Sunday, 15 December 2024

हरिद्वार से पुराना है कोटद्वार


हरिद्वार से पुराना है कोटद्वार
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दिनेश कुकरेती
कोटद्वार कस्बा कब अस्तित्व में आया होगा, इस बारे में ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है। दौलू जागरी के जागरों से जान पड़ता है कि कोटद्वार का इतिहास बहुत पुराना है। हालांकि, हमारे पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है, जो कोटद्वार को एक वैदिक नगर के रूप में प्रतिष्ठित करता हो। महाकवि कालीदास ने भी अपने ग्रंथों में न तो कोटद्वार का जिक्र किया है, न हरिद्वार का ही। हां! सातवीं सदी में भारत आए चीनी यात्री ह्वैनसांग ने जरूर गंगाद्वार और मायापुर का जिक्र किया है, किंतु हरिद्वार के बारे में कुछ नहीं कहा। ह्वैनसांग मंडावार, गंगाद्वार व मायापुर भी गए। साथ ही उन्होंने गंगा के किनारे सौ मील आगे की यात्रा भी की और वहां के एक सुंदर नगर का वर्णन किया। यह नगर श्रीनगर या उत्तरकाशी हो सकता है। कनिंघम ने भी उन्नीसवीं सदी में ह्वैनसांग की तरह देश का भ्रमण किया। उन्होंने उत्तराखंड को ब्रह्मपुर लिखा है और तब यहां कत्यूरी राज होने का उल्लेख किया है। गढ़वाल में धनपुर और पोखरी स्थित तांबे की खानों का उल्लेख भी उनके दस्तावेजों में है। कनिंघम के अनुसार ह्वैनसांग ने कोटद्वार को मंडावर से 50 मील दूर बताया है, लेकिन हरिद्वार का कहीं जिक्र नहीं किया। पर, इसमें कोई शंका नहीं कि कोटद्वार और हरिद्वार, दोनों नगर मुगलकाल में विद्यमान थे।

