Tuesday, 21 July 2020

अनुपम वास्तु शिल्प : पैठाणी का राहु मंदिर

अनुपम वास्तु शिल्प : पैठाणी का राहु मंदिर
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दिनेश कुकरेती
यह सनातनी संस्कृति की खूबसूरती ही है कि उसमें जिस आदर भाव के साथ देवताओं की पूजा होती है, उसी भाव से असुरों की भी। चलिए! आपको उत्तराखंड के एक ऐसे ही अद्भुत मंदिर के दर्शन कराते हैं, जहां छाया ग्रह माने जाने वाले राहु की पूजा होती है। पौड़ी जिले में थलीसैण ब्लॉक की कंडारस्यूं पट्टी के पैठाणी गांव में स्योलीगाड (रथ वाहिनी) व नावालिका (पश्चिमी नयार) नदी के संगम पर स्थित यह मंदिर संपूर्ण गढ़वाल में अपने अनुपम वास्तु शिल्प के लिए जाना जाता है। गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार से लगभग 150 किमी और जिला मुख्यालय पौड़ी से महज 46 किमी की दूरी पर स्थित यह संभवत: देश का इकलौता मंदिर है, जहां राहु की पूजा होती है और वह भी भगवान शिव के साथ। जनश्रुतियों के अनुसार आद्य शंकराचार्य ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। कहते हैं कि जब शंकराचार्य दक्षिण से हिमालय की यात्रा पर आए तो उन्हें इस क्षेत्र में राहु के प्रभाव का आभास हुआ। इसके बाद उन्होंने पैठाणी में राहु मंदिर का निर्माण शुरू किया। कुछ लोग इसे पांडवों द्वारा निर्मित भी मानते हैं। पर्वतीय अंचल में स्थित यह मंदिर बेहद भव्य एवं खूबसूरत है, जिसके दीदार को देश-दुनिया से पर्यटक एवं श्रद्धालु पैठाणी पहुंचते हैं।


इसी स्थान पर गिरा था राहु का सिर
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पुराणों में कथा आती है कि राहू ने समुद्र मंथन से निकले अमृत का छल से पान कर लिया था। यह देख भगवान विष्णु ने सुदर्शन से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। कहते हैं राहु का कटा हुआ सिर उत्तराखंड के पैठाणी नामक गांव में जिस स्थान पर गिरा, वहां एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ राहु की धड़विहीन मूर्ति स्थापित है। मंदिर की दीवारों के पत्थरों पर आकर्षक नक्काशी की गई है, जिनमें राहु के कटे हुए सिर व सुदर्शन चक्र उत्कीर्ण हैं। इसी वजह से इसे राहु मंदिर नाम दिया गया।


'राष्ट्रकूटÓ पर्वत से बना राठ, 'पैठीनसिÓ गोत्र से पैठाणी
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 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में उल्लेख है कि राष्ट्रकूट पर्वत की तलहटी में रथ वाहिनी व नावालिका नदी के संगम पर राहु ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, जिस वजह से यहां राहु मंदिर की स्थापना हुई।राष्ट्रकूट पर्वत के नाम पर ही यह राठ क्षेत्र कहलाया। साथ ही राहु के गोत्र 'पैठीनसिÓ के कारण कालांतर में इस गांव का नाम पैठाणी पड़ा।


राहु के साथ शिव मंदिर के रूप में भी मान्यता
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 मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्राचीन शिवलिंग और मंदिर की शुकनासिका पर भगवान शिव के तीनों मुखों का अंकन इसके शिव मंदिर होने की ओर इशारा करते हैं। महाशिवरात्रि और सावन के प्रत्येक सोमवार को महिलाएं यहां बेलपत्र चढ़ाकर भगवान शिव की पूजा करती हैं। सबसे अहम बात यह कि यहां पर राहु से संबंधित किसी भी पुरावशेष की प्राप्ति नहीं हुई। वहीं, केदारखंड के कर्मकांड भाग में वर्णित श्लोक 'ú भूर्भुव: स्व: राठेनापुरादेभव पैठीनसि गोत्र राहो इहागच्छेदनिष्ठÓ के अनुसार कई विद्वान इसके राहु मंदिर होने का प्रबल साक्ष्य मानते हैं। मान्यता है कि राहु ने ही इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी।


महेश्वर महावराह जैसी है त्रिमुखी हरिहर की दुर्लभ प्रतिमा
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मंदिर के शिखर शीर्ष पर विशाल आमलसारिका स्थापित है। अंतराल के शीर्ष पर निर्मित शुकनासिका के अग्रभाग पर त्रिमूर्ति का अंकन और शीर्ष में अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक गज व सिंह की मूर्ति स्थापित की गई है। मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर स्थित मंदिरों का शिखर क्षितिज पट्टियों से सज्जित पीढ़ा शैली में निर्मित है। शिवालय के मंडप में वीणाधर शिव की आकर्षक प्रतिमा के साथ त्रिमुखी हरिहर की एक दुर्लभ प्रतिमा भी स्थापित है। प्रतिमा के मध्य में हरिहर का समन्वित मुख सौम्य है, जबकि दायीं ओर अघोर और बायीं ओर वराह का मुख अंकन किया गया है। इस प्रतिमा की पहचान पुरातत्वविद महेश्वर महावराह की प्रतिमा से करते है। अपने आश्चर्यजनक लक्षणों के कारण यह प्रतिमा गढ़वाल हिमालय ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारत की दुर्लभ प्रतिमाओं में से एक है।




