निरंजनी अखाड़ा करता है।




Games and barns swing on whose songs

Dedicated to the popular poet and noted folk singer Jeet Singh Negi of Uttarakhandi folk.  His songs will always haunt the Uttarakhandi folk.

 Games and barns swing on whose songs
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 Dinesh Kukreti
 The pen moved from his hands and the scent of paper songs rose.  Dandi-Kanthi swung when he broke his throat.  On the call of footsteps, the fields and barns started to tremble.  He went ahead and the folk got excited with the smell of the soil.  Poets, lyricists, singers, musicians, theater personalities, dance directors, theatrical directors, dialogues writers, all resembled his stature.  Such a unique personality is that of Jeet Singh Negi, the founder of Garhwali.
 We take you to a time when there was no entertainment except gramophone and radio.  However, this money used to be with the money also.  While radio was a sign of prosperity, gramophone was a luxury.  In the year 1955, Garhwali songs started broadcasting from AIR Delhi.  It was then Jeet Singh Negi who got the credit for being the first song 'Geet Singer' of the radio.  The Tibetans began to tremble in the notes of the folk and the fields and barns rose up.  Lok had found his Messiah.
 Heartfelt voice burst from Negi's throat, 'Thou Holi dandyun maa bira ghasiyari ka maa, maa maa teri streetu mein mi ronu chhaun pardes maa' When the ears of the ghazers fell into their ears, their eyes were blurred.  It is such a classic work in the history of folklore that has crossed the limits of popularity.  In the heart of every Uttarakhandi, the song 'Jeet' started beating.
 It was not the only song to stir up the sea of ​​folk.  Before this, in the year 1949, Negiji had recorded six Garhwali songs from 'Young India' Gramophone Company Mumbai.  At that time, these songs which became the beauty of gramophone, became very popular and were appreciated.  In later years, Negiji became the voice of Uttarakhand.  The reflection of the mountain is reflected in each of his songs.
 Negi ji wrote hundreds of accidental disconnections of the sad Karun life of the migrant hill, which was stricken by lack.  In these, there is an expression of innocent, natural and natural love.  In addition to the songs, Negiji also composed several classics plays.  'Maletha ki kool', 'heavy mistake', 'Jeetu Bagdwal' are his famous plays which have been staged in many cities of the country.  Till the last time his old eyes kept dreaming, of a rich culture, of a prosperous Uttarakhand.  However, in old age, the steps started to stagger, but, the resolution never deterred, the pen did not stop.
 
There was no one like negi
 The leadership of folk singer Jeet Singh Negi played an important role in the cultural activities of Garhwal.  His uniqueness in making and decorating Garhwali songs was recognized not only by Vidyanivas Mishra, the then secretary of Lok Sahitya Samiti Uttar Pradesh, Thakur Jayadev Singh, the then chief producer (music) of All India Radio.  Not only this, the prevalence and popularity of his songs was also certified by the Census Survey Department of India.

 How long will the milk sob
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 Seven years ago, I had the opportunity to interview famous folk singer Jeet Singh Negi.  Probably this was Negiji's last interview.  When the conversation started, Negi started saying, "Where did we want to go and where did we reach."  Where has she lost her apnea (familiarity).  Thought his traditions would prosper in his kingdom.  People's affection for customs will increase.  But here, the opposite Ganges started flowing.  Both art and artists are hurt.  Dudhboli is sobbing, but no one can see her tears.  All are cool in themselves, neither is concerned with culture nor about rites. Ó Saying 'Sur Samrat' Jeet Singh Negi got lost in the depths of the past.
 Now my yearning was increasing, but I did not say anything.  Rather, I dare not say that.  Well!  Negiji broke the silence and started saying, 'It hurts so much, when even close to your loved ones makes you feel worthless.  There is a veil of selfishness on everyone's eyes.  Then whether he is a leader or an officer, nobody has anything to do with Uttarakhand.  Thought that language-culture would be promoted under his rule.  Garhwali-Kumaoni will be honored.  But what happened.  In these ten years, we could not muster the courage to make Garhwali-Kumaoni the second official language.  Neither a concrete culture policy was made nor a film policy.
 Every word of Negiji was hurting like a hammer.  It seemed as if Uttarakhand itself is expressing its pain.  He said, 'I never thought of earning money.  My aim has always been the prosperity of folk culture.  However, today culture is considered as a means of entertainment.  Will such a culture survive?
 Negiji songs are also deeply hurt by the increasing disorderliness and lightness.  He says, "Cutting songs off their soil is very damaging to the culture."  Neither serious artists will be born by this nor art will be patronized. मुताबिक According to them, the poet is an age-visionary.  He not only preserves history but also guides the future.
 A series of things continued.  It was also fun.  I was wishing that Negiji kept saying and I would keep on listening.  But, there are restrictions of time.  So, I also asked permission to go.  Slowly, you came out to leave and while leaving, do not forget to say that now you can do something for your culture.  For your language.

 Life circle
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 Name: Jeet Singh Negi
 Date of Birth: 2-2-1925
 Died: Ashadh Krishna Amavasya 21 June 2020
 Parents: Roopdei Devi-Sultan Singh Negi
 Place of Birth: Village Manal Patti Padulsun Pauri Garhwal
 Marital Status: Married Children: One son, two daughters
 Education: Intermediate
 Primary education: Kandara, Pauri Garhwal
 Middle: Memio, Myanmar
 Matriculation: Government College Pauri Garhwal
 Intermediate: DAV College Dehradun
 Residence: 108/12, Dharampur Dehradun

 Compositions (in Garhwali)
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 Published
 Geet Ganga: Song Collection
 Jaunal Magari: Song Collection
 Chham Gungru Bazla: Song Collection
 Maletha's Cool: Historical Song Drama
 Massive mistake: social drama

 Unpublished
 Jeetu Bagdwal: Historical Songs
 Raju Postman: Ekanki
 Rami: song play
 Pativrata Rami: Hindi drama
 Raju Postman: Ekanki Hindi adaptation

Staged drama
Heavy mistake: In the year 1952, under the aegis of Garhwal Bhatru Mandal Mumbai, this Garhwali drama was successfully staged.  This was the first major drama of the migrant Garhwalis of Mumbai.  Successful directing and staging of this play from the stage of Himalaya Kala Sangam Delhi in 1954-55.

 Maletha Ki Gool: Staged for the first time in 1970 Dehradun.  Then in 1983 five performances in Dehradun under the auspices of the hill art stage.  Staged 18 times in Chandigarh, Delhi, Tehri, Mussoorie and Mumbai.