कई विद्वानों का मानना है कि पौराणिक कौमुद तीर्थ कोटद्वार ही है। विद्वानों के अनुसार "स्कंद पुराण" में वर्णित कौमुद तीर्थ के लक्षण एवं दिशाए इस स्थान को कौमुद तीर्थ होने का गौरव देते है। स्कंद पुराण के अध्याय ११९ के श्लोक छह में कौमुद तीर्थ के चिह्नों के बारे में बताया गया है कि- "तस्य चिह्नं प्रवक्ष्यामि यथा तज्जायते परम, कुमुदस्य तथा गन्धो लक्ष्यते मध्यरात्रके।" अर्थात महारात्रि में कुमुद यानी बबूल के पुष्प की गंध लक्षित होती है। प्रमाण के लिए आज भी इस स्थान के चारों और बबूल के वृक्ष विद्यमान हैं। कौमुद तीर्थ के विषय में कहा गया है कि पूर्वकाल में इस तीर्थ में कौमुद यानी कार्तिक पूर्णिमा को चंद्रमा ने भगवान शंकर को तप कर प्रसन्न किया था, इसलिए इस स्थान का नाम कौमुद पड़ा। संभवतः कौमुद द्वार होने के कारण ही इस शहर का कोटद्वार नाम पड़ा। लेकिन, अंग्रेजों के सही उच्चारण न कर पाने के कारण वह इसे कोड्वार कहकर पुकारने लगे, जिसे उन्होंने सरकारी अभिलेखों में कोड्वार ही दर्ज किया। बाद में इसका अपभ्रंश रूप कोटद्वार नाम प्रसिद्ध हुआ।कोटद्वार शब्द का संधि विच्छेद करें तो कोट माने "पहाड़" और द्वार माने "दरवाजा" होता है यानी पहाड़ का प्रवेश द्वार। पहले कोटद्वार से होते हुए ही गढ़वाल की राह खुलती थी। सो, कस्बे का कोटद्वार नाम पड़ने के पीछे यह एक बडी़ वजह हो सकती है। प्रचलित मान्यता भी यही है कि पहाड़ का प्रवेश द्वार होने के कारण इस नगर को कोटद्वार नाम मिला। यहां यह बता देना भी प्रासंगिक होगा कि कोटद्वार का कण्वाश्रम व मोरध्वज के साथ कोई-न-कोई संबंध जरूर रहा। "सत्यपथ" के संपादक ललिता प्रसाद नैथानी आपनी पुस्तक "मालिनी सभ्यता के खंडहर" में लिखते हैं कि पुराने जमाने में बदरीनाथ धाम की यात्रा कण्वाश्रम होते हुए ही शुरू होती थी। यात्री कण्वाश्रम से व्यासघाट और व्यासघाट से केदारनाथ व बदरीनाथ जाते थे।
केदार-बदरी की यात्रा से पहले कण्वाश्रम के दर्शन यात्रियों के लिए शुभ माने जाते थे। यह वह दौर है, जब हरिद्वार का कोई अस्तित्व नहीं था। असल में हरिद्वार कोई पौराणिक नगर नहीं है। हरिद्वार की चलती तो वहां रेल पहुंचने के बाद हुई। जबकि, कण्वाश्रम की ख्याति तो बदरीनाथ की ही भांति पुराकाल से ही रही है। महाकवि कालीदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में कण्वाश्रम और मालिनी नदी का जैसा समदृष्ट वर्णन किया है, वैसा बिना देखे संभव ही नहीं है।
बौद्धकाल में ह्वैनसांग की यात्रा के दौरान भी कोटद्वार क्षेत्र अस्तित्व में था, मोरध्वज का किला इसका प्रमाण है। ह्वैनसांग और कनिंघम ने मंडावर से 50 मील उत्तर में कोटद्वार का अस्तित्व बताया है। उनके लेखों से मालूम होता है कि कोटद्वार हरिद्वार से बहुत पुराना नगर है। मुगलकाल में तो कोटद्वार एक खाता-पीता क्षेत्र हुआ करता था। तब गढ़वाल की सरहद बढा़पुर तक थी और हरिद्वार, कनखल, चंडीघाट व लालढांग क्षेत्र भी गढ़वाल में ही था। उस दौरान गढ़वाल के राजा ने कोटद्वार क्षेत्र में कई जागीर अपने जागीरदारों को बख्शी हुई थीं। औरंगजेब के जमाने के 16वीं सदी के एक दस्तावेज से ज्ञात होता है कि तब चौकी-कोटद्वार वहां था, जहां पुरिया नैथानी को महाराज फतेपति शाह ने दो हजार बीघा भूमि जागीर में दी थी। पुरिया नैथानी के वंशज आज भी जशोधरपुर में रह रहे हैं। चौकी यानी चौकीघाटा आज भी मौजूद है।

यही चौकीघाटा वर्ष 1924 तक भरपूर मंडी हुआ करता था, लेकिन 1924 की बाढ़ ने इस मंडी का अस्तित्व मिटा डाला। इसके अवशेष अब भी वहां देखे जा सकते हैं। उक्त दस्तावेज में मौजूद नेगियों और भंडारियों के दस्तखत प्रमाण हैं कि चौकी-कोटद्वार मालिनी नदी के तट पर रहा होगा। राजा भीम सिंह का गांव भीमसिंहपुर और उनकी संतानें आज भी मौजूद हैं, लेकिन भंडारियों के बारे में फिलहाल कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
19वीं सदी के आरंभ में गोरख्याणी ने गढ़वाल और भाबर को तहस-नहस कर उसकी तस्वीर ही बदल डाली थी। वर्ष 1816 में गोरख्याणी का पराभव हुआ और अंग्रेज़ी राज ने दस्तक दी। कोटद्वार-भाबर तब उजाड़ अवस्था में पहुंच चुका था। खैर! वर्ष 1879 में डिप्टी कमिश्नर ग्रास्टन ने गढ़वाल भाबर को दोबारा बसाने की शुरुआत की। खोह नदी के बायीं ओर सिद्धबली मंदिर और खाम बागीचे के बीच पुराना कोटद्वार बसाया गया, जिसके भग्नावशेष आज भी अपने प्रारंभिक काल की गाथाएं सुना रहे हैं। तब यह भू-भाग बीहड़ जंगलों से घिरा था और यहां तकरीबन दो हजार की आबादी निवास करती थी। लेकिन, यह कोटद्वार भी कालांतर में खोह में आई बाढ़ की भेंट चढ़ गया।

