Friday 10 November 2023

बग्वाली़ रंगत : झिलमिल-झिलमिल दिवा जगि गैना


बग्वाली़ रंगत : झिलमिल-झिलमिल दिवा जगि गैना

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दिनेश कुकरेती

धुनिक दिखने की होड़ में गढ़वाल अंचल के शहरी परिवेश में रहने वाले लोग भले ही पारंपरिक तीज-त्योहारों को बिसरा चुके हों, लेकिन अंतराल के गांवों में आज भी लोग अतीत की इन सुनहरी यादों को जिंदा रखने के प्रयास में जुटे हुए हैं। इसकी झलक बग्वाल यानी छोटी दीपावली पर देखी जा सकती है। गढ़वाल में दीपावली से अधिक मान्यता बग्वाल की रही है और आज भी है। इस दिन लोग घरों में मीठे स्वाले, भरवां स्वाले, दाल के पकौड़े, जैसे पारंपरिक पकवान बनाते हैं और फिर इन्हें सगुन के तौर पर घर-घर बांटा जाता है। इस दौरान लोग अपनी सारी परेशानियों को भूलकर उत्सव में डूब जाते हैं और वातावरण में गूंजने लगती हैं गीतों की मधुर स्वर लहरियां। ऐसा प्रतीत होता है, मानो स्वयं प्रकृति गा रही हो, 'झिलमिल-झिलमिल दिवा जगी गैनि, फिर बौड़ी ऐ ग्ये बग्वालÓ की स्वर लहरियां। 

इन्सान ही नहीं, गोवंश का भी उत्सव

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पहाड़ में बग्वाल के दिन पालतू पशुओं, खासकर गाय, बछड़ों व बैलों की पूजा की जाती है। उनके लिए तैयार किया गया भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुवे के आटे का फीका हलुवा) व जौ के आटे से बने लड्डुओं को परात (पीतल की बड़ी थाली) में बग्वाली (चौलाई) के फूलों से सजाया जाता है। पशुओं के पैर धोकर धूप-दीप से उनकी आरती उतारी जाती है और टीका करने के बाद उनके सींगों पर सरसों का तेल लगाया जाता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया के उपरांत परात में सजाया हुआ अन्न उनको खिलाया जाता है। इसे गो पूड़ी कहते हैं।

इसलिए होती है गोवंश की पूजा

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बग्वाल के बारे में पौराणिक मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। इसके अलावा इस दिन ग्रामीण अपने पाले हुए मवेशियों को अन्न का ग्रास देते हैं। पौराणिक परंपरा का निर्वाह करते हुए लोग खरीफ की फसल की मंडाई के बाद पहला निवाला गोवंश को देते हैं। क्योंकि, गोवंश की फसल तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  

सांझ ढलते ही थिरकने लगती पंचायती चौंरी

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सांझ ढलने पर गांव के सभी लोग पंचायती चौंरी (चौक) या खलिहान में एकत्रित होकर ढोल-दमाऊ के साथ नाचते हैं और भैला (भैलो) खेलते हैं। इसके लिए भीमल या चीड़ के छिल्लों (लकड़ी) को भांग या भीमल के रेसों (सेलू) से तैयार रस्सी में बांधकर आग लगाने के बाद सिर के ऊपर से घुमाया जाता है। इस दौरान लोग तरह-तरह के करतब दिखाते हैं। साथ में आतिशबाजी भी की जाती है। लगता है जैसे जमाने भर की खुशियां गांव के छोटे-से आंगन में सिमट गई हैं।

यही बग्वाल, यही यम चतुर्दशी

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गढ़वाल में छोटी दीपावली को 'बग्वालÓ कहते हैं। यम चतुर्दशी भी यही है। मान्यता है कि इस दिन गोपूजा से यमराज प्रसन्न होते हैं और मनुष्य को अल्पायु में मृत्यु के भय नहीं रहता। हालांकि, नए जमाने के लोग, खासकर नई पीढ़ी अब इस परंपरा को भूलती जा रही है।