 Jeetu Bagdwal: Staged in Dehradun in 1984 under the aegis of the hill art stage.  Eight performances of the drama in 1986 in Dehradun itself.  Four performances again in 1987 in Chandigarh.

 Rami: Successful staging in Narendra Nagar in 1961 on the occasion of Tagore Centenary.  Apart from this, staging in cities like Mumbai, Delhi, Mussoorie, Meerut, Saharanpur etc.

 Raju Postman: Staging of this Hindi-Garhwali mixed unit at Tagore Theater under the aegis of Garhwal Sabha Chandigarh.  Staged seven times in other cities including Moradabad, Dehradun.

 Broadcast from air
 'Jitu Bagdwal' and 'Maletha's Cool' drama broadcast from Akashvani Najibabad.  Since 1954, AIR broadcasts Garhwali songs from Delhi, Lucknow and Najibabad five or six hundred times.
 'Rami' song drama Hindi adaptation of Delhi Doordarshan for the first time
 Demonstration of folk songs and dances from 1950 to now in various cities

 Achievements
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 1. The composer, composer and vocal emperor of various extinct, semi-choreographed tunes of Garhwali folk songs.  Enhanced the melodies of the Uttarakhand family by incorporating the melodious melodies of other hill regions.  Revived ancient, lost and forgotten melodies with their original talent.  The different forms of nature are embodied in his songs like the swirling clouds, the sprinklers, the springs, the springs, the girdle of the birds, the smile of flowers, the tweet of birds.  Like - 'My maita's country neither bass ghoul, nor bass ghooghuti ghou-stare'.  Hearing the melodious notes of Garhwali folk songs emanating from the mouth of Negi, humans and animals also forget their destination.
 2. The first Garhwali folk songwriter, who recorded six songs in the first Garhwali folk songs 'His Master's Voice and Angel New Recording'.
 3. Through Garhwali folk songs, the ancient and modern social, political, cultural and religious ideas of Garhwal were associated with the life of the people and expressed them in plays and songs.
 4. For future generation of lyricists, the tone, rhythm, rhythm and melody of Garhwali folk songs paved the way for research.
 5. Through the Garhwali folk songs and plays, guided the creators to their living.  Many of his compositions are also being made today.

 Cultural activities
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 In the year 1942, singing life started with the recitation of Garhwali songs, composed from theatrical forums of Pauri, the cultural capital of Garhwal, since student life itself.  From the very beginning, singing folk songs in catchy melodies became popular.

 - Recording of six Garhwali songs from 'Young India' Gramophone Company Mumbai in the year 1949.  These songs became very popular and were appreciated.

 In the year 1954, he played assistant director in 'Khalifa' movie produced by Mumbai-based film company Movie India.  At the same time, he worked as an assistant director in the film 'Fourteenth Night', which was produced by Mumbai's 'Moon Art Picture'.

 -Also served as Assistant Music Director at National Gramophone Recording Company Mumbai.
 - Lyrics singer of the first batch when Garhwali songs started airing from AIR Delhi in the year 1955.

 Directing colorful programs to give cultural direction to the girl students at Raghumal Arya Kanya Pathshala in Delhi in the year 1955 itself.  In the same year, the leadership of the cultural party under the auspices of the Hill Public Development Committee at the reception of the Chinese delegation in Kanpur.  Apart from this, major contribution to public awareness through Garhwali songs related to progressive and agricultural upliftment in the grand conference of migrant Garhwalis based in Delhi related to Garhwal land reform.

 Directing cultural programs of Saraswati College Delhi in 1955-56.

 The leadership of the Garhwal Group in a cultural festival filled with mountain folklore-dance inaugurated by the then Union Home Minister Pt Govind Ballabh Pant in 1956.  In the same year participated in the singing of religious inspirational songs on the occasion of Buddha Jayanti celebrations in Lansdowne.  Also touring other cities organizing Garhwali folk songs.

 In 1957, Vidyanivas Mishra, Secretary of Lok Sahitya Samithi Uttar Pradesh, invited singing of vocal Garhwali folk songs for special recording, acceptance of songs and their recording.

 Recording of eight Garhwali songs, which were highly popular and appreciated, by themselves singing for HMV and Columbia Gramophone Company in 1957 and 1964.

 - Presentation of hill program on behalf of Garhwal in Lucknow, cultural program organized by Information Department and Public Literature Committee in 1957.  Also actively participated in Garhwali language poetry recitation.

 - Participated in Kavi Sammelan and cultural program in first summer festival in Lansdowne in 1957.  On this occasion, members of the Garhwal Cultural Development Committee were elected.

 - Leadership of Garhwal's folk-dance troupe at the historic Virat Cultural Conference held in Dehradun in 1957.  After that, the art secretary of this institution was elected.

 Organizing and performing folk songs and dances from the stage of mountain cultural conference Dehradun in 1960
 Demonstration of folk songs and dances from the stage of hill cultural conference Dehradun in 1962.

 In 1963, under the auspices of the Harijan Sevak Sangh Dehradun, the unprecedented organizing of folk songs and dances by training mountain child artists for the National Security Fund.  The announcers of this program were also made child actors.

 Directing a panoramic program for Harijan Sevak Sangh in Srinagar Garhwal in 1964.

 - Leadership of Garhwali Cultural Group in the program of folk songs and dance of Uttarakhand under the aegis of Garhwal Bhatru Mandal Mumbai in 1966.

 Decision in colorful event competitions of educational and cultural institutions on the occasion of Mussoorie Autumn Festival in 1970.

 Presentation of cultural programs in Dehradun by its cultural team on the stage of Garhwal Sabha Moradabad in 1972.

 Directed cultural programs by Garhwali artists from 1976 for Garhwal Bhatru Mandal Mumbai.

 Presentation of cultural program by his team for Delhi Doordarshan at the inauguration of Mussoorie TV Tower in 1979.

 -Active part in colorful program on the occasion of centenary celebrations of Central Defense Accounts in 1979.  Presentation of cultural program in the same year by its cultural team on the occasion of Mussoorie Autumn Festival.

 In 1980, under the aegis of the Garhwal Sabha Chandigarh, the leadership of the cultural team in the Tagore Theater and presentation of colorful programs.

 After the formation of the hill art stage in 1982, four performances of cultural programs in Dehradun and four performances of cultural programs on the stage of Garhwal Sabha Chandigarh in the same year.

 Nominated as Secretary of Mountain Arts Forum in 1983.

 Presided over the Garhwali Kavi Sammelan of Garhwali Samaj, Kanpur in 1986.