आठवीं-नवीं सदी के बीच का प्रतीत होता है मंदिर
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वास्तु शिल्प एवं प्रतिमाओं की शैली के आधार पर पैठाणी का यह शिव मंदिर और प्रतिमाएं आठवीं-नवीं सदी के बीच के प्रतीत होते हैं। मंदिर की पौराणिकता के साथ आज तक कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। हां! मंदिर की ऊपरी शिखा कुछ झुकी हुई जरूर प्रतीत होती है। मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है।


पश्चिमाभिमुखी है यह मंदिर
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पत्थरों से बने एक ऊंचे चबूतरे पर मुख्य मंदिर का निर्माण किया गया है। इसके चारों कोनों पर एक-एक कर्ण प्रासाद बनाए गए हैं। पश्चिम की ओर मुख वाले मुख्य मंदिर की तलछंद योजना में वर्गाकार गर्भगृह के सामने कपिली या अंतराल की ओर मंडप का निर्माण किया गया है। कला पट्टी वेदीबंध के कर्णों पर ही गोल गढ़ी गई है और उत्तर-पूर्वी व दक्षिण कर्णप्रासादों की चंद्रालाओं के मध्य पत्थरों पर नक्काशी की गई है। मंदिर के बाहर व भीतर गणेश, चतुर्भुजी चामुंडा आदि देवी-देवताओं की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं स्थापित हैं।


मूंग की खिचड़ी का लगता है भोग
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ग्रह दोष निवारण में विश्वास रखने वाले लोग बड़ी संख्या में राहु की पूजा के लिए यहां पहुंचते हैं। खास बात यह कि राहु को यहां मूंग की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। भंडारे में श्रद्धालु भी मूंग की खिचड़ी को ही प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।

Kamal da and me

Articles written in the year 2017 after Kamal Da's departure

Kamal da and me
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 Dinesh Kukreti
 "Aakaar", this was the name of Kamal Da's library.  This library used to be on the ground floor of Kamal Da's house located in Gokhale Marg in Kotdwar.  Books adorned in shelves, in which the whole mountain was covered.  To know the country and the world too, all those books were present here, which are loved by a book lover.  Apart from this, all the forgotten memories of the mountain were also cherished here by Kamal Da.  Then Shekhar Bhai (Chandrashekhar Benzwal) used to do hostelings in this library.
It will be a matter of 1989.  In the same year, I joined BCAM first year with student politics and was trying to understand the progressive student movements around the world.  Shekhar Bhai was then a popular student of Kotdwar.  So, it was natural to relate to them.  It was for him that I first stepped on the "shaped" wall.  I loved the world of books so much that the steps often started to take shape.  There was complete freedom to read books there.  However, Kamal Da used to give the book to take home only when he was confident that she would return on time.  Well, if there is a delay of even one day.  I had gained their trust, so I could easily get the book.  I loved to know about the mountain, so most of the books related to the mountain were made by Kamal Da Issues.
If there was a seminar or discussion in the city, Kamal da would have been invited in it.  I would go to these programs to hear something good.  However, being introverted, my role would have been that of the listener.  But, responsible and serious listeners.  Time was passing and my thinking in politics was also maturing.  So, for the sake of expression, it also gradually moved towards journalism.  Then the weekly "Satyapath" was constantly being published from Kotdwar.  Guruji Pitambar Dutt Deorani used to be the editor of "Satyapath".  Now he also became good friends with Kamal Da.  Whenever he met, Kamal Da exclaimed, "What are you doing, goons."  I have no words to express how much affection was in this "goon" word.  My first byline article was published in Satyapath on 23 March 1993.  The title was "Conditions must change".  Entire pages I wrote this article on fellow Bhagat Singh.  Kamal da and late partner Ashwani Kotnala along with Guruji also congratulated me for this article.  Kamal Da even went so far as to say, "Goons write for the Nainital news as well. Your pen has power."  It was due to Kamal Da that I got introduced to Nainital news and I became a regular reader of it.  If I saw an old copy of the Nainital news, then I would not even hesitate to tip it.
One day Kamal Bhai said, "Abe, why don't you take up Nainital news."  I said, "Thinking like this, brother."  He said, "Don't think, give me a hundred rupees, I am going to Nainital."  My problem was solved.  Now I started getting Nainital news regularly.  Meanwhile, I had a tendency towards theater as well.  Connected with the Indian knowledge science group and did plays in a large part of Garhwal.
Then a big development happened in the country.  The government led by Vishwanath Pratap Singh drove Mandal's genie out of the command.  The country became engulfed in the anti-reservation movement.  But this movement started with the protest against reservation in Uttarakhand turned into Uttarakhand state movement.  The round of meetings and seminars has started.  The Mulayam Singh government of Uttar Pradesh has announced to speak out against the newspapers.  One advantage of this was that Amar Ujala and Dainik Jagran became dear to the common man.  Both these newspapers took over the reins of the state movement.  I had become a part of the journalistic fraternity then.  At that time, our meetings were often on the shape of lotus da.
We used to participate in processions and demonstrations under the banner of the Citizen Forum.  Kamal da lived in the role of a pioneer.  Curfew was imposed in the entire Uttarakhand after the Rampur tiraha scandal.  Then we used to stay up at night by changing.  So that the police can not get caught.  When the curfew relaxed, it would quietly reach the shape of the streets and sit on the door from inside and discuss the strategy ahead.  There was dead mortal in the city, it was also necessary to get out of it.
 The date is not well remembered, but the curfew was lifted then.  We sat in shape and decided to take out a silent procession.  For a whole day we kept preparing placards with slogans in the shape.  The next day, all the journalists gathered at Kamal da's residence in the afternoon and took out a silent procession to the tehsil.  Due to this, the current ran in the city and people again started fuming and came out of the houses.  Now I was determined to do journalism in my life.  Hopefully!  Then today's situation would be blamed ...?
Well!  I had become a staunch journalist due to misuse.  Sometimes poetry was also used.  Kamal Da not only liked my poems, but also gave feedback to encourage me.  I remember when my poem written after the attack on the World Trade Center appeared in Yugavani magazine, Kamal Da's response was, "Goons I didn't take you so seriously. I kept writing like that."  He also wanted me to get out of Kotdwar somehow so that the path of progress in life could be opened.  But at the same time, I would also advise you to never leave the land.
The wheel of time kept spinning and one day I literally left Kotdwar.  This time I became Dehradun.  I started a new innings of life here by connecting with Dainik Jagran.  Due to the experience of cities like Delhi, Meerut, Lucknow, Haldwani etc., I did not have any particular problem here.
I have no hesitation in saying that Kamal Da stayed close to me in Dehradun even while away.  Whenever I used to write something good, I would definitely call Kamal da and give it to me.  Especially the Haridwar Kumbh in 2010, Kedarnath disaster in 2013 and Shri Nanda Devi Rajajat's live reporting in 2014, Kamal da was so impressed that whenever I meet, I must pat my shoulder.  They used to say, "I expect such a goon from you."  In Nanda Devi Rajajat, I and Kamal da were virtual hikers till the arrow.  Due to health problems, Kamal Da could not travel further from here.
Kamal Da always encouraged me on social media.  He would also praise the satire written during the assembly elections in every meeting.  He met me on the same day that he got away from the world.  Five-seven minutes as usual, we discussed the concerns of the world and then I walked my way.  Did you know that after a few hours, they are about to leave on the track from where there is no way back.  Hopefully...!

