जो प्रत्यक्ष नहीं, उसका श्राद्ध कैसा
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दिनेश कुकरेती
श्राद्ध का अर्थ है सत्य को धारण करना यानी जिसको श्रद्धा से धारण किया जाए। इस हिसाब से श्रद्धापूर्वक मन में प्रतिष्ठा रखकर विद्वान, अतिथि, माता-पिता, आचार्य आदि की सेवा करने का नाम श्राद्ध है और सेवा के लिए व्यक्ति का प्रत्यक्ष (जीवित) होना जरूरी है। वेद तो बड़े स्पष्ट शब्दों में माता-पिता, गुरु और बड़ों की सेवा का आदेश देते हैं। 'अथर्ववेदÓ में कहा गया है कि 'अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:Ó यानी पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला और माता के साथ उत्तम मन से व्यवहार करने वाला हो।Ó
पितर का अर्थ है पालक, पोषक, रक्षक व पिता और जीवित माता-पिता ही रक्षण एवं पालन-पोषण कर सकते हैं, मृत नहीं। शास्त्रों में कहा गया है कि वही मनुष्य सुखी रह सकता है, जो तीन तरह के ऋण से मुक्त हो जाए। ये ऋण हैं, देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इनमें सर्वश्रेष्ठ ऋण है पितृ ऋण। क्योंकि यह उनका है, जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया। जो हमारे जन्मदाता हैं। लेकिन इस ऋण से मुक्ति के लिए श्रद्धा चाहिए, आडंबर नहीं। 'गरुड़ पुराणÓ में कहा गया है कि बिना श्रद्धा के श्राद्ध हो ही नहीं सकता।
देखने में आता है लोग जीवित माता-पिता को तो जीवन भर चैन से नहीं रहने देते और मरने पर गंगा स्नान का दिखावा करते हैं। शायद इसीलिए मलूक दास को कहना पड़ा, 'जियत मात-पिता दंगमदंगा, मरे तो पहुंचाए गंगा।Ó जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य व सुखों की कामना के लिए रात-दिन की परवाह नहीं की, उन्हें जीवन उपेक्षा में गुजारना पड़े तो फिर श्राद्ध करने का औचित्य क्या है। ज्योषिताचार्य स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं असली श्रद्धा सेवा में है और सेवा उसी की हो सकती है, जो प्रत्यक्ष हो। लेकिन, चकाचौंध ने हमें संवेदनहीन बना दिया है। तभी तो हम प्रत्यक्ष की उपेक्षा करते हैं और जो सामने है नहीं, उसके लिए आडंबरों का सहारा लेते हैं। सोचिए, हम अगली पीढ़ी को क्या संस्कार दे रहे हैं। वह भी तो वही करेगी, जो हम उन्हें सिखा रहे हैं।
स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं कि आतिथ्य सत्कार तो हमारा धर्म है, क्योंकि हम 'वसुधैव कुटुंबकमÓ की परंपरा के लोग हैं। लेकिन, सिर्फ दिखावे के लिए किया गया आतिथ्य सत्कार आडंबर से ज्यादा कुछ नहीं। पितृपक्ष में हम ब्राह्मणों को घर बुलाकर उनका सेवा सत्कार करते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि ज्ञान को सम्मान दिया जाना चाहिए। वेद, महाभारत, रामायण आदि शास्त्रों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पितर संज्ञा जीवितों की है, मृतकों की नहीं। 'यजुर्वेदÓ में कहा गया है कि 'उपहूता: पितर: सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु। त आ गमंतु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान।Ó (हमारे बुलाए जाने पर सोमरस का पान करने वाले पितर प्रीतिकारक यज्ञों और हमारे कोशों में आएं। पितर लोग हमारे वचनों को सुनें, हमें उपदेश दें और हमारी रक्षा करें।)
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दिनेश कुकरेती
श्राद्ध का अर्थ है सत्य को धारण करना यानी जिसको श्रद्धा से धारण किया जाए। इस हिसाब से श्रद्धापूर्वक मन में प्रतिष्ठा रखकर विद्वान, अतिथि, माता-पिता, आचार्य आदि की सेवा करने का नाम श्राद्ध है और सेवा के लिए व्यक्ति का प्रत्यक्ष (जीवित) होना जरूरी है। वेद तो बड़े स्पष्ट शब्दों में माता-पिता, गुरु और बड़ों की सेवा का आदेश देते हैं। 'अथर्ववेदÓ में कहा गया है कि 'अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:Ó यानी पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला और माता के साथ उत्तम मन से व्यवहार करने वाला हो।Ó
पितर का अर्थ है पालक, पोषक, रक्षक व पिता और जीवित माता-पिता ही रक्षण एवं पालन-पोषण कर सकते हैं, मृत नहीं। शास्त्रों में कहा गया है कि वही मनुष्य सुखी रह सकता है, जो तीन तरह के ऋण से मुक्त हो जाए। ये ऋण हैं, देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इनमें सर्वश्रेष्ठ ऋण है पितृ ऋण। क्योंकि यह उनका है, जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया। जो हमारे जन्मदाता हैं। लेकिन इस ऋण से मुक्ति के लिए श्रद्धा चाहिए, आडंबर नहीं। 'गरुड़ पुराणÓ में कहा गया है कि बिना श्रद्धा के श्राद्ध हो ही नहीं सकता।