 - Leadership of Hill Art Forum in 1987 in Allahabad organized cultural event organized by Government of India.

 - Judged in the competition of music, singing, dance and drama held at the National Institute of Dehradun in 1987 for the visually impaired.

 The honor
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 -Raghumal Arya Kanya Pathshala honored in 1955 for cultural programs by Delhi.

 Honored by Akhil Garhwal Sabha Dehradun for song Ganga, the first collection of Garhwali songs in 1956.

 Honored by District Collector Mohammad Butt on the occasion of sports and cultural competition organized by Provincial Defense Team Dehradun in 1956.

 Honored for Garhwali folk music in 1955 towards the Hill Public Development Institute of Delhi.

 Awarded for cultural programs by Saraswati College Delhi in 1956.

 Citation in 1957 by Acharya Narendra Dev Shastri and MP Bhaktadarshan.

 Honored by the cultural cultural conference Dehradun for the colorful programs of folk songs on the occasion of Republic Day in 1958.

 - The title of 'Lokratna' by Sahitya Sammelan Chamoli in 1962.

 Honored by Himalaya Kala Sangam Dehradun for successful staging of 'Maletha ki Kool' drama in 1970.

 Honored by Defense Accounts Recreation Club CDA Dehradun in 1979.

 - Commendation letter from Akashvani Najibabad on passing the folk music auditions in 1980.

 Honored by District Collector Atul Chaturvedi on behalf of Doon Recreation Club on the occasion of Independence Day in 1984.

 'Garh Ratna' by Garhwal Bhatru Mandal Mumbai in 1990
 Academy Award by Uttar Pradesh Sangeet Academy in 1995, 'Dunaratna' by Citizens' Council Institute Dehradun.

 -1999 in Uttarakhand Festival Dehradun 'Milestone' Award.

 First 'Mohan Upreti Folk Culture' Award from Almora Union in 2000.

 -2003 collective civic accolades on behalf of 18 social organizations of Dehradun.

 'Dr. Shivanand Nautiyal Smriti Samman' by Dr. Shivanand Foundation in 2011.

 -2016 'Life Time Achievement' Award in 'Swarotsav' organized by Dainik Jagran

 Engagement
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 -Entertainment Club Pauri-Garhwal
 Himalaya Kala Sangam, Delhi
 -Family Public Welfare Committee, Delhi
 -Garwal Bhatru Mandal, Mumbai
 -Himalaya Kala Sangam, Dehradun
 -Cultural Cultural Conference, Dehradun
 -Cultural Arts Forum, Dehradun
 -Saraswati College, Delhi
 -Shell Suman, Mumbai
 Akhil Garhwal Sabha, Dehradun
 -Garwal Ramlila Council, Dehradun
 -Gwalwal Sahitya Mandal, Delhi
 -Uttar Pradesh Harijan Sevak Samaj, Dehradun
 -Indian Servant Society, Dehradun

 The album
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 -Ravenai Rajula
 - Contribution to Bengali cinema
 Wrote the dialogues and lyrics of 'My Pyari Bawai'.





TENANT














किस्सागोई के क्रम में...