Sunday, 19 July 2020

सात रूपों में विराजमान हैं भगवान बदरी विशाल


सात रूपों में विराजमान हैं भगवान बदरी विशाल
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड हिमालय में सप्त बदरी समूह के पौराणिक तीर्थों का बदरीनाथ धाम जितना ही माहात्म्य है। बदरीनाथ धाम की तरह इन तीर्थों में भी भगवान नारायण विभिन्न रूपों में वास करते हैं। 'स्कंद पुराणÓ के 'केदारखंडÓ में कहा गया है कि 'इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्, समूलहमस्य पांसुरे स्वाहाÓ (सर्वव्यापी परमात्मा विष्णु ने इस जगत को धारण किया है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अंतरिक्ष और तीसरे द्युलोक में तीन पदों को सुशोभित करते है अर्थात वे ही सर्वत्र व्याप्त है)। सप्त बदरी समूह के इन सभी मंदिरों का स्थापना काल भी कमोबेश वही है, जो बदरीनाथ धाम का माना जाता है। इनमें कर्णप्रयाग के निकट आदि बदरी, पांडुकेश्वर में योग-ध्यान बदरी, जोशीमठ के निकट सुभांई गांव में भविष्य बदरी, उर्गम घाटी में ध्यान बदरी, जोशीमठ के निकट अणीमठ में वृद्ध बदरी, जोशीमठ में नृसिंह बदरी और बदरीशपुरी में विशाल बदरी यानी बदरीनाथ धाम स्थित हैं।

सप्त बदरी समूह के कुछ मंदिर सालभर दर्शनार्थियों के लिए खुले रहते हैं, जबकि बाकी में चारधाम सरीखी ही कपाट खुलने व बंद होने की परंपरा है। कहते हैं कि प्राचीन काल में जब बदरीनाथ धाम की राह बेहद दुर्गम एवं दुश्वारियों भरी थी, तब अधिकांश भक्त आदि बदरी धाम में भगवान नारायण के दर्शनों का पुण्य प्राप्त करते थे। लेकिन, कालांतर में सड़क बनने से बदरीनाथ धाम की राह आसान हो गई। एक मान्यता यह भी है किनृसिंह मंदिर जोशीमठ में भगवान नृसिंह के बायें हाथ की कलाई निरंतर कमजोर हो रही है। कलयुग की पराकाष्ठा पर जिस दिन यह कलाई टूटकर जमीन पर गिर जाएगी, उस दिन नर-नारायण (जय-विजय) पर्वत आपस में जुड़ जाएंगे। इसके बाद बदरीनाथ धाम की राह सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। तब भगवान बदरी नारायण सुभांई गांव स्थित भविष्य बदरी धाम में अपने भक्तों को दर्शन देंगे।