इस बीच वर्ष 1892 में कोटद्वार में रेल आ चुकी थी। हिमालय क्षेत्र का प्रवेश द्वार होने के नाते कोटद्वार रेल मार्ग का उपयोग हिमालय क्षेत्र से लकडी़ परिवहन के लिए किया गया था। प्रथम यात्री ट्रेन यहां वर्ष 1901 में आई। वर्ष 1917 में खाम सुपरिटेंडेंट पं. गंगा दत्त जोशी ने खोह नदी के पश्चिम में नए सिरे से कोटद्वार बसाना शुरू किया। बावजूद इसके वर्ष 1930 तक यहां कुछ ही मकान बन पाए थे और शिक्षा के नाम पर एकमात्र प्राइमरी स्कूल था। सही मायने में कोटद्वार को पूरी तरह व्यवस्थित करने का श्रेय डिप्टी कमिश्नर बर्नार्ड को जाता है। सन् 1939 में उन्होंने कोटद्वार के लिए एक प्लान तैयार किया, जो वर्ष 1943 में कार्यान्वित हो पाया। इसमें जीएमओयू के संस्थापक उमानंद बड़थ्वाल का भी योगदान रहा। वर्ष 1949 में नोटिफाइड एरिया कमेटी बनने के बाद वर्ष 1951 में कोटद्वार नगर का प्रबंधन नगर पालिका समिति के हाथ में आ गया। तब कोटद्वार की आबादी 8148 थी।  धीरे-धीरे कोटद्वार की तरक्की के द्वार खुलते गए और यह एक सुविधा-संपन्न शहर बनता चला गया। आज कोटद्वार गढ़वाल ही नहीं उत्तराखंड का भी प्रमुख शहर है।

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Monday, 8 January 2024

शीतकाल में भी जागृत हैं देवभूमि के ईष्ट

जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर

शीतकाल में भी जागृत हैं देवभूमि के ईष्ट
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दिनेश कुकरेती
हिमालय की शीतकालीन चारधाम यात्रा गतिमान है और घंटा-घड़ियाल की गूंज से आलोकित हो रहे हैं चारों धाम के शीतकालीन पड़ाव। हालांकि, उचित प्रचार-प्रसार न होने के कारण शीतकालीन यात्रा के बारे में बहुत लोगों को जानकारी नहीं है, बावजूद इसके देश के विभिन्न स्थानों से श्रद्धालु शीतकालीन गद्दीस्थलों में दर्शन को पहुंच रहे हैं। शीतकाल के छह महीने भगवान बदरी विशाल की पूजा चमोली जिले में स्थित योग-ध्यान बदरी मंदिर पांडुकेश्वर व नृसिंह मंदिर जोशीमठ, बाबा केदार की पूजा रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ और मां गंगा व देवी यमुना की पूजा क्रमश: उत्तरकाशी जिले में स्थित गंगा मंदिर मुखवा (मुखीमठ) और यमुना मंदिर खरसाली (खुशीमठ) में होती है। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि इन स्थानों की यात्रा का भी चारधाम सरीखा ही माहात्म्य है। इसलिए जो तीर्थयात्री किन्हीं कारणों से चारधाम नहीं पहुंच पाते, उन्हें शीतकालीन में गद्दी स्थलों पर दर्शन करने चाहिएं। इस यात्रा के दौरान प्रकृति की सुंदरता को निहारने के साथ आप आसपास स्थित खूबसूरत पर्यटन स्थलों का दीदार भी कर सकते हैं। ...तो आइए! शीतकालीन चारधाम यात्रा पर चलें-
पांडुकेश्वर स्थित योग-ध्यान बदरी मंदिर