किरायेदार 
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दिनेश कुकरेती
अब तक के जीवन में मैं ज्यादातर समय किरायेदार की भूमिका में ही रहा। पहले परिवार के साथ और बाद में अकेले। कितनी ही जगह। सचमुच किरायेदार होना बडा़ कष्टदायी होता है और मेरे जैसे अंतर्मुखी इन्सान के लिए सुखदायी भी। फिलहाल मैं देहरादून में किरायेदार हूं, भरपूर गुडविल वाला किरायेदार। मालिक मकान मेरे बारे में बहुत सी बातें जानता है और बहुत सी नहीं। शायद जान भी न पाएगा। लेकिन फिलवक्त मुझे दिल्ली की किरायेदारी रह-रहकर याद आ रही है। 
बात 1995 की है। कालेज कंपलीट हो चुका था और कलयुग की तरह सिर पर सवार हो चुका पत्रकार बनने का भूत। हालांकि पत्रकारिता की शुरुआत तो 1991 में ही हो गई थी, लेकिन अब मैं इसमें स्थायी ठौर तलाश रहा था। मन करता था दिल्ली चला जाऊं। दिसबंर के तीसरे हफ्ते की बात होगी। मेरा एक मित्र जो दिल्ली में रहता था, तब कोटद्वार आया हुआ था। मुलाकात हुई तो बातों-बातों में उसने मुझसे भी दिल्ली आने की गुजारिश की। वह रोहिणी सेक्टर-16 में किराये के फ्लैट पर रहता था। कहने लगा रहने की कोई दिक्कत नहीं और मेरा भी साथ हो जाएगा। फिर खर्चे का बोझ भी हल्का रहेगा। मुझे सुझाव पसंद आ गया और उससे 20 जनवरी को दिल्ली पहुंचने का वादा कर दिया। 
अब मैं घर छोड़ने के लिए मन को मजबूत करने लगा और फिर 20 तारीख सुबह दस बजे वाली सोहराबगेट डिपो की बस से दिल्ली रवाना हो गया। सामान के नाम पर मेरे पास एक बडा़ सूटकेस और एक बैग था। कपड़े-लत्ते, बिस्तर-विस्तर सब इन्हीं में थे। शाम पांच बजे के आसपास मैं दिल्ली पहुंचा और फिर उत्तमनगर जाने वाली बस (शायद 883 नंबर) में सवार हो गया। साढे़ छह बजे के आसपास मैं रोहिणी सेक्टर-16 पहुंच चुका था। अंधेर घिर आया था और ठंडी हवाएं चल रही थीं। पास ही एक नाई की दुकान थी, जहां पर पूछताछ में पता चला कि मित्रवर शाम को कहीं निकल गए थे। संभवत: कुछ देर में लौट आएंगे। 
मेरे पास उसकी इंतजारी के सिवा कोई विकल्प नहीं था, सो मैं नाई भाई के आग्रह पर दुकान में ही बैठ गया। कुछ ही देर में तीन युवक वहां पहुंचे। उनसे नाई भाई ने मित्रवर के बारे में कुछ पूछा तो उनमें से एक बोला, वो तो देर में आते हैं। तब तक भाई साहब हमारे रूम में ठहर जाएंगे और मेरा सूटकेस उठाकर जाने लगे। मैं भी बिना कुछ विचार किए उनके साथ हो लिया, यह जाने बगैर कि वो कौन हैं, कहां के हैं और क्या करते हैं। वैसृवसे सच कहूं तो उस समय इससे बेहतर निर्णय लेने की क्षमता मुझमें नहीं थी। 
बहरहाल! अब मैं उनके रूम में था। उन्होंने स्टोव में दाल चढा़ई हुई थी अब उनमें से एक तुरत-फुरत में राई की सब्जी काटने लगा तो एक आटा गूंथने में जुट गया। साथ ही बातचीत का सिलसिला भी चल पडा़। पता चला कि वे गाजियाबाद यूपी के रहने वाले हैं। तब उत्तराखंड नहीं बना था, सो कोटद्वार भी यूपी का हिस्सा हुआ। इस नाते हम सब एक ही प्रांत के हो गए। अब कोटद्वार व गाजियाबाद के बीच की दूरी सिमट गई और हम पडो़सी शहरों के हो गए। रिश्तों में भी अचानक आत्मीयता आ गई। मित्र का कहीं अता-पता नहीं था, लौटेगा भी या नहीं, कुछ भी कहना मुश्किल था। रात के नौ बज चुके थे। तीनों भाई भोजन करने की तैयारी कर रहे थे। सो मुझसे भी बोले, भाई साहब! वो न जाने कब आते हैं, इसलिए आप तो भोजन कर ही लो। हमें भी अच्छा लगेगा।
उनकी बातों में कोई बनावट नहीं थी और रोटी भी उन्होंने चार आदमियों के हिसाब से ही बनाई थी। मैंने भी सुबह से कुछ नहीं खाया था और उस पर थकान से चूर हुआ जा रहा था। हालांकि, एक संस्कारी पहाडी़ की तरह मैंने उनकी बात का विनम्रता पूर्वक इनकार ही में जवाब दिया। लेकिन, वो भी अतिथि सत्कार में पारंगत ठेठ देहाती ठैरे। बोले, भाई साहब! हम पराये हैं क्या, जो ना कर रहे हो। भोजन तो हम साथ ही करेंगे। और...उनको देर भी हो जाए तो चिंता वाली बात नी। चारों भाई यहीं बिस्तर डाल देंगे। अब मैं खुद के वश में नहीं था, सो कोई जवाब दिए बिना चुपचाप थाली ली और भोजन करने लगा। यकीन जानिए, मुझे लग रहा था, जैसे न जाने कितने दिनों बाद खाना मिला है। राई की सब्जी तो...मेरे पास शब्द नहीं हैं उस स्वाद को बयां करने के लिए। अब मेरी चिंता काफी हद तक दूर हो गई थी। लग रहा था अपनों के बीच हूं। 
खैर! साढे़ बजे के आसपास मित्र का पदार्पण हुआ। आते हुए नाई भाई से शायद उसे मेरे पहुंचने की सूचना मिल गई थी, सो वह सीधा भाई लोगों के ठिकाने पर आ पहुंचा। हालांकि, वह यह बात भूल चुका था कि मेरा उससे 20 जनवरी को दिल्ली पहुंचने का कमिटमेंट हुआ था। मुझे देखकर ही उसे यह बात याद आई। उस जमाने में मोबाइल-वोबाइल तो होते थे नहीं, जो आने से पहले मैं उसे इत्तिला करता। बहरहाल! रात चढी़ जा रही थी और भाई लोगों को भी सोने की जल्दी थी। सो मुझसे मुखातिब हो विनम्रता से बोले, भाई साहब! अब आप भी सो जाइए, सुबह मिलते हैं। 
अब मैं मित्रवर के रूम में था। उसने भोजन किया या नहीं, मुझे नहीं मालूम। क्योंकि मेरे पूछने पर उसने भोजन कर आने की बात कही थी। मुझे नींद आ रही थी, इसलिए इस मुद्दे का पटाक्षेप करने में ही बेहतरी समझी और जमीन पर बिस्तर डालकर नींद के आगोश में चला गया। सुबह नींद देर से खुली। रविवार का दिन था, इसलिए मित्रवर को भी शायद बेफ्रिकी थी। लेकिन, मैं बेफ्रिक नहीं था। मुझे काम की तलाश करनी थी। इसलिए नाश्ता करने के बाद मैंने मित्रवर को कुरेदना शुरू कर दिया। उसने आश्वस्त किया कि दो-चार दिन में काम बन जाएगा, बस! हमें अंग्रेजी अखबार में मंगलवार और शनिवार को छपने वाले क्लासीफाइड पर नजर रखनी है। 
अब मैं थोड़ा कम्फर्टेबल फील कर रहा था, सो विषय बदलते हुए लगे हाथ किराया और मालिक मकान के बारे भी पूछ लिया। मित्रवर ने जानकारी दी कि फ्लैट किसी हिमाचली का है, जो प्रकारांतर से उसकी भी रिश्तेदारी में है। लेकिन, उसके दिल्ली से बाहर रहने के कारण किराया बुआ लोग वसूलते हैं। किराया फिलहाल आठ सौ रुपये महीना है, इसलिए हम पर कोई खास बोझ नहीं पड़ने वाला। बीस साल पहले आठ सौ रुपये की रकम कोई छोटी-मोटी रकम नहीं थी, लेकिन मित्रवर के बोझ न पड़ने वाले इशारे से मैं समझ गया कि वह इसे बडी़ रकम क्यों मान रहा है। स्पष्ट था कि किरायेदारी में अब मेरी भी 400 रुपये की हिस्सेदारी हो चुकी थी। यानी अब मैं दिल्ली में किरायेदार होने का तमगा हासिल कर चुका था, जिसे बरकरार रखने के लिए जल्द से जल्द काम तलाशना था। 