देखने में आता है लोग जीवित माता-पिता को तो जीवन भर चैन से नहीं रहने देते और मरने पर गंगा स्नान का दिखावा करते हैं। शायद इसीलिए मलूक दास को कहना पड़ा, 'जियत मात-पिता दंगमदंगा, मरे तो पहुंचाए गंगा।Ó जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य व सुखों की कामना के लिए रात-दिन की परवाह नहीं की, उन्हें जीवन उपेक्षा में गुजारना पड़े तो फिर श्राद्ध करने का औचित्य क्या है। ज्योषिताचार्य स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं असली श्रद्धा सेवा में है और सेवा उसी की हो सकती है, जो प्रत्यक्ष हो। लेकिन, चकाचौंध ने हमें संवेदनहीन बना दिया है। तभी तो हम प्रत्यक्ष की उपेक्षा करते हैं और जो सामने है नहीं, उसके लिए आडंबरों का सहारा लेते हैं। सोचिए, हम अगली पीढ़ी को क्या संस्कार दे रहे हैं। वह भी तो वही करेगी, जो हम उन्हें सिखा रहे हैं।
स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं कि आतिथ्य सत्कार तो हमारा धर्म है, क्योंकि हम 'वसुधैव कुटुंबकमÓ की परंपरा के लोग हैं। लेकिन, सिर्फ दिखावे के लिए किया गया आतिथ्य सत्कार आडंबर से ज्यादा कुछ नहीं। पितृपक्ष में हम ब्राह्मणों को घर बुलाकर उनका सेवा सत्कार करते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि ज्ञान को सम्मान दिया जाना चाहिए। वेद, महाभारत, रामायण आदि शास्त्रों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पितर संज्ञा जीवितों की है, मृतकों की नहीं। 'यजुर्वेदÓ में कहा गया है कि 'उपहूता: पितर: सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु। त आ गमंतु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान।Ó (हमारे बुलाए जाने पर सोमरस का पान करने वाले पितर प्रीतिकारक यज्ञों और हमारे कोशों में आएं। पितर लोग हमारे वचनों को सुनें, हमें उपदेश दें और हमारी रक्षा करें।)
इस मंत्र में महीधर व उव्वट स्वीकारते हैं कि पितर जीवित होते है, मृतक नहीं। क्योंकि मृतक न आ सकते हैं, न सुन सकते हैं, न उपदेश कर सकते हैं और न रक्षा कर सकते हैं। 'अथर्ववेदÓ कहता है कि 'आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येदं नो हविरभि गृणंतु विश्वे।Ó (हे पितरों! आप घुटने टेक कर और दाहिनी ओर बैठकर हमारे इस अन्न को ग्रहण करें।) 'वाल्मीकि रामायणÓ में कहा गया है, 'ज्येष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति। त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धामे च पथि वर्तिन:।Ó (धर्म पथ पर चलने वाला बड़ा भाई व पिता और विद्या देने वाला गुरु, ये तीनों ही पितर हैं।) 'चाणक्य नीतिÓ कहती है, 'जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयस्त्राता पंचैता पितर: स्मृता:। (विद्या देने वाला, अन्न देने वाला, भय से रक्षा करने वाला, जन्मदाता ये मनुष्यों के पितर कहलाते हैं।)
'सत्यार्थ प्रकाशÓ के चतुर्थ समुल्लास में आता है कि 'पितृयज्ञÓ अर्थात् देव, विद्वान, ऋषि (पढऩे-पढ़ाने वाले), पितर (माता-पिता आदि वृद्ध ज्ञानी) और परमयोगियों की सेवा करनी चाहिए। पितृयज्ञ के दो भेद हैं, एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण। श्राद्ध अर्थात् 'श्रतÓ सत्य का दूसरा नाम है। यथा 'श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धमÓ यानी जिस क्रिया से सत्य को ग्रहण किया जाए उसको श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाए उसका नाम श्राद्ध है। इसी तरह 'तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितॄन् तत्तर्पणमÓ यानी जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता-पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किए जाएं, उसका नाम तर्पण है। परंतु यह जीवितों के लिए है, मृतकों के लिए नहीं। महर्षि दयानंद सरस्वती का यही अटल सिद्धांत है कि मृतक श्राद्ध अवैदिक और अशास्त्रीय है।
साल में श्राद्ध के 96 अवसर
'धर्म सिन्धु' में श्राद्ध के 96 अवसर बताए गए हैं। एक वर्ष की 12 अमावस्या, चार पूर्णादि तिथियां, 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रांतियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग, 15 पितृपक्ष, पांच अष्टका श्राद्ध, पांच अन्वष्टका और पांच पूर्वेद्यु: मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं।
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