स्थानीय लोगों का कहना है यह मान्यता धीरे-धीरे सार्थक सिद्ध हो रही है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि नृसिंह बदरी को छोड़कर बाकी अन्य सभी मंदिरों में भक्तों को भगवान नारायण के ही दर्शन होते हैं। जबकि, नृसिंह मंदिर में नारायण अपने चतुर्थ अवतार नृसिंह रूप में विराजमान हैं। हालांकि, अपने आसन पर वह भगवान बदरी नारायण की तरह ही देव पंचायत के साथ बैठते हैं।

आस्था ही नहीं, आर्थिकी के केंद्र भी
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सप्त बदरी समूह के मंदिर महज आस्था के केंद्र ही नहीं, बल्कि पहाड़ के जीवन की धुरी भी हैं। इन मंदिरों से हजारों लोगों की आर्थिकी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जुड़ी हुई है। यात्राकाल के छह महीने वे यहां पूजा-पाठ समेत विभिन्न आर्थिक गतिविधियां संचालित कर सालभर के लिए जीविकोपार्जन के साधन जुटा लेते हैं। देखा जाए तो इन मंदिरों का पहाड़ से पलायन रोकने में भी बहुत बड़ा योगदान है। इसके अलावा पहाड़ की संस्कृति एवं परंपराओं के प्रचार-प्रसार में भी सप्त बदरी और पंच केदार समूह के मंदिर पीढिय़ों से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं।

नारायण के नाना रूप
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कलयुग में श्रेष्ठ विशाल बदरी
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नर-नारायण पर्वत के आंचल में समुद्रतल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित बदरीनाथ धाम देश के चार धामों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि आद्य शंकराचार्य ने आठवीं सदी में बदरीनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान नारायण की चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। शालिग्राम शिला से बनी बनी यह मूर्ति ध्यानमुद्रा में है। कथा है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुंड से निकालकर मंदिर में स्थापित की थी। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तो उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरंभ कर दी। शंकराचार्य की प्रचार-यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनंदा में फेंक गए। शंकराचार्य ने उसकी पुनस्र्थापना की। लेकिन, मूर्ति फिर स्थानांतरित हो गई, जिसे तीसरी बार तप्तकुंड से निकालकर रामानुजाचार्य ने स्थापित किया। मंदिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखंड दीप प्रज्ज्वलित रहता है, जो अचल ज्ञान-ज्योति का प्रतीक है। मंदिर के पश्चिम में 27 किमी की दूरी पर बदरीनाथ शिखर के दर्शन होते हैं, जिसकी ऊंचाई 7138 मीटर है।


योग-ध्यान बदरी
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पांडुकेश्वर नामक स्थान पर भगवान नारायण का ध्यानावस्थित तपस्वी स्वरूप का विग्रह विद्यमान है। अष्टधातु की यह मूर्ति बेहद चित्ताकर्षक और मनोहारी है। जनश्रुति है कि भगवान योग-ध्यान बदरी की मूर्ति इंद्रलोक से उस समय लाई गई थी, जब अर्जुन इंद्रलोक से गंधर्व विद्या प्राप्त कर लौटे थे। प्राचीन काल में रावल भी शीतकाल में इसी स्थान पर रहकर भगवान बदरी नारायण की पूजा करते थे। सो, यहां पर स्थापित भगवान नारायण का नाम योग-ध्यान बदरी हो गया। योग-ध्यान बदरी का पंच बदरी में तीसरा स्थान है। शीतकाल में जब नर-नारायण आश्रम में बदरीनाथ धाम के पट बंद हो जाते हैं, तब भगवान के उत्सव विग्रह की पूजा इसी स्थान पर होती है। इसलिए इसे 'शीत बदरीÓ भी कहा जाता है।

वृद्ध बदरी
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जोशीमठ से सात किमी की दूरी पर अणिमठ (अरण्यमठ) में भगवान विष्णु का अत्यंत सुन्दर विग्रह विराजमान है, जिसकी नित्य-प्रति पूजा और अभिषेक होता है। यहां भगवान बदरी नारायण का प्राचीन मंदिर है, जिसमें वे 'वृद्ध बदरीÓ के रूप में विराजमान हैं। जनश्रुति है कि एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में विचरण करते हुए बदरीधाम की ओर जाने लगे। मार्ग की विकटता देखकर थकान मिटाने को वे अणिमठ नाम स्थान पर रुके। यहां उन्होंने कुछ समय भगवान विष्णु की आराधना व ध्यान कर उनसे दर्शनों की अभिलाषा की। तब भगवान बदरीनारायण ने वृद्ध के रूप में नारदजी को दर्शन दिए। तबसे इस स्थान में बदरी-नारायण की मूर्ति स्थापना हुई, जिन्हें वृद्ध बदरी कहा गया।