अगली सुबह पहला काम मैंने यही किया कि अंग्रेजी अखबार खरीद लाया। मंगलवार का दिन होने के कारण अखबार क्लासीफाइड विज्ञापनों से लबालब था। दोनों ने ऊपर से नीचे तक नजर दौडा़नी शुरू कर दी। दो-तीन विज्ञापन मन मुताबिक मिले, सो दस्तावेजों की फाइल थामी और चल पड़े संबंधित पतों पर भाग्य की परीक्षा लेने। मित्रवर के साथ होने से संबंधित कंपनियों के पते तलाशने को भटकना नहीं पडा़। पर, अफसोस! बात भी नहीं बनी। मित्रवर ने फिर हौसलाफजाई की, टेंशन नहीं यार! इतनी बडी़ दिल्ली है, कल फिर देखते हैं। मैंने भी सहमति में सिर हिलाया और कमरे की राह पकड़ ली। रास्तेभर वो मुझे दिल्ली का भूगोल समझाता रहा और मैं हूं-हां में जवाब देता रहा। रूम में पहुंचते-पहुंचते अंधेरा घिर आया था। खैर! हमने पास ही लगने वाले मंगल बाजार से सब्जी वगैरह खरीदी और पेट पूजा के अनुष्ठान में जुट गए। 
भोजन करने के बाद मित्रवर तो सीधे बिस्तर के हवाले हो गए, मगर मेरी आंखों में नींद नहीं थी। रह-रहकर मन में एक सवाल कौंध रहा था कि आखिर वह कौन सी नौकरी करता है, जिसमें दफ्तर जाने की बाध्यता न हो। और...अगर ऐसा नहीं है तो मित्रवर के दफ्तर न जाने की क्या वजह हो सकती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि महाशय के पास कोई काम ही न हो। आशंका सच निकली तो मेरे भी पैर दिल्ली में जमने से पहले ही उखड़ सकते हैं। पर, उस वक्त सोए हुए व्यक्ति से तो कुछ पूछा नहीं जा सकता था। इसके लिए तो सुबह होने तक इंतजार करना मजबूरी था। 
सुबह नींद जल्दी ही टूट गई। बाहर देखा तो दिल्ली ने कोहरे की चादर ओढी़ हुई थी। हालांकि, मुझे कहीं जाना नहीं था, फिर भी मैं मन ही मन कोहरे के छंटने की कामना कर था। मित्रवर अभी भी निश्चंतता के खर्राटे ले रहे थे, लेकिन मैंने जगाने की चेष्टा नहीं की। खैर! जब महाशय की नींद टूटी, तब तक मौसम खुल चुका था। सो मैंने बिना मुहूर्त के ही सवाल दागा, ड्यूटी जाना है क्या? मित्रवर बोले, पहले वाली कंपनी मनमाफिक नहीं थी, उसे छोड़ दिया। इन दिनों दोपहृर बाद पार्ट टाइम काम कर रहा हूं। साथ ही फुलटाइम की भी खोज जारी है। 
मैंने बात आगे नहीं बढा़ई। कुछ देर की चुप्पी के बाद फिर मित्रवर बोले, यार! थोडी़ देर में किराया दे आते हैं। पर, अभी तो महीना खत्म होने में हफ्ता बाकी है, मैंने कहा। इस पर मित्रवर बोले, इस महीने नहीं दे पाया और पिछले महीने का भी बकाया है। कुछ पैसे तो होंगे ना? इस सवाल का जवाब ना में दे पाना मेरे लिए संभव नहीं था। कारण, मुझे दिल्ली आए हुए अभी तीन दिन ही हुए थे। जाहिर था, खाली तो आया नहीं हूंगा। सो बोला, कितने? पूरे ही दे देते हैं यार! बाकी देख लेंगे, मित्रवर का जवाब था। फिलहाल मेरे सामने कोई विकल्प नहीं था, लिहाजा सोलह सौ रुपये उसके हाथ में थमा दिए। 
भोजन कर हम पैदल ही किराया देने निकल पडे़। मधुवन चौक के पास ही एक सरकारी कालोनी में उसकी बुआ का परिवार रहता था। अजीब सा माहौल था वहां का। किसी ने पानी तक के लिए नहीं पूछा। मुझे तो छोडि़ए, उसे भी नहीं। ऐसे माहौल में पलभर भी वहां ठहरना मेरे लिए असह्य होता जा रहा था। लिहाजा, मैंने उससे चलने का इशारा कर दिया। हालांकि, उसकी नातेदारी का मामला था, लेकिन आत्मसम्मान तो सबका होता है। सो, उसने भी किराया बुआ के हाथ में थमाया और हमने वहां से विदा ली। बस स्टाप के पास  एक स्टाल से हमने अखबार खरीदा और पैदल ही घर की राह पकड़ ली। 
रूम में पहुंचते ही सबसे पहला काम हमने अखबार के पन्ने पलटने का किया और संयोग से रोजी का एक ठौर भी मिल गया। किसी कंपनी के एक साप्ताहिक अखबार का इस्तहार छपा था। मुझे तो अखबार के सिवा कहीं काम करना ही नहीं था, इसलिए लगा जैसे मन की मुराद पूरी हो गई। अगली सुबह मैं मित्रवर के साथ बरफखाने के पास स्थित कंपनी के दफ्तर में इंटरव्यू के लिए मौजूद था। संपादक-कम-मालिक से मुलाकात हुई और 1500 रुपये में बात भी बन गई। उस दौर में भी यह बहुत अच्छी रकम तो नहीं थी, मगर दिल्ली में पैर जमाने का सहारा तो मिल ही गया था। इसलिए मन में संतुष्टि के भाव थे। 
अगली सुबह से नौकरी शुरू हो गई और दो-एक दिन में मित्रवर का भी एक कंपनी में जुगाड़ हो गया। अब हम सुबह चार बजे उठ जाते और ठीक आठ बजे  रैट-पैट होकर बस स्टाप पर होते। मुझे दफ्तर तक तीन बस बदलनी पड़ती। पहली सेक्टर सोलह से मधुवन चौक, दूसरी मधुवन चौक से माल रोड-कैंप और तीसरी कैंप से बरफखाना। किराया सात रुपये बैठता। अब दिल्ली में रहते हुए धीरे-धीरे मुझमें भी चतुराई आने लगी थी। चूंकि, मेरा रूट माल रोड वाला था, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी का भी रूट है, इसलिए खुद को स्टूडेंट शो कर मैं तीन के बजाय एक रुपये का ही टिकट लेने लगा। टिफिन मैं ले जाता था नहीं, इसलिए बेफिक्री रहती थी। शाम को लौटते हुए मुझे सीधे उत्तमनगर वाली बस मिल जाती, सो एक रुपये में मधुवन चौक पहुंच जाता। एक रुपया वहां से कमरे तक पहुंचने में खर्च होता था। लेकिन, डीटीसी की बस में सफर करने के दौरान थोडा़ सतर्क रहना पड़ता, क्योंकि कहीं पर भी टिकट चैकर आ धमकता था। 
एक दिन मेरा भी पाला टिकट चैकर से पड़ गया और मुझे पूरे बीस रुपये का अर्थदंड भुगतना पडा़। दरअसल, हमेशा की तरह उस दिन भी मैंने मधुवन चौक से एक रुपये का ही टिकट लिया था। लेकिन यह बस डीटीसी की थी, जिसे जहांगीरपुरी में टिकट चैकर ने रोक दिया। मैंने चालाक बनने की कोशिश यह कि टिकट चैकर के सामने ही बस से उतर गया, ताकि उसे लगे कि यहीं तक की सवारी है। लेकिन, दुर्भाग्य से वह मेरी स्थिति भांप गया। उसने मुझसे टिकट मांगा तो मैंने एक रुपये का टिकट उसके हाथ में थमा दिया। बस! फिर क्या था, बिना कुछ कहे उसने मेरा बीस रुपये का चालान काट दिया। उस दिन मेरी जेब में मात्र बीस रुपये ही थे, सोचिए उन्हें गंवाकर क्या हालत हुई होगी मेरी। मूड पूरी तरह उखड़ चुका था। 