भैलो रे भैलो, स्वाल-पकोड़ी खैल्यो

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आज भले ही युवा पीढ़ी भैलो से अपरिचित-सी हो गई हो, लेकिन एक दौर में पूरे गढ़वाल में भैलो के बगैर दीपावली अधूरी मानी जाती थी। दरअसल, भैलो गढ़वाल का एक प्राचीन खेल नृत्य है। आज भी जहां भैलो खेलने की परंपरा बची है, वहां दीपावली की संध्या पर महालक्ष्मी पूजन के बाद गांव के पंचायती चौक में भैलो की विधि-विधान पूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। मिठाई बंटती है और आतिशबाजी के साथ जश्न मनाया जाता है। कहीं-कहीं ढोल-दमाऊ की थाप के साथ रातभर भैलो मंडाण चलता है।


ऐसे तैयार होता है भैलो

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लोकगीतों के साथ भीमल या चीड़ (कुलै़ं) के छिल्लों के अलावा तिल, भांग, सुराही या हिंसर की लकड़ी से घुमाने लायक एक गट्ठर बनाया जाता है। इसे सिरालू (विशेष लता बेल) या मालू की रस्सी से बांधा जाता है। खेतों में बनाए गए आड़ों (घास-फूस के ढेर) पर आग लगाकर इनसे भैलो के दोनों छोर पर आग लगाई जाती है। इसके बाद ग्रामीण उसे अपने चारों ओर घुमाते हुए कहीं 'भैलो रे भैलो, स्वाल पकोड़ी खैलो, भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भागलूÓ तो कहीं 'भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा-कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी ऐगी बग्वालÓ जैसे गीत गाते हुए भैलो नृत्य करते हैं। इस बीच आतिशबाजी का क्रम भी चलता रहता है।


रस्सी कमर पर बांधकर भी खेले जाते थे भैलो

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भैलो बनाने का कार्य दीपावली से दो-एक दिन पहले ही शुरू हो जाता है। इसके लिए छिल्लों को धूप में सुखाया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व पौड़ी जिले की ढांगू पट्टियों के कई गांवों में भैलो के कुछ विशेष कलाकार होते थे। इन्हें स्थानीय भाषा में पुठ्यिा भैलो कहा जाता था। यह कलाकार भैलो को दोनों छोर से जलाकर हाथ से घुमाने की बजाय इसकी रस्सी कमर में बांध देते थे। फिर दोनों हाथों को जमीन पर टिका पैरों को ऊपर-नीचे उछालकर भैलो को कमर के सहारे चारोंं ओर घुमाते थे। हालांकि, अब यह कला लगभग विलुप्त हो चली है।


चांदपुर गढ़ी में धनतेरस ही बिखरने लगती है रंगत

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चमोली जिले की चांदपुरी गढ़ी के गांवों में तो धनतेरस से ही लोग भैलो खेलने लगते हैं। महिला-पुरुष अलग-अलग समूहों में दीपावली के गीतों के साथ पारंपरिक चांचरी (चांचड़ी) और थडिय़ा नृत्य करते हैं। कर्णप्रयाग क्षेत्र में भी पंचायत चौंरी में भैलो नृत्य होता है। हालांकि टिहरी, रुद्रप्रयाग व उत्तरकाशी जिलों में अब नाममात्र को ही भैलो खेले जाते हैं। जबकि, देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर में दीपावली के एक माह बाद बग्वाल (बूढ़ी दीवाली) मनाई जाती है। इस मौके पर पर भैलो खेले जाते हैं।


'बग्वालÓ के 11 दिन बाद आती है 'इगासÓ

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पहाड़ में बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने का चलन है। इस दिन रक्षाबंधन के धागों को हाथ से तोड़कर गाय की पूंछ पर बांध दिया जाता है। इस दिन भी भैलो खेलने की रवायत है। हालांकि, आधुनिकता के चकाचौंध में शहरी परिवेश के लोग इगास को भुला बैठे हैं। लेकिन, सुखद यह है कि देहरादून जैसे महानगरीय कल्चर वाले शहर में अब कुछ सामाजिक संगठन इगास मनाने की परंपरा को संजोने में जुटे हुए हैं।









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