योग-ध्यान बदरी पांडुकेश्वर और नृसिंह मंदिर जोशीमठ
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जोशीमठ-बदरीनाथ हाइवे पर बदरीनाथ धाम से 18 किमी पहले और जोशीमठ से 24 किमी आगे पांडुकेश्वर स्थित योग-ध्यान बदरी मंदिर में भगवान नारायण के प्रतिनिधि के रूप में उनके बालसाख उद्धवजी व देवताओं के खजांची कुबेरजी की पूजा होती है। चमोली जिले में समुद्रतल से 1920 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर पंच बदरी मंदिरों में से एक है, जिसकी स्थापना पांडवों के पिता राजा पांडु द्वारा की गई बताई जाती है। जबकि, जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर में आदि शंकराचार्य की गद्दी और भगवान के वाहन गरुड़जी की पूजा होती है। मान्यता है कि पांडवों ने अपनी स्वर्गारोहिणी यात्रा के दौरान जोशीमठ में नृसिंह मंदिर की स्थापना की थी, जबकि आदि शंकराचार्य ने यहां भगवान नृसिंह का विग्रह स्थापित किया। ऐसा भी कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में राजा ललितादित्य ने अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान नृसिंह मंदिर का निर्माण किया। कुछ वर्ष पूर्व श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति ने पुराने नृसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार किया है, जो उत्तराखंड का तीसरा सबसे ऊंचा मंदिर है। शीतकालीन यात्रा के दौरान श्रद्धालु पांडुकेश्वर से सात किमी पहले जोशीमठ की ओर हनुमान चट्टी, जोशीमठ के ठीक नीचे विष्णु प्रयाग, जोशीमठ में आदि शंकराचार्य की तपस्थली शंकराचार्य मठ और जोशीमठ से 14 किमी दूर स्थित औली व संजीवनी शिखर की सैर भी कर सकते हैं।

ऊखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर


ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ
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रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर अतिप्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर है। जिला मुख्यालय रुद्रप्रयाग से 41 किमी दूर समुद्रतल से 1311 मीटर की ऊंचाई पर ऊखीमठ में स्थित यह मंदिर न केवल भगवान केदारनाथ, बल्कि द्वितीय केदार मध्यमेश्वर का शीतकालीन गद्दीस्थल भी है। पंचकेदार की दिव्य मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित होने के कारण इसे पंचगद्दी स्थल भी कहा गया है। ओंकारेश्वर अकेला मंदिर न होकर मंदिरों का समूह है, जिसमें वाराही देवी मंदिर, पंचकेदार लिंग दर्शन मंदिर, पंचकेदार गद्दीस्थल, भैरवनाथ मंदिर, चंडिका मंदिर, हिमवंत केदार वैराग्य पीठ, विवाह वेदिका व अन्य मंदिरों समेत समेत संपूर्ण कोठा भवन शामिल हैं। उत्तराखंड के मंदिरों में क्षेत्रफल और विशालता के लिहाज से यह सर्वाधिक विशाल मंदिर समूह है। पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार प्राचीनकाल में ओंकारेश्वर मंदिर के अलावा सिर्फ काशी विश्वनाथ (वाराणसी) और सोमनाथ मंदिर में ही धारत्तुर परकोटा शैली उपस्थित थी। हालांकि, बाद में आक्रमणकारियों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। उत्तराखंड में भी अधिकांश प्रसिद्ध मंदिर या तो कत्यूरी शैली में निर्मित हैं या फिर नागर शैली में। यात्रा के दौरान श्रद्धालु चोपता, दुगलबिट्टा, देवरियाताल जैसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों की सैर भी कर सकते हैं। इसके अलावा त्रियुगीनारायण व कालीमठ जैसे प्रमुख तीर्थ स्थलों के दर्शनों को भी आसानी से पहुंचा जा सकता है।

मुखवा स्थित गंगा मंदिर


गंगा मंदिर मुखवा
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भागीरथी नदी के किनारे और हिमालय की गगनचुंबी सुदर्शन, बंदरपूंछ, सुमेरू और श्रीकंठ चोटियों की गोद में समुद्रतल से 8000 फीट की ऊंचाई पर स्थित मुखवा को शीतकालीन प्रवास स्थल होने के कारण गंगा का मायका भी कहा जाता है। यहां की खूबसूरत वादियां, देवदार के घने जंगल, चारों ओर बिखरा सौंदर्य, हिमाच्छादित चोटियां, पहाड़ों पर पसरे हिमनद और मुखवा की तलहटी में शांत भाव से कल-कल बहती भागीरथी का सम्मोहन हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। मुखवा गंगोत्री धाम के तीर्थ पुरोहितों का गांव भी है। शीतकाल में मां गंगा की भोगमूर्ति विराजमान होने के कारण मुखवा को मुखीमठ भी कहा जाता है। इस गांव में 450 परिवार रहते हैं, जिनमें से  अधिकांश शीतकाल के दौरान जिला मुख्यालय उत्तरकाशी के आसपास निवास करते हैं। मुखवा गांव के परंपरागत शिल्प से तैयार लकड़ी के मकान अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध हैं। 19वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी फ्रेडरिक विल्सन के बनाए हुए मकान यहां आज भी विद्यमान हैं। इस यात्रा के दौरान श्रद्धालु मुखवा गांव से 500 मीटर दूर धराली गांव में कल्पकेदार मंदिर, मुखवा के ही निकट विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल हर्षिल और यहां स्थित हरि शिला, मुखवा से चार किमी दूर बगोरी गांव के लाल देवता मंदिर आदि का सामीप्य भी पा सकते हैं।