मैंने आफिस जाने का प्लान कैंसिल कर दिया। रूम में लौटने से कोई फायदा नहीं था, क्योंकि चाभी मित्रवर के पास थी। सो, चालान को जेब में रखकर मैं मुद्रिका में सवार हो गया। इस चालान से उस दिन डीटीसी की बस में मैं कहीं घूमा जा सकता था। मैंने भी यही किया। पूरे दिन प्लस-माइनस मुद्रिका में  दिल्ली घूमता रहा। कुछ खाने-पीने का तो सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि जेब खाली थी। इसका फायदा यह जरूर हुआ कि दिल्ली के बारे में बहुत-कुछ जान-समझ गया। और...हां! इस चालान को अगले माह इसी तारीख पर मैंने फिर इस्तेमाल किया। क्योंकि महीना उसमें ठीक-ठीक पढ़ने में नहीं आ रहा था।
धीरे-धीरे जिंदगी की गाडी़ खिसकने लगी। पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन से भी कुछ पैसे मिल जाते थे। संपर्क बढ़ने पर बडे़ समाचार पत्रों में दफ्तरों में भी आना-जाना हो गया। खासकर राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स व दिल्ली प्रेस के दफ्तर में। एक दिन मित्रवर ने बताया कि वह ऐसे सज्जन को जानता है, जो साहित्यकार टाइप के हैं और उनके संपर्क भी अच्छे हैं। इन सज्जन का नाम उसने जयपाल सिंह रावत बताया। साथ ही इतवार को उनसे  मुलाकात कराने की बात भी कही। मुझे भी लगा कि मुलाकात करने में कोई बुराई नहीं है। मन में गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई कौंधने लगी कि ना जाने किस वेश में नारायण मिल जाएं। फिर क्या था, इतवार को हम उत्तरी पीतमपुरा स्थित उनके ठीये पर जा धमके। 
पहली ही मुलाकात इस कदर आत्मीय रही कि जयपाल दा और उनके परिवार से मेरा मन का रिश्ता जुड़ गया। जयपाल दा ने गढ़वाली में लिखी अपनी कई कविताएं भी इस दौरान सुनाईं। संयोग देखिए कि उनकी कविताएं सुनने वाले पहले गंभीर श्रोता होने का श्रेय भी मुझे ही जाता है। उन दिनों मैंने भी गढ़वाली में लिखना शुरू कर दिया था, इसलिए हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होने के संकेत मिलने लगे। जयपाल दा ने गढ़कवि कन्हैया लाल डंडरियाल से मुलाकात कराने का भी भरोसा दिलाया। वे डंडरियाल जी को पिता तुल्य सम्मान देते थे। उस रात हम उनके यहां से भोजन करके ही रूम पर लौटे। 
धीरे-धीरे मुझे दिल्ली रास आने लगी थी, लेकिन साथ में दिक्कतें भी बढ़नी शुरू हो गईं। तब हमारे जैसे प्रवासियों का चूल्हा केरोसिन से ही जला करता था, लेकिन हमारे पास अब दो-एक दिन के लिए ही केरोसिन बचा था। व्यवस्था ब्लैक में ही हो सकती थी, जो फिलहाल संभव नहीं थी। संयोग देखिए कि रात को न जाने किधर से जयपाल दा रूम में आ गए। मैंने उनके सामने यह चिंता रखी तो बोले, व्यवस्था हो जाएगी, टेंशन लेने की जरूरत नहीं। अगले दिन वे दस लीटर केरोसिन लेकर हाजिर थे। मैंने पैसे का जिक्र छेडा़ तो उन्होंने मुझे चुप करा दिया। उस रात मैं उन्हीं के घर रहा। वहां डंडरियाल जी भी आए हुए थे, सो मुझे भी उनके दर्शनों का सौभाग्य मिल गया। आधी रात तक साहित्यिक चर्चा होती रही। 
अब डंडरियाल जी भी मेरी आत्मीयजनों की सूची में शामिल हो चुके थे। वो जयपाल दा के यहां बराबर आया करते थे। कभी किसी कारणवश नहीं आ पाते तो हम उनके घर चले जाते। तब उनका परिवार गुलाबी बाग में किराये के मकान पर रहता था और उस दौरान वे अपने सुप्रसिद्ध खंडकाव्य नागरजा (भाग तीन) पर काम कर रहे थे। मित्रवर की साहित्य में कोई रुचि नहीं थी, इसलिए वह अपनी ही दुनिया में रहता। नौकरी भी उसकी अटक-अटक कर चल रही थी, इसलिए खर्चा मेरी ही जेब से होने लगा। मुफलिसी के इस दौर का एक फायदा यह जरूर हुआ कि मैंने दिल्ली के बड़े हिस्से को पैदल नाप डाला। बीसियों दफा तो आफिस आना-जाना भी पैदल ही हुआ। एक बार जब जेब पूरी तरह तरह खाली हो गई तो एक दोस्त से पैसे उधार भी मांगने पडे़। 
ऐसी स्थिति में किसी को भी उकताहट होने लगना स्वाभाविक है, पर यहां धैर्य मेरा साथ दे रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढाल सकता हूं। इसके लिए मैं लगातार प्रयास भी कर रहा था। इसी का नतीजा रहा कि कुछ समय बाद नवभारत टाइम्स में नौकरी मिल गई। पगार थी 2700 रुपये। उस दौर के हिसाब से यह बहुत अच्छी रकम थी। हालांकि, इसमें से 800 रुपये तो सीधे किराये के चले जाते थे। इधर, मित्र भी सहयोगी की बजाय बोझ की भूमिका में आ गया था। शायद उसने कोटद्वार अपने घर पर बता दिया था कि दिल्ली बहुत दिनों तक रुकने की इजाजत नहीं देने वाली। 
एक दिन उसने बताया कि पिताजी दिल्ली आने वाले हैं। पर, यह नहीं बताया कि क्यों आने वाले हैं। कुछ दिन वो सचमुच आ भी गए, लेकिन रूम पर नहीं, बल्कि अपनी बहन यानी उसकी बुआ के घर। वहीं उसे भी बुलाया गया। शाम को लौटने पर उसने बताया कि पिताजी ने कोटद्वार में रोड हेड पर दुकान ले ली है, अब वहीं कुछ होगा। साथ ही मुझे सलाह दी कि चाहूं तो फ्लैट अपने पास रख सकता हूं। हालांकि मकान मालिक इसे बचने का मन भी बना रहा है। प्रकारांतर से शायद वह नहीं चाहता कि मैं वहीं रहूं और सच तो यह है कि मैं खुद भी वहां रहने का इच्छुक नहीं था। इसलिए मैंने उससे कह दिया कि मैं अपनी व्यवस्था देख लूंगा। साथ ही उससे यह भी कह दिया कि वह अपना कोई भी सामान रूम में न छोड़े, मुझे किसी भी वस्तु की जरूरत नहीं है। यहां तक मैंने अपनी एक पैंट, एक जोडी़ जूते और एक स्वेटर भी उसी के हवाले कर दी, क्योंकि पिछले कुछ समय से इन्हें वही इस्तेमाल कर रहा था। 
वह यहीं नहीं रुका, सामान वगैरह पैक करने के बाद उसने मुझे रूम से बाहर बुलाया और बोला, यार कुछ पैसे होंगे। मैं चाहकर भी ना न बोल सका और बोला, कितने? पांच सौ हों तो..., उसने कहा। यह राशि बहुत बडी़ और फिर इसे लौटना भी नहीं था। सो, मैंने कहा, पांच सौ तो नहीं, हां! दो सौ दे सकता हूं। उसने दो सौ रुपये भी गिद्ध की तरह लपक लिए। किराया मैं चुकता कर ली चुका था। इसलिए बोरिया-बिस्तर समेटकर उसके दिल्ली छोड़ने से पहले जयपाल दा के घर आ गया। 
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In order of the story ...