भविष्य बदरी
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स्कंद पुराण के केदारखंड में कहा गया है कि कलयुग की पराकाष्ठा होने पर जोशीमठ के समीप जय-विजय नाम के दोनों पहाड़ आपस में जुड़ जाएंगे। राह अवरुद्ध होने से तब भगवान बदरी विशाल के दर्शन असंभव हो जाएंगे। ऐसे में भक्तगण समुद्रतल से 2744 मीटर की ऊंचाई पर स्थित भविष्य बदरी में ही भगवान के विग्रह का दर्शन-पूजन कर सकेंगे। भविष्य बदरी धाम जोशीमठ-मलारी मार्ग पर तपोवन से आगे सुभांई गांव के पास स्थित है। यहां पहुंचने के लिए तपोवन से चार किमी की खड़ी चढ़ाई देवदार के घने जंगल के बीच से तय करनी पड़ती है। कहते हैं कि यहां पर महर्षि अगस्त्य ने तपस्या की थी। वर्तमान में यहां पर पत्थर में अपने-आप भगवान का विग्रह प्रकट हो रहा है। इस मंदिर के कपाट बदरीनाथ के साथ ही खोलने की परंपरा है।



ध्यान बदरी
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पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस स्थान पर इंद्र ने कल्पवास की शुरुआत की थी। कहते हैं कि जब देवराज इंद्र दुर्वासा के शाप से श्रीहीन हो गए, तब उन्होंने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए इस स्थान पर कल्पवास किया। तब से यहां कल्पवास की परंपरा चल निकली। कल्पवास में चूंकि साधक भगवान के ध्यान में लीन रहता है, इसलिए यहां पर भगवान का विग्रह भी आत्मलीन अवस्था में है। इसी कारण नारायण के इस विग्रह को ध्यान बदरी नाम से संबोधित किया गया। नारायण भक्तों के लंबे प्रवास ने यहां पर विष्णु मंदिर को जन्म दिया और इस मंदिर को सप्त बदरी के अंग के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। प्राचीन काल में इस स्थान पर देवताओं ने भगवान की तपस्या की। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने देवताओं को कल्पवृक्ष प्रदान किया। यह स्थान उर्गम धाटी के कल्पेश्वर क्षेत्र में स्थित है।

श्रीहरि का आदिकालीन निवास आदि बदरी
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गढ़वाल राज्य की राजधानी रही चांदपुरगढ़ी से तीन किलोमीटर आगे रानीखेत मार्ग पर प्राचीन मंदिरों का समूह दिखाई देता है, जो सड़क के दायीं ओर स्थित है। यही है सप्त बदरी में शामिल आदि बदरी धाम। कथा है कि इन मंदिरों का निर्माण स्वर्गारोहिणी यात्रा के दौरान पांडवों ने किया था। यह भी कहते हैं कि आठवीं सदी में शंकराचार्य ने यह मंदिर बनवाए थे। जबकि, एएसआइ (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) के अनुसार इनका निर्माण आठवीं से 11वीं सदी के बीच कत्यूरी राजाओं ने किया। कुछ वर्षों से एएसआइ ही इन मंदिरों की देखभाल कर रहा है। आदि बदरी मंदिर समूह कर्णप्रयाग से दूरी 11 किमी है। मूलरूप से इस समूह में 16 मंदिर थे, जिनमें अब 14 ही बचे हैं। प्रमुख मंदिर भगवान विष्णु का है, जिसकी पहचान इसका बड़ा आकार और एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित होना है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु एक मीटर ऊंची शालीग्राम की काली प्रतिमा विराजमान है। जो अपने चतुर्भुज रूप में खड़े हैं। इसके सम्मुख एक छोटा मंदिर गरुड़ महाराज का है। अन्य मंदिर सत्यनारायण, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, चकभान, कुबेर (मूर्तिविहीन), राम-लक्ष्मण-सीता, काली, शिव, गौरी व हनुमान को समर्पित हैं। इन प्रस्तर मंदिरों पर गहन एवं विस्तृत नक्काशी हुई है और हर मंदिर पर नक्काशी का भाव विशिष्ट एवं अन्य मंदिरों से अलग भी है। आदि बदरी धाम के पुजारी थापली गांव के थपलियाल होते हैं। इस मंदिर के कपाट साल में सिर्फ पौष मास में बंद रहते हैं और मकर संक्रांति पर्व पर श्रद्धालुओं दर्शनार्थ खोल दिए जाते हैं।

नारायण के प्रतिरूप नृसिंह बदरी
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चमोली जिले के ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में स्थित नृसिंह मंदिर भगवान विष्णु के 108 दिव्य तीर्थों में से एक है। सप्त बदरी में से एक होने के कारण इस मंदिर को नृसिंह बदरी भी कहा जाता है। मान्यता है कि आद्य गुरु शंकराचार्य ने स्वयं यहां नृसिंह शालिग्राम की स्थापना की थी। यहां भगवान नृसिंह की लगभग दस इंच ऊंची शालिग्राम शिला से स्व-निर्मित प्रतिमा स्थापित है। इसमें भगवान नृसिंह कमल पर विराजमान हैं। उनके साथ बदरी नारायण, उद्धव और कुबेर के विग्रह भी स्थापित हैं। भगवान के दायीं ओर श्रीराम, माता सीता, हनुमानजी व गरुड़ महाराज और बायीं तरफ मां चंडिका (काली) विराजमान हैं। मान्यता है कि भगवान नृसिंह के बायें हाथ की कलाई निरंतर कमजोर हो रही है। जिस दिन कलाई टूटकर जमीन पर गिर जाएगी, उस दिन नर-नारायण (जय-विजय) पर्वत के आपस में मिलने से बदरीनाथ की राह सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। तब भगवान बदरी नारायण भविष्य बदरी में दर्शन देंगे। बदरीनाथ के कपाट बंद होने पर शंकराचार्य की गद्दी नृसिंह मंदिर में ही स्थापित होती है। कपाट खुलने से पूर्व हर साल मंदिर में एक विशेष अनुष्ठान संपन्न होता है।