खरसाली स्थित यमुना मंदिर


यमुना मंदिर खरसाली
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उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित खरसाली गांव यमुना नदी के किनारे सुरम्य वादियों में बसा हुआ है। शीतकालीन प्रवास स्थल होने के कारण खरसाली गांव को यमुना का मायका भी कहा जाता है। यहां यमुना मंदिर भव्य स्वरूप में है। गांव के बीच में यमुना के भाई शनिदेव का भी पौराणिक मंदिर भी है, जिसे पुरातत्व विभाग ने 800 वर्ष से अधिक पुराना बताया है। खरसाली से बंदरपूंछ, सप्तऋषि, कालिंदी, माला व भीम थाच जैसी चोटियों के दर्शन भी होते हैं। शीतकाल के दौरान आसपास की पहाड़ियां बर्फ की धवल चादर ओढ़े रहती हैं। जनवरी के दौरान खरसाली में भी जमकर बर्फबारी होती है, जिसका आनंद उठाने के लिए पर्यटक और यमुना घाटी के ग्रामीण बड़ी संख्या में यहां पहुंचते हैं। यमुनोत्री धाम के तीर्थ पुरोहित भी इसी गांव के निवासी हैं। खरसाली से यमुनोत्री धाम की दूरी छह किमी है, जबकि जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से खरसाली की दूरी 134 किमी। यमुनोत्री के तीर्थ पुरोहित पुरुषोत्तम उनियाल कहते हैं कि इस यात्रा के दौरान आप खरसाली से एक किमी की दूरी पर जानकीचट्टी स्थित मार्कंडेय मंदिर, जानकीचट्टी के पास नारायणपुरी में भगवान नारायण मंदिर के दर्शन को भी आसानी से पहुंच सकते हैं।

मुखवा (मुखीमठ)


ठंड से बचाव जरूरी
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चारों गद्दीस्थलों पर दिसंबर से फरवरी के बीच जोरदार ठंड पड़ती है। साथ ही बर्फबारी होना भी सामान्य बात है। खरसाली व मुखवा में तो कई-कई दिन तक बर्फ पिघलती ही नहीं। ऐसे में ठंड से बचाव के लिए गर्म कपड़े जरूर साथ लेकर आएं। हालांकि, दिन का मौसम इन स्थानों पर बेहद खुशगवार रहता है। इसलिए गुनगुनी धूप का आनंद लेने के लिए भी मैदानी क्षेत्र से बड़ी संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं।

खरसाली (खुशीमठ)


स्थानीय खानपान का जायका
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चारों शीतकालीन पड़ावों पर होटल, धर्मशाला व होम स्टे की कमी नहीं है। शीतकाल में यहां कमरे आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। श्रद्धालु होम स्टे में ठहरकर स्थानीय भोजन का भी जायका ले सकते हैं। इसमें स्थानीय स्तर पर उत्पादित होने वाले आलू के गुटखे, मंडुवा, फाफरा व चौलाई की रोटी, चौलाई का हलुवा, झंगोरे का भात व खीर, गहत की दाल व फाणू, चैंसू, राजमा की दाल व राई की सब्जी प्रमुख हैं।

विष्णु प्रयाग


ऐसे पहुंचें
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चारों गद्दीस्थल पहुंचने के लिए निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट (देहरादून) और निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश में पड़ता है। सभी पड़ाव सीधे मोटर मार्ग से जुड़े हुए हैं, इसलिए ऋषिकेश से सार्वजनिक व निजी वाहनों के जरिये आसानी से यहां पहुंचा जा सकता है।

जोशीमठ