Tenant
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Dinesh Kukreti
In my life till now I remained in the role of a tenant for most of the time.  First with family and later alone.  Any place.  To be a real tenant is very painful and also comforting for an introverted person like me.  Currently I am a tenant in Dehradun, a tenant with a lot of goodwill.  The owner knows many things about the house and not many.  May not even know.  But I am missing the tenancy of Delhi at the moment.

It is 1995.  The college was completed and the ghost of becoming a journalist had passed over his head like Kalyug.  Although journalism had started in 1991 itself, but now I was looking for a permanent place in it.  Wanted to go to Delhi  It will be the third week of December.  A friend of mine who lived in Delhi, then came to Kotdwar.  When I met, he requested me to come to Delhi too.  He lived in a rented flat in Rohini Sector-16.  There is no problem to keep saying and I will also be with you.  Then the burden of expenditure will also be lighter.  I liked the suggestion and promised him to reach Delhi on 20 January.

Now I started strengthening my mind to leave the house and then left for Delhi by bus at Sohrabaget depot on the 20th morning.  In the name of luggage I had a big suitcase and a bag.  Clothes, rags, beds and beds were all in them.  Around five o'clock in the evening I reached Delhi and then boarded a bus going to Uttamnagar (probably number 883).  I had reached Rohini Sector-16 around half past six.  The darkness was clouded and cold winds were blowing.  There was a barber shop nearby, where, during interrogation, it was found that the friend had left somewhere in the evening.  Probably will be back in a while.

 I had no choice but to arrange for him, so I sat in the shop at the request of the barber brother.  In a short time three young men arrived there.  When Nai Bhai asked him something about the friend, one of them said, he comes late.  Till then brother will stop in our room and pick up my suitcase and start leaving.  I too joined them without any thought, without knowing who they are, where they belong and what they do.  To tell the truth, I did not have the ability to make better decisions at that time.

However!  Now I was in his room.  He had put lentils in the stove, now one of them started cutting rye vegetables in a hurry, and then got busy kneading a dough.  At the same time, a series of talks also started.  It was learned that he hailed from Ghaziabad UP.  Uttarakhand was not formed then, so Kotdwar also became part of UP.  That is why we all came from the same province.  Now the distance between Kotdwar and Ghaziabad has been reduced and we have become neighbors.  There was a sudden intimacy in relationships.  Friend did not know anywhere, whether he will return or not, it was difficult to say anything.  It was nine in the night.  The three brothers were preparing to have food.  So speak to me too, brother!  Don't know when they come, so you must have food.  We would love it too.

There was no texture in his words and he also made roti according to four men.  I too had not eaten anything since morning and was being crushed with fatigue.  However, like a cultured hill, I responded to him in a polite refusal.  However, he was also a typical rustic villager who was hospitable.  Said, brother!  What are we strangers who are not doing?  We will have food together.  And ... even if they are late, worrying.  The four brothers will put the bed here.  Now I was not in control of myself, so without answering, took the plate quietly and started eating.  Believe me, I was feeling as though food has been received after how many days.  Rye vegetable… I have no words to describe the taste.  Now my anxiety was overcome to a great extent.  It seemed that I am among my loved ones.
Well!  Friend's debut took place around half past two.  While coming, he had received information about my arrival from the barber, so he came directly to the whereabouts of the people.  However, he had forgotten that I had committed to reach Delhi on 20 January.  He remembered this after seeing me.  In those days there were no mobile-mobiles, which I used to inform before coming.  However!  The night was going on and the brothers too were in a hurry to sleep.  So please be polite to me politely, brother!  Now you too sleep, see you in the morning.

 Now I was in the friend's room.  I don't know if he had food or not.  Because when I asked, he said to come for a meal.  I was feeling sleepy, so it was better to intervene in this issue and went to sleep on the bed laying on the ground.  Sleep opened late in the morning.  It was a Sunday, so the friend might also have a friend.  But, I was not carefree.  I had to look for work.  So after having breakfast, I started scolding the friend.  He assured that work will be done in two-four days, that's all!  We have to keep an eye on the classifieds published on Tuesday and Saturday in the English newspaper.

Now I was feeling a little comfortable, so changing the subject, I asked about the rent and the owner's house.  Mitrawar informed that the flat belongs to a Himachali, who is also in a relationship with him.  But, due to his stay outside Delhi, rent buyers are charged.  The rent is currently eight hundred rupees a month, so we do not have to bear any special burden.  Twenty years ago, the amount of eight hundred rupees was not a small amount, but with the helpless gesture of friend, I understood why he is considering it a big amount.  It was clear that now I had a share of Rs 400 in the tenancy.  That is, now I had achieved the title of being a tenant in Delhi, which had to find work as soon as possible to keep it intact.