बदरीनाथ और आसपास के दर्शनीय स्थल
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अलकनंदा के तट पर तप्त-कुंड, ब्रह्म कपाल, सर्प का जोड़ा, शेषनाग की छाप वाला शिलाखंड 'शेषनेत्रÓ, चरणपादुका, बर्फ से ढका नीलकंठ शिखर, माता मूर्ति मंदिर, देश का अंतिम गांव माणा, वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा, भीम पुल, अष्ट वसुओं की तपोस्थली वसुधारा, लक्ष्मी वन, सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी), अलकनंदा नदी का उद्गम एवं कुबेर का निवास अलकापुरी, सरस्वती नदी, बामणी गांव में भगवान विष्णु की जंघा से उत्पन्न उर्वशी का मंदिर। विशेषकर बदरीनाथ धाम में नारायण पर्वत की चोटी को निहारो तो लगता है कि मंदिर के ऊपर पर्वत की चोटी शेषनाग के रूप में अवस्थित है। शेषनाग के प्राकृतिक फन स्पष्ट देखे जा सकते हैं।

Saturday, 18 July 2020

Mussoorie is a beautiful queen of mountains

Mussoorie is a beautiful queen of mountains
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Dinesh Kukreti
If there is relief from scorching heat in the plains, then come to Mussoorie.  The fickle air that touches the body on the surfy road amidst oaks, burans and pine trees making waves from the clouds makes the mind satisfied.  The scene is as if a painter had painted the paintbrush with the best painting of his life.  It is not that Mussoorie is suitable only for the villagers, its color is unique even in the winter.
The history of Rani Mussoorie of the mountains situated at an altitude of 6600 feet above sea level in the Shivalik range of the Himalayan ranges is not very old.  In the year 1825, Captain Young, an English officer, searched for this place.  Jayprakash Bhardwaj, a history expert of Mussoorie, says that Captain Young liked the climate here and he built a bungalow here.  It is said that the plant of Mansoor was in abundance, hence the name Mussoorie.  After this, the first sanatorium was formed in Mussoorie in the year 1827, today this area is known as Landour Cantt.  A few years later Sir George Everest, the first Surveyor General of India, also made Mussoorie his home.  The highest peak in the world is Mount Everest after him.
Doon Taj Mussoorie
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The geographical location of Mussoorie is such that this city looks like the crown of Dehradun.  The peaks of the Himalayas in the northeast and the bird's eye view of the Doon Valley in the south creates a magical attraction.

Dalai Lama came in 1959
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The Tibetan religious leader Dalai Lama first came to Mussoorie in 1959 after being deported from China-occupied Tibet.  It was here that the first exile government of Tibet was formed.  He later shifted to Meklodganj near Dharamshala in Himachal Pradesh.
Road freight
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Every building in this city, established by the British, has a British mark on it.  For the visit of British officers, the entry of Indians was at that time on Mall Road.  Historian Bhardwaj says that Pandit Moti Lal Nehru, a freedom fighter fighter and father of the first Prime Minister Jawaharlal Nehru, often visited Mussoorie.  He traveled here on Malrod breaking the ban on entry to Indians.  Apart from this, Pandit Nehru, Sardar Vallabhbhai Patel and former Prime Minister Indira Gandhi were also very fond of the nature of Mussoorie.
Gun hill
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Came to Mussoorie and did not see Gun Hill.  This place situated on the peak shows the snow-capped peaks of Himalayas Bandarpunch, Srikanta, Pithwara and Gangotri Himalayas.  The bird's eye view of Mussoorie and Doon is also its special attraction.  Actually, during the British period, a cannon was fired on this peak.  People used to match their watch with the sound of the shell being fired at 12 noon.  Hence the peak was named Gun Hill.  The adventure of the ropeway can also be taken to reach here.  The four hundred meter long ropeway takes about 20 minutes to reach the peak.  While climbing this peak, you can also enjoy trekking.  Baggage rental is available for tracking.

Lal Bahadur Shastri Academy
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This academy, created to train probationers selected in the Indian Administrative Services, is special in itself.  Although tourists cannot enter here, it is the pride of Mussoorie.
Historical school
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The school built in the British era is one of the major attractions of Mussoorie.  The famous building of St George's School, built in Roman Catholic style, attracts tourists.  It was founded in the year 1853.  Also special is the Woodstock established in 1850.  It was founded by a group of British officers.
Company Garden
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In the year 1842, famous scientist Dr. H. Fakanar established a garden in Mussoorie.  Planting trees of different species in the garden.  It was then named Company Garden after the East India Company.  It is now known as Municipal Garden or Botanical Garden.
Camel's back road
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The three-kilometer long road is from Kulri Bazar to Library Bazar.  It is my own pleasure to walk on this road.  From here one can have a beautiful view of the sunset in the Himalayas.  From afar, this area looks like a camel's hump.
Campty and kiln fall
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The waterfall on Yamunotri Hive, 15 km from Mussoorie, is known as Campti Fall.  Bathing in the foothills of a waterfall surrounded by high mountains from all around is a refreshing feeling.  It is said that British officials often used to come here for a T-party on holiday.  Similarly, Bhatta Fall, a waterfall on the route to Dehradun, nine kilometers from Mussoorie, also attracts tourists a lot.
Glogi Power House
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It is one of the oldest power projects in North India.  The foundation stone of the project was laid in October 1907 and its construction took five years.  Electricity supply was started in December 1912.  Musari is one of the few cities in the country that were lighted for the first time at that time.  Even today this power house is producing 5.4 million units of electricity.
Food and drink
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Sachin likes omelets made of four shops
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Although North and South Indian cuisine is easily available in Mussoorie, but there is something more about Char Shop in Landour Cantt.  Sachin Tendulkar, who is said to be the God of cricket, does not forget to eat omelets made of four shops whenever he comes to Mussoorie.  Why Sachin, Bollywood star Arshad Warsi loves tea here, while late actor Tom Alter also loved snacks here.  The four shop owners are brothers Anil Prakash and Vipin Prakash.  He says that the tourists visiting here like his shop's parathas, maggi, dal pakoda, bun omelette and pizza.
Taste of corn on Mall Road
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If you came to Mussoorie and did not taste the corn, then what is the fun of traveling.  You will find roasted and boiled corn on the Mall Road from place to place and tourists also enjoy them.

Mussoorie in the eyes of Ruskin
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Mussoorie has also been the workplace for writers and artists.  Famous actor the late Tom Alter started the theater in school days from here, and Mussoorie lives in the world of world famous litterateur Ruskin Bond.  Ruskin says, "The natural view and wonderful peace here inspires the creation of literature."  Although the population has increased a lot today, but Mussoorie is Mussoorie.  I am proud that I am a citizen of Mussoorie.

Relax moments in Dhanaulti
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If you want to spend some time away from the noise, then Dhanaulti is a better option for you.  Dhanaulti is surrounded by a dense forest of deodar just 30 km from Mussoorie.  The view of snow-clad peaks from here is enchanting to the mind.  Here, guest house of Garhwal Mandal Vikas Nigam, guest house of Forest Department and Bambu Huts and hotel facilities.  It is not crowded like Mussoorie.
Kanatal camp site
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If you are fond of camping, then Kanatal, 45 km from Mussoorie, is waiting for you.  Spending a few days in cottages, gardens and huts under the shade of cedar trees is nothing short of a divine feeling.  Close to beautiful weather and nature, what else is needed to spend the holidays.  What other place would be better for camping.


Surakanda Devi
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Siddhpeeth Surkunda Devi temple is about 33 kilometers from Mussoorie and Dhanaulti on Mussoorie-Tehri road.  Situated at an altitude of ten thousand feet above sea level, this temple situated at an altitude of ten thousand feet above sea level gives a panoramic view of the Himalayas.


Chamba
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Chamba town located in Tehri district, just 56 km from Mussoorie, is famous for its natural beauty.  Traveling on the serpentine road passing through a fruit orchard is also thrilling as well as thrilling.  The view of the Himalayas emerging from the backdrop of the gardens fascinates anyone.
Lakhmandal
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Lakhmandal is a mythological site located 75 km from Mussoorie passing through Campfire.  It is believed that this is the place where the Kauravas tried to burn the Pandavas in the Lakshagraha.  The sculptures unearthed in the excavation are also proof of historical importance here.
Bollywood also likes Mussoorie
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Mussoorie has been Bollywood's choice for shooting right from the beginning.  In the nineties, Anil Sharma-directed film 'Farishte', a song 'Tere Bin Jag Lagte Haina Sona', was shot in the beautiful plains of Kemptyfall.  Actress Sridevi and actor Vinod Khanna came here to shoot this song of the film 'Farishte'.  Then actress Sridevi had praised Mussoorie a lot.  Talking about the last few years, once again Bollywood has started moving towards Uttarakhand.  Most of the shooting is taking place in the beautiful locations of Dehradun and Mussoorie.  In just the last two years, actor Ajay Devgan chose Mussoorie to shoot for the film 'Shivoy'.  After this, some scenes of Anil Sharma's film Genius were also shot in Mussoorie.  Most of the shooting of the film 'Atomic' has been done in Rajasthan, but actor John Abraham's house was shot in Mussoorie.  For a long time John Abraham stayed in Mussoorie for the shoot.  At the same time, after shooting for Dharma Productions' super hit series' Student of the Year ', its second part' Student of the Year -2 'was also shot in the Mussoorie and Dehradun litigants.  The set of actor Tiger Shroff's house was built at Bhatta Fal, near Mussoorie.  The film was shot for 20 days in different locations in Mussoorie itself.  The film 'Batti Gul, Meter Chalu' was also shot in Mussoorie.  Actor Shahid Kapoor and actress Shraddha Kapoor also arrived here for the shoot.  Most of the shooting of the film took place at Mall Road, Bhatta Fall, Gun Hill, Company Garden, Sister Bazaar, Showers Water, Landaura, Char Shop etc.

How to reach
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Nearest Airport Jolligrant - 60 km
Nearest railway station Dehradun - 35 km
Mussoorie can be reached by taxi and bus from Dehradun.