The next morning the first thing I did was buy an English newspaper.  Being Tuesday, the newspaper was full of classified advertisements.  Both started looking from top to bottom.  Two or three advertisements were received according to the mind, so the file of documents was completed and the related addresses started going to test the fate.  There was no wanderlust in finding addresses of companies related to being with Mitravar.  But, alas!  Did not even talk.  Mitrawar again cheered, not tension man!  Delhi is so big, see you again tomorrow.  I nodded in agreement and took my way to the room.  On the way, he continued to explain the geography of Delhi to me and I replied yes.  Arriving in the room, darkness had fallen.  Well!  We bought vegetables from the nearby Mangal Bazaar and got involved in the ritual of belly worship.

After having food, the friend turned straight to bed, but my eyes were not sleepy.  A question was cropping up in my mind that what kind of job he does, in which there is no compulsion to go to office.  And ... if it is not so, what could be the reason for not visiting Mitwar's office.  Is it not the case that there is no work for the master.  If the apprehension turns out to be true, my feet can be uprooted even before they freeze in Delhi.  But, the person sleeping at that time could not be asked anything.  For this, it was helpless to wait till morning.

Sleep soon broke down in the morning.  When seen outside, Delhi was covered with fog.  Although I had nowhere to go, I still wished to fade the mind.  Mitravar was still snoring with assurance, but I did not try to awaken.  Well!  By the time Monsieur broke down, the weather had opened.  So I shot the question without any time, have you gone to duty?  Mitrawar said, the earlier company was not arbitrary, leaving it.  These days I am working part time after two hours.  Also, fulltime search is on.

I did not proceed.  After a while of silence, the friend said again, man!  They pay rent in a short while.  But, we have yet to finish the month, I said.  Friend said on this, could not give this month and the last month is also due.  Will there be some money?  It was not possible for me to answer no to this question.  Because, it was only three days before I came to Delhi.  Obviously, I would not come empty.  He said, how many?  Dude gives it completely!  The rest will see, Friend's answer was.  At the moment I had no choice, so handed me sixteen hundred rupees in his hand.

After taking food, we went out to pay rent.  His aunt's family lived in a government colony near Madhuvan Chowk.  There was a strange atmosphere there.  No one asked for water.  Leave me, not even him.  It was becoming unbearable for me to stay there even for a moment in such an environment.  So, I made a gesture to walk with him.  Although, it was a matter of his kinship, but everyone has self-respect.  So, he also put the rent in Bua's hand and we left from there.  We bought a newspaper from a stall near the bus stop and caught the path of the house on foot.

On reaching the room, the first thing we did was to turn the pages of the newspaper and, incidentally, one of Rosie's house was also found.  A weekly newspaper publication of a company was printed.  I did not have to work anywhere except in the newspaper, so it felt as if the wish of the mind was fulfilled.  The next morning I was present for an interview with the friend at the company's office near Barfakhana.  Met the editor-cum-owner and became a talk for 1500 rupees.  Even at that time it was not a very good amount, but the support of setting foot in Delhi was found.  Therefore, there were feelings of satisfaction in the mind.

The job started from the next morning and within two days, Mitrawar also got involved in a company.  Now we would get up at four in the morning and would be at the bus stop at eight o'clock at night.  I had to change three buses to the office.  First sector sixteen to Madhuvan Chowk, second Madhuvan Chowk to Mal Road-Camp and third camp to Barfkhana.  The fare was seven rupees.  Now, while living in Delhi, gradually I started getting clever.  Since my route was Mall Road, which is also the route to Delhi University, so by showing myself a student, I started taking tickets for one rupee instead of three.  Tiffin I did not carry, so Befikri lived.  Returning in the evening, I would get a bus directly to Uttamnagar, and would reach Madhuvan Chowk for a rupee.  One rupee was used to reach the room from there.  But, one has to be a little cautious while traveling in the DTC bus, because the ticket checker used to threaten anywhere.

One day, I was also hit by a ticket checker and I had to pay a fine of twenty rupees.  Actually, as usual, on that day I took a ticket of one rupee from Madhuvan Chowk.  But this bus belonged to DTC, which was stopped by the ticket checker in Jahangirpuri.  I tried to be clever that I got off the bus in front of the ticket checker, so that he felt that there was a ride.  But, unfortunately he realized my position.  When he asked for my ticket, I handed him a ticket of one rupee in his hand.  Bus!  What was it then, without saying anything, he cut my twenty rupee invoice.  That day there was only twenty rupees in my pocket, imagine what would have happened to me after losing them.  The mood was completely uprooted.

 I canceled my plan to go to office.  There was no use in returning to the room, as the key was with Mitravar.  So, keeping the challan in my pocket, I rode in the ring.  With this challan, I could roam the DTC bus that day.  I did the same thing.  The whole day roamed Delhi in plus-minus mudrika.  There was no question of eating and drinking something, because the pocket was empty.  The advantage of this is that a lot of knowledge is known about Delhi.  And yes!  I used this challan again on the same date next month.  Because the month was not coming properly in it.
Gradually the vehicle of life began to slide.  Independent writing in newspapers and magazines also fetched some money.  Due to the increase in contact, offices in big newspapers also became known.  Especially in the offices of Rashtriya Sahara, Jansatta, Navbharat Times and Delhi Press.  One day a friend told that he knows such a gentleman, who is of the type of litterateur and his contacts are also good.  He named these gentleman as Jaipal Singh Rawat.  Also said to make Sunday a meeting with him.  I also felt that there is nothing wrong in meeting.  Goswami Tulsidas began to flick in the mind that Narayan should not be found in what disguise.  What was it then, on Sunday, we went to their home in North Pitampura.

The very first meeting was so intimate that my heart's connection with Jaipal da and his family got connected.  Jaipal da also recited many of his poems written in Garhwali during this period.  Incidentally, the credit for being the first serious listener to hear his poems also goes to me.  In those days I too started writing in Garhwali, so there were signs of deepening our friendship.  Jaipal da also assured to meet Gadhakavi Kanhaiya Lal Dandariyal.  He used to give respect to Dandriyal ji as a father.  That night we returned to the room after eating from them.

Gradually, I started coming to Delhi Raas, but problems started increasing along with it.  Then the stove of emigrants like us used to burn with kerosene, but now we had only kerosene left for two days.  The system could have been done in black, which was not possible at the moment.  Look at the coincidence that Jaipal came into the room from where the night is not known.
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