Thursday, 16 July 2020

रामायण का नंदकानन फूलों की घाटी


रामायण का नंदकानन फूलों की घाटी
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दिनेश कुकरेती
प्रकृति का सौंदर्य देखना हो, तो फूलों की घाटी चले आइए। उत्तराखंड के सीमांत चमोली जनपद के उच्च हिमालयी क्षेत्र में समुद्रतल से 3962 मीटर की ऊंचाई पर स्थित 87.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली यह घाटी पर्यटकों के लिए कुदरत का अनुपम उपहार है। यह वही घाटी है, जिसका जिक्र रामायण और महाभारत में नंदकानन के नाम से हुआ है।
इस घाटी का पता सबसे पहले वर्ष 1931 में ब्रिटिश पर्वतारोही फ्रैंक एस. स्मिथ और उनके साथी आरएल होल्डसवर्थ ने लगाया। इसकी बेइंतहां खूबसूरती से प्रभावित होकर स्मिथ 1937 में दोबारा घाटी में आए और 1938 में 'वैली ऑफ फ्लॉवर्सÓ नाम से एक किताब प्रकाशित करवाई। वर्ष 1982 में फूलों की घाटी को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। हिमाच्छादित पर्वतों से घिरी यह घाटी हर साल बर्फ पिघलने के बाद खुद-बखुद बेशुमार फूलों से भर जाती है। यहां आकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो कुदरत ने पहाड़ों के बीच फूलों का थाल सजा लिया हो। अगस्त से सितंबर के बीच तो घाटी की आभा देखते ही बनती है। प्राकृतिक रूप से समृद्ध यह घाटी लुप्तप्राय जानवरों काला भालू, हिम तेंदुआ, भूरा भालू, कस्तूरी मृग, रंग-बिरंगी तितलियों और नीली भेड़ का प्राकृतिक वास भी है।

यूनेस्को की धरोहर
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उत्तराखंड हिमालय में स्थित नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान और फूलों की घाटी सम्मिलित रूप से विश्व धरोहर स्थल घोषित हैं। फूलों की घाटी को वर्ष 2005 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर का दर्जा प्रदान किया।
हर 15 दिन में रंग बदलती है घाटी
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फूलों की घाटी में जुलाई से अक्टूबर के मध्य 500 से अधिक प्रजाति के फूल खिलते हैं। खास बात यह है कि हर 15 दिन में अलग-अलग प्रजाति के रंग-बिरंगे फूल खिलने से घाटी का रंग भी बदल जाता है। यह ऐसा सम्मोहन है, जिसमें हर कोई कैद होना चाहता है।

छंट गए आपदा के बादल
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आपदा के दौरान वर्ष 2013 में फूलों की घाटी जाने का रास्ता पूरी तरह आपदा की भेंट चढ़ चुका था। घांघरिया से फूलों की घाटी तक तीन किलोमीटर लंबे पैदल मार्ग में दो पुल भी बह गए थे। वर्ष 2014 में हालांकि रास्ते का निर्माण पूरा हो गया था, लेकिन फूलों की घाटी के लिए एक माह के लिए ही पर्यटकों के लिए खोली गई। वर्ष 2015 में भी 4500 देशी-विदेशी पर्यटक ही घाटी के दीदार को पहुंचे, लेकिन इस बार घाटी में रिकॉर्ड पर्यटक पहुंच रहे हैं।


प्लास्टिक ले जाना प्रतिबंधित
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फूलों की घाटी में प्लास्टिक ले जाना प्रतिबंधित है। खाने की सामग्री के साथ जाने वाला कचरा भी पर्यटकों को वापस अपने साथ घांघरिया लाना होता है। ऐसा न करने पर कड़े जुर्माने का प्रावधान है। घाटी में रुकने की कोई सुविधा नहीं है, इसलिए पर्यटकों को दिन ढलने से पूर्व घांघरिया वापस लौटना होता है।


एंट्री शुल्क
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फूलों की घाटी में एंट्री के लिए भारतीय पर्यटकों के लिए एंट्री फीस 150 रुपये है, जबकि विदेशी पर्यटकों के लिए यह फीस 650 रुपये है। अगर आपके साथ बच्चे हैं और उनकी उम्र पांच साल से कम है, तो कोई एंट्री फीस नहीं है।
ऐसे पहुंचें
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फूलों की घाटी पहुंचने के लिए चमोली जिले का अंतिम बस अड्डा गोविंदघाट तीर्थनगरी ऋषिकेश से 275 किलोमीटर की दूरी पर है, जो कि जोशीमठ- बदरीनाथ के मध्य पड़ता है। ऋषिकेश तक रेल से भी पहुंचा जा सकता है, जबकि निकटतम हवाई अड्डा ऋषिकेश के पास जॉलीग्रांट (देहरादून) में है। गोविंदघाट से फूलों की घाटी के प्रवेश स्थल घांघरिया की दूरी 13 किलोमीटर है। जहां से पर्यटक तीन किलोमीटर लंबी व आधा किलोमीटर चौड़ी फूलों की घाटी का दीदार कर सकते हैं। जोशीमठ से गोविंदघाट की दूरी 19 किलोमीटर है।